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यह योजना महज चुनावी कार्यक्रम नहीं बल्कि व्यापारियों का मुनाफा और बढ़ाने की योजना है

यह बात सही है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पी.डी.एस.) में कई कमियाँ हैं। सबसे बड़ी कमी है ग़रीबी रेखा का निर्धारण ही सही तरीके से नहीं किया गया है। मौजूदा ग़रीबी रेखा हास्यास्पद है। उसे भुखमरी रेखा कहना अधिक उचित होगा। पौष्टिक भोजन के अधिकार को जीने के मूलभूत संवैधानिक अधिकार का दर्जा दिया जाना चाहिए तथा इसके लिए प्रभावी क़ानून बनाये जाने चाहिए। इसके लिए ज़रूरी है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली का ही पुनर्गठन किया जाए और अमल की निगरानी के लिए जिला स्तर तक प्रशासनिक अधिकारी के साथ-साथ लोकतान्त्रिक ढंग से चुनी गयी नागरिक समितियाँ हों। पर किसी पूँजीवादी व्यवस्था से ऐसी उम्मीद कम ही है; भारत समेत पूरी दुनिया जिस आर्थिक मंदी से गुज़र रही है ऐसे समय में ऐसी नीतियों का बनना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। इस देश के आम लोगों के लिए खाद्य सुरक्षा को सही मायने में लागू करवाने के लिए छात्र-नौजवानों और नागरिकों का दायित्व है कि ऐसी योजनाओं की असलियत को उजागर करते हुए देश की जनता को शासक वर्ग की इस धूर्ततापूर्ण चाल के बारे में आगाह करें जिससे कि एक कारगर प्रतिरोध खड़ा किया जा सके।

अब हर हाथ में फउन होगा!

पिछले कुछ साल के दौरान रिकार्डतोड़ घोटाले हुए। लाखों टन अनाज सड़ गया पर लोग भूख से मरते रहे। स्वास्थ्य सेवा के अभाव में भी कई लोग मारे गये। अच्छे स्कूल नहीं होते जिसमें गुणवत्ता वाली शिक्षा प्राप्त हो सके। बड़ी आबादी के सिर के ऊपर छत नहीं है। ऐसे में, जनता को मोबाइल नहीं जीवन की बुनियादी ज़रूरतें चाहिए। लेकिन सरकार भी यह योजना इसलिए लेकर नहीं आयी है कि कोई वास्तविक समस्या हल हो। वह तो इस योजना को महज़ इसलिए लेकर आयी है कि व्यवस्था का भ्रम कुछ और दीर्घजीवी हो जाये। लेकिन हताशा में उठाये गये ऐसे कदमों से कोई भ्रम भी नहीं पैदा होगा और ग़रीबी, बेघरी और भुखमरी का दंश झेल रही जनता इसे अपने साथ एक भद्दा मज़ाक ही समझेगी। जिन नौजवानों को यह बात समझ में आती है, उन्हें जनता के बीच उतरकर इस सच्चाई को समझाना चाहिए।

विकास करता भारत! मगर किसका??

शिक्षा व्यवस्था ऐसी है कि आम आदमी के लिए उच्चशिक्षा आकाश-कुसुम की अभिलाषा के समान है। बारहवीं पास करने वाले सारे बच्चों में से केवल 7 प्रतिशत उच्च शिक्षा तक पहुँच पाते हैं। बड़े घर के बच्चे ही ऊँचे पद और ऊँची शिक्षा पा रहे हैं। 84 करोड़ ग्राहक जो 20 रुपये प्रति दिन की आय पर जीते हैं उसके लिए ‘जागो ग्राहक जागो’ नारे के बदले ‘भागो ग्राहक भागो’ होना चाहिए! सर्वशिक्षा अभियान के ‘सब पढ़ें, सब बढ़ें’ की जगह सही नारा होना चाहिए ‘कुछ पढ़ें, कुछ बढ़ें और बाकी मरें’! मनरेगा के तहत जो रोज़गार की बात सरकार करती है वह सरासर मज़ाक है। मनरेगा वास्तव में गाँवों में मौजूद नौकरशाही के लिए कमाई करने का अच्छा ज़रिया है। इसकी सच्चाई लगभग सभी राज्यों में उजागर हो चुकी है। दरअसल सरकार और व्यवस्था की चाकरी करने वाले मीडिया के ‘‘विकास’’ का सारा शोरगुल इस व्यवस्था द्वारा पैदा आम जन के जीवन की तबाही और बरबादी को ढकने के लिए धूम्र-आवरण खड़ा करता है। विकास के इन कथनों के पीछे अधिकतम की बर्बादी अन्तर्निहित होती है।

पूँजीवादी स्वर्ग के तलघर की सच्चाई

ग़रीबी रेखा सम्बन्धी प्राप्त आकड़ों के अनुसार 34 करोड़ की कुल अमेरिकी जनसंख्या में करीब 5 करोड़ लोग ग़रीबी-रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रहे हैं और अन्य 10 करोड़ इस बस ऊपर ही है, यानी करीब आधी आबादी भयंकर ग़रीबी का शिकार है। खाद्य उपलब्धता सम्बन्धी आँकड़ों के बारे में अमेरिकी सरकार के कृषि विभाग के अनुसार हर चार में एक अमेरिकी नागरिक भोजन सम्बन्धी दैनिक ज़रूरतों के लिए राज्य सरकार एवं विभिन्न दाता एंजेसियों द्वारा चलाये जा रहे खाद्य योजनाओं पर निर्भर है, क्योंकि वह अपनी आय से दो जून की रोटी ख़रीद पाने में अक्षम है। अगर शिक्षा की बात की जाये तो एक उदाहरण के जरिये चीज़ें समझना ज़्यादा आसान होगा। बर्कले विश्वविद्यालय का एक छात्र, आज करीब 11,160 डॉलर प्रति वर्ष शिक्षा शुल्क के तौर पर अदा करता है; आज से दस साल पहले वो 2,716 डॉलर ख़र्च करता था और उम्मीद है कि 2015-16 तक वह 23,000 डॉलर अदा करेगा।

देश की मेहनतक़श ग़रीब जनता के साथ एक भद्दा मज़ाक

लेकिन सवाल यह उठता है कि जिस देश में 80 प्रतिशत आबादी भरपेट खाने के लिए आवश्यक संसाधनों का भी बड़ी मुश्किल से इन्तज़ाम कर पाती हो; जहाँ भूखों, नंगों, बेघरों, बेरोज़गारों की फौज़ दिन-ब-दिन विशाल होती जा रही हो, वहाँ मुट्ठी-भर अमीरज़ादों के विलासितापूर्ण मनबहलाव के लिए धन की ऐसी बेहिसाब बर्बादी क्या देश की मेहनतकश ग़रीब आबादी के साथ किया गया एक अक्षम्य अपराध नहीं है? और ख़ासकर दलित वोट से चुनकर उ.प्र. की मुख्यमन्त्री बनी मायावती, जिनको कि दलितों के उत्थान के एक उदाहरण के रूप में दिखाया जाता है, से पूछा जाना चाहिए कि क्या उनकी सरकार यह सब दलित उत्थान के लिए कर रही है?

ग़रीबी रेखा के निर्धारण का दर्शन, अर्थशास्त्र और राजनीति

1973-74 के बाद सरकार ने कभी भी सीधे तौर पर नहीं देखा कि देश के कितने प्रतिशत लोग 2100/2400 किलो कैलोरी से कम उपभोग कर पा रहे हैं। उसने बस 1974 की ग़रीबी रेखा को कीमत सूचकांक में होने वाले परिवर्तनों के अनुसार संशोधित करना जारी रखा। नतीजा यह है कि आज योजना आयोग रु.26/रु.32 प्रतिदिन की ग़रीबी रेखा पर पहुँच गया है! साफ़ है कि देश के शासक वर्ग ने बहुत ही कुटिलता के साथ एक ऐसी पद्धति अपनायी जो कि ग़रीबी को कम करके दिखला सके। यह पद्धति शुरू के 10 वर्षों तक अपना काम कर सकती थी; लेकिन उसके बाद यह बेतुकेपन के प्रदेश में प्रवेश कर गयी। आज साफ़ नज़र आ रहा है कि ऐसी ग़रीबी रेखा पर सिर्फ हँसा जा सकता है। इसके लिए अर्थव्यवस्था के बहुत गहरे ज्ञान की ज़रूरत नहीं है। वास्तव में, जिन्हें बहुत गहरा “ज्ञान” है, वही यह धोखाधड़ी का काम कर रहे हैं। जैसे कि मनमोहन-मोण्टेक की जोड़ी! वास्तव में, बुर्जुआ अर्थशास्त्र के ज्ञान का मुख्य काम ही इस प्रकार की जालसाजियाँ करना होता है।

शिवराज उवाच – ”मध्यप्रदेश में फ़ायदेमन्द निवेश के लिए आपका स्वागत है“

मध्यप्रदेश में अब तक 80530 करोड़ के निवेश का नतीजा सामने यह आया है कि जहाँ एक तरफ पूँजीपति संसाधनों का दोहन व मज़दूरों के शोषण से अकूत मुनाफा कमा रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ आम आबादी के ये हालात हैं कि कुपोषण से ग्रसित कुल बच्चों का प्रतिशत 1998-99 में 53.3 से बढ़कर 2008-09 में 60.3 पहुँच गया है तथा ख़ुद सरकारी आँकड़ों से ही म.प्र. में 12,2416 बच्चे भूख व कुपोषण से दम तोड़ चुके हैं जो कुल बाल आबादी का 60 फीसदी है। यह स्वयं म.प्र. के स्वास्थ्य मन्त्री अनूप मिश्रा का कहना है।

चुनावी पार्टियों के अरबों की नौटंकी भी नहीं रोक सकी महँगाई डायन के कहर को!

महँगाई के विरोध में भाजपा द्वारा आयोजित रैली के एक दिन पहले मैं अपने कुछ मित्रों के साथ नयी दिल्ली स्टेशन जा रहा था। पूरा शहर मानो भगवा रंग में डुबो दिया गया था। सड़कों, गलियों, दीवारों को बड़े-बड़े होर्डिंग, पोस्टर, वाल राइटिंग, झण्डे और चमचमाते चमकियों से पाट दिया गया था। अख़बारों के पन्ने का भी रंग रैली के विज्ञापनों से सराबोर था। स्टेशन का दृश्य भी कुछ वैसा ही था। जगह-जगह स्वागत डेस्क और सहायता डेस्क लगे हुए थे जहाँ पर कार्यकर्ता चमकते-दमकते कपड़ों में जूस और स्वादिष्ट व्यंजनों का रसास्वदन कर रहे थे। उन्हें देखने से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि महँगाई का ज़रा भी असर उनकी सेहत पर नहीं था, उल्टे कुछ की तो कुम्भकरणा स्वरूपम काया थी जिसे देखकर तो मँहगाई डायन भी मूर्छित हो जाती! प्लेटफार्म पर खड़े कुछ लोग बता रहे थे कि कई जगहों से पूरी ट्रेन रिज़र्व होकर रैली के लिए आ रही है। वहीं मज़दूरों की छोटी-बड़ी टोलियाँ भी स्वागत डेस्क के करीब से गुज़र रही थी। यह वह आबादी थी जिस पर मँहगाई डायन ने अपना कहर बरपाया है, जिसे यह भव्य आयोजन खाये-पिये व्यक्ति के द्वारा आयोजित एक भव्य नौटंकी से ज़्यादा कुछ नहीं दिखायी पड़ता होगा।

ग़रीबी के बढ़ते समुद्र में अमीरी के द्वीप

भारत में बढ़ती ग़रीबी की सच्चाई बताने के लिए शायद ही आँकड़ों और रिपोर्टों की ज़रूरत पड़े। देश के नगरों-महानगरों में करोडों की तादाद में गाँव-देहात से उजड़कर आयी ग़रीब आबादी को राह चलते देखा जा सकता है। लेकिन फिर भी शासक वर्ग सूचना तन्त्र के माध्यम से ‘विकास’ के आँकड़े (जैसे – जीडीपी, सेंसेक्स की उछाल) दिखाकर आबादी में भ्रमजाल फैलाने की कोशिश करता है। ज़ाहिरा तौर पर झूठ के इस भ्रमजाल से आम आबादी भी प्रभावित होती है और एक मिथ्याभासी विकास के सपने देखती है। जबकि हकीकतन मुट्ठीभर लोगों के विकास की कीमत इस आम-आबादी को चुकानी पड़ती है।

किस चीज़ का इन्तज़ार है और कब तक?

आज पूरी पूँजीवादी व्यवस्था भयंकर संकट का शिकार है। इसके पास प्रगति की कोई सम्भावना-सम्पन्नता नहीं रह गयी है। वस्तुओं के व्यापक विश्व का सृजन करके भी यह बहुसंख्यक जनता को नर्क-सा जीवन दे रही है क्योंकि इसका मकसद बहुसंख्यक जनता का कल्याण, न्याय और समानता है ही नहीं। इसका एकमात्र लक्ष्य है लाभ! मुनाफा! किसी भी कीमत पर! इस मुनाफे की ख़ातिर पूरी दुनिया को साम्राज्यवादी युद्धों में धकेल दिया जाता है; अनाज को भूखे मरते लोगों के सामने गोदामों में सड़ा दिया जाता है; बच्चों और स्त्रियों का श्रम मण्डी में मिट्टी के मोल बिकता है; मज़दूरों का जीवन नर्क से बदतर होता जाता है; ग़रीब किसान उजड़ते हुए मुफलिसों की कतार में शामिल होते जाते हैं। यही वे नेमतें हैं जो पूँजीवाद आज हमें दे सकता है।