भारत में ग़रीबी रेखा के निर्धारण का दर्शन, अर्थशास्त्र और राजनीति
दर्शन की दरिद्रता
अभिनव
फ्रांसीसी क्रान्ति से कुछ पहले फ़्रांस की रानी मैरी एण्टॉइनेट को जब बताया गया कि लोगों के पास खाने के लिए रोटी तक नहीं है तो उसने कहा था कि अगर उनके पास रोटी नहीं तो वे केक क्यों नहीं खा लेते! इसके पहले और बाद भी तमाम शासकों ने ऐसे चमत्कारिक बयान दिये हैं। रोम के ज़ालिम हुक्मरान नीरो ने तो कुछ कहना भी ज़रूरी नहीं समझा था और जब रोम जल रहा था तो वह बांसुरी बजा रहा था। ऐसे बयान हमेशा उन शासकों की ज़ुबान से निकले हैं जिनकी व्यवस्था पतनशीलता के शिखर पर पहुँच चुकी होती है। जब 2000 के दशक की मन्दी ने पहली बार अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर अपनी वक्रदृष्टि डालनी शुरू की थी तो जॉर्ज बुश ने कहा था कि जनता जमकर ख़रीदारी क्यों नहीं करती! अगर वह जमकर ख़रीदारी करे तो मन्दी से निजात मिल जायेगी! हमारे देश के हुक्मरानों ने अपनी शैली में बार-बार ऐसे काम किये हैं। 1989-90 के दौर में जब भारतीय अर्थव्यवस्था बुरी तरह डगमगायी हुई थी, तो देश के भूख से तड़पते लोगों को संवेदनशील प्रधानमन्त्री चन्द्रशेखर ने पेट पर पट्टी बाँधकर देश के अमीरज़ादों की समृद्धि को बढ़ाने की सलाह दी थी। निश्चित रूप से देश की तरक्की उनके अनुसार धनपशुओं की तरक्की की ही पर्यायवाची थी!
भारत में मैरी एण्टॉइनेट के वंशज
अब पतनशील, मरणासन्न और मानवद्रोही हो चुकी व्यवस्था के पैरोकारों ने ऐसे ही बयानों और दावों की फेहरिस्त में एक नया इज़ाफ़ा किया है। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पूछे गये एक सवाल के जवाब में दायर एक हलफ़नामे में देश के योजना आयोग ने दावा किया कि देश में जो भी व्यक्ति गाँव में रु. 26 प्रतिदिन (रु. 781 प्रति माह) और शहर में रु. 32 प्रतिदिन (रु. 965 प्रति माह) कमा लेता है वह ग़रीब नहीं है! इस दावे का तर्कों से खण्डन करना वक़्त की बरबादी है। इसका खण्डन करने के लिए योजना आयोग के उच्च नौकरशाहों को, जिनका वेतन तमाम सुविधाओं को छोड़कर करीब रु. 80,000 है या फिर रु. 60,000 से अधिक वेतन पाने वाले सांसदों और विधायकों को रु. 26/32 की प्रतिदिन की आय पर महीने भर के लिए छोड़ देना चाहिए! और उसके बाद उनसे पूछा जाना चाहिए कि उन्होंने अपने आपको ग़रीबी रेखा से ऊपर अनुभव किया या फिर नीचे! जब इस बयान के बाद योजना आयोग की पर्याप्त फ़जीहत हुई तो फिर मोण्टेक सिंह आहलूवालिया ने बयान दिया कि इस ग़रीबी रेखा को सरकारी कल्याण योजनाओं की अर्हता पूरा करने वाले लोगों के साथ नहीं जोड़ा जाएगा। हालाँकि उसने यह भी नहीं बताया कि फिर तमाम सरकारी योजनाओं का लाभ किसे मिलेगा और किसे नहीं इसका निर्धारण कैसे किया जायेगा? इस बात से सरकार साफ़ इंकार कर रही है कि खाद्य सुरक्षा योजना और सर्वशिक्षा जैसी योजनाओं को सार्वभौमिक बना दिया जाये। यानी कि आय चाहे कितनी भी हो, हर नागरिक को इसका लाभ उठाने का अधिकार होना चाहिए। अगर इन योजनाओं का लाभ प्राप्त करने की योग्यता निर्धारित करने में ग़रीबी रेखा की कोई भूमिका नहीं होगी तो आखि़र ग़रीबी रेखा किसलिए है? ख़ासकर तब जब कि ग़रीबी रेखा का मूल आधार खाद्य सामग्री उपभोग ही था! स्पष्ट है कि मोण्टेक सिंह आहलूवालिया छीछालेदर के बाद इज़्ज़त बचाने के लिए ऊल-जुलूल बक रहा था।
मीडिया में तमाम अख़बारों और चैनलों ने योजना आयोग की ग़रीबी रेखा की इस परिभाषा का मज़ाक तो उड़ाया लेकिन साथ ही उन्होंने यह मान लिया कि इस रु. 26/32 प्रतिदिन में केवल खाने का ख़र्च शामिल है। लेकिन कम ही लोग जानते हैं कि योजना आयोग के इस आकलन में न सिर्फ खाने का ख़र्च शामिल था बल्कि भोजन पकाना, प्रकाश व्यवस्था, परिवहन, शिक्षा, चिकित्सा और घर का किराया भी शामिल था! गाँव के लिए इस रु. 26 में खाद्य और ग़ैर-खाद्य ख़र्च का अनुपात था रु. 16/रु.10 और शहर के लिए इस रु. 32 में यह अनुपात रु.18/रु.14 था। अब आप स्वयं इस एब्सर्डिटी का अन्दाज़ा लगा सकते हैं। वास्तव में, भारतीय शासक वर्ग मैरी एण्टॉइनेट और नीरो से भी बदतर होता जा रहा है। यह आज एक बारूद की ढेरी पर बैठकर फुलझड़ियाँ छोड़ रहा है।
लेकिन इस सारे बेतुकेपन का एक इतिहास है। ऐसी हास्यास्पद ग़रीबी रेखा भारत की पूँजीवादी व्यवस्था ने इसलिए बना रखी है क्योंकि वह ग़रीबों को उठाकर तो ग़रीबी रेखा के ऊपर पहुँचा नहीं सकती इसलिए ग़रीबी रेखा को ही गिराती जा रही है ताकि वह ग़रीबों की बद से बदतर होती जिन्दगी के साथ तालमेल बिठा सके। वास्तव में करीब 3 दशकों पहले योजना आयोग ने जानबूझकर ग़रीबी रेखा के साथ ऐसा खिलवाड़ किया जिससे कि हर वर्ष यह रेखा अधिक से अधिक हास्यास्पद होती जाये। इससे पहले कि हम उस भद्दे खिलवाड़ पर एक निगाह दौड़ायें, आइये ग़रीबी रेखा के निर्धारण की ग़रीबी पर एक निगाह डाल लें।
भारत में ग़रीबी रेखा का निर्धारण: दर्शन की दरिद्रता
उपनिवेशवाद ने भारत की जनता को दरिद्रता के जिस गर्त में धकेल दिया था उसके आधुनिक अध्ययन की शुरुआत 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में आर्थिक राष्ट्रवाद की शुरुआत के साथ हुई थी। उस समय बुर्जुआ राष्ट्रवादी ज़मीन पर खड़े होकर तमाम अर्थशास्त्रियों ने समृद्धि की लूट और भारतीय जनता की ग़रीबी पर आनुभविक अध्ययन किये। इनमें दादाभाई नौरोजी, आर-सी-दत्त, गोखले आदि जैसे लोग प्रमुख थे। जिन लोगों ने भारतीय जनता की ग़रीबी के बारे में पहली बार व्यवस्थित रूप में और विस्तार के साथ लिखा वे थे दादाभाई नौरोजी और गोपाल हरि देशमुख जिन्हें ‘लोकहितवादी’ भी कहा जाता था। आर्थिक राष्ट्रवाद के उदय ने भारत में राष्ट्रवाद के उदय को एक ठोस तार्किक और बौद्धिक आधार प्रदान किया। 1930 का दशक आते-आते तमाम राष्ट्रीय नेता और क्रान्तिकारी धारा के नेता जनता के बीच ग़रीबी के सवाल को लेकर उद्वेलन कर रहे थे। इस प्रक्रिया में 1936 में सुभाष चन्द्र बोस द्वारा राष्ट्रीय योजना समिति का गठन एक मील का पत्थर था। इस समिति के अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू और सचिव के-टी-शाह थे। इस समिति ने पहली बार जीवन के न्यूनतम स्तर की परिभाषा खाने और रहने की ज़रूरत के आधार पर दी। आज़ादी से पहले ग़रीबी की परिभाषा देने की दिशा में यह सबसे अहम पहल थी।
आज़ादी के बाद के कुछ ही वर्षों में आम ग़रीब जनता को यह समझ में आने लगा था कि इस आज़ादी में उन्हें बहुत कुछ हासिल नहीं हुआ है। भगतसिंह और उनके साथियों की वह भविष्यवाणी सही साबित हो रही थी कि अगर पूँजीपतियों की नुमाइन्दगी करने वाली कांग्रेस के नेतृत्व में आज़ादी आती भी है तो यह एक समझौता होगी और इसमें आम ग़रीब जनता को कुछ ख़ास नहीं मिलने वाला है। ग़रीबी की हालत आज़ादी के बाद भी बहुसंख्यक जनता के लिए भयंकर और असह्य थी। इस पर निश्चित रूप से पूँजीवादी राजनीति के दायरे के भीतर भी कुछ हल्ला मचाना ज़रूरी था। वोट की राजनीति के समीकरण वैसे भी शासक वर्ग के विभिन्न गुटों बीच के अन्तरविरोधों के चलते कई ऐसे मुद्दे एजेण्डा पर लेते आते हैं जो वास्तव में जनता के जीवन पर फ़र्क डालते हैं। भारतीय पूँजीवादी चुनावी राजनीति में पहली बार ग़रीबी एक बड़ा मुद्दा बनकर तब उभरा जब राम मनोहर लोहिया ने 1950 के दशक में संसद में इसके बारे में भावनात्मक बयान दिया और नेहरू के जीवन स्तर पर टीका करते हुए कहा कि आम ग़रीब भारतीय की प्रतिदिन आय नेहरू के पालतू कुत्ते पर हर दिन होने वाले ख़र्च से भी कम है। लेकिन इसका जवाब नेहरू ने विवेकपूर्ण ढंग से देते हुए तथ्यों को स्वीकार किया और 6 लोगों की एक समिति ग़रीबी रेखा के निर्धारण के लिए बनायी। इस समिति में बड़े-बड़े विद्वान थे। साफ़ है कि उस समय भारतीय पूँजीवादी राजनीति पतन और नग्नता के उस स्तर पर नहीं पहुँची थी, जिस पर वह आज है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि इससे उसके चरित्र में कोई बहुत ज़्यादा फ़र्क आता है। स्पष्ट है कि इन सभी समितियों और आयोगों के बिठाये जाने के बावजूद आज़ादी के बाद से भारत की मेहनतकश जनता की ग़रीबी में बढ़ोत्तरी ही हुई है। बहरहाल, उपरोक्त समिति की रपट के आधार पर भारतीय योजना आयोग ने उस समय रु. 20 प्रति माह की ग़रीबी रेखा तय की। यह बात काफ़ी रहस्यमय लगती है कि समिति इस ग़रीबी रेखा पर कैसे पहुँची। इसका कोई ब्यौरा कहीं नहीं मिलता है। स्पष्ट है कि यह ठोस तथ्यात्मक आनुभविक अध्ययन नहीं था।
1971 में ग़रीबी का पहला तथ्यात्मक अध्ययन किया गया। यह अध्ययन वी-एम- दाण्डेकर व नीलकण्ठ रथ द्वारा किया गया था और एक अंग्रेज़ी पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। इन विद्वानों ने ग़रीबी की परिभाषा देते हुए कहा कि हर उस व्यक्ति को ग़रीब माना जाना चाहिए जो दो वक़्त का पर्याप्त भोजन नहीं प्राप्त कर पाता। यह परिभाषा अपने आप में पर्याप्त नहीं है। यह ग़रीबी नहीं बल्कि उत्तरजीविता (सर्वाइवल) स्तर की परिभाषा होनी चाहिए। क्योंकि यह परिभाषा यह मानती है कि एक ग़रीब आदमी के लिए महज़ जीवित रहना काफ़ी है। उसे शिक्षा, चिकित्सा, परिवहन, आवास आदि जैसी चीज़ों की कोई ज़रूरत नहीं है। बहरहाल, इस समिति ने तय किया कि एक औसत भारतीय को पोषणकारी आहार के लिए 2,250 किलो कैलोरी की आवश्यकता प्रतिदिन होती है। इस निष्कर्ष का नतीजा उस समय के प्रसिद्ध सांख्यिकी विद्वान पी-वी- सुखात्मे का अध्ययन था। दाण्डेकर और रथ ने माना कि जो परिवार इतनी आमदनी नहीं रखते कि अपने हर सदस्य को इतना पोषण प्रतिदिन दे सकें, उन्हें ग़रीब माना जाना चाहिए।
इसके बाद 1961-62 के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के आँकड़ों के आधार पर ऐसे परिवारों की संख्या का आकलन किया गया। सरकार ने 1973-74 में इस आधार पर यह नतीजा निकाला कि इतने खाद्य उपभोग के लिए गाँव में प्रतिदिन की आय रु. 49 और शहर में प्रतिदिन की आय रु. 56 होनी चाहिए। यह आखि़री मौका था जब योजना आयोग ने सीधे-सीधे न्यूनतम आवश्यक खाद्य सामग्री का आकलन करते हुए उसे समकालीन कीमतों के अनुसार न्यूनतम आय में रूपान्तरित किया था। 1974 के बाद से हर पाँच वर्ष पर उपभोग खर्च को आकलित किया जायेगा। लेकिन 1979 से योजना आयोग ने हर बार न्यूनतम आवश्यक भोजन का नये सिरे से ख़र्च निकाल कर ग़रीबी रेखा तय करने की बजाय पुरानी ग़रीबी रेखा का कीमत सूचकांकों के साथ समाकलन शुरू कर दिया। अगर पुरानी ग़रीबी रेखा को ही कीमत सूचकांक में आने वाले परिवर्तनों के साथ समाकलित किया जाय तो शुरू के तीन-चार वर्षों तक ग़रीबी रेखा की परिभाषा कामचलाऊ दिख सकती है, लेकिन उसके बाद यह बेकार होती जायेगी। यही हुआ है। कारण यह है कि कीमत सूचकांक हर उस कारक पर विचार नहीं करता जो कि ग़रीबी रेखा के संशोधन में ध्यान में रखे जाने चाहिए। कीमत सूचकांकों का इस्तेमाल सिर्फ कर्मचारियों के महँगाई भत्ते में संशोधन के लिए किया जा सकता है क्योंकि वह सिर्फ बाज़ार में चीज़ों की कीमतों में होने वाली घटती-बढ़ती पर निगाह रखता है, वह भी आंशिक रूप से। अगर सरकारी कर्मचारियों के वेतन में बढ़ोत्तरी के लिए भी सिर्फ कीमत सूचकांक के आधार पर की जाती तो 1973 में जिस सरकारी कर्मचारी की तनख्वाह रु. 1000 थी, वह आज मात्र रु. 17,000 होती; लेकिन यह आज करीब रु. 51,000 है।
1973-74 के बाद सरकार ने कभी भी सीधे तौर पर नहीं देखा कि देश के कितने प्रतिशत लोग 2100/2400 किलो कैलोरी से कम उपभोग कर पा रहे हैं। उसने बस 1974 की ग़रीबी रेखा को कीमत सूचकांक में होने वाले परिवर्तनों के अनुसार संशोधित करना जारी रखा। नतीजा यह है कि आज योजना आयोग रु.26/रु.32 प्रतिदिन की ग़रीबी रेखा पर पहुँच गया है! साफ़ है कि देश के शासक वर्ग ने बहुत ही कुटिलता के साथ एक ऐसी पद्धति अपनायी जो कि ग़रीबी को कम करके दिखला सके। यह पद्धति शुरू के 10 वर्षों तक अपना काम कर सकती थी; लेकिन उसके बाद यह बेतुकेपन के प्रदेश में प्रवेश कर गयी। आज साफ़ नज़र आ रहा है कि ऐसी ग़रीबी रेखा पर सिर्फ हँसा जा सकता है। इसके लिए अर्थव्यवस्था के बहुत गहरे ज्ञान की ज़रूरत नहीं है। वास्तव में, जिन्हें बहुत गहरा “ज्ञान” है, वही यह धोखाधड़ी का काम कर रहे हैं। जैसे कि मनमोहन-मोण्टेक की जोड़ी! वास्तव में, बुर्जुआ अर्थशास्त्र के ज्ञान का मुख्य काम ही इस प्रकार की जालसाजियाँ करना होता है।
बहरहाल, जब यह ग़रीबी रेखा पर्याप्त हास्यास्पद नज़र आने लगी तो सरकारों ने दिखावे के लिए कुछ और समितियाँ और आयोग बिठाये; ताकि, योजना आयोग और सरकार की इस हास्यपूर्ण स्थिति पर कुछ पर्दा डाला जा सके।
1991 में लकड़ावाला समिति बिठायी गयी। यह वही समय था जब नरसिंह राव और मनमोहन सिंह के नेतृत्व में भारतीय पूँजीवाद ने निजीकरण, उदारीकरण और भूमण्डलीकरण के रास्ते पर कदम बढ़ाया था। इस समिति ने 1993 में अपने रपट पेश की जिसे योजना आयोग ने स्वीकार कर लिया। इसका कारण यह था कि इस समिति ने ग़रीबी रेखा के निर्धारण में जारी चार सौ बीसी को स्वीकार किया और नयी किस्म की जालसाजियों के लिए रास्ता साफ़ किया। इसने कैलोरी मानक को स्वीकार किया और 1973-74 के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आँकड़ों को आधार बनाया। इसमें एक चालाकी थी। ये आँकड़े एक ख़ास सरकारी विभाग के कहने पर एकत्र किये गये थे और सिर्फ़ नौ महीनों के थे। इसके कारण ये ग़रीबी के सभी पहलुओं पर विचार नहीं करते थे। इसके अलावा इस समिति ने पूरे देश में शहरों और गाँवों के लिए अलग-अलग तरह से ग़रीबी रेखा के आकलन का सुझाव दिया। वास्तव में राज्य के ग़रीबी के आँकड़ों को अलग-अलग निकाला जाना चाहिए था और फिर उन्हें जोड़कर राष्ट्रीय पैमाने की ग़रीबी रेखा तैयार की जानी चाहिए थी। लेकिन यह करने की बजाय राज्यों के ग़रीबी के आँकड़ों के औसत का आकलन कर दिया गया। यह मज़ाकिया इसलिए था क्योंकि राज्य के ग़रीबी के आँकड़ों को जोड़ने में कैलोरी मानक को उपयोग नहीं किया गया था! लकड़ावाला समिति ने कीमत सूचकांक द्वारा ग़रीबी रेखा के संशोधन को भी मान्यता दे दी। लेकिन यह सारा खेल जल्द ही बेनक़ाब हो गया और यह साफ़ हो गया कि लकड़ावाला समिति ने वास्तव में सरकारी गोरखधन्धे को बौद्धिक मान्यता प्रदान करने का काम किया है।
हालिया तेन्दुलकर समिति ने कुछ ज़रूरी बदलाव कर थोड़ी इज़्ज़त बचाने की कोशिश की। इस समिति ने राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के ताज़ा आँकड़ों के कीमत सूचकांकों का उपयोग किया और कैलोरी मानक पर निर्भरता को कम किया। लेकिन तेन्दुलकर समिति ने ग़रीबी रेखा के रहने वाली ग़रीब आबादी के आखि़री आँकड़े को स्वीकार किया और फिर उसमें प्रति व्यक्ति शिक्षा व स्वास्थ्य के मदों में होने वाले ख़र्च को जोड़कर नयी ग़रीबी रेखा बनायी। इसी को राष्ट्रीय पैमाने की आम ग़रीबी रेखा माना गया और उसे राज्यों में होने वाले बदलावों के साथ समाकलित कर लिया गया। इस ग़रीबी रेखा के आधार पर समिति ने कैलोरी उपभोग की स्थिति पर ग़ौर किया और पाया कि शहरी क्षेत्रें में प्रति व्यक्ति उपभोग 1800 किलो कैलोरी से कम और ग्रामीण क्षेत्रें में यह 2000 किलो कैलोरी से भी कम है। लेकिन बजाय इस नयी सूचना के अनुसार ग़रीबी रेखा को दुरुस्त करने के, पहले से तय ग़रीबी रेखा के अनुसार कैलोरी उपभोग मानक को ही नीचे कर दिया गया! और इसके पक्ष में यह दलील दी गयी कि फूड एण्ड एग्रीकल्चर ऑर्गनाइज़ेशन के नये मानक के अनुसार खाद्य सामग्रियों के बारे में लोगों की पसन्द बदलने के कारण कुल कैलोरी उपभोग में कमी आयी है। जाहिर है कि संयुक्त राष्ट्र का यह संगठन दुनिया में बढ़ती ग़रीबी को ऐसे ही व्याख्यायित करेगा ताकि पूँजीवाद के अपराधों पर पर्दा डाला जा सके। तेन्दुलकर समिति का सबसे बड़ा फर्जीवाड़ा यह था कि उसने 2004-05 में शहरों में ग़रीबी रेखा के नीचे जी रहे लोगों को ही ग़रीबी रेखा की मान्यता दे दी, जबकि वह जानती थी कि पिछले करीब तीन दशकों से ग़लत जोड़-घटाव और हेरा-फेरी के जरिये ये आँकड़े हासिल हुए हैं। उसे 1973-74 के आँकड़ों को आधार आँकड़ा मानकर ग़रीबी रेखा में संशोधन करने चाहिए थे।
यह कहानी है अब तक भारत में ग़रीबी रेखा के निर्धारण के अर्थशास्त्र, राजनीति और दर्शन की जो कि स्वयं बुद्धि की ग़रीबी रेखा के काफ़ी नीचे है! योजना आयोग द्वारा हाल में दायर हलफ़नामे के चमत्कारी दावे के पीछे यही चमत्कारी पद्धति है, जिसका मक़सद ग़रीबों की सही संख्या का सही आकलन कर उनकी बेहतरी की उचित योजना बनाना नहीं है। इसका लक्ष्य ग़रीबों को ऊपर ले जाना नहीं है, क्योंकि मनमोहन-मोण्टेक की सोच में अमीरों को और अमीर बनाया जाये तो किसी प्रच्छन्न हस्त गतिकी के द्वारा ग़रीब स्वयं ही समृद्ध हो जायेंगे! इसलिए उनकी सारी नीतियों का लक्ष्य होता है अमीरों को और अधिक अमीर बनाना। ये ग़रीबों को तो ऊपर ले जा नहीं सकते, लिहाज़ा इनकी सारी कसरत ग़रीबी रेखा के निर्धारण में इसलिए होती है कि ग़रीबी रेखा को तरह-तरह की जालसाज़ी और चार सौ बीसी के जरिये नीचे ले आना, भले ही वह हास्यास्पद दिखने लगे।
ग़रीबी की वास्तविक स्थिति: एक संक्षिप्त दृष्टि
अब जबकि हम ग़रीबी रेखा निर्धारण के इतिहास के जरिये भारत के पूँजीवादी शासक वर्ग के फ्रॉड को जान चुके हैं तो यह जानना भी ज़रूरी है कि 2020 में महाशक्ति बनने का दावा रखने वाले इस देश में ग़रीबों की वास्तविक स्थिति क्या है। अगर एक निगाह ग़रीबी, भुखमरी, कुपोषण, नवजात मृत्यु दर, आदि जैसे मानकों पर डालें तो हम गर्व से कह सकते हैं कि हम तो पहले से ही दुनिया में महाशक्ति का दर्जा रखते हैं! आइये देखें, कैसे।
मौजूदा हास्यास्पद सरकारी ग़रीबी रेखा के भी मुताबिक इस समय करीब 45 करोड़ लोग इस देश में ग़रीबी रेखा के नीचे जिन्दगी बिता रहे हैं। लेकिन उनका ऊर्जा, कैलोरी और प्रोटीन उपभोग न्यूनतम मानकों के बहुत अधिक नीचे है। इस आबादी में वज़न से कम बच्चों, बीमार लोगों, कुपोषित आबादी, भुखमरी की दर भयंकर है। इनके पास भोजन, स्वास्थ्य जैसी जीवनदायी या जीवनरक्षक सुविधाओं तक भी पहुँच नहीं है, शिक्षा की बात तो बहुत दूर की है। इसे ग़रीब नहीं बल्कि कुपोषित और भुखमरी की शिकार आबादी कहा जाना चाहिए और जिस रेखा के नीचे ये बसर कर रहे हैं उसे ग़रीबी रेखा नहीं बल्कि ‘भुखमरी रेखा’ नाम दिया जाना चाहिए क्योंकि यह रेखा वास्तव में ऐसी ही है।
लेकिन अगर हम भुखमरी और कुपोषण की नहीं बल्कि ग़रीबी की बात करें, जिसका अर्थ है वह आबादी जिसके पास भोजन, स्वास्थ्य, शिक्षा, परिवहन, और रोज़गार के साधनों तक पहुँच नहीं है, या अनुपयुक्त पहुँच है, तो हम पाते हैं कि इस देश की करीब 75 फ़ीसदी आबादी ग़रीब है। पिछले दो दशकों से प्रति व्यक्ति कैलोरी उपभोग और प्रति व्यक्ति प्रोटीन उपभोग लगातार गिर रहा है। भारतीय खाद्य निगम को पूरी जनता की खाद्य आवश्यकताओं को पूरा करने के बाद जितना स्टॉक आपात स्थितियों के लिए रखना होता है, इस समय उसके पास उससे 6 करोड़ टन अतिरिक्त अनाज है। यह सारा अनाज सड़ जाता है जबकि दूसरी ओर लोग भूख से मर जाते हैं।
इस समय इस देश में अर्जुन सेनगुप्ता समिति की रपट के अनुसार करीब 77 फ़ीसदी लोग 20 रुपये प्रतिदिन या उससे कम की आय पर जीते हैं। इसमें से करीब 27 फ़ीसदी 11 रुपये 60 पैसे की प्रतिदिन आय पर बसर करते हैं। अगर शुरुआती ग़रीबी रेखा को माना जाय, जिसमें कि शिक्षा और स्वास्थ्य आदि जैसी आवश्यकताओं पर ख़र्च शामिल नहीं है, तो इस समय इस देश की 76 फ़ीसदी आबादी 2400/2100 किलो कैलोरी प्रतिदिन उपभोग के मानक से नीचे जी रही है। यह आँकड़ा अर्जुन सेनगुप्ता समिति की रपट से भी मेल खाता है।
नवजात मृत्यु दर के मामले में 197 देशों की ताज़ा सूची में भारत का स्थान 152वाँ है और बांग्लादेश, घाना, गुयाना और श्रीलंका भी उससे आगे हैं। मानव विकास सूचकांक में भारत का स्थान 187 देशों में से 134वाँ है और इस मामले में सब-सहारा के भी देश भारत से प्रतिस्पर्द्धा कर रहे हैं। दुनिया में न्यूमोनिया, डायरिया आदि जैसी इलाज के लायक बीमारियों से सबसे ज़्यादा मौतें भारत में होती हैं। 2008 में दुनिया के कुल 15-6 करोड़ न्यूमोनिया रोगियों में से 4-3 करोड़ सिर्फ भारत में पाये गये। दुनिया में प्रति वर्ष डायरिया से मरने वाले बच्चों की संख्या में भारत का पहला स्थान है और नाइजीरिया, बुरुण्डी, चाड, सूडान आदि जैसे अतिदरिद्र देशों की स्थिति भी हमसे अच्छी है। भारत में प्रति वर्ष 39 लाख बच्चे डायरिया से मर जाते हैं। भारत में खुले में शौच में जाने के कारण तमाम बीमारियाँ जानलेवा बन जाती हैं। पूरी दुनिया में भारत खुले में शौच में जाने वाली आबादी के मामले में भी नम्बर 1 है। इस समय करीब 66 करोड़ लोग भारत में शौचालय की सुविधा से मरहूम हैं। जो देश दूसरे नम्बर पर है वह भारत से कई गुना पीछे है। दूसरे नम्बर पर इण्डोनेशिया है जहाँ 6.6 करोड़ लोगों के पास यह सुविधा नहीं है। कुपोषित बच्चों के प्रतिशत के मामले में भी भारत पिछले कई दशकों से टॉप टेन में रहा है।
ऐसे आँकड़ों से पन्ने के पन्ने रंगे जा सकते हैं। लेकिन इतने आँकड़े एक तस्वीर सामने रखने के लिए काफ़ी है। वास्तविक ग़रीबी पर नज़र डालें तो हमारा देश अव्वल कतारों में नज़र आता है और कई मामलों में तो अविवादित चैम्पियन है। योजना आयोग और उसका मोण्टेक सिंह आहलूवालिया और प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह चाहे जो भी कहें, उससे वास्तविक ग़रीबी और ग़रीबों के जीवन पर कोई असर नहीं पड़ने वाला क्योंकि आँकड़े यथार्थ का निर्माण नहीं करते। और अगर आँकड़े यथार्थ का सापेक्षिक रूप से सही प्रतिबिम्बन नहीं करते तो वे चुटकुले या फर्जीवाड़ा बन कर रह जाते हैं। यही स्थिति भारत सरकार के ग़रीबी सम्बन्धी आँकड़ों की हो गयी है। इसे कोई गम्भीरता से नहीं लेता, सिवाय उस वर्ग के जो उपभोक्ता की सम्प्रभुता के मज़े लूट रहा है और किसी भी कीमत पर ‘फील गुड’ करना चाहता है। यह वर्ग भी वास्तविकता जानता है, पर उस पर भरोसा नहीं करता। हर पतनशील समाज के ऐयाश वर्गों की यही फितरत होती है। ये 10-15 फ़ीसदी ऐशो-आराम में जीने वाले रईस जानते हैं कि चीज़ें किसी तरफ़ जा रही हैं, लेकिन वे उस पर यकीन नहीं करते। जानते तो हैं, पर मानते नहीं। इस देश का 15 फ़ीसदी शासक वर्ग एक भयंकर ज्वालामुखी के दहाने पर बैठा रंगरलियाँ मना रहा है। और उसके जानने और मानने का फ़र्क इस ऐयाशी के नशे के कारण हमेशा बरकरार रहेगा और यह फ़र्क उस भविष्य के वास्तविकता बन जाने के साथ ही ख़त्म होगा, जिसे वे जानते हैं लेकिन मानते नहीं।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्बर-अक्टूबर 2011
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