Category Archives: आर्थिक संकट

विश्व पूँजीवादी व्यवस्था का गहराता संकट

पूँजीवाद का अन्तकारी रोग बता रहा है कि वह इस शताब्दी के आगे नहीं जा सकता। अगर जाएगा तो जनता की तबाही, किसी विनाशकारी युद्ध, आणविक युद्ध या फ़िर प्रकृति के अपूरणीय विध्वंस के साथ जो मानवता को ही ख़ात्मे की तरफ़ ले सकता है। यह एक आत्मघाती व्यवस्था है जो मुनाफ़े के उन्माद में कुछ भी कर सकती है। इसका एक-एक दिन हमारे लिए भारी है। विश्व के ताज़ा हालात और इतिहास इशारा कर रहे हैं कि हमें अपनी तैयारियाँ शुरू कर देनी होंगी!

वैश्विक मन्दी और तबाह होता मेहनतकश

मन्दी के दौर में गोदामों में माल होने पर भी पूँजीपति उसे अपने मुनाफ़े को कम करके बेचने को तैयार नहीं होता और उत्पादन प्रक्रिया ठप्प पड़ जाती है जिसके फ़लस्वरूप बड़े पैमाने पर छँटनी और तालाबन्दी होती है। एक विशाल आबादी बेरोज़गार हो जाती है। मेहनतकश आबादी जो पहले ही पूँजीपतियों द्वारा दोहरे शोषण का शिकार हुई रहती है जब बेरोजगार हो जाती है तो उसके सामने अपने वजूद का ही संकट खड़ा हो जाता है।

वैश्विक मन्दी के दबाव में डगमगाती भारतीय अर्थव्यवस्था

अगर आँकड़ों को देखें तो पता चल जाता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को वैश्विक मन्दी के समय में उदारीकरण और भूमण्डलीकरण की नीतियों के कारण बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है। बीमा सेक्टर में 2007 के मुकाबले 2008 में वृद्धि दर 24 प्रतिशत से घटकर 17 प्रतिशत रह गयी। इसके कुछ समय बाद ही देश के सबसे बड़े कार–निर्माता मारूति ने घोषणा की कि उसकी बिक्री में नवम्बर माह में 24 प्रतिशत की गिरावट आई और अगर यह रुझान जारी रहा तो वह उत्पादन में कटौती कर सकता है। भारतीय सरकार ने छमाही आर्थिक समीक्षा में कहा कि मैन्युफ़ैक्चरिंग सेक्टर पर मन्दी का भारी प्रभाव पड़ सकता है। केरल की सरकार के आँकड़ों से पता चलता है कि मन्दी का उसकी अर्थव्यवस्था पर गहरी चोट पड़ी है। उसका पर्यटन उद्योग गिरावट दर्ज़ कर रहा है। नारियल उद्योग में 32,000 लोग अपनी नौकरियों से हाथ धोने की कगार पर हैं। हथकरघा उद्योग में 20 प्रतिशत की गिरावट आ चुकी है, काजू उद्योग में 18,000 लोग अपनी नौकरियाँ गवाँ चुके हैं।

…और दार्शनिक बोल पड़े!

वाह! बिल गेट्स साहब आप ने खूब कहा! पहले तो लोगों का शोषण करो, लूटो और फ़िर उनके असन्तोष और नफ़रत की ज्वाला पूँजीवाद को तबाह न कर दे उसके लिए लूट के धन से थोड़ा खैरात बाँटों! तो ये रहा श्री गेट्स का सृजनात्मक पूँजीवाद।

मन्दी के मारे अमेरिकी खाने की ख़ातिर बन्दूकें बेचने को मजबूर!

लॉस एंजेल्स के कॉम्प्टन शहर में लोग पिस्तौलों के बदलें में खाने का सामान जुटा रहे हैं। यह लॉस एंजेल्स के दक्षिण में पड़ने वाला सापेक्षतः ग़रीब आबादी वाला एक शहर है। ज्ञात हो कि अमेरिकी लोग बन्दूक रखना अपना जनतांत्रिक अधिकार मानते हैं। यहाँ तक तो बात समझ में आती है लेकिन वे बन्दूक से लगभग-लगभग प्यार करते हैं और यह उनके सबसे कीमती सामानों में से एक होता है। ख़ास तौर पर कैलीफ़ोर्निया में लगभग हर घर में दो से तीन बन्दूकें पाई जा सकती हैं। लेकिन अमेरिकी अर्थव्यवस्था में आई भयंकर मन्दी ने इस लगाव और प्यार पर गहरा असर डाला है। लोगों को अपनी बन्दूकों और अन्य आग्नेय अस्त्रों को खाने की ख़ातिर बेचना पड़ रहा है! क्योंकि अब बन्दूक तो खाई नहीं जा सकती!

पूँजीवाद के गुप्त रोग विशेषज्ञ

ये सभी दिल ही दिल जानते हैं कि पूँजीवाद के इस गुप्त रोग का कोई इलाज नहीं है। उसको कुछ भी सकारात्मक दे पाने की नपुंसकता से कोई मुक्ति नहीं मिल सकती है। इसलिए जो अधिक से अधिक किया जा सकता है कि उसके नकारात्मक उपोत्पादों, जैसे भुखमरी, ग़रीबी, बेरोज़गारी, मन्दी आदि पर पर्दा डाला जाय, उसके असर के अहसास को जनता के मस्तिष्क पर धुंधला बनाया जाय। लेकिन यह गुप्त रोग पूँजीवाद का अन्तकारी रोग है। सारे शाही शफ़ेखाने और वेनरल डिज़ीज़ सेण्टर पहले भी फ़ेल हो चुके हैं और फ़िर फ़ेल ही होंगे। पूँजीवाद का असल इलाज पौरुष की दवा देने वाले इन हकीमों के पास नहीं है। वह जनता के पास है। और वह इलाज है पूँजीवाद को हर प्रकार के दुनियावी ताप से मुक्ति देकर ताबूत में पहुँचा देना!

महामंदी – ll

पूँजी की गति को विनियमित करना पूँजीवादी सरकारों के बूते की बात नहीं होती है । मुनाफ़े की हवस से चलने वाली एक अनियंत्रित, अनियोजित और निजीकृत अर्थव्यवस्था में यही हो ही सकता है । बीच–बीच में होने वाला सरकारी कीन्सियाई हस्तक्षेप संकट को कुछ समय के लिए टाल सकता है, सिर्फ दुबारा और अधिक तूफानी गति और संवेग के साथ आने के लिए । यह विनियमन एक शेखचिल्ली का सपना है । ऐसा कोई भी विनियमन पूँजीवादी विश्व को इन चक्रीय संकटों से नहीं बचा सकता है ।

पूंजीवादी दार्शनिक की चिन्ता, मैनेजिंग कमेटी को सलाह

जब श्री सेन यह कह रहे थे कि एक प्रजातांत्रिक सरकार को जनता के लिए नीति एवं न्याय की रक्षा करनी चाहिये तो वह लुटेरों को परोक्षत: सब कुछ खुल्लम–खुल्ला न करने की बजाये मुखौटे के भीतर रहकर करने की बात कह रहे थे । क्योंकि शासन के जिस चरित्र और व्यवहार की कलई देश की हर मेहनतकश जनता के सामने खुल चुकी है, जिसमें कैंसर लग चुका है उसी व्यवस्था में पैबन्द लगाकर न्याय की बात करने का और क्या अर्थ हो सकता है जब श्री सेन बाल कुपोषण, प्राथमिक शिक्षा की कमी, चिकित्सा का अभाव एवं गरीबी को दूर करने के लिए सामाजिक न्याय की बात कर रहे थे तो क्या वे भूल गये थे कि इस सबके पीछे आम मेहनतकशों का शोषण एवं वही पूँजीवादी व्यवस्था है जिससे वह सामाजिक न्याय की गुहार लगा रहे हैं । अपने भाषण को समेटते हुए श्री अमर्त्य सेन यह कह रहे थे कि कानून बनाने वाले लोग अर्थात नेता और मंत्री को अधिक स्पष्ट रूप से जागरूक होना चाहिये तो वस्तुत: वे पूँजीवाद के ऊपर आने वाले ख़तरे से आगाह कर रहे थे जो मुखौटा–विहीन शोषण से पैदा हो रहा है । क्योंकि अगर सेन में थोड़ी भी दृष्टि होती तो वे देख सकते कि जिनसे वह समानता की स्थापना, गरीबी कुपोषण एवं अशिक्षा को मिटाने के लिए कानून बनाने एवं अमल में लाने के लिए सामाजिक न्याय की बात कर रहे हैं उस अन्याय के ज़िम्मेदार वही लोग हैं वरन इसके पैदा होने के स्रोत वे ही हैं । ऐसी समस्याओं के हल की विश्वदृष्टि जिस वर्गीय पक्षधरता एवं धरातल की मांग करती है वह श्री सेन के पास नहीं है ।

पूँजीवाद का नया तोहफा : खाद्यान्न संकट

खाद्यान्न संकट एक व्यवस्था–जनित संकट है । मुनाफे पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था इस दुनिया के लोगों को और कुछ दे भी नहीं सकती । इसका इलाज ‘‘कल्याणकारी’’ राज्य नहीं है । उसका युग बीत गया । इतिहास पीछे नहीं जाता । आज विश्व पूँजीवाद की मजबूरी है कि वह एक–एक करके सारे कल्याणकारी आवरण उतारकर फेंक दे । इन आवरणों का खर्च उठाने की औकात अब उसके पास नहीं रही । मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था का कोई इलाज नहीं है । हमें इसका विकल्प प्रस्तुत करना ही होगा । नहीं तो इसी तरह हज़ारों निर्दोष स्त्री–पुरुष भुखमरी और कुपोषण की भेंट चढ़ते रहेंगे ।

कमरतोड़ महँगाई : पूँजीपति वर्ग द्वारा वसूला जाने वाला एक ‘‘अप्रत्यक्ष कर’’

महँगाई की परिघटना पूँजीवादी व्यवस्था की एक स्वाभाविक परिघटना है । पूँजीवाद ऐसा हो ही नहीं सकता जिसमें जनता को महँगाई से निजात मिल सके । एक मुनाफा–केन्द्रित व्यवस्था हमें यही दे सकती है । इससे निजात सिर्फ एक ऐसी व्यवस्था में ही मिल सकता है जो निजी मालिकाने के आधार पर मुनाफे की अंधी हवस पर न टिकी हो, जो सामाजिक ज़रूरतों के मुताबिक उत्पादन करती हो, जो सभी प्रकार के संसाधनों के साझे मालिकाने पर आधारित हो और जो योजनाबद्ध ढंग से काम करती हो, न कि अराजक ढंग से । संक्षेप में, महँगाई से मुक्ति एक ऐसी व्यवस्था में ही मिल सकती है जिसमें उत्पादन राज–काज और समाज के पूरे ढाँचे पर उत्पादन करने वाले वर्गों का हक़ हो और फैसला लेने की ताकत उनके हाथों में हो ।