वैश्विक मन्दी और तबाह होता मेहनतकश

प्रेमप्रकाश, दिल्ली

श्रम के अधिशेष को निचोड़ने की पूँजीपतियों की हवस और मुनाफ़े के अन्धे लालच ने जिस अतिउत्पादन के ख़तरे को आज विश्व के सामने उपस्थित किया है वह कोई अकस्मात उपस्थित परिघटना नहीं है बल्कि पूँजीवाद की नियति है। यह पूँजीवादी व्यवस्था की विडम्बना है कि उत्पादन तकनीक का विकास मानव जीवन को आनन्दमय बनाने एवं उन्नत बनाने में सहयोगी न होकर उसके सामने उत्पादन प्रचुरता का ऐसा संकट खड़ा कर देता है कि वस्तुओं को खरीदने के लिए ग्राहक नहीं मिलते।

ऐसा नहीं है कि मन्दी के दौर में पूरे विश्व की समग्र जरूरतें समाप्त हो जाती हैं अथवा मनुष्य की आवश्यकताएँ संतृप्तता की अवस्था को प्राप्त हो जाती हैं। श्रम की अन्धाधुंध लूट से वैश्विक स्तर पर जिस असन्तुलन का जन्म होता है उसमें एक तरफ़ तो पूँजी का अम्बार खड़ा हो जाता है और दूसरी तरफ़ ग़रीबी और बदहवासी में जीने वाली मेहनतकश वर्ग की फ़ौज। उत्पादन के अगले चरण में पूँजी अपनी शोषणकारी प्रवृत्ति के कारण मेहनतकश आबादी के साथ निम्न मध्यवर्ग और मध्यवर्ग के एक हिस्से को भी बदहाल कर देती है और नतीजतन श्रम और श्रम के अधिशेष से उत्पन्न वस्तुओं से बाजार तो पट जाता है परन्तु बदहाल लोगों के पास उसे खरीदने का सामर्थ्य न होने के कारण वस्तु का पुनः तरल पूँजी में बदलना सम्भव नहीं हो पाता है और सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था में पुनरुत्पादन के लिए पूँजी का अभाव उसको संकट में डाल देता है।

मन्दी के दौर में गोदामों में माल होने पर भी पूँजीपति उसे अपने मुनाफ़े को कम करके बेचने को तैयार नहीं होता और उत्पादन प्रक्रिया ठप्प पड़ जाती है जिसके फ़लस्वरूप बड़े पैमाने पर छँटनी और तालाबन्दी होती है। एक विशाल आबादी बेरोज़गार हो जाती है। मेहनतकश आबादी जो पहले ही पूँजीपतियों द्वारा दोहरे शोषण का शिकार हुई रहती है जब बेरोजगार हो जाती है तो उसके सामने अपने वजूद का ही संकट खड़ा हो जाता है।

वर्तमान वैश्विक मौद्रिक संकट पूँजीवाद का स्वयं का संकट है। पूँजीपति अपने मुनाफ़े की हवस के लिए शोषण की हर घनीभूत विधि को अपनाता है जिससे मेहनतकश अवाम दिन–प्रतिदिन तुलनात्मक रूप से वास्तव में और गरीब होता जाता है। दूसरे पूँजीपतियों में मुनाफ़े के उन्माद के कारण अंधी गलाकाटू प्रतिस्पर्धा का जन्म होता है जोकि उसे सम्पूर्ण समाज की आवश्यकता के लिए नहीं वरन मुनाफ़े के लिए उत्पादन करने को प्रेरित करता है और सामाजिक जरूरतों और वस्तुओं के कुल उत्पादन का असन्तुलन पैदा हो जाता है।

मन्दी ने आज मेहनतकश वर्ग के सामने दोहरा संकट पैदा कर दिया है। एक तो उत्पादन कार्यों से छँटनी के कारण बेरोज़गारों की संख्या में बढ़ोत्तरी हो गयी है दूसरे पुनः कार्य के अवसरों की कमी के कारण पूँजीपति वर्ग मज़दूरों को और कम मज़दूरी पर काम करने के लिए बाध्य कर लेता है। आर्थिक मन्दी के कारण उत्तरी अमेरिका में कुल 2,39,310 यूरोप में 1,23,910 एशिया में 20,000 कामगारों की छँटनी हो गयी है(स्रोत-रायटर)। यह आँकड़ा अब पुराना पड़ चुका है। बैंक ऑफ़ अमेरिका 35,000 कर्मचारियों की छँटनी की योजना बना रही है। स्वीडिश बाल बियरिंग कम्पनी दुनिया भर में फ़ैले 1300 अस्थायी कर्मचारियों समेत 2500 कर्मचारियों की छँटनी की योजना बना रहा है। एंग्लो-आस्टेलियन माइनिंग कम्पनी रियोटिंटो 14000 कामगारों को निकालेगा (बिजनेस डेस्क एजेंसी)।

आज जहाँ आर्थिक मन्दी, खर्चों में कटौती और नौकरियों से निकाले जाने से जनसंख्या का एक हिस्सा चाहे वह भारत हो या पश्चिम का परेशान है वहीं विश्व की बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी की जिन्दगी के हर रोज की दिक्कत और बढ़ गयी है। देश की मेहनतकश अवाम के लिए ज़िन्दगी हर रोज संघर्ष है, जहाँ भूख से जद्दोजहद करनी पड़ती है। इण्टरनेशनल फ़ूड पालिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट के ग्लोबल हंगर इण्डेक्स 2008 के अनुसार भारत में 23 करोड़ लोग कुपोषित हैं। रिर्पोट में बताया गया है कि आर्थिक क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति के बावजूद जीवन स्थितियाँ समाज के पिछड़े तबके के लोगों के लिए नारकीय है। स्पष्टतः यह संकट एक तरफ़ बेतहाशा शोषण से मुट्ठी भर लोगों की प्रगति और दूसरी ओर व्यापक मेहनतकश की बर्बादी की कहानी ही बयान करता है। इसी इण्डेक्स के अनुसार दुनिया के कुपोषित 88 देशों की तालिका में भारत 66वें स्थान पर है। एशिया की बात करें तो बांग्लादेश को छोड़कर भारत का प्रदर्शन सबसे खराब है। यहाँ तक की श्रीलंका (39), नेपाल (57), पाकिस्तान (61) की स्थिति भी भारत से बेहतर है, यूनीसेफ़ के सहयोग से केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा कराये गये सर्वेक्षण से पता चलता है कि देश के तीन साल से कम उम्र के करीब 46 फ़ीसदी बच्चे कुपोषित हैं। यह दर सब सहारा के देशों के औसत 28 फ़ीसदी से बहुत ज्यादा है। तो क्या समझा जाये कि भारत चमक रहा है? विकास का दम भरने वाली केन्द्र सरकार और राज्य सरकारें हर दिन दावा रही हैं कि विकास हो रहा है, भारत चमक रहा है परन्तु आँकड़े और यथार्थ स्थितियाँ कुछ और ही कह रहीं हैं। एक तरफ़ जब वर्ष 2008 के शुरुआती दिनों में भारतीय शासक वर्ग चन्द शेयरों के आधार पर राष्ट्र की प्रगति में बूम की बात कर रहा था तब बढ़ती मुद्रास्फ़ीति से देश का मेहनतकश अवाम प्रतिक्षण महँगाई से संघर्ष कर रहा था।

आँकड़े खुद-ब-खुद बता रहे हैं कि थोक मूल्य सूचकांक मजदूरों एवं मेहनतकश अवाम के काम आने वाली वस्तुओं के लिए कम नहीं हो रहे हैं बल्कि बढ़ते जा रहे हैं। मुद्रास्फ़ीति की गिरती दर से महँगाई का कम होना कतई साबित नहीं होता। यह हाल थोक मूल्य सूचकांक का है तो सहज ही सोचा जा सकता है कि खुदरा मूल्य की स्थिति क्या होगी जहाँ साहूकारों एवं दुकानदारों के पैर के नीचे मजदूरों की गर्दन दबी होती है। रिर्जव बैंक के गर्वनर डी. सुब्बाराव इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि मुद्रास्फ़ीति भले ही दो अंकों से घटकर 8.4 फ़ीसदी तक पहुँच गई हो लेकिन घरेलू बाजार में खाद्य पदार्थों की कीमतें अभी कम नहीं हुई हैं। उपभोक्ता एवं थोक मूल्य सूचकांकों के अन्तर से महँगाई साफ़ झलक रही है। जहाँ थोक मूल्यों पर आधारित सूचकांक के अनुसार मुद्रास्फ़ीति 8.4 फ़ीसदी है वहीं उपभोक्ता मूल्य सूचकांक की दर अक्टूबर तक अपने दस वर्ष के शिखर पर बढ़ी हुई थी। अक्टूबर की शुरूआत में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक 9.69 फ़ीसदी था जो नवम्बर के समाप्त सप्ताह तक 10.43 फ़ीसदी हो गया। जिस महँगाई का कारण कच्चे तेल के दाम की वैश्विक वृद्धि उर्जा के मूल्य वृद्धि आदि-आदि बताया जा रहा है आज उसके कम होने के बावजूद खाद्य पदार्थों के दाम में कोई कमी नहीं आ रही है। आज जब होमलोन, कार, टी.वी. एवं विलासिता की अन्य वस्तुओं को सस्ता करके माँग को बढ़ाने की कोशिश की जा रही है, उद्योगों को मन्दी से निकलने के लिए विश्व आर्थिक संस्थानों को और नये नुस्खों एवं मानकों को विकसित करने की बात की जा रही है तो यह अनायास नहीं कि जरूरी सामानों के मूल्य में कमी नहीं आ रही है। यह पूँजीवादी समाज का नियम है और मुनाफ़े की व्यवस्था की नियति भी कि वह चन्द लोगों की सुविधाओं और मुनाफ़े को ही देखे। मेहनतकश के दुखः दर्द और समस्याओं की तरफ़ देखने और सोचने की उसे फ़ुरसत कहाँ।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-मार्च 2009

 

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