वैश्विक मन्दी के दबाव में डगमगाती भारतीय अर्थव्यवस्था
तपीश
वैश्विक मन्दी शुरू होने के बाद से ही भारत की सरकार के बयानों में एक परिवर्तन का रुझान देखा जा सकता है। 2007 के अन्त तक तत्कालीन वित्त मन्त्री चिदम्बरम का मानना था कि भारत की अर्थव्यवस्था पर वैश्विक मन्दी का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा और वह बस इतना कह रहे थे, “हम स्थिति पर निगाह रखे हुए हैं।” 2008 के पहले तिमाही में वित्त मन्त्रालय का स्वर थोड़ा बदला। अब कहा जा रहा था कि मन्दी का हल्का या माध्यमिक प्रभाव होगा लेकिन इंडिया इंक की सक्सेस स्टोरी जारी रहेगी। दूसरी तिमाही में कुछ और परिवर्तन हुआ। अब यह कहा जाने लगा कि हम पहले से सुरक्षा के उपाय कर रहे हैं और ज़्यादा नुकसान नहीं होने दिया जाएगा। तीसरी तिमाही में वित्त मन्त्रालय के बयान थोड़े और निराशाजनक हुए और यह कहा जाने लगा कि वृद्धि दर में भारी गिरावट दर्ज़ की जा सकती है। हमें संयम से काम लेना होगा, हम यह कर सकते हैं, वगैरह-वगैरह। आखिरी तिमाही आते-आते भारतीय सरकार के बयानों में मन्दी का भय और बदहवासी नज़र आने लगी। दो स्टिम्युलस पैकेज सरकार ने उद्योग और बैंक सेक्टर की सहायता के लिए घोषित किया। मन्दी का असर अब उत्पादन तक भी आने लगा था। अब सरकार को यह खुले तौर पर स्वीकारना पड़ रहा है कि आने वाला समय अर्थव्यवस्था के लिए काफ़ी मुश्किल साबित होगा और हमें बुरे से बुरे के लिए तैयार रहना चाहिए।
अगर आँकड़ों को देखें तो पता चल जाता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को वैश्विक मन्दी के समय में उदारीकरण और भूमण्डलीकरण की नीतियों के कारण बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही है। बीमा सेक्टर में 2007 के मुकाबले 2008 में वृद्धि दर 24 प्रतिशत से घटकर 17 प्रतिशत रह गयी। इसके कुछ समय बाद ही देश के सबसे बड़े कार–निर्माता मारूति ने घोषणा की कि उसकी बिक्री में नवम्बर माह में 24 प्रतिशत की गिरावट आई और अगर यह रुझान जारी रहा तो वह उत्पादन में कटौती कर सकता है। भारतीय सरकार ने छमाही आर्थिक समीक्षा में कहा कि मैन्युफ़ैक्चरिंग सेक्टर पर मन्दी का भारी प्रभाव पड़ सकता है। केरल की सरकार के आँकड़ों से पता चलता है कि मन्दी का उसकी अर्थव्यवस्था पर गहरी चोट पड़ी है। उसका पर्यटन उद्योग गिरावट दर्ज़ कर रहा है। नारियल उद्योग में 32,000 लोग अपनी नौकरियों से हाथ धोने की कगार पर हैं। हथकरघा उद्योग में 20 प्रतिशत की गिरावट आ चुकी है, काजू उद्योग में 18,000 लोग अपनी नौकरियाँ गवाँ चुके हैं।
शेयर बाज़ार में भी सबकुछ नीला ही दिख रहा है। मन्दी शुरू तो अमेरिका में हुई है लेकिन सबसे ज़्यादा गिरावट भारतीय और चीनी शेयरों के दामों में सर्वाधिक गिरावट दर्ज़ की गयी। भारतीय शेयरों के दामों में मन्दी शुरू होने के बाद से 65 प्रतिशत की गिरावट पहले ही आ चुकी है। भारतीय शेयर बाज़ार में 2007 में निवेश किये गये 17 अरब डॉलर में से 13 अरब डॉलर 2008 में निकाल लिए गए। ज़ाहिर है इसमें से अधिकांश प्रत्यक्ष विदेशी निवेशकों और पोटर्फ़ोलियो निवेशकों का पैसा था।
सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र बैंक और बीमा के बाद सबसे बुरी मार झेलने वाला क्षेत्र साबित हुआ है। 2008 के अन्त तक ही कई लाख लोग बैंक, बीमा और सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में नौकरियाँ गवाँ चुके हैं। सामाजिक क्षेत्र की भी स्थिति बुरी है। हाल ही में पैनआईआईटी नामक इंजीनियरिंग कॉलेजों के समारोह में अमर्त्य सेन ने कहा कि मन्दी के कारण सामाजिक क्षेत्र में सरकार का ख़र्च कम होगा जिसके गम्भीर नतीजे सामने आ सकते हैं। भारत के पर्यटन उद्योग के एक प्रमुख अंग होटल व रेस्तराँ सेक्टर को भारी नुकसान उठाना पड़ा है। पर्यटकों के आने की वृद्धि दर मार्च के 14.6 प्रतिशत से घटकर अप्रैल में 9.6 प्रतिशत रह गयी। और अक्टूबर आते-आते यह दर 1.8 प्रतिशत तक पहुँच चुकी थी।
इसके अतिरिक्त, इस मन्दी के असर का मूल्यांकन सिर्फ़ आँकड़ों से नहीं किया जा सकता। भारत में अनौपचारिक क्षेत्र में उद्योगों का एक विशाल ताना-बाना मौजूद है जिसमें फ़ैक्टरियों और वर्कशॉपों को देखकर कहीं भी ऐसा नहीं लगेगा कि वे वैश्विक असेम्बली लाइन से जुड़ी हुई हैं। लेकिन कूकर, मोटरसाईकिल, स्कूटर से लेकर कम्प्यूटर, जनरेटर व अन्य इलेक्ट्रिक व इलेक्ट्रॉनिक सामानों के पुरज़ों को बनाने का काम इन कारखानों होता है। ऐसे कारखाने दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र से लुधियाना, मुम्बई, अहमदाबाद और सूरत तक के क्षेत्र में फ़ैले हुए हैं जिसमें करोड़ों की संख्या में मेहनतकश आबादी काम कर रही है। अब इन क्षेत्रों में माँग की कटौती के साथ उत्पादन में कटौती शुरू हो गयी है और इसी के साथ छँटनी और तालाबन्दी की प्रक्रिया भी शुरू हो गयी है। इसके अलावा निर्यात के लिए उत्पादन के क्षेत्र में करोड़ों मेहनतकश काम कर रहे हैं। दिसम्बर में आई सरकारी रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत के निर्यात क्षेत्र में 1000 करोड़ रुपये की भारी कमी 2008 के दौरान दर्ज़ की गयी है। इसके परिणामों का अन्दाज़ा सहज ही लगाया जा सकता है। हथकरघा से लेकर छोटी-छोटी उपभोक्ता सामग्रियाँ बनाने वाले तमाम उद्योग और स्वरोजगार प्राप्त श्रमिक तबाह हो रहे हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार घरेलू बाज़ार का आकार भी विचारणीय रूप से सिंकुड़ा है। मध्य वर्गीय उपभोक्ता ख़रीदारी में 2008 में 30 प्रतिशत की गिरावट दर्ज़ की गयी है। दूसरी ओर, बड़ी पूँजी वाले खुदरा व्यापार को भी भारी संकट का सामना करना पड़ रहा है और तमाम विशेष आर्थिक क्षेत्रों से खुदरा व्यापार की कम्पनियों ने हाथ खींच लिये हैं। शॉपिंग मॉल सूने पड़े हैं और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की दुकानों के आगे सेल के बोर्ड लटक गये हैं। स्पष्ट है कि भारतीय अर्थव्यवस्था का इंतज़ार काफ़ी मुश्किल दिन कर रहे हैं। ज़ाहिर है, इसकी कीमत सबसे ज़्यादा आम मेहनतकश जनता को चुकानी होगी।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-मार्च 2009
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