खाद्यान्न संकट
पूँजीवाद का नया तोहफा
अभिनव
वर्ष 2007 और 2008 कई मायनों में पूँजीवादी विश्व व्यवस्था के लिए काफी दिक्कततलब साबित हुए । जहाँ 2007 में पूँजीवादी विश्व के चौधरी अमेरिका की अर्थव्यवस्था एक ज़बर्दस्त वित्तीय संकट में फँसी (जिससे वह अभी भी उबर नहीं सकी है), वहीं वर्ष 2008 ने पूँजीवाद का स्वागत भयंकर महँगाई, बेरोज़गारी की अभूतपूर्व दर और खाद्य संकट के साथ किया । बताने की जरूरत नहीं है कि इन संकटों के कारण अन्तर्सम्बन्धित हैं । विश्व पर पूँजीवाद की अन्तिम विजय की उम्मीद और दम्भपूर्ण घोषणाओं का युग अब बीत चुका है । विश्व भर में तीसरी दुनिया के देशों की जनता के सामने यह तथ्य आने लगा है कि पूँजीवादी व्यवस्था उन्हें क्या दे सकती है ।
जिस संकट ने तमाम देशों की सरकारों के सामने सबसे गम्भीर समस्या पैदा की वह था खाद्यान्न संकट । कारण यह था कि इस संकट के दुखदायी परिणामों को तुरन्त ही भुगतना पड़ा । हाइती, बुर्किना फासो, बांग्लादेश, मिस्र, कोटे डि आइवरी, कम्बोडिया, कैमरून, इथियोपिया, होण्डूरास, इण्डोनेशिया, मैडागास्कर, नाइजर, पेरू, फिलिप्पींस, सेनेगल, थाईलैण्ड, उज़्बेकिस्तान और ज़ाम्बिया में खाद्यान्न दंगे भड़क उठे और लोग सड़कों पर उतर आये । तमाम अन्न गोदामों को लूट लिया गया, दुकानों को उजाड़ दिया गया और जमाखोरों की सड़कों पर पिटाई भी हुई । 2 अप्रैल को विश्व बैंक के अध्यक्ष ने एक बैठक में बताया कि वैश्विक पैमाने पर कीमतों में बढ़ोत्तरी और खाद्यान्न संकट कम–से–कम 33 देशों में ख़तरनाक सामाजिक अशान्ति को जन्म दे सकता है । ‘टाइम’ पत्रिका के वरिष्ठ सम्पादक ने जो टिप्पणी की, वो भी गौरतलब है । उन्होंने चेतावनी दी : ‘शीत युद्ध में पूँजीवाद की निर्णायक विजय के बाद के पूरे दौर में भुखमरी के शिकार लोगों द्वारा हताशा में सड़क पर उतर पड़ने और पुरानी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने का विचार असम्भव होने की हद तक मुश्किल लगता रहा है… और फिर भी, पिछले महीने की सुर्खि़याँ बताती हैं कि आसमान छूती कीमतें दुनिया भर की तमाम सरकारों की स्थिरता पर खतरा पैदा कर रही हैं… जब हालात ऐसे हो जायें कि निष्क्रिय शान्त नागरिक अपने भूखे बच्चों को न खिला पायें तो अचानक ये ही शान्तिप्रिय लोग ऐसे आन्दोलनकर्ता बन जाते हैं जिनके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है ।’
खाद्यान्न संकट : कारण और प्रभाव
खाद्यान्न संकट अचानक नहीं आया है । इसके कुछ लक्षण काफी पहले से ही नज़र आने लगे थे । अमेरिकी सबप्राइम संकट के बाद से सट्टेबाजी पूँजी को जिन नए विकल्पों की तलाश थी, उनमें से एक खाद्यान्न बाज़ार भी था । सबप्राइम संकट के बाद से विश्व खाद्यान्न बाजार में सट्टेबाजी बढ़ी और नतीजे के तौर पर जमाखोरी भी बढ़ी । लेकिन यह कारक काफी बाद में सक्रिय होता है । खाद्यान्न संकट के बीज तो अमेरिकी सबप्राइम संकट से भी पहले पड़ चुके थे । नवउदारीकरण के पूरे दौर में तीसरी दुनिया के तमाम देशों के पूँजीपति वर्ग ने ‘‘समाजवाद’’ और ‘‘कल्याणकारी राज्य’’ का मुखौटा उतार कर फेंक दिया । जाहिर है कि भूमण्डलीकरण के दौर में सार्वजनिक क्षेत्र–कल्याणकारी–समाजवाद नामधारी पूँजीवाद पूँजी के निर्बाध प्रवाह, विस्तार, संचय और पूँजीवाद के उत्तरोत्तर विकास में एक बाधा था । पूँजी ने अपनी सहज–स्वाभाविक गति से उसे तोड़ दिया और पूँजीवाद अपने असल रूप में सामने आने लगा । इसके साथ ही, एक–एक करके वे सारे संरक्षण जो देशी कृषि को साम्राज्यवादी पूँजी के समक्ष चाहिये थे वे कम होने लगे; खेती में पूँजीवाद की घुसपैठ के उन्नत अवस्था में पहुँचने और राज्य के संरक्षण और नियंत्रण के खत्म होने के साथ ही कृषि में निर्णायक शक्ति बाज़ार की हो गयी और कृषि विश्व बाजार की अदृश्य–अनिश्चित ताकतों के अधीन हो गया । राज्य की भूमिका ज्यादा–से–ज्यादा एक प्रबंधक की बनते जाने का ही नतीजा था कि सार्वजनिक वितरण व्यवस्था से सरकार धीरे–धीरे हाथ खींचने लगी और देश की ग़रीब आबादी, जिसे एक मामूली खाद्यान्न सुरक्षा हासिल थी, वह भी ख़त्म होने लगी और ग़रीब मेहनतकश वर्ग पूरी तरह बाज़ार–विनियमित कीमतों की दया पर आ गया । बाज़ार के लिए होने वाली खेती ने नकदी फसलों उत्पादन के रुझान को बढ़ावा दिया । इस रुझान की नवीनतम अभिव्यक्ति जैव–र्इंधनों के उत्पादन के लिए खाद्यान्न उत्पादन की बलि चढ़ाना है । ऐसे व्यापक कारणों से ही मौजूदा खाद्यान्न संकट उत्पादन हुआ है । इस मोटी रूपरेखा को प्रस्तुत करने के बाद हम मौजूदा खाद्यान्न संकट के तात्कालिक कारणों पर चर्चा कर सकते हैं ।
इससे पहले कि हम तात्कालिक कारणों पर चर्चा शुरू करें, आइये इस विकराल खाद्यान्न संकट की हद और उसके प्रभावों पर एक नज़र डालें । पिछले कुछ महीनों में खाद्यान्न की कीमतों में जिस रफ्तार से बढ़ोत्तरी हुई है उतनी पिछले तीन दशकों में कभी नहीं हुई है । अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुसार पूरे 2007 के दौरान खाद्यान्न की कीमतों में 40 प्रतिशत से भी ज्यादा की वृद्धि हुई है । यहाँ महत्वपूर्ण बात यह है कि उन खाद्य पदार्थों की कीमतों में सबसे ज़्यादा बढ़ोत्तरी हुई है जिन पर तीसरी दुनिया की ग़रीब जनता की सबसे ज्यादा निर्भरता है-यानी, चावल, गेहूँ और मक्का । 2007 में गेहूँ की कीमतों में 77 प्रतिशत और चावल की कीमतों में 20 प्रतिशत की और मक्के की कीमतों में 150 प्रतिशत की वृद्धि हुई । गेहूँ की कीमतों में भी पहले जैसी अस्थिरता बरकरार रही है । वहीं मक्का, जो कि लातिनी अमेरिकी देशों का मुख्य आहार है, लगातार महँगा होता गया है । पिछले दो वर्षों में विश्व बाज़ार में मक्के की कीमत दोगुनी से भी ज्यादा हो गयी है । इन मुख्य खाद्यान्नों के अतिरिक्त मांस, वनस्पति तेल आदि की कीमतों में भारी बढ़ोत्तरी हुई है । जैसा कि हर संकट के मामले में होता है, शासक वर्गों ने इस संकट के कारणों को ग़रीब जनता पर मढ़ दिया । मसलन, जार्ज बुश और कॉण्डोलीजा राइस का यह कहना कि भारत और चीन के लोगों के ज्यादा खाने के कारण खाद्यान्न संकट पैदा हुआ है । इस बात के पीछे का हास्यास्पद तर्क यह है कि पिछले लगभग दो दशकों में इन देशों की अर्थव्यवस्थाओं की विकास दर अधिक होने के कारण खाद्यान्नों की माँग उनकी आपूर्ति से बढ़ गयी है । यह बात सच है कि भारत और चीन के धनाढय वर्गों को पूँजीवादी विकास और वृद्धि दर का भरपूर फायदा मिला है और उनकी खाद्यान्न खपत बढ़ गयी है । लेकिन इन देशों में ग़रीबों के आहार में कमी आई है । सच तो यह है भारत में आहार की प्रति व्यक्ति खपत 1980 के दशक से भी कम है और चीन में आज की खाद्यान्न की प्रति व्यक्ति खपत 1996 से भी कम है!
अब आइये खाद्यान्न संकट के वास्तविक कारणों पर निगाह डालें ।
जो कारण सबसे तात्कालिक है, लेकिन जो स्वभाव से ही पूँजीवाद का असम्भाव्य परिणाम है, वह है विभिन्न मालों के बाज़ार में बढ़ती हुई सट्टेबाजी । कृषि–उत्पादों के बाजार में भी एकाधिकरण की वह प्रक्रिया लगातार जारी है जो सभी वस्तुओं के बाज़ार में पूँजीवादी व्यवस्था में चलती है । आज स्थिति यह है कि दुनिया–भर में मुट्ठी भर कम्पनियाँ कृषि में होने वाली उत्पादन–सम्बन्धी आपूर्ति से लेकर बाज़ार में उत्पादित मालों की आपूर्ति तक की प्रक्रिया के हर पहलू को नियंत्रित करती हैं । माँग को मुनाफे के अनुसार विनियमित करके उत्पादन के पूरे ढाँचे को बदल दिया जाता है । वैश्विक कृषि उत्पाद बाजार में इजारेदारी के बढ़ने के कारण सट्टेबाजी में भी लगातार बढ़ोत्तरी हुई है । फ्यूचर्स ट्रेड ने इस सट्टेबाजी को और बल दिया है । इसके कारण वित्तीय सट्टेबाजों को खाद्यान्न बाजारों में निवेश करने की छूट मिल गयी है और नतीजतन, खाद्यान्न बाजारों तक में हेज फण्ड और इंडेक्स फण्ड जैसी सट्टेबाज उड़नछू पूँजी की घुसपैठ हो गयी है । ऐसे निवेशक कीमतों तक पर सट्टेबाजी करते हैं जिससे वे अत्याधिक अस्थिर हो जाती है और यह सट्टेबाज पूँजी ही कालान्तर में क्या कितना पैदा हो, यह भी निर्धारित करने में दख़ल करने लगती है ।
खाद्यान्नों के बाजार में सट्टेबाजी बढ़ने का एक कारण और भी है । भूमण्डलीकरण और नवउदारवाद के दौर में दुनिया भर में पूँजीवादी राज्यों ने ‘‘समाजवादी’’ या ‘‘कल्याणकारी’’ मुखौटे को उतार फेंका है और पूँजी को खुली लूट की छूट देकर वे खुद उसके हितों के प्रबंधक बन बैठे हैं । ऐसे में यह लाज़िमी–सी बात है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली को खत्म किया जा रहा है और खाद्यान्न के केन्द्रीय भण्डार पर से सरकारी नियंत्रण कम होते जाने के कारण स्वाभाविक रूप से खाद्यान्न बाज़ारों में सट्टेबाजी बढ़ी है ।
यह सट्टेबाजी जल्दी खत्म भी नहीं होने वाली । कारण यह है कि अमेरिकी सबप्राइम संकट शुरू होने के बाद से पूरा वैश्विक बाजार एक अभूतपूर्व उथल–पुथल का शिकार है । वित्तीय पूँजी रियल एस्टेट और स्टॉक मार्केट पर अति–निर्भरता ख़त्म कर निवेश के नये स्थान ढूँढ रही है । खाद्यान्न बाज़ारों के रूप में उसको एक नया विकल्प मिल गया है । खाद्यान्न बाज़ार में वित्तीय पूँजी के बड़े पैमाने पर घुसने से सट्टेबाजी तेज़ी से बढ़ी है और अभी आगे और बढ़ेगी । सट्टेबाजी के बढ़ने के साथ ही निजी व्यापारियों और टुच्चे सट्टेबाज अतिसक्रिय हो जाते हैं । पिछले वर्ष ऐसा ही हुआ था जब खाद्यान्न उत्पादन भारत में घरेलू माँगों को पूरा करने के लिए पर्याप्त था लेकिन निजी खुदरा व्यापारियों की जमाखोरी के कारण अनाज महँगा होता गया । जमाखोरी होने के पीछे सट्टेबाजी के कारण होने वाली अटकलबाजी और अफवाहों का मुख्य हाथ था ।
सट्टेबाजी के बाद दूसरा बड़ा कारण था तेल की कीमतों में बढ़ोत्तरी । तेल की कीमतें हर ऐसी वस्तु के उत्पादन की लागत में शामिल होती हैं जिसमें ऊर्जा का उपयोग होता है या जिसे परिवहन साधनों के माध्यम से बाजार तक पहुँचाना होता है । कहने की जरूरत नहीं है कि कृषि उत्पाद ऐसे ही मालों की श्रेणी में आते हैं । कृषि का अधिकाधिक मशीनीकरण होने के साथ तेल की जरूरत कृषि उत्पादन में बढ़ती गयी है । हार्वेस्टर, ट्र्रैक्टर से लेकर थ्रेशर तक को चलाने में तेल की जरूरत पड़ती है । ऊर्जा लागत में होने वाली वृद्धि सीधे–सीधे कृषि उत्पादन की लागत में स्थानान्तरित होती है । तेल कीमतों में वृद्धि के प्रभाव को भारत सरकार तेल पर लिए जाने वाले टैक्सों में कटौती करके रोक सकती थी । इससे तेल कम्पनियों को घाटा भी नहीं होता और न ही जनता की जेब पर बोझ बढ़ता । बस सरकारी राजस्व में थोड़ी कमी आती । लेकिन सरकार ने ऐसा न करके सारा बोझ जनता पर डाल दिया ।
तीसरा कारण, जो विश्व पैमाने पर खाद्यान्न संकट को बढ़ावा दे रहा है वह है जैव र्इंधनों का उत्पादन । अमेरिका और यूरोप के देश और साथ ही ब्राजील जैसे कुछ देश जैव–र्इंधनों को बढ़ावा दे रहे हैं और उसे पेट्रोलियम के विकल्प के तौर पर पेश कर रहे हैं । नतीजा यह हो रहा है कि अनाजों की खेती के तहत आने वाली भूमि लगातार कम हो रही है और नतीजे के तौर पर खाद्यान्न उत्पादन घट रहा है । मिसाल के तौर पर, 2006 में अमेरिका ने अपने मक्का उत्पादन का 20 प्रतिशत, ब्राजील ने अपने गन्ना उत्पादन का 50 प्रतिशत और यूरोपीय संघ ने अपने वनस्पति तेल के बीज उत्पादन का बड़ा हिस्सा इथेनॉल व अन्य प्रकार के जैव–र्इंधन के उत्पादन में लगा दिया । अमेरिका ने इस मामले में अग्रणी भूमिका निभाई है । यह स्पष्ट होने के बाद कि मध्य–पूर्व के सभी तेल भण्डारों पर अमेरिका अपना एकाधिकार स्थापित नहीं कर सकता, अमेरिका ने पेट्रोलियम उत्पादों पर अपनी निर्भरता घटाने के लिए जैव–र्इंधनों के उत्पादन को बढ़ावा देना शुरू कर दिया । मक्का, ज्वार की कीमतों में जैव–र्इंधन के उत्पादन के कारण भारी बढ़ोत्तरी हुई । चूंकि ये पशुओं का भी प्रमुख आहार है, इसलिए मांस और दुग्ध उत्पाद भी महँगे हो गये ।
पूँजीवाद की बदहवासी और अतार्किकता का आलम तो यह है कि वह यह भी नहीं देख पा रहा है कि जैव–र्इंधन न तो ऊर्जा सुरक्षा दे रहा है और न वह ‘ग्लोबल वॉर्मिंग’ रफ्तार का कम कर रहा है । लेकिन सरकारी सब्सिडी के कारण निजी पूँजी जैव–र्इंधनों के उत्पादन की ओर प्रवाहित हो रही है और यह खाद्यान्न उत्पादन स्वाभाविकत: कमी ला रहा है ।
चौथा प्रमुख कारण है जलवायु में होने वाले अहम बदलाव । इन बदलावों के कारण हालिया फसलें खराब हुई हैं । इन बदलावों में कनाडा और ऑस्ट्र्रेलिया में आये सूखे से लेकर अमेरिका के कई हिस्सों में भारी बारिश तक शामिल है । वैज्ञानिकों का मानना है कि मौसम के लगातार गर्म होते जाने के कारण फसलों पर कीड़े–मकोड़ों का हमला बढ़ेगा और ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव के रूप में दुनिया–भर में मरूस्थलीकरण भी बढ़ेगा । चीन और भारत जैसे देशों की अधिकांश नदियाँ ग्लेशियरों द्वारा भरती हैं जो लगातार पिघल रहे हैं जिससे आने वाले समय में विकराल संकट खड़ा होने वाला है । ज्ञात हो कि भारत और चीन मिलकर विश्व के कुल चावल और गेहूँ उत्पादन का आधे से ज्यादा पैदा करते हैं ।
आखिरी कारण है, एक मुनाफे की व्यवस्था में कृषि की निरन्तर उपेक्षा । इसके अतिरिक्त मौजूदा विश्व पूँजीवादी व्यवस्था में और कुछ हो भी नहीं सकता है । इस उपेक्षा के कई पहलू हैं । एक अहम पहलू है कृषि–सम्बन्धी अनुसंधान में सरकारी निवेश का लगातार कम होते जाना । पूँजीवादी कृषि में किसानों का नकदी फसलों की ओर झुकाव बढ़ता जाता है । नतीजतन, खाद्यान्न उत्पादन के तहत आने वाली कृषि–योग्य भूमि में कमी आती जाती है । खेती–योग्य भूमि का अधिग्रहण करके वहाँ विशेष आर्थिक क्षेत्र, शॉपिंग मॉल आदि बनाये जा रहे हैं । कृषि को मिलने वाली सब्सिडी और सहज उपलब्ध ऋण भी अब खत्म होता जा रहा है । जयति घोष और सी.पी. चन्द्रशेखर जैसे अर्थशास्त्री और सी.पी.एम. जैसे संसदीय वामपंथी इस बात के लिए पूरी पूँजीवादी व्यवस्था को दोषी ठहराने की बजाय उदारीकरण और भूमण्डलीकरण की नीतियों को ही कोसते हैं । वे ‘‘कल्याणकारी’’ राज्य की नीतियों को नॉस्टैल्जिया के साथ याद करते हैं और उसकी लाश पर आँसू बहाते हैं । ये सभी कीन्सियाई नुस्खों के दीवाने हैं । सभी संशोधनवादियों की तरह ये संसदीय वामपंथी पूँजीवादी व्यवस्था की एक सुरक्षा–पंक्ति और इसके दूरदर्शी पहरेदार के रूप में काम करते हैं । इसीलिए ये भूमण्डलीकरण और उदारीकरण की प्रक्रिया में स्पीड–ब्रेकर लगाते रहते हैं कि ‘थोड़ा धीमे चलो! वरना, तबाही की यह रफ्तार विद्रोह की तरफ ले जायेगी ।’ यही इनका काम है और इसे वे पूरी चुस्ती के साथ करते हैं ।
हमारा विश्लेषण साफ तौर पर बताता है कि खाद्यान्न संकट एक व्यवस्था–जनित संकट है । मुनाफे पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था इस दुनिया के लोगों को और कुछ दे भी नहीं सकती । इसका इलाज ‘‘कल्याणकारी’’ राज्य नहीं है । उसका युग बीत गया । इतिहास पीछे नहीं जाता । आज विश्व पूँजीवाद की मजबूरी है कि वह एक–एक करके सारे कल्याणकारी आवरण उतारकर फेंक दे । इन आवरणों का खर्च उठाने की औकात अब उसके पास नहीं रही । मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था का कोई इलाज नहीं है । हमें इसका विकल्प प्रस्तुत करना ही होगा । नहीं तो इसी तरह हज़ारों निर्दोष स्त्री–पुरुष भुखमरी और कुपोषण की भेंट चढ़ते रहेंगे ।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, अक्टूबर-दिसम्बर 2008
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