बेबी की कविताएँ
रोज
कोड़ता हूँ
घोंघे, सितुए
कंकड.पत्थर
चुन.चुनकर फेंकता हूँ
कि
कल
बो दूँगा तुझे
जिन्दगी
रोज
कोड़ता हूँ
घोंघे, सितुए
कंकड.पत्थर
चुन.चुनकर फेंकता हूँ
कि
कल
बो दूँगा तुझे
जिन्दगी
दोस्तो! ‘तुम्हारी’ पैण्ट बनाने में या कमीज़ बनाने में
सिर्फ हमारी मेहनत ही नहीं
बहुत कुछ गलता-पिसता-घिसता-ख़त्म होता है
हाँ, ये सिर्फ तुम्हारी ही हैं
हमें तो ये सपनों में भी मयस्सर नहीं
एक दिन लोग
कविता में
उन दिनों की बातें भूतकाल में करेंगे
जो अभी आये नहीं।
शॉपेनहावर ने कहा है कि मनुष्य की महानता का अनुमान लगाने में, आत्मिक ऊँचाई और शारीरिक आकार को तय करने वाले नियम एक-दूसरे के विपरीत होते हैं। क्योंकि वे हमसे जितने ही दूर होते हैं, मनुष्यों के शरीर उतने ही छोटे दिखते हैं और उनकी आत्माएँ उतनी ही महान।
जो बन जाते हैं आदत के गुलाम,
चलते रहे हैं हर रोज़ उन्हीं राहों पर,
बदलती नहीं जिनकी कभी रफ्तार
जो अपने कपड़ों के रंग बदलने का जोखिम नहीं उठाते,
और बात नहीं करते अनजान लोगों से,
वे मरते हैं धीमी मौत।
जब हम गाते हैं तो वे डर जाते हैं।
वे डर जाते हैं जब हम चुप होते हैं।
वे डरते हैं हमारे गीतों से
और हमारी चुप्पी से!
हवा का रुख़ कैसा है, हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं, हम समझते हैं
हम समझते हैं खून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है, हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं।
चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
य’ शाम है
कि आसमान खेत हैं पके हुए अनाज का
लपक उठीं लहू-भरी दराँतियाँ
-कि आग है :
धुआँ-धुआँ
सुलग रहा
ग्वालियार के मजूर का हृदय
स्पष्ट है कि हमेशा की तरह शिक्षा का प्रशासन अपने सेक्युलर, तर्कसंगत और वैज्ञानिक होने के तमाम दावों के बावजूद तर्क की जगह आस्था को तरजीह दे रहा है और फासिस्ट ताकतों के सामने घुटने टेक रहा है। यह प्रक्रिया सिर्फ दिल्ली विश्वविद्यालय तक सीमित नहीं है। आपको याद होगा कि मुम्बई विश्वविद्यालय ने रोहिण्टन मिस्त्री की पुस्तक को शिवसेना के दबाव में आकर पाठ्यक्रम से हटा दिया। इस तरह की तमाम घटनाएँ साफ़ तौर पर दिखलाती हैं कि पाठ्यक्रमों का फासीवादीकरण केवल तभी नहीं होगा जब साम्प्रदायिक फासीवादियों की सरकार सत्ता में होगी। धार्मिक बहुसंख्यावाद के आधार पर राजनीति करने वाली साम्प्रदायिक फासीवादी ताकतें जब सत्ता में नहीं होंगी तो भी भावना और आस्था की राजनीति और वर्ग चेतना को कुन्द करने वाली राजनीति के बूते नपुंसक सर्वधर्म समभाव की बात करने वाली सरकारों को चुनावी गणित के बूते झुका देंगी। ऐसा बार-बार हुआ है। शिक्षा के क्षेत्र में भी और राजनीति के क्षेत्र में भी।
मैं और वे जो रोटी खाते हैं
उसमें नब्बे लाख गुना अन्तर है
क्या मेरी और उनकी रोटी
नस्ल में अंततः रोटी ही हैं
गणना में उनसे नब्बे लाख गुना कम
मैं अपने मेहनत की गंध से परिचित हूं
उनके पीसने का कोई स्वाद होगा?