उत्तराखण्ड त्रासदीः हादसा बनाम हक़ीक़त
सम्पादकीय
पिछली 16-17 जून को उत्तराखण्ड में आयी भीषण त्रासदी को कई बार और कई तरीकों से व्याख्यायित किया जा चुका है, किसी ने इसे दैवीय आपदा बताया तो किसी ने मानव-निर्मित त्रासदी (‘मैन मेड ट्रैजेडी’) की संज्ञा दी। इस आपदा के साथ ही पर्यावरण का मुद्दा फिर गरमाया। पूँजीवादी मीडिया और ख़बरिया चैनलों के बीच होने वाली कुत्ताघसीटू प्रतिस्पर्धा में इतनी भीषण आपदा महज आँकड़ों का खेल बनकर रह गयी। इस पूरे बेशर्म शोर-शराबे के बीच इस आपदा और ऐसी सभी आपदाओं के पीछे के मूल कारण की पड़ताल न तो किसी ने की और न ही ऐसा करने की ज़रूरत किसी ने समझी। मुनाफ़ा कमाने की अन्धी हवस की ख़ातिर पूँजीवादी व्यवस्था न केवल मनुष्य की मेहनत का दोहन कर रही है बल्कि यह कुदरत को भी दिन-ब-दिन नष्ट कर रही है। यही कारण है कि पिछले कुछ वर्षों में नियमित अन्तराल पर दुनिया के किसी न किसी कोने में ऐसी विभीषिकाएँ घटित हो रही हैं।
ऐसा नहीं है कि तमाम पर्यावरणविद् इन आपदाओं के कारणों की पड़ताल नहीं करते हैं। टुकड़ों-टुकड़ों में तो वे सही पड़ताल करते हैं लेकिन कुल मिलाकर वे इन त्रसदियों के लिए मेहनत और कुदरत की लूट पर कायम पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली को ज़िम्मेदार नहीं ठहराते हैं। कारण यह कि इन पर्यावरणीय आपदाओं को समझने के लिए भी महज़ वैज्ञानिक विश्लेषणात्मकता की नहीं बल्कि राजनीतिक विश्लेषणात्मकता की भी आवश्यकता है। लेकिन राजनीतिक आलोचनात्मक दृष्टि से वंचित होने के कारण वे या तो समूची मानवता को कोसने लगते हैं या फिर आधुनिक विज्ञान को ही इनके लिए दोषी क़रार देते हैं, और पुनरुत्थानवाद के गड्ढे में जा गिरते हैं। यह सही है कि उत्तराखण्ड की त्रासदी की भयावहता किसी प्राकृतिक प्रकोप का नहीं बल्कि प्रकृति की नैसर्गिक गति में अवांछित मानवीय हस्तक्षेपों का नतीजा है। परन्तु इसके लिए समूची मानव जाति को ज़िम्मेदार ठहराना सही नहीं है। यहाँ यह प्रश्न पूछना ज़रूरी है कि वे कौन लोग हैं, वह कौन-सी व्यवस्था है जो प्रकृति के साथ ऐसा बर्ताव करती है। अगर तथ्यों पर करीबी से निगाह डालें तो साफ़ हो जाता है कि आज पर्यावरणीय तबाही के लिए दुनिया भर में मुनाफ़ा-केन्द्रित पूँजीवादी व्यवस्था ज़िम्मेदार है। पूँजीवादी व्यवस्था में प्रकृति के साथ कोई भी रिश्ता व्यापक मानवता के हितों के मद्देनज़र न होकर समाज के मुट्ठी भर लोगों के मुनाफ़े के लिए कायम किया जाता है। उत्तराखण्ड में भी यह पूरी प्रक्रिया साफ़ तौर पर नज़र आती है।
वर्ष 2000 में उत्तराखण्ड के नया राज्य बनने के बाद बिल्डरों, होटल व्यवसायियों और तमाम मुनाफ़ाखोरों के हितों को ध्यान में रखते हुए जिस किस्म का विकास वहाँ पर हुआ उससे वहाँ का पारिस्थितिक तन्त्र, जो काफ़ी नाजुक और अस्थिर माना जाता है, और ज़्यादा अस्थिर हो गया। पूँजीवादी विकास के मॅाडल के तहत पर्यावरण की जिस तरह से अनदेखी की जा रही है, उसके कारण आने वाले दिनों में भी भीषण त्रसदियों की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता। उत्तराखण्ड जैसे इलाकों में तो यह ख़तरा और भी बढ़ जाता है। यहाँ ज़्यादातर विकास परियोजनाओं की मंजूरी पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव की सांगोपांग पड़ताल के बिना ही दे दी जाती है। हम पाएँगे कि जिस अन्धाधुन्ध तरीके से सड़कें, सुरंगें व बाँध बनाने के लिए पहाड़ियों को बारूद से उड़ाया गया, उसकी वजह से इस पूरे इलाके की चट्टानों की अस्थिरता बढ़ती गयी। इसके साथ ही भूस्खलन का खतरा बढ़ गया, वनों की अन्धाधुन्ध कटाई और अवैध खनन से भी पिछले कुछ वर्षों में हिमालय के इस क्षेत्र में भूस्खलन और बाढ़ जैसी परिघटनाओं में बढ़ोतरी देखने में आयी है। इसके साथ ही, मानसून के समय से काफ़ी पहले आने को भी जलवायु परिवर्तन की व्यापक परिघटना से जोड़कर ही देखा जा सकता है। अब हम जानते हैं कि उत्तराखण्ड त्रासदी की भीषणता का एक कारण यह भी था।
उत्तराखण्ड की इस भीषण त्रासदी ने पूँजीवादी व्यवस्था के असली चरित्र को एक बार फिर बेपर्दा किया। साथ ही, पूँजीवादी समाज की अनिश्चितता और अराजकता पर फलने-फूलने वाले धर्म और अध्यात्म का कारोबार कितना वृहत् है, यह भी इस आपदा के बाद फिर सामने आया। जब यह आपदा घटित हुई उस वक्त अन्य राज्यों से बहुत भारी संख्या में आये तीर्थयात्री मौजूद थे। इसके पीछे पर्यटन उद्योग का एक संगठित ताना-बाना काम करता है जिसमें टूर ऑपरेटर्स से लेकर होटल व्यवसायी और कुकुरमुत्तों की तरह पनपने वाले किस्म-किस्म के आध्यात्मिक गुरू और बाबा शामिल हैं। इसके साथ ही, पूँजीवादी सरकारों और नौकरशाही का घनघोर जनविरोधी और संवेदनहीन चरित्र भी सामने आया। पूँजीवादी चुनावी राजनीति की गन्दगी में लोट लगाने वाली तमाम चुनावबाज़ पार्टियों ने एक बार फिर से दिखला दिया कि लोगों की लाशों पे चुनावी रोटियाँ सेंकने का क्या मतलब होता है। तमाम “जनप्रतिनिधि” कभी “रैम्बो” तो कभी “सुपरमैन” की शक्ल में नज़र आये। वास्तव में हर ऐसी आपदा पूँजीवाद के चेहरे पर लगे तमाम मुखौटों को नोच-नोच कर फेंक देती है और व्यवस्था का सबसे घृणित और मानवद्रोही रूप हमारे सामने आता है।
आज यह कहना पहले से भी बड़ी वास्तविकता बन गया है कि पूँजीवाद को एक जनक्रान्ति द्वारा इतिहास की कचरा पेटी के हवाले नहीं किया जाता तो मानवता के सामने एक ही विकल्प मौजूद होगा-विनाश! उत्तराखण्ड जैसी पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा जनित त्रासदियाँ मानवता ही नहीं बल्कि पृथ्वी और उस पर रहने वाले तमाम जीव-जन्तुओं और वनस्पतियों या यूँ कहे कि उसके समूचे पारिस्थितिक तंत्र के अस्तित्व के लिए ख़तरे की घण्टी हैं। ऐसी आपदाएँ इस बात के स्पष्ट संकेत देती हैं कि यदि पूँजीवादी व्यवस्था को समय रहते नष्ट नहीं किया गया तो यह समूची मानवता को ही नहीं बल्कि समूचे भूमण्डल को नष्ट कर देगी। मनुष्य निश्चित तौर पर प्रकृति के साथ सामंजस्य में अस्तित्वमान रह सकता है। लेकिन लूट और मुनाफ़े की अन्धी हवस पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था के तहत नहीं!
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2013
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