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अण्णा हज़ारे का भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान और मौजूदा व्यवस्था से जुड़े कुछ अहम सवाल

हज़ारे का वर्तमान भ्रष्टाचार-विरोधी आन्दोलन भी आंशिक तौर पर उनकी इसी राजनीति और विचारधारा से पैदा हुआ है। और यह इस समय इसलिए पैदा हुआ है क्योंकि भ्रष्टाचार के विरुद्ध आम जनता में व्याप्त गुस्से के झटके को सोख जाने वाला कोई ऐसा ‘शॉक एब्ज़ॉर्बर’ व्यवस्था को भी चाहिए था, जो व्यवस्था के लिए ही ख़तरा न बन जाये। ऐसे में, भ्रष्टाचार का नैतिकता-अनैतिकता, सदाचार-अनाचार के जुमलों में विश्लेषण करने वाले किसी अण्णा हज़ारे से बेहतर उम्मीदवार और कौन हो सकता था, जो यह समझने में अक्षम हो कि भ्रष्टाचार एक ऐसी परिघटना है जो पूँजीवाद का अभिन्न अंग है; जो वास्तव में यह समझने अक्षम हो, कि पूँजीवादी कानूनी परिभाषा के अनुसार जो कार्य भ्रष्टाचार माने जाते हैं, अगर वे न भी हों, तो पूँजीवादी व्यवस्था अपने आपमें भ्रष्टाचार है जो ग़रीब मज़दूर आबादी, किसान आबादी और आम मेहनतकश जनता के शोषण-उत्पीड़न पर टिकी हुई है। आदमखोर पूँजीवादी आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्था कठघरे में न खड़ी हो, इसके लिए अण्णा हज़ारे की ‘‘परिघटना’‘ का पूँजीवादी व्यवस्था ने कुशल उपयोग किया।

अण्णा हज़ारे का भ्रष्टाचार-विरोधी अभियान और मौजूदा व्यवस्था से जुड़े कुछ अहम सवाल

एक ऐसे समाज में जिसमें पैसे की ताकत सबसे बड़ी ताकत है, जिसमें लालच, लोभ और मुनाफे का ही राज हो, वहाँ जन लोकपाल की अभ्रष्टीयता पर ऐसा दिव्य विश्वास क्यों? जन लोकपाल को नहीं ख़रीदा जा सकता, वह भ्रष्ट नहीं होगा, वह लालच-लोभ के वशीभूत नहीं होगा, या कारपोरेट घरानों की ताकत के आगे घुटने नहीं टेक देगा, इसकी क्या गारण्टी है? जब ऐसे जन लोकपाल को नियुक्त करने वाली समिति के प्रस्तावित सदस्य तक आज बिक रहे हैं, तो जन लोकपाल क्यों नहीं बिक सकता? सन्दर्भ आप समझ गये होंगे। न्यायपालिका में पोर-पोर तक में समाये भ्रष्टाचार के बारे में आज सभी जानते हैं। और यह जिला मजिस्ट्रेट के स्तर से लेकर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों तक में मौजूद है। एक पूँजीवादी समाज में जहाँ भौतिक प्रोत्साहन ही सबसे बड़ा प्रोत्साहन है, वहाँ हर चीज़ बिक सकती है। ऐसे में, जन लोकपाल के रूप में एक भस्मासुर ही पैदा होगा और कुछ नहीं।

प्रो. प्रभात पटनायक के नाम एक खुला पत्र

आपकी राजनीतिक पक्षधरता आपको बौद्धिक तौर पर भी ईमानदार नहीं रहने देती है। इन दोनों के बीच द्वन्द्व चलता रहता है और अन्त वही होता है, जैसा कि हमेशा होता आया है – राजनीति की विजय होती है, और अर्थशास्त्र की पराजय! बेहतर होगा कि अपने मस्तिष्क के इस द्वन्द्व को किसी एक पार लगा दें। क्योंकि यह द्वन्द्व आपकी हर रचना में प्रकट हो जाता है और उसे ‘मास्टरपीस’ बनने से रोक देता है। या तो राजनीति के पक्ष में इस द्वन्द्व का समाधान हो जाये, या फिर आपकी अर्थशास्त्रियों वाली बौद्धिक ईमानदारी के ही पक्ष में इसका समाधान हो जाये। दोनों ही सूरत में तब आपका लेखन मास्टरपीस बनने की पूर्वशर्तें पूरा करने लगेगा। पहली सूरत में यह शानदार काउत्स्कीपन्थी लेखन बनेगा (जैसे कि साम्राज्यवाद पर आपका अति-साम्राज्यवाद वाला सिद्धान्त आया था, जिसकी आपने चर्चा ही करनी बन्द कर दी इस महामन्दी के बाद!) और दूसरी सूरत में यह एक अच्छा मार्क्सवादी आर्थिक लेखन बनेगा। और ऐसे में हम जैसे अर्थशास्त्र के विनम्र विद्यार्थी आपके लेखन से कन्फ्यूज़ हो जाने की बजाय, अधिक अच्छी अन्तर्दृष्टि विकसित कर पाने में समर्थ होंगे।

इराक से अमेरिका की वापसी के निहितार्थ

आश्चर्य की बात नहीं है कि ओबामा ने अपने भाषण में एक जगह भी इराकियों के दुख-दर्द के बारे में कुछ नहीं कहा। इसके लिए इराकियों से कभी माफी नहीं माँगी गयी कि इराकी जनता के 10 लाख से भी अधिक लोगों की इस साम्राज्यवादी युद्ध में हत्या कर दी गयी; इराक की पूरी अवसंरचना को नष्ट कर दिया गया; इराकी अर्थव्यवस्था की कमर टूट गयी, जो वास्तव में दुनिया के सबसे समृद्ध अर्थव्यवस्थाओं में से हुआ करती थी; आज इराक के बड़े हिस्सों में बिजली और पीने का पानी तक मयस्सर नहीं है; बेरोज़गारी आसमान छू रही है और जनता के पास शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएँ भी नहीं हैं। आज के इराक को देखकर कोई अन्धा भी बता सकता है कि सद्दाम हुसैन के शासन के अन्तर्गत वह कहीं बेहतर स्थिति में था।

यूरोपीय महाद्वीप के रंगमंच पर इक्कीसवीं सदी की ग्रीक त्रासदी

‘‘सभी ने सोचा था कि अब ‘दास कैपिटल’ की कभी कोई माँग नहीं होगी, लेकिन अब यह समझने के लिए तमाम बैंकर और मैनेजर भी ‘दास कैपिटल’ पढ़ रहे हैं कि वे हमारे साथ क्या कारस्तानी करते रहे हैं।’‘ ये शब्द हैं जर्मनी के एक प्रतिष्ठित प्रकाशक कार्ल डिएट्ज़ वर्लेग के प्रबन्ध निदेशक जोअर्न श्यूट्रम्फ के जिन्होंने प्रसिद्ध समाचार एजेंसी रायटर को एक साक्षात्कार में यह बताया। इस वर्ष के मात्र चार महीनों में कार्ल डिएट्ज़ वर्लेग ने मार्क्स की महान रचना ‘पूँजी’ की 1500 प्रतियाँ बेची हैं। बैंकर और मैनेजर ही नहीं बल्कि पूँजीवादी राजसत्ता के मुखिया भी आजकल उस जटिल वित्तीय ढाँचे को समझने के लिए ‘पूँजी’ पढ़ रहे हैं जो उन्होंने अपने मुनाफे की हवस में अन्धाधुन्ध बना दिया है। हाल ही में एक कैमरामैन ने फ्रांस के राष्ट्रपति सरकोज़ी को ‘पूँजी’ पढ़ते हुए पकड़ लिया था!

‘‘सक्षमकारी राज्य’’ का फण्डा यानी धनपतियों की चाँदी और जनता की बरबादी

इस बार के आर्थिक सर्वेक्षण में सरकार ने पहली बार एक ऐसा हिस्सा रखा था जो मौजूदा सरकार के आर्थिक दर्शन को खोलकर रख देता है। पहले के आर्थिक सर्वेक्षण अधिकांशत: आय–व्यय की गणनाओं और लाभ–घाटे के आकलन में ही ख़त्म हो जाया करते हैं। प्रणब मुखर्जी मौजूदा संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार के सबसे अनुभवी राजनीतिज्ञों में से एक हैं, बल्कि शायद सबसे अनुभवी राजनीतिज्ञ हैं। अपने लम्बे राजनीतिक जीवन और पूँजीवादी अर्थनियोजन की गहरी समझदारी के आधार पर अपनी टीम के साथ मिलकर उन्होंने आर्थिक सर्वेक्षण में कहा है कि सरकार का काम जनता की ज़रूरतों को पूरा करना नहीं होना चाहिए। इसकी उन्होंने काफ़ी आलोचना की है और कहा है कि ऐसी सरकार उद्यमिता और कर्मठता की राह में बाधा होती है। वास्तव में तो सरकार को एक “सक्षमकारी” भूमिका में होना चाहिए। उसका काम यह सुनिश्चित करना होना चाहिए कि लोग बाज़ार के खुले स्पेस में एक–दूसरे की ज़रूरतों को पूरा करें, एक–दूसरे से प्रतिस्पर्द्धा करें और बाज़ार की प्रणाली में हस्तक्षेप किये बगैर उसे सामाजिक–आर्थिक समतुलन करने दें! वित्त मन्त्री महोदय आगे फरमाते हैं कि जो राज्य जनता की आवश्यकताओं जैसे शिक्षा, चिकित्सा, रोज़गार, आवास, भोजन आपूर्ति आदि को पूरा करने का काम अपने हाथ में ले लेता है वह लोगों को “सक्षम” नहीं बनाता; प्रणब मुखर्जी की राय में ऐसी सरकार एक “सक्षमकारी” सरकार नहीं होती बल्कि “हस्तक्षेपकारी” सरकार होती है! हमें ऐसी सरकार से बचना चाहिए! वाह! क्या क्रान्तिकारी आर्थिक दर्शन पेश किया है वित्तमन्त्री महोदय ने! लेकिन अगर आप पिछले कुछ दशकों की विश्व बैंक व अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की आर्थिक रपटों का अध्‍ययन करें, तो आपको इस आर्थिक दर्शन की मौलिकता पर शक़ होने लगेगा। जिस शब्दावली और लच्छेदार भाषा में प्रणब मुखर्जी ने विश्व बैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा अनुशंसित नवउदारवादी नीतियों को लागू करने के इरादे को जताया है, वह कई लोगों को सतही तौर पर काफ़ी क्रान्तिकारी नज़र आ सकता है। लेकिन वास्तविकता क्या है, यह बजट 2010–2011 के विश्लेषण पर साफ़ ज़ाहिर हो जाता है।

क्यों है ऐसा पाकिस्तान?

आख़िर क्यों पाकिस्तान को बार-बार सैनिक तानाशाहों का मुँह देखना पड़ता है? आख़िर क्यों सैनिक सरकार न होने पर भी राजनीतिक से लेकर प्रशासनिक मामलों तक में सेना का इतना हस्तक्षेप होता है? क्यों बार-बार नागरिक सरकारें सेना के सामने घुटने टेक देती हैं? क्या इसके कारण पाकिस्तान के ऐतिहासिक विकास की विशिष्टताओं में निहित हैं? यह समझने के लिए हमें पाकिस्तान के राजनीतिक इतिहास पर एक निगाह डालनी होगी और अलग-अलग दौरों में सेना की भूमिका को भी समझना होगा।

विश्व पूँजीवादी व्यवस्था का गहराता संकट

पूँजीवाद का अन्तकारी रोग बता रहा है कि वह इस शताब्दी के आगे नहीं जा सकता। अगर जाएगा तो जनता की तबाही, किसी विनाशकारी युद्ध, आणविक युद्ध या फ़िर प्रकृति के अपूरणीय विध्वंस के साथ जो मानवता को ही ख़ात्मे की तरफ़ ले सकता है। यह एक आत्मघाती व्यवस्था है जो मुनाफ़े के उन्माद में कुछ भी कर सकती है। इसका एक-एक दिन हमारे लिए भारी है। विश्व के ताज़ा हालात और इतिहास इशारा कर रहे हैं कि हमें अपनी तैयारियाँ शुरू कर देनी होंगी!

इज़रायली जियनवादियों का फ़िलिस्तीनी जनता पर नया हमला

इतने वर्षों के संघर्ष के बाद इज़रायली जनता का भी एक बड़ा हिस्सा इस बात को समझने लगा है कि इज़रायल-फ़िलिस्तीन समस्या का “दो-राज्य समाधान” ही सम्भव और वांछित समाधान है। लेकिन साम्राज्यवाद और उसके टुकड़ों पर पलने वाले जियनवाद के रहते यह समाधान प्राप्त नहीं किया जा सकता। इनके ख़िलाफ़ संघर्ष आज अरब जनता के एजेण्डे पर सबसे ऊपर है और इस संघर्ष के नतीजे पर ही इज़रायल-फ़िलिस्तीन समस्या का समाधान निर्भर करता है। फ़िलिस्तीनी जनता को कोई सेना और हथियारों का जखीरा नहीं हरा सकता।

महामंदी – ll

पूँजी की गति को विनियमित करना पूँजीवादी सरकारों के बूते की बात नहीं होती है । मुनाफ़े की हवस से चलने वाली एक अनियंत्रित, अनियोजित और निजीकृत अर्थव्यवस्था में यही हो ही सकता है । बीच–बीच में होने वाला सरकारी कीन्सियाई हस्तक्षेप संकट को कुछ समय के लिए टाल सकता है, सिर्फ दुबारा और अधिक तूफानी गति और संवेग के साथ आने के लिए । यह विनियमन एक शेखचिल्ली का सपना है । ऐसा कोई भी विनियमन पूँजीवादी विश्व को इन चक्रीय संकटों से नहीं बचा सकता है ।