प्रणब मुखर्जी का बजट 2010–2011
‘‘सक्षमकारी राज्य’’ का फण्डा यानी धनपतियों की चाँदी और जनता की बरबादी

अभिनव

इस बार के आर्थिक सर्वेक्षण में सरकार ने पहली बार एक ऐसा हिस्सा रखा था जो मौजूदा सरकार के आर्थिक दर्शन को खोलकर रख देता है। पहले के आर्थिक सर्वेक्षण अधिकांशत: आय–व्यय की गणनाओं और लाभ–घाटे के आकलन में ही ख़त्म हो जाया करते हैं। प्रणब मुखर्जी मौजूदा संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार के सबसे अनुभवी राजनीतिज्ञों में से एक हैं, बल्कि शायद सबसे अनुभवी राजनीतिज्ञ हैं। अपने लम्बे राजनीतिक जीवन और पूँजीवादी अर्थनियोजन की गहरी समझदारी के आधार पर अपनी टीम के साथ मिलकर उन्होंने आर्थिक सर्वेक्षण में कहा है कि सरकार का काम जनता की ज़रूरतों को पूरा करना नहीं होना चाहिए। इसकी उन्होंने काफ़ी आलोचना की है और कहा है कि ऐसी सरकार उद्यमिता और कर्मठता की राह में बाधा होती है। वास्तव में तो सरकार को एक “सक्षमकारी” भूमिका में होना चाहिए। उसका काम यह सुनिश्चित करना होना चाहिए कि लोग बाज़ार के खुले स्पेस में एक–दूसरे की ज़रूरतों को पूरा करें, एक–दूसरे से प्रतिस्पर्द्धा करें और बाज़ार की प्रणाली में हस्तक्षेप किये बगैर उसे सामाजिक–आर्थिक समतुलन करने दें! वित्त मन्त्री महोदय आगे फरमाते हैं कि जो राज्य जनता की आवश्यकताओं जैसे शिक्षा, चिकित्सा, रोज़गार, आवास, भोजन आपूर्ति आदि को पूरा करने का काम अपने हाथ में ले लेता है वह लोगों को “सक्षम” नहीं बनाता; प्रणब मुखर्जी की राय में ऐसी सरकार एक “सक्षमकारी” सरकार नहीं होती बल्कि “हस्तक्षेपकारी” सरकार होती है! हमें ऐसी सरकार से बचना चाहिए! वाह! क्या क्रान्तिकारी आर्थिक दर्शन पेश किया है वित्तमन्त्री महोदय ने! लेकिन अगर आप पिछले कुछ दशकों की विश्व बैंक व अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की आर्थिक रपटों का अध्‍ययन करें, तो आपको इस आर्थिक दर्शन की मौलिकता पर शक़ होने लगेगा। जिस शब्दावली और लच्छेदार भाषा में प्रणब मुखर्जी ने विश्व बैंक और अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा अनुशंसित नवउदारवादी नीतियों को लागू करने के इरादे को जताया है, वह कई लोगों को सतही तौर पर काफ़ी क्रान्तिकारी नज़र आ सकता है। लेकिन वास्तविकता क्या है, यह बजट 2010–2011 के विश्लेषण पर साफ़ ज़ाहिर हो जाता है।

Mukherjee, India's foreign minister and acting finance minister, smiles as he leaves his office to present the interim budget in New Delhi

बजट 2010–2011 के पेश होने के कुछ पहले से ही कारपोरेट घरानों की जेब में बैठे समाचार चैनलों ने बड़े–बड़े फ्लैश होते शीर्षकों में वित्त मन्त्री प्रणब मुखर्जी से सवाल पूछने शुरू कर दिये थे। मसलन, “क्या प्रणब मुखर्जी इंडिया इंक– के सीईओ की तरह बर्ताव करेंगे, या एक राजनीतिज्ञ की तरह ?”; या, “वित्त मन्त्री बाज़ार समृद्धि को पैदा करेंगे या नष्ट ? ” समाचार चौनलों के इस सवाल से ही कारपोरेट जगत की उम्मीदें स्पष्ट थीं। इजारेदार पूँजीपति वर्ग, बैंकर, निर्माण क्षेत्र के विशाल पूँजीपति, खनन–उत्खनन में लगीं दैत्याकार कम्पनियाँ, शेयर मार्केट के बूते समृद्धि का बुलबुला फुलाने वाली तमाम कम्पनियाँ वित्त मन्त्री से अरबों रुपयों की छूट और तोहफ़ों का इन्तज़ार कर रही थीं। आख़िर इन्हीं की समृद्धि से तो बूँद–बूँद रिसकर (ट्रिकल डाउन)  जनता तक पहुँचनी थी! सो, ज़ाहिरा तौर पर, इनकी सेवा करना और इनकी सेवा में बिछ जाना ही वित्त मन्त्री का कर्तव्य था। वित्त मन्त्री ने कारपोरेट जगत और उसके प्रचारक, भोंपू और दलाल की भूमिका निभाने वाले मीडिया की उम्मीदों पर खरा उतरते हुए एक ऐसा बजट पेश किया जो करोड़ों ग़रीबों की जेब से आख़िरी चवन्नी तक निचोड़कर इजारेदार पूँजीपति वर्ग, नेताओं–नौकरशाहों, उच्च मध्‍यवर्ग और धनी किसानों की तिजोरी में डाल दे। सरकार के जनता के प्रति उत्तरदायित्व को “सक्षमकारी” सरकार बनने के नाम पर और कम कर दिया गया है। लेकिन पूँजीपति वर्ग के लिए सरकार की भूमिका सक्षमकारी की नहीं बल्कि आपूर्तिकर्ता की है। हालाँकि सरकार आर्थिक सर्वेक्षण में कहती है कि सरकार केवल उसके लिए आपूर्तिकर्ता का काम करती है जो अपनी ज़रूरतें स्वयं पूरी करने में अक्षम है। बजट की निगाह में इस देश के 90 करोड़ लोग इतने पैसे वाले और धनी लोग हैं जिन्हें सिर्फ़ एक सक्षमकारी सरकार की आवश्यकता है और इस देश के मुश्किल से 12 करोड़ पूँजीपति, उच्च मध्‍यवर्गीय परजीवी, वाणिज्यिक वर्ग, धनी किसान वर्ग और शेयर बाज़ार के दलाल ऐसे अक्षम, निरीह, निर्दोष, पिछड़े और आर्थिक रूप से कमज़ोर लोग हैं जिन्हें सरकार की ज़रूरत एक आपूर्तिकर्ता के रूप में है। इसीलिए तो सरकार ने इन्हें सबकुछ दिया है। कुल मिलाकर इस बजट में इन्हें 500,000 करोड़ रुपये का तोहफ़ा दिया गया है! जबकि जनता की जेब से करीब इतना ही वसूल लिया गया है। बजट पर एक करीबी निगाह ही इस बात को साफ़ कर देती है कि यह सरकार किन वर्गों के लिए काम कर रही है।

सबसे पहले एक निगाह बजट के कुछ मुख्य बिन्दुओं पर। सरकार ने पेट्रोल और डीज़ल की कीमतों मे बढ़ोत्तरी कर दी है। इसका कारण बजट घाटे को पूरा करना बताया गया है। न सिर्फ़ पेट्रोलियम उत्पादों पर लगे उत्पादन शुल्क में बढ़ोत्तरी कर दी गयी है, बल्कि सभी अप्रत्यक्ष करों में बढ़ोत्तरी कर दी गयी है। कृषि के लिए मौजूदा ऋण राशि को रु. 3,25,000 करोड़ से बढ़ाकर रु 3,75,000 करोड़ कर दिया गया है। दालों और अनाज के परिवहन से उत्पादन शुल्क हटा दिया गया है। लेकिन कोई यह न समझे कि इससे दालों और अनाजों की कीमत में कोई कमी आने वाली है। इससे सिर्फ़ धनी किसानों के मुनाफ़े का मार्जिन बढ़ेगा। पहले भी उत्पादन की अधिक लागत या उत्पादन में कमी अनाज और दालों की बढ़ती कीमतों का कारण नहीं था। अनाजों और दालों की बढ़ती कीमतों का कारण था जमाखोरी, वायदा व्यापार, सट्टेबाज़ी और खाद्यान्नों के बाज़ार का सरकार द्वारा अविनियमन (डीरेग्यूलेशन)। वास्तव में, सरकार के पास 52 लाख टन का वह बफर स्टॉक मौजूद था जो कीमतों को बढ़ने से रोकने के लिए ज़रूरी था। 2009–2010 में फूड कार्पोरेशन ऑफ़ इण्डिया ने 54 लाख टन की रिकॉर्ड प्राप्ति की थी। इसके बावजूद अनाज की कीमतों के आसमान छूने की वजह ही जमाखोरी और वायदा व्यापार था। खाद्यान्न के बाज़ार में बड़ी–बड़ी कम्पनियों के उतरने और सट्टेबाज़ी और वायदा व्यापार की शुरुआत के साथ ही अनाज की कीमतें बढ़ने लगीं थीं। बजट में एक अन्य ध्‍यान देने योग्य बात थी सार्वजनिक क्षेत्रों से विनिवेश करके रु. 40,000 करोड़ जुटाने की सरकार की योजना। जाहिर है, कि जनता की मेहनत–पसीने की कमाई पर खड़े सार्वजनिक उद्यमों को एक–एक करके मिट्टी के मोल पूँजीपतियों को बेचकर यह पैसा जुटाया जाएगा। इसके अतिरिक्त खाद्य वस्तुओं और उर्वरकों पर से सब्सिडी हटाने का ऐलान किया गया है। जाहिर है, इससे खाने–पीने की वस्तुओं की कीमतें और अधिक बढ़ेंगी। पेट्रोलियम उत्पादों के अतिरिक्त एक अन्य बुनियादी माल कोयले की कीमत भी बढ़ा दी गयी है जिसका प्रभाव मुद्रास्फीति को बढ़ाने में योगदान करेगा। फार्मरों और धनी किसानों को उपहार देते हुए सरकार ने “हरित क्रान्ति” को देश के पूर्वी क्षेत्र, यानी, उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में विस्तारित करने के लिए रु. 400 करोड़ की राशि आवण्टित की है। पंजाब और हरियाणा में “हरित क्रान्ति” ने धनी किसानों, फार्मरों और कुलकों के एक वर्ग को पैदा किया, पाला–पोसा और पूँजीवाद के एक मज़बूत सामाजिक अवलम्ब के तौर पर विकसित किया। जाहिर है कि पूर्वी भारत में भी कुलकों और फार्मरों के वर्ग के आधुनिकीकरण और वित्त–पोषण के ज़रिये एक ऐसा ही वर्ग पैदा करने की योजना है। इससे इस क्षेत्र के आम ग़रीब किसानों और खेतिहर मज़दूरों को कुछ भी हासिल नहीं होने वाला। उल्टे, ग़रीब किसानों की भारी जमात अपनी जगह–जमीन खोकर सर्वहारा वर्ग की कतार में शामिल होती जाएगी।

कारपोरेट जगत को भारी छूटें दी गयी हैं। निगम कर पर से सरचार्ज 10 प्रतिशत से घटाकर 75 प्रतिशत कर दिया गया है। कर्ज़ों और करों से मुक्ति के रूप में कारपोरेट जगत को रु. 500,000 करोड़ का तोहफ़ा दिया गया है। अवसंरचना निर्माण के लिए जो भारी राशि आवण्टित की गयी है, उसे भी कारपोरेट घरानों को दिये गये पैसों के रूप में ही जोड़ा जाना चाहिए क्योंकि इस राशि से उसी अवसंरचना का निर्माण होना है जिसका फ़ायदा इन इजारेदार पूँजीवादी निगमों को मिलेगा।

अब आइये अलग–अलग देखें कि शासक वर्गों के समुच्चय को इस बजट ने क्या दिया है ?

धनी किसानों, फार्मरों, कुलकों, एग्रो कम्पनियों के लिए :

• बड़े निजी भण्डारण गृहों का निर्माण किया जाएगा। कहने की ज़रूरत नहीं है कि बड़े पैमाने पर भण्डारण सुविधाओं का उपयोग धनी किसान, एग्रो–बिज़नेस कम्पनियाँ और फार्मर करते हैं। इससे आम ग़रीब और यहाँ तक कि मँझोले किसानों को भी कोई लाभ नहीं मिलने वाला है।

• ऋण के लिए उपलब्ध राशि को रु. 3,25,000 करोड़ से बढ़ाकर रु. 3,75,000 करोड़ कर दिया गया है। पिछले वर्ष अधिकांश ऋण राशि जिस आकार के ऋणों में ख़र्च हुई वह था 10 से 15 करोड़ रुपये के ऋण। अब यह सहज ही समझा जा सकता है कि इस आकार का ऋण या तो बेहद बड़े फार्मर ले सकते हैं या फिर एग्रो–बिज़नेस कम्पनियाँ। इसलिए जाहिर है कि ऋण राशि में बढ़ोत्तरी का लाभ ग़रीब या मँझोले किसानों को नहीं मिलने वाला है।

• रेफ्रिजरेशन, परिवहन, आदि जैसी सुविधाओं को सस्ता किया गया है। इसका लाभ भी धनी किसानों को ही मिलने वाला है। भण्डारण सुविधाओं और परिवहन सुविधाओं का उपयोग यही वर्ग करता है। ग़रीब किसान भण्डारण योग्य उत्पादन नहीं करते और आम तौर पर करीब की मण्डी में ही किसी बिचौलिये के जरिये या फिर स्वयं उसका विपणन करते हैं।

• ग्रामीण क्षेत्रों में निजी बैंकों को अपनी शाखाएँ खोलने की इजाज़त दे दी गयी है। स्पष्ट रूप से निजी बैंक ग़रीब किसानों के उत्थान के लिए क्रेडिट देने में नहीं बल्कि अपने मुनाफ़े में दिलचस्पी रखेंगे। यह मुनाफ़ा उन्हें बड़े पैमाने की और बाज़ार के लिए होने वाली खेती में ही मिलेगा। कहने की ज़रूरत नहीं है कि यहाँ भी लाभप्राप्तकर्ता धनी किसानों का ही वर्ग होगा।

• कृषि अवसंरचना का विकास आम जनता के पैसों से किया जाएगा। लेकिन इसके अन्तर्गत जिन चीज़ों का निर्माण होने वाला है उसमें बिरले ही कोई ऐसी चीज़ होगी जिसका उपयोग ग़रीब किसान करते हों। इसका फ़ायदा मँझोले किसानों तक तो पहुँच सकता है लेकिन ग़रीब किसानों को इससे कोई लाभ नहीं होने वाला।

• खाद्य वस्तुओं पर सब्सिडी घटाने के पीछे सरकार का तर्क है कि अगर खाने–पीने की वस्तुओं के दाम बढ़ते हैं तो इससे किसानों को फ़ायदा होगा। लेकिन किस किसान को फ़ायदा होगा ? सिर्फ़ 10 से 15 प्रतिशत किसानों को। सरकार के ही आँकड़े बताते हैं कि 70 प्रतिशत किसान मुख्य रूप से खाद्यान्न के ख़रीदार हैं न कि उत्पादक। दो तिहाई से भी अधिक किसानों की कुल आय का लगभग 60 फीसदी हिस्सा खाना खरीदने में  ख़र्च हो जाता है। इसका कारण यह है कि अनाजों का फार्म गेट मूल्य (जिस दर पर कम्पनियाँ, एफसीआई या कोई टुटपुँजिया व्यापारी किसानों से अनाज खरीदता है) खाद्यान्न के थोक मूल्य से बेहद कम है और खुदरा मूल्य से तो वह बेहद कम है। सारा लाभ एग्रो–बिज़नेस कम्पनियाँ या खाद्यान्न के व्यापार में घुसी कम्पनियाँ खा जाती हैं। बड़े किसानों से फूड कारपोरेशन ऑफ इण्डिया सम्मानजनक दर पर खरीदारी कर लेता है, इसलिए धनी किसानों को कुल मिलाकर लाभ ही होता है। लाभकारी मूल्य बढ़ाकर वे इसे और बढ़ाने के लिए सरकार पर दबाव बनाते रहते हैं।

इजारेदार पूँजीपति वर्ग, व्यापारी वर्ग, उच्च मध्यवर्ग, नेताओं और नौकरशाहों के लिए:

• निगम करदाताओं (यानी, बड़े–बड़े कारपोरेट घरानों और कम्पनियों) को करों से छूट के रूप में रु. 80,000 करोड़ की छूट।

• कारपोरेट जगत को उत्पादन शुल्क से छूट के रूप में रु 1,70,765 करोड़ की छूट।

• कारपोरेट जगत को कस्टम ड्यूटी से छूट के रूप में रु. 2,49,021 करोड़ की छूट।

• सार्वजनिक उद्यमों को कारपोरेट जगत के हाथों बेचकर रु. 40,000 करोड़ की आमदनी करने की योजना।

• कुल मिलाकर कारपोरेट जगत को रु. 500,000 करोड़ की छूट।

• ग्रामीण विकास के नाम पर रु. 3936 करोड़ आवण्टित जो नेताओं–नौकरशाहों और ठेकेदारों की जेब में जाने वाले हैं।

• कारपोरेट जगत के मुनाफ़े की मशीनरी को और सुचारू रूप से चलाने के लिए अवसंरचना निर्माण के लिए भारी राशि आवण्टित। रु. 19,894 करोड़ सड़कों के लिए; रु. 16,752 करोड़ रेलमार्ग निर्माण के लिए।

• प्रधानमन्त्री और गाँधी परिवार की सुरक्षा के लिए आवण्टित राशि रु. 212 करोड़ से बढ़ाकर रु. 252 करोड़ कर दी गई।

• मात्र 4 करोड़ प्रत्यक्ष करदाताओं के लिए प्रत्यक्ष करों में भारी छूट, जबकि अप्रत्यक्ष करों में परिवर्तन से प्रभावित होने वाले करीब 98 करोड़ लोगों के लिए सभी अप्रत्यक्ष करों में भारी बढ़ोत्तरी।

साफ़ है कि सरकार पूँजीपतियों को हर प्रकार की छूट और रियायत दे रही है और उस छूट और रियायत से होने वाले घाटे की भरपाई महँगाई और ग़रीबी से पहले से ही त्रस्त आम जनता को और अधिक निचोड़कर कर रही है। यही है सरकार का “सक्षमकारी” चरित्र। शब्दों की इस लफ्फाज़ी का लक्ष्य महज़ यह है कि आम जनता को गुमराह किया जा सके और सरकार अपने असली चरित्र को ढाँप सके और यह असली चरित्र है पूँजीपति वर्ग की मैनेजिंग कमेटी का चरित्र।

जनता के लिए ? –– ढेर सारे लॉलीपॉप!

जनता को बेवकूफ बनाने के लिए कुछ लॉलीपॉप थमा दिये गये हैं। जैसे कि स्कूल शिक्षा के लिए रु 31,036 करोड़ की राशि आवण्टित की गयी है। लेकिन यह एक बहुत बड़ा और भद्दा मज़ाक है। कारण यह कि सबके लिए नि:शुल्क व अनिवार्य शिक्षा की बात करने वाले शिक्षा के अधिकार कानून को वाकई लागू करने के लिए इससे कई गुना अधिक फण्ड की आवश्यकता होगी। स्वास्थ्य और परिवार कल्याण के लिए मात्र रु. 22,300 करोड़ का प्रावधान किया गया है। जब देश के 50 प्रतिशत बच्चे कुपोषण और भुखमरी का शिकार हों, जब देश की आधी से अधिक महिलाएँ अरक्तता का शिकार हों और जब देश के कई हिस्सों में नवजात शिशु मृत्यु दर अफ्रीका के भी कई देशों से ज़्यादा हो तो स्वास्थ्य और परिवार कल्याण के लिए यह रकम आवण्टित करना मज़ाकिया ही माना जाएगा। महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी योजना के तहत आवण्टित फण्ड में मामूली बढ़ोत्तरी कर उसे रु. 40,000 करोड़ कर दिया गया है। इस बढ़ोत्तरी से कोई विशेष लाभ नहीं होने वाला है। और वैसे भी पहले जितनी राशि आवण्टित थी उसका बहुलांश ग्रामीण नौकरशाह पूँजीपति वर्ग, ठेकेदारों और दलालों की जेब में जा रहा था। अभी भी, वैसा ही होने जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र के हालिया आँकड़े बताते हैं कि मनरेगा लागू होने के बाद 2008–2009 में करीब 3.4 करोड़ लोग भारत में ग़रीबी रेखा के नीचे धकेल दिये गये। हालाँकि सरकारी ग़रीबी रेखा अपने आप में एक चुटकुला है, लेकिन अगर उसे भी गम्भीर माना जाय तो 3.4 करोड़ लोग कुछ मायने रखते हैं। नयी आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद से 2001 तक करीब 1 करोड़ किसान सर्वहाराकृत होकर खेतिहर और औद्योगिक मज़दूरों की जमात में शामिल हो चुके थे। 1997 से 2009 के बीच 2 लाख किसान आत्महत्या कर चुके थे। इन नवउदारवादी आर्थिक नीतियों ने अतीत में जनता को यही नायाब तोहफ़े दिये हैं। इस बजट में सरकार का जो “सक्षमकारी” चेहरा प्रणब मुखर्जी ने पेश किया है, वह भी कुछ अलग नहीं करने जा रहा है। बल्कि, यही काम वह और तेज़ी से करेगा। कुल मिलाकर, यह पूँजीपतियों का, पूँजीपतियों द्वारा और पूँजीपतियों के लिए बनाया गया बजट है।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2010

 

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