बजट 2011-2012 : पूँजीपतियों का, पूँजीपतियों के द्वारा, पूँजीपतियों के लिए
सम्पादकीय
प्रणब मुखर्जी अब बजट पेश करने की कला में माहिर हो चुके हैं। चिदम्बरम सख़्ती से सरकार की नवउदारवादी नीतियाँ प्रस्तुत करते थे। फालतू कम बोलते थे। मुखर्जी वही सारी नीतियाँ लागू कर रहे हैं, लेकिन वे अपने बजट भाषण में फालतू बातें इतनी बोलते हैं कि असल मुद्दे उनके बीच में खो-से जाते हैं। शायद इसीलिए चिदम्बरम को गृहमन्त्री बना दिया गया! क्योंकि वहाँ आवश्यकता से अधिक स्पष्टवादिता ही ज़्यादा काम आती है! वित्तमन्त्री को तो फालूदेबाज़ी में निपुण होना चाहिए। इस मामले में बाबू मोशाय का तजुरबा ज़्यादा काम आ रहा है!
इस बार भी बजट भाषण में वित्तमन्त्री महोदय ने कारपोरेट घरानों को जनसंसाधनों से अरबों-खरबों की मात्र में लाभान्वित करने, 85 फीसदी जनता के लिए वास्तविक आय घटाने, रोज़गार वृद्धि को नकारात्मक में ही और नीचे ले जाने, सार्वजनिक ख़र्च को और अधिक कम करके बची-खुची ‘कल्याणकारी’ नीतियों का भी जनाज़ा निकालने का इरादा ज़ाहिर कर दिया। लेकिन इसे सभी नहीं समझ सकते थे। भाषण के पहले हिस्से में मुखर्जी ने ग़रीबों के बारे में अपनी चिन्ता, खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमत, मुद्रास्फीति की बढ़ती दर, और बेरोज़गारी को लेकर अपने सरोकार पर इतना अधिक बोला कि उबाहट होने लगी। इस बीच उन्होंने इन समस्याओं के समाधान के लिए पिछले बजट में ही आबण्टित मदों का जिक्र ऐसे किया, मानो वे इस बार की गयी बढ़ोत्तरियाँ हों! लेकिन इन बातों को फालूदेदार जुमलों में ऐसा गड्डमड्ड करके पेश किया गया कि कोई समझ ही न पाये कि बाबू मोशाय कौन-सा करतब कर रहे हैं! भाषण के दूसरे हिस्से में उन्होंने असल मुद्दों की बातों में फालूदे का मिश्रण कम किया। इस हिस्से से बजट का जो चरित्र सामने आता है, वह बिल्कुल चौंकाने वाला नहीं था।
नयी आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद से इसी प्रकार के बजट पेश किये जा रहे हैं। इनमें कभी लोकलुभावन दिखने का पहलू हावी होता है तो कभी “सख़्त” दिखने का। लेकिन अन्तर्वस्तु करीब दो दशकों से एक ही है: निजीकरण, उदारीकरण, भूमण्डलीकरण, रोज़गार-विहीन विकास, धनी-ग़रीब के बीच बढ़ती खाई, कुदरत और मेहनत दोनों की लूट के लिए देशी-विदेशी कारपोरेटों को खुली छूट! हर बार बस एक फर्क आता है। देश को पूँजीपतियों की लूट का खुला चरागाह बना देने का काम और अधिक कुशलता के साथ किया जाता है। और संप्रग सरकार तो यह सारा काम लोकरंजकता की नौटंकी करते हुए करने में माहिर हो गयी है। आइये देखें कि इस बार के बजट में यह काम किस तरह किया गया है।
बजट स्पष्ट तौर पर देश के कारपोरेट घरानों, शहरी नवधनाढ्य पेशेवरों समेत उच्च मध्यवर्ग के सभी संस्तरों, धनी किसानों, ठेकेदारों, छोटे और मँझोले पूँजीपतियों के हितों को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है, जो कि कुल आबादी का मुश्किल से 25 प्रतिशत है। दूसरी तरफ, इस देश की आम मेहनतकश आबादी के लिए इस बजट में सिर्फ झुनझुने हैं और वास्तव में उनके जीवन को और ज़्यादा दरिद्रतापूर्ण और ग़रीब बना देने के लिए हर कदम उठाया गया है। और शहरी और ग्रामीण मज़दूरों, ग़रीब किसानों और आम मेहनतकशों की यह आबादी कुल आबादी का 75 फीसदी है।
वित्तमन्त्री महोदय ने खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों पर काफी घड़ियाली आँसू बहाये। खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों के मुख्य तौर पर तीन कारण हैं। पहला, आपूर्ति को बढ़ाने के लिए राज्य द्वारा सब्सिडी और निवेश में लगातार की जा रही कटौती; दूसरा, वितरण व्यवस्था का सिकुड़ता जाना, यानी, सार्वजनिक वितरण व्यवस्था का योजनाबद्ध तरीके से ध्वंस किया जाना; और तीसरा, खाद्य पदार्थों के बाज़ार में सट्टेबाज़ी और जमाखोरी, जिसे फ्यूचर्स ट्रेड जमकर बढ़ा रहा है। अब इन तीनों मोर्चों पर सरकार ने क्या किया है इस बजट में? खाद्य सब्सिडी को सरकार ने 424 करोड़ रुपये घटा दिया है! खाद्य उत्पादन को बढ़ाने के लिए राशि को इतना मामूली बढ़ाया गया है कि अगर उसमें मुद्रास्फीति को समायोजित कर लें तो यह बढ़ोत्तरी मूँगफलियों के बराबर है! 11,014 करोड़ रुपये से बढ़ाकर इसे 14,361-55 करोड़ रुपये किया गया है। अगर मुद्रास्फीति को भी समायोजित कर लें तो यह बढ़ोत्तरी बेहद मामूली है। दूसरी बात यह कि अगर उत्पादन बढ़ता भी है, तो इससे कुछ नहीं होगा क्योंकि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अभाव और कूपन व्यवस्था के लागू होने के बाद वैसे भी वह गोदामों में सड़ेगा और उसे चूहे खायेंगे। यानी कि दूसरे कारण के निवारण की बजाय बजट उसे और भी विकराल बना देता है। इस वर्ष खाद्य सुरक्षा अधिनियम के पास होने की उम्मीद है। ‘आह्नान’ के पिछले अंकों में हम इस धोखेबाज़ कानून के बारे में बता चुके हैं, जिसे वास्तव में खाद्य असुरक्षा कानून कहा जाना चाहिए। इसके तहत सार्वजनिक वितरण प्रणाली का ध्वंस कर कूपन व्यवस्था लागू करने की बात कही गयी है, जिसके तहत खाद्य प्राप्ति के लिए ग़रीबों को नकद स्थानान्तरित किया जायेगा। यह वैसा ही होगा जैसे कि सरकार वेतन और मज़दूरी दुअन्नी-चवन्नी बढ़ाकर उसे मुद्रास्फीति से बराबर कर लेती है। यानी, सार्वजनिक वितरण प्रणाली को भी बाज़ार के भरोसे छोड़ दिया जायेगा। तीसरे कारण के लिए भी सरकार ने कुछ नहीं किया है। खाद्य पदार्थों के क्षेत्र में वायदा व्यापार पर रोक लगाने की बजाय उसे और बढ़ावा दे दिया गया है। इस तरह से खाद्य पदार्थों की बढ़ती कीमतों पर लाख नौटंकी के बावजूद सरकार ने बजट में क्या किया है, यह साफ तौर पर देखा जा सकता है।
ग्रामीण विकास का मसला कृषि उत्पादन से करीबी से जुड़ा हुआ है। आइये देखें, सरकार ने इसके लिए क्या किया है। ग्रामीण विकास मद के बारे में भी वही बात लागू होती है। जितनी बढ़ोत्तरी की गयी है वह मुद्रास्फीति के समायोजित करने पर मामूली है। इस मद को 38,569-04 करोड़ से बढ़ाकर 46,104-10 करोड़ कर दिया गया है। लेकिन इस बढ़ोत्तरी का कोई विशेष अर्थ नहीं होगा, अगर मुद्रास्फीति के कारक को शामिल कर लिया जाये। लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों को और अच्छी तरह से वित्त पूँजी की पकड़ में लाने के लिए ग्रामीण ऋण की राशि को बढ़ाकर सरकार ने 37,500 से 47,500 करोड़ कर दिया है। पहली बात तो यह कि इस ऋण का लाभ मँझोले किसानों तक के संस्तर को ही प्राप्त होने वाला है। उससे नीचे के किसानों के तबाह-बरबाद होने की प्रक्रिया जारी रहेगी, जैसा कि पहले से हो रहा है। पूरी की पूरी कृषि अर्थव्यवस्था और अधिक मज़बूती के साथ वित्त पूँजी की गिरफ्त में आ जायेगी। वित्त पूँजी के मुनाफे की पहुँच ग्रामीण और खेतिहर अर्थव्यवस्था तक पहुँचाने के लिए सरकार लगातार पूँजी की घुसपैठ को भिन्न-भिन्न रास्तों से गाँवों तक पहुँचा रही है। वहीं दूसरी ओर बजट में महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी योजना की मद में कोई बढ़ोत्तरी नहीं की गयी है। इसके अलावा, प्रणब मुखर्जी ने देश भर में ग्रामीण मज़दूरों के संगठनों व अन्य जनसंगठनों द्वारा इस माँग को भी ख़ारिज कर दिया है कि मनरेगा के तहत ग्रामीण मज़दूरों को मिलने वाली मज़दूरी को न्यूनतम मज़दूरी के स्तर पर कर दिया जाना चाहिए। इस प्रकार सरकार ने अपने ही संविधान की धारा 21 का उल्लंघन जारी रखा है, जिसके अनुसार किसी से भी न्यूनतम मज़दूरी से कम मज़दूरी पर मज़दूरी करवाना बेगारी करवाने के समान है। और मनरेगा में सरकार स्वयं यह काम कर रही है। क्या इसके लिए मनमोहन सिंह, प्रणब मुखर्जी, मोण्टेक सिंह आहलूवालिया और अन्य मन्त्रियों को सज़ा नहीं मिलनी चाहिए?
और देखिये कि बजट में सरकार क्या कर रही है।
बजट से पहले ही सरकार ने पेट्रोलियम को पूरी तरह से बाज़ार की ताकतों के भरोसे छोड़ दिया था, जब उसने पेट्रोलियम कीमतों को विनियमन से मुक्त कर दिया था। और इस बार भी बजट में पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों को बढ़ा दिया गया है। बताने की ज़रूरत नहीं है कि यह बढ़ोत्तरी सभी मालों की कीमत में स्थानान्तरित हो जायेगी और इस प्रकार कुल मिलाकर मुद्रास्फीति का दबाव बढ़ेगा। यह भी बताने की आवश्यकता नहीं कि इसका सबसे ज़्यादा नुकसान आम ग़रीब और निम्न मध्यवर्गीय जनता को उठाना पड़ेगा। पहले से ही महँगाई और बेरोज़गारी की मार झेल रही यह जनता अब देश के धनिकों और कारपोरेटों के मुनाफे का बोझ पहले से भी ज़्यादा उठायेगी।
सामाजिक क्षेत्र पर होने वाले ख़र्च में सरकार ने एक ज़बरदस्त करतब किया है। योजनाबद्ध व्यय को तो 136,941 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 153,182 करोड़ रुपये कर दिया गया, लेकिन अनियोजित व्यय को 35,085 करोड़ से घटाकर 20,862 करोड़ रुपये कर दिया गया। यानी, कुल बढ़ोत्तरी नहीं के बराबर हुई, अगर हम मुद्रास्फीति के कारक को जोड़ लें। इस प्रकार शिक्षा के अधिकार को सरकार कैसे लागू करने वाली है, यह तो साक्षात ईश्वर उपस्थित हो जायें तो भी नहीं बता सकते! अन्य सेवाओं की तो बात ही छोड़ दी जाये, जिनकी अनुपलब्धता के कारण चिकित्सा सुविधाओं, शिक्षा, कल्याण और सामाजिक सुरक्षा के मामले में भारत की स्थिति सबसहारा के निर्धनतम देशों से भी गयी-बीती है। लेकिन प्रणब मुखर्जी का यह सरोकार नहीं है। उनका सरोकार पूरी तरह से देश के कारपोरेट घरानों का अतिलाभ है।
और बजट में जो चीज़ हमेशा की तरह बजट की पक्षधरता को साफ करती है, उस पर एक निगाह दौड़ाने से भी यह स्पष्ट हो जाता है कि यह पूँजीपतियों का, पूँजीपतियों के द्वारा और पूँजीपतियों के लिए बजट है।
प्रत्यक्ष कर देने वाली आबादी कारपोरेट घरानों समेत कुल आबादी का मात्र 5 प्रतिशत है। इस आबादी के लिए करों का दबाव और घटा दिया गया है। इस प्रकार कुल अधिशेष नियोजन में उनकी हिस्सेदारी को और बढ़ा दिया गया है। साथ में, शासक वर्ग ने सांसद, विधायक आदि के वेतन-भत्ते बढ़ाकर अपनी कीमत वसूली है। इस बार कारपोरेट घरानों को जारी वित्तीय वर्ष के 80,000 करोड़ रुपये की छूट के साथ करीब 26,000 करोड़ रुपये की कर छूट अतिरिक्त तौर पर दी गयी है। इसके अतिरिक्त, 40,000 करोड़ रुपये के सार्वजनिक उपक्रम भी इस बार कारपोरेटों को तोहफे में सौंप दिये जायेंगे। इसी प्रकार, धनपतियों को दी गयी कुछ छूट, राहतें और सुविधाएँ बजट का आधा हिस्सा खा जाती हैं। इससे होने वाले बजट घाटे और ख़जाने को होने वाले नुकसान को प्रणब मुखर्जी किस प्रकार पूरा करते हैं? अतिरिक्त करों का बोझ ग़रीब जनता पर लादकर! सभी प्रकार के अप्रत्यक्ष करों को बढ़ा दिया गया है। उन बुनियादी आवश्यकता की सामग्रियों को भी वैट के तहत ला दिया गया है जिसका इस्तेमाल मूल रूप से ग़रीब आबादी करती है। बढ़े हुए अप्रत्यक्ष करों के बाद इस देश की 75 फीसदी ग़रीब जनता पर जो अतिरिक्त बोझ पड़ने वाला है, वह भयंकर है: 60,000 करोड़ रुपये से भी ज़्यादा।
स्पष्ट है कि सरकार के दिमाग़ में किनका हित है। प्रणब मुखर्जी अपने बजट भाषण में देश के ग़रीबों के बारे में कितना भी “सरोकार” दिखला लें, वास्तव में वह अपने आकाओं की ही सेवा करने के लिए वहाँ मौजूद हैं। और बजट का उपरोक्त विश्लेषण स्पष्ट तौर पर दिखला रहा है कि इस बजट में किन वर्गों को लाभ पहुँचने वाला है। यह देश के धनिकों का बजट है! पूँजीपतियों का, पूँजीपतियों के द्वारा, पूँजीपतियों के लिए! पूँजीवादी जनतन्त्र के असली नियम को यह बजट हमारे सामने बेनकाब कर देता है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2011
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