Tag Archives: कविता कृष्णापल्लवी

“स्त्री क्या चाहती है?” – सबसे पहले तो आज़ादी!

स्त्री क्या चाहती है? यह प्रश्न कई अवस्थितियों से, कई धरातलों पर पूछा जा सकता है और इसके उत्तर भी इतनी ही भिन्न‍ताएँ लिये हुए होंगे। स्त्री की चाहत समय और समाज की चौहद्दी का अतिक्रमण नहीं कर सकती। आज से सौ या पचास साल पहले की स्त्री की चाहत वही नहीं थी जो आज की स्त्री की है। सामाजिक विकास और सामाजिक चेतना के स्तरोन्नयन के साथ स्त्री चेतना भी उन्नत हुई है और उसकी इच्छाओं-कामनाओं-स्वप्नों के क्षितिज का विस्तार हुआ है।

हिन्दुत्ववादी फासीवाद के आगे बढ़ते कदम

भाजपा सत्ता में रहे या न रहे, फासीवाद के विरुद्ध लड़ाई की योजनाबद्ध, सांगोपांग, सर्वांगीण तैयारी क्रान्तिकारी एजेण्डे पर हमेशा प्रमुख बनी रहेगी, क्योंकि फासीवाद राजनीतिक परिदृश्य  पर अपनी प्रभावी उपस्थिति तबतक बनाये रखेगा, जबतक राज, समाज और उत्पादन का पूँजीवादी ढाँचा बना रहेगा। इसलिए फासीवाद विरोधी संघर्ष को हमें पूँजीवाद-साम्राज्यवाद विरोधी क्रान्तिकारी संघर्ष के एक अंग के रूप में ही देखना होगा। इसे अन्य किसी भी रूप में देखना भ्रामक होगा और आत्मघाती भी।

जीवन की अपराजेयता और साधारणता के सौन्दर्य का संधान करने वाला कवि वीरेन डंगवाल

वीरेन डंगवाल की कविता का रास्ता देखने में सहज, लेकिन वास्तव में काफी बीहड़ था। उदात्तता और सूक्ष्मतग्राही संवेदना उनके सहज गुण हैं। ये कविताएँ भारतीय जीवन के दुःसह पीड़ादायी संक्रमण के दशकों की आशा-निराशा, संघर्ष-पराजय और स्वप्नों के ऐतिहासिक दस्तावेज के समान हैं। वीरेन ने अपने ढंग से निराला, नागार्जुन, शमशेर और त्रिलोचन जैसे अग्रज कवियों की परम्परा को आगे विस्तार दिया और साथ ही नाज़िम हिकमत की सर्जनात्मकता से भी काफी कुछ अपनाया, जो उनके प्रिय कवि थे। जीवन-काल में उनके तीन संकलन प्रकाशित हुए – ‘इसी दुनिया में’ (1991), ‘दुश्चक्र में स्रष्टा’ (2002) और ‘स्याहीताल’ (2010)। उनकी ढेरों कविताएँ और ढेर सारा गद्य अभी भी अप्रकाशित है। नाज़िम हिकमत की कुछ कविताओं का उनके द्वारा किया गया अनुवाद ‘पहल-पुस्तिका’ के रूप में प्रकाशित हुआ था, लेकिन बहुतेरी अभी भी अप्रकाशित हैं। उन्होंने पाब्लो नेरूदा, बेर्टोल्ट ब्रेष्ट, वास्को पोपा, मीरोस्लाव होलुब, तदेऊष रोजेविच आदि कई विश्वविख्यात कवियों की कविताओं के भी बेहतरीन अनुवाद किये थे। उनकी कविताएँ उत्तरवर्ती पीढ़ियों को ज़िन्दादिली के साथ जीने, ज़िद के साथ लड़ने और उम्मीदों के साथ रचने के लिए हमेशा प्रेरित और शिक्षित करती रहेंगी। पाब्लो नेरूदा ने कहा थाः “कविता आदमी के भीतर से निकलती एक गहरी पुकार है।” वीरेन डंगवाल की कविताएँ ऐसी ही कविताएँ

अखबार

इतने सारे,
इतने सारे पेड़ों को काटते हैं लगातार
इतने सारे कारखानों में
इतने सारे मजदूरों की श्रमशक्ति को निचोड़कर
तैयार करते हैं इतना सारा कागज
जिनपर दिन-रात चलते छापाखाने
छापते हैं इतना सारा झूठ
रोज सुबह इतने सारे दिमागों में उड़ेल देने के लिए।

साइनाथ का एनजीओ प्रायोजित रैडिकलिज़्म और ‘परी’ की पॉलिटिक्स

ऐसा कोई निहायत भोला व्यक्ति ही सोच सकता है कि साइनाथ इन संस्थाओं के संदिग्ध चरित्र से परिचित न हों। दरअसल साइनाथ जैसों की कथित प्रगतिशीलता ही पूँजी-प्रतिष्ठानों द्वारा वित्तपोषित प्रगतिशीलता है, जो अलग-अलग कारणों से सी.पी.एम. ब्राण्ड संशोधनवादियों और भाँति-भाँति के नववामपंथियों और “सामाजिक आन्दोलनों” के छद्म रैडिकल बुद्धिजीवियों तक को खूब भाती है। साथ ही, समस्याओं की सतही, लोकरंजक, अनुभववादी समझ रखने वाले विभ्रमग्रस्त जागरूक नागरिकों को भी साइनाथ वैकल्पिक रैडिकल पत्रकारिता के स्टार जान पड़ते हैं।

‘एम.एस.जी.’ फिल्‍म को प्रदर्शन की अनुमति देने के पीछे की राजनीति

डेरा सच्‍चा सौदा पहले हरियाणा और पंजाब की राजनीति में कांग्रेस का पक्षधर माना जाता था। फिर कांग्रेस के पराभव के साथ ही इस डेरे ने अपने अन्‍य राजनीतिक विकल्पों की तलाश और सौदेबाजी भी शुरू कर दी। उल्लेखनीय है कि विगत लोकसभा चुनावों में डेरा सच्‍चा सौदा ने अकाली दल उम्‍मीदवार और सुखवीर सिंह बादल की पत्‍नी हरसिमरन कौर की जीत में अहम भूमिका निभायी। इन चुनावों के दौरान और हरियाणा के विधान सभा चुनावों के दौरान डेरा सच्‍चा सौदा ने पर्दे के पीछे से अपना पूरा समर्थन भाजपा को दिया था।

तीन राज्यों के आगामी विधानसभा चुनाव: तैयारियाँ, जोड़-तोड़ और सम्भावनाएँ

भाजपा अगले पाँच वर्षों में, पहले लोकलुभावन नारों-वायदों की लहर के सहारे और फिर हिन्दुत्व और अन्धराष्ट्रवाद के कार्डों के सहारे देश के ज़्यादा से ज़्यादा राज्यों की सत्ता पर काबिज़ होना चाहती है ताकि नवउदारवादी एजेण्डा को अधिक से अधिक प्रभावी ढंग से लागू किया जा सके। इस आर्थिक एजेण्डा के साथ-साथ निरंकुश दमन तथा साम्प्रदायिक विभाजन, मारकाट तथा शिक्षा और संस्कृतिकरण के हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्ट एजेण्डा का भी अमल में आना लाजिमी है। इसका मुकाबला बुर्जुआ संसदीय चुनावों की चौहद्दी में सम्भव ही नहीं। मज़दूर वर्ग और व्यापक मेहनतकश जनता तथा मध्यवर्ग के रैडिकल प्रगतिशील हिस्से की जुझारू एकजुटता ही इसका मुकाबला कर सकती है। फासीवाद अपनी हर सूरत में एक धुर प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन होता है। एक क्रान्तिकारी प्रगतिशील सामाजिक आन्दोलन ही उसका कारगर मुकाबला कर सकता है और अन्ततोगत्वा उसे शिकस्त दे सकता है।

जनता पार्टी के बिखरे घटकों को एक करने की चाहतें और कोशिशें : मजबूरियाँ, मुगालते और ज़मीनी हक़ीक़त

इतना तय है कि बुनियादी तौर पर एक ही नस्ल का होने के बावजूद अलग-अलग रंगों वाले ये परिन्दे बहुत लम्बे समय तक साथ-साथ नहीं उड़ सकते। वर्तमान समय में अस्तित्व का संकट पुरानी जनता पार्टी से बिखरे दलों को एक साथ आने के लिए भले ही प्रेरित कर रहा हो, लेकिन इनकी एकता बन पाना मुश्किल है। इन छोटे बुर्जुआ दलों की नियति है कि ये केन्द्र में कांग्रेसनीत या भाजपानीत गठबन्धनों के पुछल्ले बनकर सत्ता-सुख में थोड़ा हिस्सा पाते रहें या बीच के अन्तरालों में ‘स्टॉप गैप अरेंजमेण्ट’ की भूमिका निभाते रहें और कुछ अलग-अलग राज्यों में जोड़-तोड़ कर सरकारें चलाते रहें। पुरानी जनता पार्टी फिर से बन नहीं सकती और बन भी जाये तो बहुत दिनों तक बनी नहीं रह सकती। काठ की हाँड़ी सिर्फ़ एक ही बार चढ़ सकती है।

सोशल मीडिया के बहाने जनता, विचारधारा और तकनोलॉजी के बारे में कुछ बातें

समाज की एक भारी मध्‍यवर्गीय आबादी इण्‍टरनेट-फेसबुक पर बैठी हुई सामाजिक जीवन के यथार्थ से बाहर एक आभासी यथार्थ में जीने का आदी हो जाती है। वह वस्‍तुत: भीषण सामाजिक अलगाव में जीती है, पर फेसबुक मित्रों का आभासी साहचर्य उसे इस अलगाव के पीड़ादायी अहसास से काफी हद तक निजात दिलाता है। बुर्ज़ुआ समाज की भेड़चाल में वैयक्तिक विशिष्‍टता की मान्‍यता का जो संकट होता है, पहचान-विहीनता या अजनबीपन की जो पीड़ा होती है, उससे फेसबुक-साहचर्य, एक दूसरे को या उनके कृतित्‍व को सराहना, एक दूसरे के प्रति सरोकार दिखाना काफी हद तक राहत दिलाता है। यानी यह भी एक तरह के अफीम की भूमिका ही निभाता है। यह दर्द निवारक का काम करता है और एक नशे का काम करता है, पर दर्द की वास्‍तविक जड़ तक नहीं पहुँचाता। इस तरह अलगाव के विरुद्ध संघर्ष की हमारी सहज सामाजिक चेतना को यह माध्‍यम पूँजीवादी व्‍यवस्‍था-विरोधी सजग चेतना में रूपांतरित हो जाने से रोकता है। साथ ही, फेसबुक, टि्वटर और सोशल मीडिया के ऐसे तमाम अंग-उपांग हमें आदतन अगम्‍भीर और काहिल और ठिठोलीबाज भी बनाते हैं। खुशमिजाजी अच्‍छी चीज है, पर बेहद अंधकारमय और चुनौतीपूर्ण समय में भी अक्‍सर चुहलबाजी के मूड में रहने वाले अगम्‍भीर लोग न केवल अपनी वैचारिक क्षमता, बल्कि अपनी संवेदनशीलता भी खोते चले जाते हैं।

फ़ेसबुक के बारे में चलते-चलाते कुछ ‘इम्प्रेशंस’

दो-दो लाइन के शेरों, घटिया ग़ज़लों से फ़ेसबुक भरा रहता है। सस्ती तुकबन्दियों और कवितानुमा लाइनों की भरमार रहती है। नाम में ही ‘कवि’ जोड़े हुए फ़ेसबुकियों की भरमार है। ये सारे साहित्याकांक्षी गणों को एक अतिविनम्र सुझाव है कि उन्हें विश्व के कुछ प्रसिद्ध कवियों को पढ़ना चाहिए, निराला, प्रसाद, पन्त, मुक्तिबोध, शमशेर, त्रिलोचन, नागार्जुन, केदार आदि को पढ़ना चाहिए, अग्रणी समकालीन कवियों को पढ़ना चाहिए और साहित्य-सैद्धान्तिकी पढ़नी चाहिए। हिन्दी कविता की स्थिति इतनी बुरी भी नहीं है कि चार लाइनें जोड़-तोड़कर कोई भी गण्यमान्य बन जाये। ख़ूब लिखिये, आपको अपने मन की कहने की आज़ादी है, पर उसे डायरी में लिखकर अपने घरवालों और दोस्तों को सुनाइये। फ़ेसबुक एक सार्वजनिक स्पेस है। वहाँ अपनी भँड़ास निकालकर बहुत सारे लोगों का समय खाने और उन्हें बोर करने का काम ठीक नहीं है।