मैं से हम तक की यात्रा: वर्तमान चुनौतियाँ
पंकज, सोनीपत
हमें बचपन से पढ़ाया जाता है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी होता है। लेकिन सामाजिक होने के बावजूद आज के समाज में उसका अस्तित्व अक्सर महज एक व्यक्ति के रूप में रह जाता है। एक समष्टि का अंग होते हुए भी वह अपने विकास की कल्पना मुख्य रूप से व्यक्ति के रूप में ही करता है। समाज में कला, साहित्य, संस्कृति और ज्ञान–विज्ञान का विकास तो पूरे समाज की सामूहिक मेधा से होता है लेकिन मनुष्य उसका लाभ व्यक्तिगत रूप से भी उठाता है। समाज में समृद्धि और सम्पदा का सृजन जो वर्ग करते है वे उन से ही वंचित कर दिये जाते हैं। मैं से हम तक की यात्रा अर्थ है, सामाजिक रूप से सृजित समस्त सम्पदा का समूचे समाज द्वारा सामूहिक रूप से और समानतापूर्वक उपयोग।
इतिहास के अध्ययन से पता चलता है कि मानव समाज ने आदिम युग से आज तक जो भी प्रगति की है वह सामूहिक मानवीय प्रयासों के द्वारा ही सम्भव हो सकी है। आदिम युग में मनुष्य प्रकृति के समक्ष असहाय था। प्राकृतिक शक्तियों का मुकाबला मनुष्य सामूहिक रूप से ही कर सकता था। उत्पादक शक्तियों के कम विकास के कारण मनुष्य अलग-अलग अस्तित्वमान रह ही नहीं सकता था। लेकिन उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ मनुष्य के लिए अकेले उत्पादन कर पाना सम्भव हो गया और यहीं से निजी सम्पत्ति का जन्म हुआ। निजी सम्पत्ति के जन्म के साथ मानव-समाज के वर्गों में बंटने की प्रक्रिया शुरू हो गयी। कुछ वर्ग उत्पादन के साधनों से वंचित कर दिये गये और कुछ वर्ग इन साधनों पर काबिज हो गये। इसके साथ ही मनुष्य की समष्टिगत भावना विखण्डित हो गयी और ‘मैं’ और ‘हम’ का टकराव शुरू हो गया। और यहीं से मानवता स्वार्थ, ईर्ष्या, लालच, अहंकार और भय के दलदल में धॅंसने लगी। प्रागैतिहास के अध्ययन से पता चलता है कि मानवीय चेतना का जन्म ही समष्टिगत भावना से हुआ था। लेकिन निजी सम्पत्ति के साथ व्यक्तिवाद का जन्म हुआ और यह भावना विघटित हो गयी। नतीजा आज सामने है-हर इंसान सिर्फ़ अपने लिए जी रहा है और अलगाव, बेगानेपन और अकेलेपन का शिकार है।
मानवता को इस दलदल से निकालने के लिए अतीत में कई प्रयास हुए हैं। यह सच है ये प्रयोग असफ़ल हो गये लेकिन ये प्रयोग एक प्रकाश-स्तम्भ की तरह मानवता के लिए आगे का रास्ता प्रशस्त करने के लिए रोशनी बिखेर रहे है। आज मनुष्य ने विज्ञान और तकनोलॉजी में शानदार प्रगति कर ली है। खाद्यान्न उत्पादन से लेकर औद्योगिक उत्पादन तक, हर क्षेत्र में मनुष्य ने सन्तोषजनक प्रगति की है और आगे भी प्रगति करने की असीम सम्भावनाएँ मौजूद हैं। विज्ञान और तकनोलॉजी इतनी जटिल हो चुकी है कि अब उसे सामूहिक प्रयास से ही आगे बढ़ाया जा सकता है। उत्पादन प्रक्रियाओं की भी यही स्थिति है-एक मनुष्य के प्रयास अब बहुत कारगर नहीं रह गये है। यानी उत्पादन से लेकर आविष्कार तक की प्रक्रिया सामाजिक हो चुकी है। इस समाजीकरण का अन्तरविरोध उत्पादन के साधनों पर निजी मालिकाने से है। ‘मैं’ और ‘हम’ के बीच का अन्तरविरोध दरअसल इसी अन्तरविरोध का प्रतिबिम्बन है। और ‘मैं’ और ‘हम’ के बीच के अन्तरविरोध को उत्पादन के समाजीकरण और उत्पादन के साधनों पर निजी मालिकाने के बीच के अन्तरविरोध के साथ ही खत्म किया जा सकता है।
आज की चुनौती भी इसी बात से समझी जा सकती है। जब तक समाज के संवेदनशील, इन्साफ़पसन्द, और बहादुर नौजवान मेहनतकश आबादी के साथ मिल कर एक ऐसे समाज की स्थापना नहीं करते जिसमें उत्पादन, राज-काज और पूरे समाज के ढाँचे पर उत्पादन करने वाले वर्गों का हक होगा, तब तक ‘मैं’ और ‘हम’ तक की यात्रा पूरी नहीं हो सकती। तब तक समाज की बहुसंख्यक आबादी ज्ञान–विज्ञान कला और जीवन की बुनियादी जरूरतों से वंचित रहेगी।
आह्वान कैम्पस टाइम्स, जुलाई-सितम्बर 2005
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