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यूरोप में यूनानी त्रासदी के बाद इतालवी कामदी!

इटली के इतिहस को कामदी के मोड़ पर लाकर खड़ा करने वाले इस आन्दोलन का स्थापक एक कॉमेडियन बेप्पे ग्रिल्लो था। इस आन्दोलन ने सत्ता और भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ अपशब्द नामक विरोध दिवस मनाये। यह आन्दोलन मुख्यतः भ्रष्टाचार, किफायतसारी और संकट के कारण बढ़ती बेरोज़गारी व गरीबी के खिलाफ था व इसमें नेताओं की ईमानदारी की बात कही गयी। इस आन्दोलन ने एक तरफ यूरोपियन यूनियन से अलग होने की बात कही तो दूसरी ओर सम्प्रभु कर्ज को मिटा देने की बात भी की। भारत में अन्ना हजारे आन्दोलन भी कुछ ऐसा ही था। ‘इण्डिया अगेंस्ट करप्शन” के उत्पाद के तौर पर केजरीवाल की सरकार बनी तो हजारे ने इस सरकार से खुद को अलग कर लिया है वहीं बेप्पे ग्रिल्लो भी इस आन्दोलन से व पार्टी से अलग हो चुका है।

यूनानी त्रासदी के भरतवाक्य के लेखन की तैयारी

अगर हम 2010 से अब तक यूनान को मिले साम्राज्यवादी ऋण के आकार और उसके ख़र्च के मदों पर निगाह डालें तो हम पाते हैं कि इसका बेहद छोटा हिस्सा जनता पर ख़र्च हुआ और अधिकांश पुराने ऋणों की किश्तें चुकाने पर ही ख़र्च हुआ है। दूसरे शब्दों में इस बेलआउट पैकेज से भी तमाम निजी बैंकों, वित्तीय संस्थाओं और यूरोपीय संघ, ईसीबी व आईएमएफ़ में जमकर कमाई की है! मार्च 2010 से लेकर जून 2013 तक साम्राज्यवादी त्रयी ने यूनान को 206.9 अरब यूरो का कर्ज़ दिया। इसमें से 28 प्रतिशत का इस्तेमाल यूनानी बैंकों को तरलता के संकट से उबारने के लिए हुआ, यानी, दीवालिया हो चुके बैंकों को यह पैसा दिया गया। करीब 49 प्रतिशत हिस्सा सीधे यूनान के ऋणदाताओं के पास किश्तों के भुगतान के रूप में चला गया, जिनमें मुख्य तौर पर जर्मन और फ्रांसीसी बैंक शामिल थे। कहने के लिए 22 प्रतिशत राष्ट्रीय बजट में गया, लेकिन अगर इसे भी अलग-अलग करके देखें तो पाते हैं कि इसमें से 16 प्रतिशत कर्ज़ पर ब्याज़ के रूप में साम्राज्यवादी वित्तीय एजेंसियों को चुका दिया गया। बाकी बचा 6 प्रतिशत यानी लगभग 12.1 अरब यूरो। इस 12.1 अरब यूरो में से 10 प्रतिशत सैन्य ख़र्च में चला गया। यानी कि जनता के ऊपर जो ख़र्च हुआ वह नगण्य था! 2008 में यूनान का ऋण उसके सकल घरेलू उत्पाद का 113.9 प्रतिशत था जो 2013 में बढ़कर 161 प्रतिशत हो चुका था! सामाजिक ख़र्चों में कटौती के कारण जनता के उपभोग और माँग में बेहद भारी गिरावट आयी है। इसके कारण पूरे देश की अर्थव्यवस्था का आकार ही सिंकुड़ गया है। 2008 से लेकर 2013 के बीच यूनान के सकल घरेलू उत्पाद में 31 प्रतिशत की गिरावट आयी है, जिस उदार से उदार अर्थशास्त्री महामन्दी क़रार देगा। आज नौजवानों के बीच बेरोज़गारी 60 प्रतिशत के करीब है।

साम्राज्यवाद का निकट आता असंभाव्यता बिन्दु

यूरोज़ोन के संकट ने दिखला दिया है कि ये आर्थिक संकट निकट भविष्य में दूर होने वाला नहीं है। इस संकट से तात्कालिक तौर पर निजात पाने के लिए उत्पादक शक्तियों का विनाश करना पूँजीवाद के चौधरियों के लिए तेज़ी से एक बाध्यता में तब्दील होता जा रहा है। आने वाले समय में अगर विश्व के किसी कोने में युद्ध की शुरुआत होती है तो यह ताज्जुब की बात नहीं होगी। साम्राज्यवाद का अर्थ है युद्ध। और भूमण्डलीकरण साम्राज्यवाद की अन्तिम मंजिल है, जहाँ यह अपने सबसे पतनशील और विध्वंसक रूप में मौजूद है। अपनी उत्तरजीविता के लिए उसे मानवता को युद्धों में झोंकना पड़े तो भी वह हिचकेगा नहीं। इराक युद्ध, अफगानिस्तान युद्ध, अरब में चल रहा मौजूदा साम्राज्यवादी हस्तक्षेप इसी सच्चाई की गवाही देते हैं। यूरोज़ोन का संकट पूरे साम्राज्यवादी विश्व के समीकरणों में बदलाव ला रहा है। चीन का एक बड़ी साम्राज्यवादी शक्ति के तौर पर उदय, नयी उभरती अर्थव्यवस्थाओं की ताक़त का बढ़ना, रूस का पुनरुत्थान, ये सभी कारक इसके लिए ज़िम्मेदार हैं और ये भी नये और बड़े पैमाने पर साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा शुरू होने की सम्भावना पैदा कर रहे हैं।

यूरोप में छात्रों-नौजवानों और मेहनतकशों का जुझारू प्रदर्शन

पिछले दो महीनों से, यूरोप के विभिन्न शहरों में जनता का गुस्सा सड़कों पर उमड़ रहा है। लाखों की तादाद में मज़दूर-कर्मचारी-नौजवान विरोध प्रदर्शनों और हड़तालों में हिस्सेदारी कर रहे हैं। कई शहरों में सरकारी दफ्तरों पर हमले हो चुके हैं, उत्पादन ठप्प हुआ है और कई मौकों पर तो पूरा देश ही ठहर गया। हालाँकि इन हड़तालों और विरोध प्रदर्शनों के मुद्दे अलग-अलग हैं, लेकिन जनता के गुस्से का कारण एक है – सरकारें सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में कटौती कर रही हैं, श्रम कानूनों को ढीला कर रही हैं और एक के बाद एक जन-विरोधी नीतियाँ और कानून बना रही हैं और दूसरी तरफ जन-कल्याण के लिए उपयोग किये जाने वाले पैसे से पूँजीपतियों और वित्तीय संस्थानों को बेलआउट पैकेज और कर-माफी दे रही हैं।

यूरोपीय महाद्वीप के रंगमंच पर इक्कीसवीं सदी की ग्रीक त्रासदी

‘‘सभी ने सोचा था कि अब ‘दास कैपिटल’ की कभी कोई माँग नहीं होगी, लेकिन अब यह समझने के लिए तमाम बैंकर और मैनेजर भी ‘दास कैपिटल’ पढ़ रहे हैं कि वे हमारे साथ क्या कारस्तानी करते रहे हैं।’‘ ये शब्द हैं जर्मनी के एक प्रतिष्ठित प्रकाशक कार्ल डिएट्ज़ वर्लेग के प्रबन्ध निदेशक जोअर्न श्यूट्रम्फ के जिन्होंने प्रसिद्ध समाचार एजेंसी रायटर को एक साक्षात्कार में यह बताया। इस वर्ष के मात्र चार महीनों में कार्ल डिएट्ज़ वर्लेग ने मार्क्स की महान रचना ‘पूँजी’ की 1500 प्रतियाँ बेची हैं। बैंकर और मैनेजर ही नहीं बल्कि पूँजीवादी राजसत्ता के मुखिया भी आजकल उस जटिल वित्तीय ढाँचे को समझने के लिए ‘पूँजी’ पढ़ रहे हैं जो उन्होंने अपने मुनाफे की हवस में अन्धाधुन्ध बना दिया है। हाल ही में एक कैमरामैन ने फ्रांस के राष्ट्रपति सरकोज़ी को ‘पूँजी’ पढ़ते हुए पकड़ लिया था!