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सहिष्णुता के विरुद्ध और असहिष्णुता के पक्ष में

आज हमारे सामने जो तमाम समस्याएँ हैं, उन्हें असहिष्णुता की समस्या के तौर पर पेश किया जाता है। असमानता, अन्याय और शोषण-उत्पीड़न की समस्याओं को भी सहिष्णुता और असहिष्णुता की छद्म ‘बाइनरी’ में विचारधारात्मक तौर पर अपचयित व विनियोजित किया जाता है। इस तर्क के अनुसार, इन तमाम समस्याओं का समाधान मुक्तिकामी राजनीति नहीं है, बल्कि सहिष्णुता है। यह पूरी तर्क प्रणाली वास्तव में उत्तरआधुनिक पूँजीवाद के बहुसंस्कृतिवाद की तर्क प्रणाली है। इसे ज़िज़ेक ने ठीक ही नाम दिया है-राजनीति का संस्कृतिकरण (culturelization of politics)। सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक अन्तरविरोधों का सांस्कृतिक अन्तर (difference) के रूप में नैसर्गिकीकरण और सारभूतीकरण कर दिया जाता है। वे विभिन्न “जीवन पद्धतियों” और “संस्कृतियों” के अन्तर के तौर पर पेश किये जाते हैं। ये ऐसे अन्तर हैं जिन्हें दूर नहीं किया जा सकता है, जिन पर विजय नहीं पायी जा सकती है। ऐसे में आपके पास, ऐसा प्रतीत होता है, दो ही विकल्प बचते हैं- इन अन्तरों को ‘टॉलरेट’ किया जाय या न ‘टॉलरेट’ किया जाय! और अगर हम अधिक करीबी से देखें तो हम पाते हैं कि ये वास्तव में दो विकल्प हैं ही नहीं! ये एक ही विकल्प है। इस प्रकार की कोई भी सहिष्णुता एक पत्ता टूटने से असहिष्णुता में तब्दील हो सकती है। एक बुत के टूटने या गाय के मरने से सहिष्णु के असहिष्णु बनते देर नहीं लगती है। ऐसी सहिष्णुता बेहद नाजुक सन्तुलन पर टिकी होती है। क्या आज पूरे यूरोप में बहुसंस्कृतिवाद का संकट और हमारे देश में साम्प्रदायिक फासीवाद का उभार इसी नाजुक सन्तुलन के अस्थिर हो जाने के चिन्ह नहीं हैं? हमें इस छद्म युग्म को ही नकारना होगा। वॉल्टर बेंजामिन से कुछ शब्द उधार लेकर बात करें तो राजनीति के इस संस्कृतिकरण या सौन्दर्यीकरण का जवाब हमें संस्कृति और सौन्दर्य के राजनीतिकरण से देना चाहिए;एक ऐसी राजनीति से देना चाहिए जो मानव-मुक्ति की राजनीति हो। ऐसी राजनीति किसी भी सूरत में ‘सहिष्णु’ नहीं हो सकती है; वह संघर्ष के ज़रिये अन्तरविरोधों के समाधान की राजनीति ही हो सकती है; ऐसी राजनीति ‘सहिष्णुता’ के नाम पर पार्थक्यपूर्ण असम्पृक्तता (segregative disengagement) की राजनीति नहीं होगी, बल्कि बेहद उथल-पुथल भरे, अन्तरविरोधों और टकरावों से भरी सम्पृक्तता की राजनीति ही हो सकती है। ऐसी राजनीति ‘डिसइंगेज’ करके ‘टॉलरेट’ करने की वकालत नहीं कर सकती, बल्कि ‘इंगेजिंग इण्टॉलरेंस’ (फासीवादी ‘डिसइंगेज्ड इण्टॉलरेंस’ के बरक्स) की राजनीति होगी।

अटल बिहारी वाजपेयी को भारत रत्न – संघ की अथक सेवा का मेवा!

अटल जी को संघ की अथक सेवा का मेवा मिलने के लिए इससे मुफ़ीद वक़्त और कोई हो ही नहीं सकता था! 1939 से लेकर अब तक उदारता का मुखौटा पहनते-उतारते, कविता उचारते, ऊँचाइयाँ आँकते, गहराइयाँ नापते उनके राजनीतिक जीवन का सात दशक से भी ज़्यादा वक़्त गुज़र गया। दरअसल संघ जैसा भारत बनाना चाहता है उसके “रत्न” अटल जी हो सकते हैं, इसमें कोई आश्चर्य नहीं। और मोदी को उत्तराधिकार का धर्म भी तो निभाना था!

शहीद मेले में अव्यवस्था फैलाने, लूटपाट और मारपीट करने की धार्मिक कट्टरपंथी फासिस्टों और उनके गुण्डा गिरोहों की हरकतें

बवाना और होलम्बी में साम्प्रदायिक तनाव भड़काने की घटनाओं से सभी वाकिफ हैं। मजदूर बस्तियों में जो लम्पट नशेड़ी-गँजेड़ी अपराधी गिरोह मौजूद हैं, वे मौका पड़ने पर किन लोगों द्वारा इस्तेमाल किये जाते हैं, यह सभी जानते हैं? इन्हीं बस्तियों में ठेकेदारों, दलालों, सूदखोरों, दुकानदारों की एक ऐसी आबादी भी रहती है, जो गरीब मेहनतकशों को संगठित करने की हर कार्रवाई से नफरत करती है। इसके पहले भी ‘शहीद भगतसिंह पुस्तकालय’ पर ढेले-पत्थर फेंकने, पुस्तकालय का बोर्ड उतारने और पोस्टर फाड़ने की घटनाएँ घट चुकी हैं। इतना तय है कि ऐसे तमाम प्रतिक्रियावादियों से सड़कों पर मोर्चा लेकर ही काम किया जा सकता है। इनसे भिडंत तो होगी ही। जिसमें यह साहस होगा वही भगतसिंह की राजनीतिक परम्परा की बात करने का हक़दार है, वर्ना गोष्ठियों-सेमिनारों में बौद्धिक बतरस तो बहुतेरे कर लेते हैं।

पंजाब को भी संघी प्रयोगशाला का हिस्सा बनाने की तैयारियाँ

आज़ादी के बाद चाहे संघ का संसदीय गिरोह भाजपा (पहले जनसंघ) सिर्फ़ एक दशक से भी कम समय के लिए सरकार बना सकी है, परन्तु संघ का ताना-बाना लगातार फैलता ही गया है। सरकार में होना या न होना, फासीवाद के फैलाव के लिए कोई विशिष्ट कारक नहीं है और सबसे अहम और ज़रूरी कारक भी नहीं है। सबसे अहम और ज़रूरी कारक यह है कि ऐतिहासिक तौर पर पूँजीपति वर्ग को फासीवाद की ज़रूरत है। सरकार में आने के साथ इसकी सरगर्मियाँ सिर्फ़ तेज़ होती हैं। इसने भारत के कई प्रान्तों में अपने पैर पहले ही अच्छी तरह जमा लिये हैं परन्तु पंजाब में अभी यह उस हैसियत में नहीं है, अब इसकी तैयारी पंजाब को भी अपनी शिकारगाह का हिस्सा बना देने की है।

‘लव जेहाद’ के शोर के पीछे की सच्चाई

यदि पूरे देश के आँकड़े जुटाये जायें तो वैवाहिक जीवन में स्त्रियों की प्रताड़ना एवं अलगाव तथा प्रेम में धोखा देने की लाखों घटनाएँ मिलेंगी। इनमें से उन अन्तर-धार्मिक प्रेम विवाहों और प्रेम प्रसंगों को छाँट लिया जाये जिनमें पति/प्रेमी मुस्लिम हों और पत्नी/प्रेमिका हिन्दू। विवाद की गर्मी में पत्नी/प्रेमिका की ओर से स्वयं या किसी प्रेरणा-सुझाव के वशीभूत होकर कोई भी आरोप लगाया जा सकता है, जिसमें धर्मान्तरण का आरोप भी शामिल हो सकता है। हो सकता है कुछ मामलों में धर्मान्तरण के दबाव का आरोप सच भी हो, लेकिन मात्र इस आधार पर यह भयंकर नतीजा कत्तई नहीं निकाला जा सकता कि संगठित तरीक़े से कुछ मुस्लिम संगठन मुस्लिम युवाओं को तैयार करके हिन्दू युवतियों को बहला-फुसलाकर प्रेमजाल में फँसाने की मुहिम चला रहे हैं।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की असली जन्मकुण्डली

संघ का सांगठनिक ढांचा भी मुसोलिनी और हिटलर की पार्टी से हूबहू मेल खाता है। इटली का फ़ासीवादी नेता मुसोलिनी जनतंत्र का कट्टर विरोधी था और तानाशाही में आस्था रखता था। मुसोलिनी के मुताबिक “एक व्यक्ति की सरकार एक राष्ट्र के लिए किसी जनतंत्र के मुकाबले ज़्यादा असरदार होती है।” फ़ासीवादी पार्टी में ‘ड्यूस’ के नाम पर शपथ ली जाती थी, जबकि हिटलर की नात्सी पार्टी में ‘फ़्यूहरर’ के नाम पर। संघ का ‘एक चालक अनुवर्तित्व’ जिसके अन्तर्गत हर सदस्य सरसंघचालक के प्रति पूर्ण कर्मठता और आदरभाव से हर आज्ञा का पालन करने की शपथ लेता है, उसी तानाशाही का प्रतिबिम्बन है जो संघियों ने अपने जर्मन और इतावली पिताओं से सीखी है। संघ ‘कमाण्ड स्ट्रक्चर’ यानी कि एक केन्द्रीय कार्यकारी मण्डल, जिसे स्वयं सरसंघचालक चुनता है, के ज़रिये काम करता है, जिसमें जनवाद की कोई गुंजाइश नहीं है। यही विचारधारा है जिसके अधीन गोलवलकर (जो संघ के सबसे पूजनीय सरसंघचालक थे) ने 1961 में राष्ट्रीय एकता परिषद् के प्रथम अधिवेशन को भेजे अपने सन्देश में भारत में संघीय ढाँचे (फेडरल स्ट्रक्चर) को समाप्त कर एकात्म शासन प्रणाली को लागू करने का आह्वान किया था। संघ मज़दूरों पर पूर्ण तानाशाही की विचारधारा में यक़ीन रखता है और हर प्रकार के मज़दूर असन्तोष के प्रति उसका नज़रिया दमन का होता है। यह अनायास नहीं है कि इटली और जर्मनी की ही तरह नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में मज़दूरों पर नंगे किस्म की तानाशाही लागू कर रखी है। अभी हड़ताल करने पर कानूनी प्रतिबन्ध तो नहीं है, लेकिन अनौपचारिक तौर पर प्रतिबन्ध जैसी ही स्थिति है; श्रम विभाग को लगभग समाप्त कर दिया गया है, और मोदी खुद बोलता है कि गुजरात में उसे श्रम विभाग की आवश्यकता नहीं है! ज़ाहिर है-मज़दूरों के लिए लाठियों-बन्दूकों से लैस पुलिस और सशस्त्र बल तो हैं ही!

देश में नये फासीवादी उभार की तैयारी

इतिहास गवाह है कि बुर्जुआ मानवतावादी अपीलों और धर्मनिरपेक्षता का राग अलापने से साम्प्रदायिक फ़ासीवाद का मुकाबला न तो किया जा सका है और न ही किया जा सकता है। फ़ासीवादी ताकतों और फ़ासीवाद की असलियत को बेपर्दा करके जनता के बीच लाना होगा और जनता की फौलादी एकजुटता कायम करनी होगी। फ़ासीवाद का मुकाबला हमेशा मज़दूर वर्ग ने किया है। क्रान्तिकारी ताक़तों को मज़दूर वर्ग को उनकी आर्थिक माँगों पर तो संगठित करना ही होगा, साथ ही उनके सामने इस पूरी व्यवस्था की सच्चाई को बेपर्द करना होगा और राजनीतिक तौर पर उन्हें जागृत, गोलबन्द और संगठित करना होगा। इसके अलावा कोई रास्ता नहीं है। हम अपनी आँखों के सामने नये सिरे से फासीवादी उभार देख रहे हैं। न सिर्फ़ भारत में बल्कि वैश्विक पूँजीवादी संकट के इस दौर में यूनान, पुर्तगाल, फ्रांस और स्पेन से लेकर अमेरिका और इंग्लैण्ड तक में। हमारे देश में यह उभार शायद सर्वाधिक वर्चस्वकारी और ताक़तवर ढंग से आ रहा है। जनता के बीच शासन से मोहभंग की स्थिति को पूरी व्यवस्था से मोहभंग में तब्दील किया जा सकता है और हमें करना ही होगा। मौजूदा संकट ने जो दोहरी सम्भावना (क्रान्तिकारी और प्रतिक्रियावादी) पैदा की है, उसका लाभ उठाने में क्रान्तिकारी ताक़तें फिलहाल बहुत पीछे हैं, जबकि फासीवादी ताक़तें योजनाबद्ध ढंग से आगे बढ़ रही हैं। हमें अभी इसी वक़्त इस स्थिति से निपटने की तैयारी युद्धस्तर पर करनी होगी, नहीं तो बहुत देर हो जायेगी।

ख़बरदार जो सच कहा!

इतिहास और विज्ञान से हमेशा ही फासीवादियों का छत्तीस का आँकड़ा रहा है। फासीवाद का आधार ही अज्ञान और झूठ होता है। अतीत का आविष्कार, मिथकों का सृजन और झूठों की बरसात-इन्हीं रणनीतियों का इस्तेमाल कर फासीवाद पनपता है और पूँजीपतियों की सेवा करता है। जर्मनी और इटली में फासीवादियों ने इन्हीं रणनीतियों का इस्तेमाल किया। जर्मनी के बर्लिन में 10 मई 1933 को नात्सियों द्वारा ऑपेरा स्क्वायर में 25,000 किताबें जलायी गयीं, जिनमें फ्रायड, आइन्स्टीन, टॉमस मान, जैक लण्डन, एच.जी. वेल्स आदि लेखकों, विचारकों की किताबें शामिल थीं। हिटलर के प्रचार मन्त्री गोयबल्स ने वहाँ उपस्थित नात्सी छात्रों को सम्बोधित करते हुए कहा, “भविष्य का जर्मन नागरिक किताबों का मुखापेक्षी नहीं होगा बल्कि वह अपनी चारित्रिक दृढ़ता से पहचाना जायेगा। आज इतिहास के बौद्धिक कचरे को आग के हवाले कर दिया गया है। और आप इस महान क्षण के साझीदार हैं।” प्रगतिशीलता और जनवाद से फ़ासीवाद को हर-हमेशा ख़तरा रहता है। इसलिए वह संस्कृति की दुहाई देकर इस तरह के विचारों को ख़त्म कर देने की कोशिश करता है।

फ़ासीवाद का मुक़ाबला कैसे करें

फ़ासीवाद और प्रतिक्रियावाद दस में से नौ बार जातीयतावादी, नस्लवादी, साम्प्रदायिकतावादी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का चोला पहनकर आता है। वैसे तो हमें शुरू से ही बुर्जुआ राष्ट्रवाद के हर संस्करण का पुरज़ोर विरोध करना चाहिए, लेकिन ख़ास तौर पर फ़ासीवादी प्रजाति का सांस्कृतिक अन्धराष्ट्रवाद मज़दूर वर्ग के सबसे बड़े शत्रुओं में से एक है। हमें हर कदम पर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, प्राचीन हिन्दू राष्ट्र के गौरव के हर मिथक और झूठ का विरोध करना होगा और उसे जनता की निगाह में खण्डित करना होगा। इसमें हमें विशेष सहायता इन सांस्कृतिक राष्ट्रवादियों की जन्मकुण्डली से मिलेगी। निरपवाद रूप से अन्धराष्ट्रवाद का जुनून फैलाने में लगे सभी फ़ासीवादी प्रचारक और उनके संगठनों का काला इतिहास होता है जो ग़द्दारियों, भ्रष्टाचार और पतन की मिसालें पेश करता है। हमें बस इस इतिहास को खोलकर जनता के सामने रख देना है और उनके बीच यह सवाल खड़ा करना है कि यह ”राष्ट्र” कौन है जिसकी बात फ़ासीवादी कर रहे हैं? वे कैसे राष्ट्र को स्थापित करना चाहते हैं? और किसके हित में और किसके हित की कीमत पर? ”राष्ट्रवाद” के नारे और विचारधारा का निर्मम विखण्डन – इसके बिना हम आगे नहीं बढ़ सकते। राष्ट्र की जगह हमें वर्ग की चेतना को स्थापित करना होगा। बुर्जुआ राष्ट्रवाद की हर प्रजाति के लिए ”राष्ट्र” बुर्जुआ वर्ग और उसके हित होते हैं। मज़दूर वर्ग को हाड़ गलाकर इस ”राष्ट्र” की उन्नति के लिए खपना होता है। इसके अतिरिक्त कुछ भी सोचना राष्ट्र-विरोधी है। राष्ट्रवाद मज़दूरों के बीच छद्म गर्व बोध पैदा कर उनके बीच वर्ग चेतना को कुन्द करने का एक पूँजीवादी उपकरण है और इस रूप में उसे बेनकाब करना बेहद ज़रूरी है। यह न सिर्फ मज़दूरों के बीच किया जाना चाहिए, बल्कि हर उस वर्ग के बीच किया जाना चाहिए जिसे भावी समाजवादी क्रान्ति के मित्र के रूप में गोलबन्द किया जाना है।

फैजाबाद में हुए साम्प्रदायिक दंगों के निहितार्थ

जनता की लाशों पर राजनीति करने वाले ये पूँजीवादी चुनावी मदारी अपने खूनी खेल में लगे हैं। जो सीधे या परोक्ष रूप में इसमें नहीं शामिल हैं वे अपने को जनता का हितैषी होने, प्रगतिशील होने के रूप में अपने को पेश कर रहे हैं और बड़े शातिराना तरीके से अपना चुनावी खेल खेल रहे हैं। जबकि हम सभी जानते हैं कि सभी चुनावी मदारी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं उनके नारों व झण्डों में ऊपरी फर्क ही होता है। आज के दौर में दक्षिण व ”वाम” की विभाजक रेखाएँ काफी धुंधली होती जा रही हैं। दूसरा संसद और विधान सभाओं में अल्पमत-बहुमत की नौटंकी करके इन साम्प्रदायिक दंगों को नहीं रोका जा सकता है। इतिहास इसका गवाह है।