इतने शर्मिंदा क्यों हैं प्रो. एजाज़ अहमद?

अभिनव

 

किसी भी क्रान्तिकारी मार्क्‍सवादी की पहचान जिन बातों से होती है उनमें से एक यह है कि वह अपने विचारों को छिपाता नहीं है; और दूसरी अहम बात यह होती है कि वह अपने विचारों को लेकर शर्मिन्दा भी नहीं होता। इन कसौटियों को ध्यान में रखें तो आप प्रो. एजाज़ अहमद से यह सवाल पूछ सकते हैं कि आप अपने विचारों को लेकर इतने शर्मिंदा क्यों हैं? आप यह भी पूछ सकते हैं कि आप इतने हताश क्यों हैं?

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प्रो. अहमद ने एक प्रतिष्ठित अंग्रेज़ी पत्रिका ‘फ्रण्टलाइन’ में हाल ही में एक लेख लिखा जिसे आप वर्ष समीक्षा मान सकते हैं। इस लेख में प्रो. अहमद ने पिछले वर्ष, यानी कि 2011 में, दुनिया भर में हुए पूँजीवाद-विरोधी जनान्दोलनों पर अपने विचार रखे हैं। उन्होंने विशेषकर अरब जनउभार और ‘वॉल स्ट्रीट कब्ज़ा करो’ आन्दोलन का विश्लेषण करते हुए, पूँजीवाद के कारगर विकल्प पर विचार किया है। ये विचार एक विस्तृत समीक्षा की माँग करते हैं।

अपने लेख की शुरुआत में वे कहते हैं कि 2011 की पहचान दो विरोधाभासी परिघटनाओं से होती है-पहला, विश्व पूँजीवाद का असाध्य संकट, जो कि 1930 के दशक के बाद सबसे गम्भीर रूप में प्रकट हुआ और दूसरा, विश्व के विभिन्न हिस्सों में पूँजीवाद, दमनकारी सत्ताओं और ग़रीबी, बेरोज़गारी, महँगाई और भ्रष्टाचार के खि़लाफ़ हुए जनता के जुझारू आन्दोलन। पहली बात तो यह कि इनमें कुछ भी विरोधाभासी नहीं है। स्पष्ट है कि ये आन्दोलन पूँजीवादी व्यवस्था के विकल्प को तलाशने की बेचैनी और छटपटाहट की अभिव्यक्ति हैं। किसी नेतृत्वकारी क्रान्तिकारी शक्ति के अभाव में ये आन्दोलन अन्धी गलियों में भटक रहे हैं। लेकिन जहाँ तक पूँजीवाद के संकट और विरोध आन्दोलनों का सवाल है, उनमें कुछ भी विरोधाभासी नहीं है। उल्टे, वे वास्तव में एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। वास्तव में, अगर ये आन्दोलन आज दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में स्वतःस्फूर्त रूप से खड़े हो रहे हैं, तो यह पूँजीवाद के अपने सन्तृप्ति बिन्दु पर पहुँचने की ही एक अभिव्यक्ति हैं। बहरहाल, आगे प्रो. अहमद अपने लेख का मकसद स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि वे आर्थिक संकट के बाद पैदा हुए इन आन्दोलनों की नियति का विश्लेषण करना चाहते हैं। तो आइये, इन आन्दोलनों की प्रो. अहमद की व्याख्या और उनके नतीजों की बात करें।

प्रो. अहमद कहते हैं कि वास्तव में यह वर्ष राजनीतिक तौर पर 2010 के अन्तिम दिनों में शुरू हुआ जब ट्यूनीशिया में पुलिस दमन और उत्पीड़न के खि़लाफ़ सब्ज़ी का ठेला लगाने वाले एक स्नातक नौजवान ने आत्मदाह कर लिया। इस घटना ने ट्यूनीशिया में बेरोज़गारी और ग़रीबी और साथ ही महँगाई और भ्रष्टाचार के खि़लाफ़ जनता के भीतर धधक रही नफ़रत को फूट कर बाहर निकल आने का एक मौका दिया। इसके बाद पूरे देश में सत्ता के दमनकारी और शोषणकारी चरित्रा, बेन अली की भ्रष्ट बुर्जुआ सत्ता और नवउदारवाद के तोहफ़ों, यानी ग़रीबी, बेघरी, बेरोज़गारी और महँगाई के खि़लाफ़ एक देशव्यापी आन्दोलन शुरू हो गया। इस आन्दोलन की परिणति ट्यूनीशिया में बेन अली की सत्ता के पतन के रूप में हुआ। इसके बाद पूरे अरब विश्व में ही एक भयंकर उथल-पुथल शुरू हो गयी। प्रो. अहमद आगे अपने लेख में इसके कारणों के बारे में बताते हुए अरब देशों के उत्तर-औपनिवेशिक इतिहास का पुनरीक्षण करते हैं और बताते हैं कि नासरवादी और बाथवादी पार्टियों की सत्ताओं के राष्ट्रीय बुर्जुआ और साम्राज्यवाद-विरोधी चरित्रा का किस तरह से पतन हुआ और किस तरह से इन देशों में नवउदारवाद की नीतियों के श्रीगणेश के बाद जनअसन्तोष बढ़ता गया। इज़रायल के विरुद्ध युद्ध में मिस्र की हार और जनरल नासर के बाद अनवर सादत की सत्ता के दौरान मिस्र का मध्य-पूर्व में अमेरिकी-इज़रायली धुरी का सहयोगी बनने के बाद, अरब देशों में बुर्जुआ सत्ता के पतन और अधिक से अधिक जनविरोधी बनते जाने का प्रो. अहमद एक विश्वस्नीय ब्यौरा देते हैं। प्रो. अहमद का यह कहना भी बिल्कुल सही है कि हालिया अरब जनउभार के पीछे सत्ता के दमनकारी और ग़ैर-जनवादी चरित्रा के अलावा जो कारक एक व्यापक सन्दर्भ का काम कर रहे थे, वे वास्तव में नवउदारवादी नीतियों के कारण पैदा हुई सामाजिक-आर्थिक समस्याएँ थीं। लेकिन इसके बाद, प्रो. अहमद अपनी निराशा को खोलकर सामने रखना शुरू करते हैं।

प्रो. अहमद निराशा प्रकट करते हुए कहते हैं कि इन सभी जुझारू जनान्दोलनों के बावजूद हर मामले में अन्त में कट्टरपंथी इस्लामिक ताक़तें विजयी हुईं। ट्यूनीशिया के अपवाद को छोड़ दिया जाय, तो हर जगह विद्रोहों और सत्ताओं के पतन के बाद धार्मिक कट्टरपंथी और फासीवादी ताक़तें चुनावों में जीतकर सत्ता में आयीं। मिस्र में चुनावों में इस्लामिक कट्टरपंथियों की जीत हुई (मुस्लिम ब्रदरहुड और सलाफिस्ट गुट ने मिलकर बहुमत हासिल किया है); लीबिया में साम्राज्यवादी हस्तक्षेप के बाद जो सत्ता स्थापित हुई है वह भी धार्मिक कट्टरपंथी है; सीरिया में असद के विरोध में चल रहा जनान्दोलन वास्तविक मुद्दों पर खड़ा है, लेकिन वहाँ भी साम्राज्यवादी मदद के बूते पर धार्मिक कट्टरपंथी ताक़तें अपनी जड़ें आन्दोलन के भीतर गहरी कर रही हैं। प्रो. अहमद वास्तविक मुद्दों पर खड़े हुए जनान्दोलनों के इन नतीजों पर काफ़ी अचम्भित हैं। इसके कारण के तौर पर जो कारक वह बताते हैं, वह अजीबो-ग़रीब है। वह कहते हैं कि इन आन्दोलनों की शुरुआत में सामाजिक-आर्थिक मुद्दे प्रमुखता के साथ मौजूद थे, जैसे कि नवउदारवादी नीतियाँ, महँगाई, खाद्य संकट, बेरोज़गारी, ग़रीबी आदि; और सत्ता के दमनकारी, उत्पीड़नकारी, ग़ैर-जनवादी होने और पुलिस और सेना द्वारा बर्बर और नग्न उत्पीड़न के राजनीतिक (?) मसले सामाजिक-आर्थिक मुद्दों के मातहत थे। लेकिन जैसे-जैसे ये आन्दोलन आगे बढ़े वैसे-वैसे इसमें उपरोक्त राजनीतिक मसले अधिक महत्वपूर्ण हो गये और ताज्जुब की बात यह है कि अमेरिकी शैली के जनतन्त्र और नागरिक स्वतन्त्रता की चाहत की नुमाइन्दगी करने का काम धार्मिक कट्टरपंथी ताक़तें करने लगीं। मज़दूर आन्दोलन और ट्रेड यूनियन आन्दोलन का पहलू इन प्रदर्शनों में पहले प्रमुखता के साथ मौजूद था, और वास्तव में इन विरोध आन्दोलनों का उत्स ट्रेड यूनियन आन्दोलन में ही देखा जा सकता है, लेकिन बाद में कुलीन और मध्यम वर्गीय युवाओं के जनवाद और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता की माँग पूरे आन्दोलन पर हावी हो गयी और साम्राज्यवाद की सहायता से, जिसने बदलते वक्त की नब्ज़ को पहचाना और दमनकारी और पतित बुर्जुआ सत्ताओं के सिर से अपना हाथ हटा लिया, धार्मिक कट्टरपंथी ताक़तों ने इन आन्दोलनों को जनवाद, नागरिक और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता, आदि का हिमायती बनते हुए विनियोजित कर लिया।

यह पूरा विश्लेषण जितने सवालों का जवाब देता है, उससे अधिक सवालों को पैदा करता है। वास्तव में, यह विश्लेषण स्वयं एक अनसुलझा सवाल है। सोचने की बात यह है कि ये आन्दोलन मुख्य रूप से सामाजिक-आर्थिक मुद्दों पर केन्द्रित होने से राजनीतिक मुद्दों पर केन्द्रित कैसे हो गये (हालाँकि, प्रो. एजाज़ अहमद द्वारा ‘राजनीतिक’ शब्द का यह प्रयोग उनकी समझदारी के बारे में काफ़ी-कुछ बताता है; कहने का अर्थ है कि संशोधनवाद पतित अर्थवाद की ही एक अभिव्यक्ति होता है और ‘राजनीतिक’ शब्द का यह भोंड़ा प्रयोग इस बात को साफ़ तौर पर दिखला रहा है।)? ऐसा क्या हुआ कि ट्रेड यूनियन आन्दोलन से पैदा होने के बाद ये व्यवस्था-विरोधी आन्दोलन इस्लामिक कट्टरपंथी ताक़तों द्वारा विनियोजित कर लिये गये? इन सवालों का जवाब देना प्रो. अहमद ज़रूरी नहीं समझते! जाहिर है, कि इन सवालों का जवाब उनके विश्लेषण को बेहद असुविधाजनक दोराहे पर लाकर खड़ा कर देगा।

वास्तव में, प्रो. एजाज़ अहमद सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों के बीच जो दीवार खड़ी करने की कोशिश कर रहे हैं, वह दीवार इन आन्दोलनों में कभी मौजूद थी ही नहीं। इन आन्दोलनों में शुरू से ही पतित बुर्जुआ सत्ता के दमनकारी और उत्पीड़नकारी चरित्र और साथ ही नवउदारवादी नीतियों के फलस्वरूप पैदा हुई बेरोज़गारी और ग़रीबी के मुद्दे नत्थी होकर आये थे। इन सत्ताओं को पुलिस राज्य जैसी स्थिति रखने की ज़रूरत ही काफ़ी-कुछ इस वजह से पड़ती थी कि नवउदारवादी नीतियों को बेलाग-लपेट लागू किया जा सके; अरब देशों में गै़र-जनवादी बुर्जुआ सत्ताओं के दमन के पीछे राजनीतिक, धार्मिक और व्यक्तिगत नागरिक स्वतन्त्रता को कुचलना इतना बड़ा कारण नहीं था, जितना कि वाशिंगटन सहमति को खुल्लम-खुल्ला लागू करने की चाहत। मिस्र, ट्यूनीशिया, कुछ अलग अर्थों में लीबिया, सीरिया आदि जैसे देशों में मौजूद सत्ताधारी बुर्जुआ वर्ग इस बात से अच्छी तरह से वाकि़फ़ था और अभी भी वाकि़फ़ है कि अगर उसे नवउदारवाद की नीतियों को लागू करना है, तो जन प्रतिरोध को कुचलने के लिए उसे सत्ता के आतंक का एक माहौल बनाकर रखना होगा। अगर हम अरब सत्ताओं के ग़ैर-जनवादी और दमनकारी राजनीतिक चरित्रा के कारणों और उत्स की तलाश सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि और इतिहास में नहीं करते, तो हमें इन सत्ताओं के राजनीतिक चरित्र के कारणों की व्याख्या अलग-अलग व्यक्तिगत शासकों के निजी गुणों या अलग-अलग मज़हबों की चारित्रिक विशिष्टताओं, या फिर अलग-अलग समाजों के गुणों के एसेंशियलाइज़ेशन में करनी पड़ेगी, यानी हमें सैमुएल हण्टिंगटन के सभ्यताओं के टकराव की थीसिस पर जाना पड़ेगा! ऐसी सूरत में, प्रो. अहमद को मार्क्‍सवाद को एक विश्लेषण के उपकरण के तौर पर छोड़ देना चाहिए (कर्मों के मार्गदर्शक सिद्धान्त के तौर पर तो मार्क्‍सवाद उनके लिए कभी भी अहम नहीं था!), और उन्हें वेबर, दुर्खिम, आदि की शरण में चले जाना चाहिए! अरब जनउभार में सत्ता के दमनकारी चरित्र और पुलिस राज्य जैसी स्थिति के खि़लाफ़ जनता का गुस्सा, भौतिक जीवन के स्तर के सवालों पर जनता के असन्तोष से अलग नहीं था। वह शुरू से अन्त तक जुड़ा हुआ था। प्रो. अहमद मानते हैं कि वे अरब जनउभारों और उनके प्रतिक्रियावादी नतीजों के बीच के सम्बन्ध की व्याख्या करने के कार्यभार को काफ़ी मुश्किल पा रहे हैं।

कारण यह है कि प्रो. अहमद इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं कि जनविद्रोहों ने दो अरब देशों (मिस्र व ट्यूनीशिया) में और आंशिक जनविद्रोह ने साम्राज्यवादी हस्तक्षेप के साथ मिलकर एक अरब देश (लीबिया) में सत्ता-परिवर्तन कर दिया (ग़ौर करें, व्यवस्था-परिवर्तन नहीं), लेकिन अगर इन जनविद्रोहों के फलस्वरूप मौजूदा सत्ताओं का पतन हो जाता है और इस प्रक्रिया में कोई क्रान्तिकारी विकल्प, कोई क्रान्तिकारी विचारधारा और कोई क्रान्तिकारी नेतृत्व संगठित नहीं हो पाता, तो एक निर्वात पैदा होगा। इस निर्वात को भरने का काम निश्चित तौर पर किसी भी क्रान्तिकारी ताक़त के अभाव में प्रतिक्रियावादी ताक़तें करेंगी। अरब जनउभार के मामले में यही हुआ है। दमन, उत्पीड़न, शोषण, ग़रीबी, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार और महँगाई के खि़लाफ़ जनता की स्वतःस्फूर्त बग़ावतों ने मुबारक और बेन अली की सत्ताओं को पलट दिया! लेकिन स्वतःस्फूर्त रूप से जो वस्तुगत क्रान्तिकारी परिस्थिति पैदा हुई उसे सम्भालने और फिर क्रान्तिकारी दिशा में ले जाने के लिए कोई भी कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी ताक़त इन देशों में मौजूद नहीं थी। तब तक जनता क्या करे? क्या जनता इन्तज़ार करेगी? नहीं! निश्चित तौर पर, जनता मौजूद विकल्पों में से उस विकल्प का चुनाव करेगी जो साम्राज्यवाद-विरोधी नज़र आयेगा; जो उसे जनवाद का वायदा करेगा; जो अमेरिकी साम्राज्यवाद के खि़लाफ़ उसकी नफ़रत का समर्थन करेगा। ऐसा ही अरब जनउभारों के बाद हुआ। यह सच है कि इन आन्दोलनों में बिखरी हुई वाम ताक़तें मौजूद थीं। विशेषकर, मिस्र में तो तुलनात्मक रूप से बेहतर ताक़त के साथ मौजूद थीं। लेकिन इनमें से कुछ विसर्जनवादी वामपंथी थे, कुछ अराजकतावादी ट्रेडयूनियनवादी, कुछ त्रात्स्कीपंथी, तो कुछ संघाधिपत्यवादी। इन ताक़तों के नेतृत्व में कोई देशव्यापी नेतृत्व खड़ा हो पाना सम्भव नहीं था, और हुआ भी नहीं। मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी ताक़तें बेहद कमज़ोर अवस्था में हैं और जो हैं वे भी नवजनवादी क्रान्ति के कार्यक्रम की बेडि़यों में जकड़ी हुई हैं, जो अपने समाज के उत्पादन सम्बन्धों, उत्पादक शक्तियों के विकास के स्तर और बुर्जुआ वर्ग के चरित्र का स्वतन्त्र और रचनात्मक अध्ययन करने की बजाय, नवजनवादी क्रान्ति और दीर्घकालिक लोकयुद्ध के बने-बनाये और घिसे-पिटे फार्मुले को बिना सोचे-समझे अपने देश में लागू कर देना चाहती हैं। मज़दूर आन्दोलन में त्रात्स्कीपंथियों और अराजकतावादियों की पकड़, मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी क्रान्तिकारियों की तुलना में कहीं अधिक मज़बूत है। नतीजतन, कोई क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट नेतृत्व खड़ा होने की कोई सम्भावना निकट भविष्य में भी नहीं दिखती है। ऐसे में, प्रो. अहमद सिवाय इसके उम्मीद भी क्या कर सकते थे? प्रतिक्रियावादी ताक़तों के प्रभावी स्थिति में आने की त्रासदी पर चकित-अचम्भित होने का कोई कारण समझ नहीं आता। प्रो. अहमद ट्रेड यूनियन आन्दोलन के नेतृत्व की स्थिति से अपदस्थ हो जाने को लेकर भी दुखी हैं। लेकिन यह भी होना ही था। कोई क्रान्तिकारी पार्टी एक राजनीतिक विकल्प दे सकती है, ट्रेड यूनियन आन्दोलन नहीं। लेकिन क्रान्ति के विज्ञान की ये बुनियादी बातें भी प्रो. अहमद के विश्लेषण से अनुपस्थित हैं। अगर कुछ मौजूद है तो वह प्रतिक्रियावादी ताक़तों के हावी हो जाने पर प्रो. अहमद की मन्द सिसकियाँ हैं!

इसके बाद प्रो. अहमद अपने विश्लेषण के जहाज़ को प्रशान्त महासागर पार करके अमेरिकी विरोध आन्दोलनों की ओर ले जाते हैं। वे सही बताते हैं कि पूरे अमेरिकी महाद्वीप में इस समय जनता पूँजीवाद की अराजकताओं और अनिश्चितताओं के खि़लाफ़ सड़कों पर है। जनता ने बैंकों को बचाने, कल्याणकारी नीतियों को त्यागने, शिक्षा और स्वास्थ्य से विनिवेश करने की नवउदारवादी नीतियों को ठुकरा दिया है। चाहे अमेरिका हो, कनाडा हो या पनामा के पार चिली हो, हर जगह जनता नवउदारवादी नीतियों के विरुद्ध सड़कों पर है। यही स्थिति यूरोप की भी है। संकट के भूकम्प का गुरुत्व केन्द्र फिलहाल अमेरिका से स्थानान्तरित होकर यूरोप में पहुँच गया है और इसके नतीजे यूनान, पुर्तगाल, स्पेन, इटली और फ्रांस और यहाँ तक कि जर्मनी में भी दिखलायी देने लगे हैं। वे बताते हैं कि किस प्रकार यूरोपीय संघ के सपने के केन्द्र में ‘सामाजिक यूरोप’ था लेकिन अपने जन्म से ही नवउदारवादी नीतियों को लागू करने के कारण आज उसके केन्द्र में ‘बैंकर यूरोप’ या ‘वित्तीय यूरोप’ हो गया है, और अब जबकि नवउदारवाद अपने संकट की सीमा पर पहुँच रहा है, तो जनता ने उसे नकार दिया है। यहाँ पर भी प्रो. अहमद एक क्लासिकीय संशोधनवादी और सामाजिक जनवादी की तरह बात कर रहे हैं। ‘‘सामाजिक यूरोप’’ वाली बात को गम्भीरतापूर्वक लेना अव्वल दर्जे की मूर्खता है, या फिर संशोधनवादी घाघपन! हम सभी जानते हैं कि यूरोपीय संघ का सपना वास्तव में कल्याणकारी नीतियों के पूरे यूरोप में समानतापूर्ण विस्तार के लिए एक दौर में उदार बुर्जुआ चिन्तकों और ख़ास तौर पर सामाजिक-जनवादियों ने देखा था। उस समय भी एक यूनाईटेड यूरोप का सपना एक समाजवादी यूनाइटेड यूरोप का सपना नहीं था; उस समय भी यह एक ‘‘कल्याणकारी’’ राजकीय पूँजीवादी यूनाईटेड यूरोप का सपना था! इस कीन्सवादी हवाई सपने को प्रो. एजाज़ अहमद इतने नॉस्टैल्जिया के साथ क्यों याद कर रहे हैं, और उसके शव पर इतना स्यापा क्यों पा रहे हैं, इसके कारण समझे जा सकते हैं। बहरहाल, प्रो. अहमद ‘‘सामाजिक यूरोप’’ के ध्वंस पर रुदन ख़त्म करने के बाद ‘वॉल स्ट्रीट कब्ज़ा करो’ आन्दोलन पर आते हैं।

प्रो. अहमद वॉल स्ट्रीट कब्ज़ा करने के आन्दोलन पर लहालोट हैं। वे फिलहाल इस आन्दोलन के सुषुप्तावस्था में होने के लिए मौसम को जि़म्मेदार मानते हैं और कहते हैं कि ‘‘वे सर्दियों में शीतनिद्रा में चले गये हैं, लेकिन उनका बसन्त आयेगा।” इस साहित्यिक शब्दावली से प्रो. अहमद की भावनाओं को समझा जा सकता है। वे आगे कहते हैं कि इन सभी आन्दोलनों में एक सामान्य बात ये है कि ये सभी नवउदारवाद-विरोधी हैं। यह भी एक बड़ी मज़ेदार बात है। इन सभी आन्दोलनों को कोई ‘‘वित्तीय पूँजी विरोधी’’, ‘‘बैंक इज़ारेदारी विरोधी’’, तो कोई ‘‘नवउदारवाद-विरोधी’’ बोलता है; कोई भी इन्हें सिर्फ पूँजीवाद-विरोधी बोलने से कतराता है। उपरोक्त विशेषणों का मतलब यह है कि लोग पूँजीवाद-विरोधी नहीं हैं; लोग तो बस पूँजीवाद के मौजूदा रूप के विरोधी हैं! यानी, कि अगर 1960 का ‘‘स्‍वर्ण युग’’, जिसकी पहचान ‘‘कल्याणकारी’’ पूँजीवादी राज्य से होती थी, आ जाये तो कोई दिक्कत नहीं है; अगर बैंकों और वित्तीय संस्थानों की तानाशाही ख़त्म हो जाये, और राज्य रोज़गार या फिर बेरोज़गारी भत्ता देने लगे, शिक्षा और स्वास्थ्य की जि़म्मेदारी ले ले तो फिर कोई समस्या नहीं है! हम समाजवाद, समानता, मज़दूर सत्ता आदि को भूल सकते हैं! प्रो. अहमद भी ऐसा करने को तैयार नज़र आते हैं। जगह-जगह उन्होंने नवउदारवाद की आलोचना की है और नवउदारवाद के फलस्वरूप पैदा होने वाली सामाजिक-आर्थिक समस्याओं की बात की है। लेकिन इसके विकल्प के तौर पर कहीं पर भी वे समाजवाद और अतीत के समाजवादी प्रयोगों की चर्चा करते नज़र नहीं आते! एक जगह वे समाजवाद का नाम लेते हैं, लेकिन समाजवाद का नाम लेने के लिए उन्हें अपनी पूरी ताक़त झोंकनी पड़ी है! और काफ़ी मेहनत और पसीने-पसीने होकर इस अभिशप्त शब्द का नाम लेने के बाद वे बुरी तरह से शर्मिंदा हो गये हैं। वे कहते हैं कि सोवियत तन्त्र के पतन के बाद लोग प्रतिरोध के नये रूपों के साथ प्रयोग कर रहे हैं, और अभी कोई ऐसा नया प्रतिरोध का रूप नहीं मिला है जो कि इक्कीसवीं सदी में मुक्ति की परियोजना के लिए उचित हो। वे किसी तरह काँखकर कहते हैं कि तब तक के लिए आरज़ी तौर पर आइये इस विकल्प को ‘‘समाजवाद’’ ही कह लें!

यहाँ पर एक सामाजिक जनवादी के तौर पर प्रो. एजाज़ अहमद की पूरी सोच उजागर हो गयी है। पहली बात, वह एक भ्रम फैला रहे हैं। अगर आप सोवियत व्यवस्था के पतन की बात करते हैं और यह नहीं बताते कि इस पतन को आप 1956 में मानते हैं, जब स्तालिन की मृत्यु के तीन वर्षों बाद संशोधनवाद ने अपनी सत्ता को सोवियत पार्टी में निर्णायक रूप में सुदृढ़ कर लिया था, या फिर 1990 में मानते हैं जब सोवियत संघ का राजकीय इज़ारेदार पूँजीवाद जो कि आन्तरिक तौर पर सामाजिक फासीवादी हो चुका था और बाह्य तौर पर सामाजिक साम्राज्यवादी हो चुका था, अपने आन्तरिक अन्तरविरोधों के चलते ध्वस्त हो गया, तो आप एक ग़लतफ़हमी फैला रहे हैं। आप सामान्यीकृत शब्दावली में चलते-चलते सोवियत व्यवस्था के पतन की बात करते हैं। यह भयंकर विभ्रम की स्थिति पैदा करता है। अगर आप 1956 में ही पूँजीवादी पुनस्र्थापना की शुरुआत को स्वीकार करते हैं तो फिर आप आगे के 35 वर्षों के दौरान समाजवाद के नाम पर चले राजकीय इज़ारेदार पूँजीवाद के अन्तरविरोधों का विश्लेषण भी कर सकते हैं, और उन कारकों और ग़लतियों का विश्लेषण भी कर सकते हैं जो स्तालिन-काल में हुईं और जिनके कारण पार्टी के भीतर संशोधनवाद और सामाजिक जनवाद अपनी सत्ता सुदृढ़ करने में सफल रहा और सोवियत संघ एक समाजवादी देश और मज़दूर सत्ता (निश्चित तौर पर, तमाम बुर्जुआ विकृतियों और नौकरशाहाना विरूपताओं के साथ) से एक पूँजीवादी देश और बुर्जुआ वर्ग की तानाशाही में तब्दील हो गया। निश्चित तौर पर 1956 में ही सोवियत संघ में क्लासिकीय निजी सम्पत्ति वाले पूँजीवाद का प्रादुर्भाव नहीं हुआ था, और राजकीय इज़ारेदार पूँजीवाद को चलाना बुर्जुआ वर्ग की मजबूरी थी, क्योंकि जनता के दिल में अभी भी समाजवाद के प्रति जो भावना थी, उसके मद्देनज़र तुरन्त खुले नग्न पूँजीवादी सम्बन्धों की स्थापना असम्भव थी। लेकिन, राजकीय इज़ारेदार पूँजीवाद के तहत सोवियत संघ में एक-एक करके समाजवाद की संस्थाओं और मूल्यों का ध्वंस किया गया। नागरिक स्वतन्त्रता और जनवादी अधिकार एक-एक करके ख़त्म होते गये। जो पीढ़ी समाजवाद के सकारात्मक की साक्षी रही थी, वह चीज़ों को समझ रही थी। जो पीढ़ी संशोधनवाद के दौरान ही सयानी हुई वह समाजवाद से ही नफ़रत करने लगी। जब पेरेस्त्रोइका और ग्लास्नोस्त की लहर चली तो खुलेपन और उदारता के नाम पर पश्चिमी पूँजीवाद के रुग्णतम मूल्यों ने सोवियत संघ में प्रवेश किया। अमेरिकी स्वतन्त्राता और जनवाद के नाम पर नग्नता, भोड़ेपन, अश्लीलता ने पूरे सांस्कृतिक परिदृश्य को छाप लिया। सोवियत संघ में 1956 के बाद से व्यवस्थित रूप से समाजवादी संस्थाओं को अर्थव्यवस्था, समाज और संस्कृति से मिटाया गया, उनका ध्वंस किया गया।

इस पूरी प्रक्रिया के विवरण के बिना आप तमाम किस्म के नववामपंथी, उत्तर-मार्क्‍सवादी बहेतू दार्शनिकों की शब्दावली और शैली में चलते-चलाते सोवियत व्यवस्था के पतन के बाद प्रतिरोध के नये रूपों की तलाश की बात करेंगे, तो आपकी बातों का क्या अर्थ निकाला जायेगा? निश्चित तौर पर, आप भी बेदियू, जि़ज़ेक, हैलोवे, बटलर, माऊफ, लाक्लाऊ, नेग्री, हार्ट जैसे धुरीहीन चिन्तकों के समान आज की दुनिया को उत्तर-साम्यवादी घोषित कर रहे हैं। आपकी बातों का अर्थ यही निकलता है कि आप बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोगों को एक विपदा और बरबादी में ख़त्म होने वाली ग़लतियाँ मानते हैं, हालाँकि उन्होंने कुछ समय के लिए कुछ अच्छे सपने दिखाए थे। तो आप इस बात को खुले तौर पर क्यों नहीं कहते? घुमा-फिराकर क्यों कह रहे हैं? सच्चा माक्र्सवादी अपने विश्लेषण के नतीजों से नहीं डरता! न ही वह उन्हें छिपाता है! और न ही वह उन पर शर्मिंदा होता है! लेकिन सच बात तो यह है कि यह आपके विश्लेषण के नतीजे हैं ही नहीं! यह आपकी आस्था की अभिव्यक्ति है। आपकी अपनी हताशा, निराशा और अवसरवाद आपको अगर किसी क्रान्तिकारी नतीजे तक नहीं पहुँचने देता, तो ही आप ऐसी बातें करते हैं। सोवियत संघ और चीन के समाजवादी प्रयोगों की सफलताओं-असफलताओं का विश्लेषण किये बिना बीसवीं सदी के माक्र्सवादी कम्युनिज़्म पर फैसले सुनाना तथाकथित नये बहेतू दार्शनिकों के कारण आजकल फैशन में है। ऐसा लगता है कि प्रो. एजाज़ अहमद भी इस फैशन के हिमायती हो गये हैं! वे नये दार्शनिकों के धुरी-विहीन चिन्तन को अपने सामाजिक-जनवाद, कीन्सवाद और हताशा से मिला रहे हैं। यही कारण है कि उनके लेख को पूरा और बार-बार पढ़ने के बाद भी आप यह फैसला नहीं कर पाते कि प्रो. एजाज़ अहमद अन्तिम तौर पर आखि़र कहना क्या चाहते हैं? लेकिन एक छाप आप अपने मस्तिष्क पर ज़रूर लेते हैं। वह यह कि नवउदारवाद और भूमण्डलीकरण के दौर में आपके पास पूँजीवाद का कोई कारगर विकल्प फिलहाल मौजूद नहीं है! बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोगों को वे बिना किसी आलोचनात्मक विश्लेषण के ख़ारिज़ करते हैं; हालाँकि, वे मुक्ति की पूरी परियोजना को अभी भी (बड़े दुख और आपत्तियों के साथ!) ‘समाजवाद’ ही कहना चाहते हैं! लेकिन उनके अनुसार समाजवाद के ‘नये रूप’ खोजने पड़ेंगे! इस बात से कोई इंकार नहीं कि पूँजीवाद की कार्यप्रणाली में आये महत्वपूर्ण परिवर्तनों के मद्देनज़र मज़दूर आन्दोलन की रणनीतियों और आम रणकौशल में बदलाव करने की आवश्यकता हो सकती है; इस बात से भी कोई दुराव नहीं है कि बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोगों के आलोचनात्मक विश्लेषण के बाद उनके नकारात्मक पहलुओं को दूर किया जाना चाहिए और सकारात्मक पहलुओं को अपनाया जाना चाहिए। लेकिन आप सबसे पहले बीसवीं सदी के पूरे अनुभव को ही त्याज्य मान रहे हैं, ख़ारिज कर रहे हैं और फिर उससे कोई आलोचनात्मक सम्बन्ध बनाये बिना आगे जाने और तथाकथित ‘नये रूपों’ की तलाश करने की बात कर रहे हैं! जाहिर है, आप इस तरह से मज़दूर वर्ग की कोई विमोचक (रीडेम्प्टिव) गतिविधि संगठित नहीं कर सकते। आप महज़ जुमलेबाज़ी कर सकते हैं, स्यापा कर सकते हैं, छाती पीट सकते हैं।

इसके बाद प्रो. अहमद आगे बढ़ते हुए मानते हैं कि ‘‘सामाजिक यूरोप’’ के पतन का एक कारण सामाजिक जनवाद का नवउदारवादी एजेण्डे के समक्ष आत्मसमर्पण भी है। वह लिखते हैं कि ‘‘कम्युनिज़्म के पतन’’ और ‘‘सामाजिक जनवाद के नवउदारवाद के सामने समर्पण’’ के बाद अराजकतावाद प्रतिरोध आन्दोलनों की प्रमुख विचारधारा बन गया है। अराजकतावाद वाली बात पर बाद में आते हैं। कम्युनिज़्म के तथाकथित पतन के बारे में प्रो. एजाज़ अहमद के विचारों की संक्षिप्त समीक्षा हम ऊपर कर आये हैं। लेकिन सामाजिक जनवाद के बारे में उनका प्रेक्षण एकदम सही है। ब्रिटेन में लेबर पार्टी, अमेरिका में डेमोक्रेटिक पार्टी, फ्रांस में सामाजिक जनवादी पार्टी और साथ ही फ्रांसीसी कम्युनिस्ट पार्टी, जर्मनी में सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी, और इसी प्रकार यूरोप के अन्य देशों में भी अलग-अलग नामों से काम करने वाले सामाजिक जनवादियों ने 1960 के दशक से ही पूँजीवाद के सामने खुला समर्पण कर दिया था। जर्मनी, फ्रांस और ब्रिटेन में सामाजिक जनवादियों की मज़दूर वर्ग के साथ ग़द्दारी तो उन्नीसवीं सदी से ही जारी है। मार्क्‍स ने ‘गोथा कार्यक्रम की आलोचना’ और लेनिन ने ‘राज्य और क्रान्ति’, ‘सर्वहारा क्रान्ति और ग़द्दार काऊत्स्की’, ‘दूसरे इण्टरनेशनल का पतन’ आदि जैसी रचनाओं में सामाजिक जनवाद की ग़द्दारी और पतन को सटीक तरीके से चित्रित किया है। एजाज़ अहमद का प्रेक्षण कोई नयी बात नहीं कहता। बस एक बात समझ में नहीं आती। सामाजिक जनवाद की इस ग़द्दारी और 1980 के दशक के बाद से नवउदारवाद के एजेण्डे के समक्ष समर्पण की पूरी व्याख्या को वह भारत में माकपा और भाकपा पर क्यों नहीं लागू करते? माकपा ने पश्चिम बंगाल में अपने शासन के दौरान जो किया था वह वास्तव में नवउदारवाद के सामने आत्मसमर्पण ही तो था? वरना नन्दीग्राम और सिंगूर जैसी घटनाएँ न घटतीं। और अगर वे घटनाएँ न भी घटी होतीं तो पश्चिम बंगाल में जो नीतियाँ वाम मोर्चे की सरकार लागू कर रही थी, वह परिमाण में भी केन्द्र में राजग या संप्रग सरकार की नीतियों से ज़्यादा पीछे नहीं थीं। बुद्धदेव भट्टाचार्य ने तो खुले तौर पर कहा था कि मज़दूर वर्ग को अब पूँजीपति वर्ग के साथ वर्ग सहयोग की नीति पर अमल करना चाहिए! ऐसे में, प्रो. एजाज़ अहमद अगर अपने विश्लेषण और व्याख्या को भारत के सामाजिक जनवादियों यानी संसदीय वामपंथियों पर लागू नहीं करते, जो कि अन्तरराष्ट्रीय पैमाने पर देखें तो सामाजिक जनवादियों की सबसे ज़लील किस्मों में से एक हैं, तो इसे प्रो. एजाज़ अहमद की नासमझी या नादानी नहीं माना जाएगा, बल्कि अवसरवाद और बेईमानी माना जाएगा।

अब आते हैं अराजकतावाद के नये आन्दोलनों में वर्चस्वकारी बनने की बात पर। प्रो. एजाज़ अहमद तथ्यतः एक सही बात कह रहे हैं। यह सच है कि मौजूदा आन्दोलनों और विशेषकर यूरोपीय देशों और अमेरिका में चल रहे स्वतःस्फूर्त पूँजीवाद-विरोधी आन्दोलनों में सबसे प्रमुख बात यह है कि अराजकतावादी ताक़तें उसमें सबसे ज़्यादा सक्रिय हैं। लेकिन इसके कारणों की प्रो. अहमद कोई व्याख्या नहीं करते। इसका प्रमुख कारण यूरोप और अमेरिका में 1960 के दशक के दौरान सामाजिक साम्राज्यवादी सोवियत संघ द्वारा पूर्वी यूरोप में किये गये साम्राज्यवादी हस्तक्षेप के चलते समाजवाद से हुआ मोहभंग था। यही कारण था कि 1968 में दुनिया के कई हिस्सों मे जो छात्रों, युवाओं, स्त्रियों और मज़दूरों के आन्दोलन हुए और जो बौद्धिक धाराएँ उसमें से फूटीं, वे किसी ऐसी विचारधारा की माँग कर रही थीं जो मार्क्‍सवाद से भी ज़्यादा ‘‘रैडिकल’’ हो! मार्क्‍सवाद के नाम पर सोवियत साम्राज्यवाद जो कर रहा था, उससे मार्क्‍सवादी विचारधारा को कलंकित करने का साम्राज्यवादी बौद्धिक एजेण्टों को भी खूब मौका मिला। 1960 का ही दशक था जब उत्तर-औद्योगिक समाज, उत्तर-आधुनिक स्थिति आदि की बात करते हुए किसी भी किस्म के प्रगतिशील यूटोपिया को पश्चिम के प्रभुत्वकारी परियोजना का हिस्सा बताया जाने लगा। आधुनिकता, तर्कपरकता, वैज्ञानिकता आदि के मूल्य पूँजीवाद द्वारा इनके मानवद्रोही प्रयोग के चलते कलंकित हुए। प्रबोधन को सारी बुराई की जड़ माना गया और कहा गया कि प्रबोधन के साथ ही पश्चिम का विश्व पर प्रभुत्व स्थापित करने का काम शुरू हुआ। माकर्स्‍वाद को प्रबोधन के विश्व प्रभुत्व की परियोजना का हिस्सा घोषित किया गया। तो ल्योतार्द ने सभी महाख्यानों, यानी परिवर्तन की सभी प्रगतिशील परियोजनाओं, को आधुनिकता के बीते युग का अवशेष बताया और दावा किया कि हम उत्तर-आधुनिक युग में प्रवेश कर चुके हैं जब ये महाख्यान अर्थहीन बन चुके हैं; मिशेल फूको ने बताया कि सत्ता से आप बच नहीं सकते, इसलिए सत्ता का संगठित प्रतिरोध व्यर्थ है; आप अगर सत्ता का संगठित प्रतिरोध करेंगे तो यह प्रतिरोध स्वयं सत्ता की एक संरचना बन जाएगा; इसलिए संगठित जनप्रतिरोध की सोच व्यर्थ है क्योंकि आप संगठित प्रतिरोध करते हुए कुछ मानकों के अधीन हो जाते हैं और हर सार्वभौम मूल्य, मानक या सामान्यता की अवधारणा सत्ता की अवधारणा है, यह दमनकारी अवधारणा है; आप कुछ कर सकते हैं तो वह है हर प्रकार के मानक, सार्वभौम मूल्य और सामान्यता की अवधारणा का विरोध; फूको की पूरी विचार पद्धति का सार यही है। इस तरह से 1968 के दौरान पेरिस में जो प्रक्रिया अपनी पराकाष्ठा पर पहुँची, उसके सकारात्मक से ज़्यादा नकारात्मक थे। समाजवाद के नाम पर संशोधनवादी साम्राज्यवादी सोवियत रूस ने जो किया, उसकी प्रतिक्रिया और उससे निर्णायक विच्छेद करने की प्रक्रिया में चीज़ें दूसरे छोर पर चली गयीं। इसी का लाभ साम्राज्यवाद को मिला और अपनी सबसे पतनशील विचार-सरणि, यानी उत्तर-आधुनिकतावाद को रैडिकल प्रगतिशील आन्दोलन में घुसाने में वह सफल हुआ। उत्तरआधुनिकता की जन्म भूमि और उत्स मई 1968 का पेरिस है। वास्तव में, यहाँ अराजकतावाद, 19वीं सदी का सर्वखण्डनवाद, नीत्शे और स्पेंगलर का मानवतावाद-विरोध, सैद्धान्तिक विज्ञान में मौजूद नवकाण्टवाद, उत्तर-औद्योगिक सिद्धान्त और तरह-तरह की रहस्यवादी प्राच्य विचार सरणियों का अजीबो-ग़रीब और बेहद ख़तरनाक मिलन हुआ। इस दौर में चीन में जारी महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति को भी 1968 में पैदा हुए ‘‘अति-रैडिकल’’ दार्शनिकों ने पार्टी के विरुद्ध क्रान्ति के रूप में चित्रित किया, जबकि वह सर्वहारा वर्ग की पार्टी में स्थापित हुए बुर्जुआ मुख्यालय पर हमला कर रही थी। तो इस तरह से चीज़ों को सिर के बल खड़ा किया गया। अमेरिकी और सोवियत साम्राज्यवाद के कुकर्मों को क्रमशः प्रबोधन की तार्किकता व वैज्ञानिकता, तथा मार्क्‍सवाद के सिद्धान्त पर डाल दिया गया। और ऐसा सिर्फ इसलिए किया गया ताकि अन्ततः यह साबित किया जा सके कि उदार बुर्जुआ जनवाद ही मानवता के लिए सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था है; बाकी सभी व्यवस्थाओं का अन्त साम्यवादी या धार्मिक कट्टरपंथी सर्वसत्तावाद में होगा! यही बात आज अराजकतावादी, चॉम्स्कीपंथी, एक अलग किस्म की शब्दावली में तरह-तरह के त्रात्स्कीपंथी, सर्वखण्डनवादी मौजूदा पूँजीवाद-विरोधी आन्दोलनों में प्रचारित कर रहे हैं। यही अराजकतावाद की वर्तमान भूमिका इन जनान्दोलनों में हैः यानी परिवर्तन से उसका अभिकर्ता छीन लेना! प्रो. अहमद कम्युनिज़्म के तथाकथित ‘‘पतन’’ और सामाजिक जनवाद के वास्तविक आत्मसमर्पण और नवउदारवाद के हाथों बिक जाने के साथ, अराजकतावाद के इस प्रतीत होते उद्भव के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं कहते, न ही इसका कोई विश्लेषण प्रस्तुत करते हैं। ऐसा ध्वनित होता है मानो कम्युनिज़्म द्वारा ख़ाली की गयी जगह को अराजकतावाद भर रहा है!

इसके बाद प्रो. अहमद मई 1968, पेरिस के जनउभार से मौजूदा जनउभार के फर्क बताते हैं। ये फर्क भी अजीबो-ग़रीब हैं। पहला फर्क जो प्रो. अहमद गिनाते हैं वह यह है कि 1968 में जो जनउभार हुआ था वह पूँजीवाद के ‘‘स्‍वर्णिम युग’’ में हुआ था। तब पूँजीवाद संकट में नहीं था। यह भी एक सतही प्रेक्षण है। 1968 वह समय था जब केनेडी काल में शुरू हुआ तेज़ी का दौर ठहराव पर आ रहा था और तीन साल बाद ही डॉलर-स्वर्ण मानक के पतन के साथ पहले से निर्मित हो रहा संकट फूट पड़ा था। इसलिए, प्रो. अहमद का यह श्रेणीकरण सटीक नहीं है। दूसरी बात जो प्रो. अहमद कहते हैं, वह खुद ही एक मायने में पूँजीवाद और साम्राज्यवाद के कदम पीछे हटने की द्योतक थी। वे कहते हैं कि यह दौर राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलनों और युद्धों का भी दौर था। यह वह दशक था जब विऔपनिवेशिकीकरण की प्रक्रिया सबसे सघन रूप से चली। यही वह दौर था जब प्रत्यक्ष उपनिवेशों के आज़ाद होने के साथ ही साम्राज्यवाद अपने नियन्त्रण के नये तौर-तरीकों का दक्षिण अमेरिकी देशों में अभ्यास कर रहा था और सैन्य जुण्टाएँ बिठा रहा था। वास्तव में, 1968 के दौरान हुए जनउभार को तैयार करने वाले कई कारक थे जैसे, सोवियत साम्राज्यवाद के कुकर्मों के कारण समाजवाद और मार्क्‍सवाद से एक मोहभंग की स्थिति पैदा होना; पूरी दुनिया में वियतनाम युद्ध के विरुद्ध जनभावना; संशोधनवादी सोवियत संघ और साम्राज्यवादी अमेरिका और ब्रिटेन, दोनों से मोहभंग के रूप में पैदा हुई प्रतिक्रिया के तौर पर उत्तरआधुनिकतावाद का जन्म; साम्राज्यवाद का संकट जो कि विऔपनिवेशिकीकरण और वियतनाम युद्ध के रूप में प्रकट हो रहा था; चीन में महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति द्वारा पूरी दुनिया के जनसंघर्षों का प्रेरणा ग्रहण करना, हालाँकि इस प्रेरणा के पीछे की समझदारी ग़लत और अधूरी थी; ‘महान बहस’ के दौरान चीनी पार्टी का सोवियत संघ के संशोधनवाद से विच्छेद, आदि। लेकिन इन सारे कारकों के मिश्रण-मन्थन से वास्तव में जो पैदा हुआ वह क्रान्तिकारी सर्वहारा आन्दोलन के लिए ख़तरनाक ही था। प्रो. अहमद कहते हैं कि 2011 में जो जनउभार पैदा हुआ है, उसकी पृष्ठभूमि में, लातिन अमेरिका के अपवाद को छोड़ दें, तो मार्क्‍सवाद की ‘‘पूर्ण पराजय’’ है। यह भी एक भयंकर भ्रमित/भ्रामक कथन है! पहली बात तो यह कि प्रो. अहमद को स्पष्ट करना चाहिए कि मार्क्‍सवाद की ‘’पूर्ण पराजय’’ से उनका क्या अर्थ है; हमारी तरह वह पूर्ण पराजय को डबल कोट में नहीं रखते! दूसरी बात यह कि आज जिसे मार्क्‍सवाद की पराजय कहा जा रहा है, उसके बीज उसी 1968 के जनउभार की बौद्धिक पैदावारों के जरिये पड़े थे! हम नहीं मानते कि मार्क्‍सवाद की पूर्ण पराजय जैसी कोई चीज़ आज हमारे सामने है। यह तो चीज़ों को सिर के बल खड़ा करके देखने वाली बात है। वास्तव में, आज हम मार्क्‍सवाद की वापसी के साक्षी बन रहे हैं! संकट को समझने के लिए पूँजीवादी विश्व के चैधरी और बौद्धिक टट्टू भी मार्क्‍स को पढ़ रहे हैं। ‘तीसरी दुनिया’ के तमाम देशों में मार्क्‍सवाद की तरफ रुचि बढ़ी है और लोग इसकी ओर मुड़ रहे हैं। यहाँ तक कि पश्चिमी अकादमिक जगत में, जहाँ आज से दस-पन्द्रह वर्ष पहले मार्क्‍सवाद एक शर्मनाक शब्द बन गया था और लोग ‘उत्तर-’ विचार सरणियों की शरण में जा रहे थे, वहाँ भी ‘उत्तर-’ विचार सरणियों को कचरा पेटी के हवाले किया जा रहा है और मार्क्‍सवाद की ओर वापसी हो रही है। ऐसे में, प्रो. अहमद जिस चीज़ को मार्क्‍सवाद की पूर्ण पराजय कह रहे हैं, उसका वास्तव में एक ही अर्थ हो सकता है-मौजूदा जनउभारों का नेतृत्व किसी मार्क्‍सवादी ताक़त के हाथों में न आना। लेकिन इससे फिलहाल कुछ भी साबित नहीं होता।

प्रो. अहमद के इसी कथन का एक दूसरा पहलू जो और भी अधिक भ्रम पैदा करने वाला है, वह यह है कि माकर्सवाद की इस तथाकथित ‘‘पूर्ण पराजय’’ के मामले में लातिन अमेरिका अपवाद है! लातिन अमेरिका में जो बोलीवारियन विकल्प खड़ा करने की चर्चाएँ आजकल चारों तरफ़ हो रही हैं, उसपर प्रो. अहमद बुरी तरह से फि़दा हैं! बोलीविया, इक्वाडोर और वेनेजुएला में जो हो रहा है उसे वह भी शायद इक्कीसवीं सदी के समाजवाद के नये किस्म के प्रयोग मानते हैं। वास्तव में, वाम बुद्धिजीवियों के बीच शावेज़, मोरालेस-शैली के राजकीय इज़ारेदारी वाले कल्याणकारी राज्य को समाजवाद का मॉडल घोषित करके उसके प्रशस्ति-गान गाने का जो चलन आज पूरी दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में देखा जा सकता है, उसके मूल में वास्तव में एक पराजय-बोध है। नवउदारवाद के विरोध, कल्याणकारी नीतियों, जनता की पहलकदमी पर बनी कुछ जन-चौकसी समितियों आदि की मौजूदगी, कुछ लोकप्रिय जनसंस्थाओं के अस्तित्व में आने और साम्राज्यवाद के खि़लाफ़ नफ़रत के आधार पर ही शावेज़ और मोरालेस आदि की सत्ताओं को इक्कीसवीं सदी का समाजवाद घोषित कर दिया गया है। वैसे तो यह एक अलग बहस का मुद्दा है और आने वाले समय में बोलिवारियन उभार की नियति भी कई सवालों को स्पष्ट कर देगी, लेकिन फिलहाल इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि मार्क्‍सवाद के विज्ञान के मुताबिक जिन कसौटियों या मानकों को समाजवाद का पैमाना माना जा सकता है, उनमें से किसी भी पैमाने पर बोलिवारियन क्रान्ति से जन्मी सत्ताएँ खरी नहीं उतरती हैं। इस पर हम यहाँ आगे चर्चा नहीं कर सकते क्योंकि यह विषय अलग से एक लम्बे आलेख की माँग करता है। लेकिन इतना स्पष्ट है कि लातिन अमेरिका में बोलिवारियन क्रान्ति के अंग के तौर पर अस्तित्व में आयीं सत्ताओं से प्रो. एजाज़ अहमद का प्यार एक निहायत सामाजिक जनवादी प्यार है जिसके पीछे इन राज्यों की कल्याणकारी नीतियाँ हैं। न तो वहाँ कल-कारखाने, खान-खदान मज़दूरों के समूहों के नियन्त्रण में हैं, न निजी सम्पत्ति का ख़ात्मा हुआ है, और न ही राजनीतिक निर्णय प्रत्यक्ष रूप से लेने की ताक़त जनता के हाथों में है। लेकिन फिर भी प्रो. अहमद लातिन अमेरिका की गुलाबी लहर को समाजवाद का नया प्रयोग समझते प्रतीत होते हैं। हद तो तब हो जाती है जब प्रो. एजाज़ अहमद वर्ल्‍ड सोशल फोरम को नवउदारवादी पूँजीवाद के खि़लाफ़ जनता के प्रतिरोध का एक हिस्सा मान बैठते हैं। हालाँकि, उन्हें शायद याद नहीं रहता कि लातिन अमेरिका के जिस देश को वे गुलाबी लहर का हिस्सा नहीं मानते, और नवउदारवादी लहर का एक हिस्सा मानते हैं, यानी कि ब्राज़ील, उस देश के भूतपूर्व राष्ट्रपति लूला की इस मंच के निर्माण में बहुत बड़ी भूमिका थी। वे शायद यह भी भूल गये हैं कि कुख्यात वर्ल्‍ड सोशल फोरम की स्थापना में फ्रांसीसी साम्राज्यवादियों के टुकड़ों पर पलने वाली फण्डिंग एजेंसी अटैक का भी केन्द्रीय योगदान था। वे शायद जेम्स पेत्रास, हेनरी वेल्तमेयर, जोन रोयलोव्स, पी.जे.जेम्स जैसे तमाम बुद्धिजीवियों द्वारा इन साम्राज्यवादी स्वयंसेवी संगठनों द्वारा की जा रही ख़तरनाक साम्राज्यवादी साजि़श के पर्दाफाश को भी भूल गये हैं! जाहिर है, प्रो. एजाज़ अहमद फिर से अपनी सामाजिक जनवादी आसक्ति को रोक नहीं पा रहे हैं, जो पूँजीवाद के समक्ष आत्मसमर्पण, पराजय-बोध और पूँजीवाद के दायरे में ही कुछ कीन्सीय और कल्याणकारी सुधारवाद के अलावा और कुछ भी नहीं है। प्रो. अहमद 1968 से फर्क बताते हुए एक जगह यह मान बैठते हैं कि 2011 के प्रतिरोध आन्दोलनों का मकसद एक बेहतर, अधिक मानवीय और सुधरे हुए पूँजीवाद को हासिल करना है। अरब जनउभार के मामले में पश्चिमी शैली के लोकतन्त्र को एक फेटिश बना दिया गया है (बकौल प्रो. अहमद), और वे अमेरिका और यूरोपीय देशों में चल रहे आन्दोलनों में कीन्स और यहाँ तक कि प्रूधों के प्रति एक नॉस्टैल्जिया को देख रहे हैं। अब यह बात दीगर है कि वे स्वयं इस नॉस्टैल्जिया के बुरी तरह से मरीज़ हैं!

इसके बाद प्रो. अहमद बल प्रयोग के रास्ते क्रान्ति तक पहुँचने की बात करने वाली ताक़तों के भविष्य के बारे में अपनी राय ज़ाहिर करते हैं। इतिहास में बल प्रयोग की भूमिका को ख़ारिज करने के लिए एजाज़ अहमद दार्शनिक नटगिरी का नायाब नमूना पेश करते हैं। वह हेगेल तक जाते हैं और हेगेल का एक उद्धरण ढूँढकर लाते हैं। हेगेल ने एक जगह कहा है कि ‘इतिहास अनिवार्यता है।’ प्रो. एजाज़ अहमद इसे एक ‘‘यथार्थवादी’’ कथन बताते हैं और इसे 1968 के इस कथन के बरक्स खड़ा करते हैं: ‘यथार्थवादी बनो, और असम्भव का स्वप्न देखो!’ इसके बाद, वे हमें इस बात पर सहमत करने की कोशिश करते हैं कि 1968 का यह नारा वास्तव में हेगेल-विरोधी है क्योंकि वह इतिहास को अनिवार्यता के नियम से निर्धारित होने वाला घटना-क्रम नहीं मानता, बल्कि आत्मगत प्रयास से ऐसी चीज़ों को भी सम्भव बनाने में यक़ीन रखता है, जो अनिवार्यता के नियम के अनुसार असम्भव है। बहरहाल, हेगेल ने जब इतिहास को अनिवार्यता कहा था तो उनका अर्थ इतिहास में कारणात्मकता (कॉज़ैलिटी) के पहलू पर ज़ोर देना था। मार्क्‍स ने इस बात के लिए हेगेल की आलोचना की थी कि वे कारणात्मकता या अनिवार्यता को निरपेक्ष (और इस अर्थ में दैवीय या ईश्वरीय) मानते थे, और उसकी ऐतिहासिकता को नहीं समझते थे। मार्क्‍स ने हर परिघटना को उसकी ऐतिहासिकता के रूप में समझा और हेगेल की इस ग़लती को दुरुस्त किया जो हर परिघटना को निरपेक्ष अनिवार्यता के रूप में देखती थी। क्योंकि हेगेल के दृष्टिकोण से हर परिघटना को जायज़ ठहराया जा सकता है, निरपेक्ष अनिवार्यता के रूप में। सरल शब्दों में कहा जाय तो हर चीज़ होती है, क्योंकि वही हो सकती है! जबकि मार्क्‍स का दृष्टिकोण था कि हर चीज़ अपनी ऐतिहासिकता में होती है, और इस ऐतिहासिकता को समझकर उसे सामूहिक अभिकर्ता के सक्रिय और सचेतन आत्मगत प्रयास से बदला जा सकता है। लेकिन प्रो. अहमद ने हेगेल को उससे भी ज़्यादा प्रतिक्रियावादी बना दिया है, जितने कि हेगेल थे! इसके बाद भी प्रो. अहमद का मन नहीं भरा और उन्होंने लेनिन को भी अपने सामाजिक जनवाद और सुधारवाद से विनियोजित करने की भरपूर कोशिश की है। आगे वे कहते हैं कि वे हेगेल की बजाय लेनिन के फार्मुले को ज़्यादा पसन्द करते हैं! यह सुनकर अच्छा लगता है, लेकिन यह सुख लघुजीवी सिद्ध होता है क्योंकि आगे वे कहते हैं कि लेनिन के फार्मुले को वे अपने शब्दों में इस प्रकार रखते हैं: ‘असम्भव की कल्पना करो, अपने स्वप्न के प्रति ईमानदार रहो और असम्भव के उस हिस्से पर काम करो जो सम्भव है।’(!?) और इसके बाद प्रो. अहमद एक संशोधनवादी मास्टर स्ट्रोक जमाते हुए जो कहते हैं, उसका अर्थ यह है कि बल प्रयोग के साथ क्रान्ति, मज़दूर सत्ता की स्थापना और क्लासिकीय अर्थों में समाजवाद का निर्माण असम्भव है! जो उन्हें सम्भव लगता है वह है लातिन अमेरिका के बोलिवारियन प्रयोग जिसमें कल्याणकारी राज्य, एक प्रबुद्ध बोनापार्तवाद और नवउदारवाद और साम्राज्यवाद का इसी ज़मीन से प्रतिरोध। तो प्रो. अहमद क्लासिकीय समाजवाद के ‘असम्भव’ के प्रति ‘ईमानदार’ बने रहते हुए इस ‘असम्भव’ के ‘सम्भव’ हिस्से यानी कि उदार प्रबुद्ध बोनापार्तवाद के कल्याणवाद और नवउदारवादी साम्राज्यवाद-विरोध के साथ मिश्रण, पर अमल का सुझाव देते हैं! यह है प्रो. एजाज़ अहमद का राजनीतिक नुस्खा! और पूरी दुनिया के प्रतिरोध आन्दोलन के संकट को इसी नुस्खे से दूर किया जा सकता है, बकौल प्रो. अहमद! अरब विश्व में अगर राजनीतिक मुद्दों से सामाजिक-आर्थिक मुद्दों की तरफ़ संक्रमण हो जाये, अगर वहाँ सेक्युलर ताक़तों का गठजोड़ साम्राज्यवाद और नवउदारवाद के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा बनाकर इस्लामिक कट्टरपंथी ताक़तों को हाशिये पर पहुँचा दें और कल्याणकारी राज्य के नुस्खे से ग़रीबी, बेरोज़गारी और महँगाई जैसी समस्याओं का समाधान कर दें; अगर अमेरिकी और यूरोपीय विश्व में चल रहे जनान्दोलन भी संगठित रूप से कल्याणकारी राज्य के नुस्खे़ पर अमल करते हुए चुनावों के रास्ते एक सच्चे सामाजिक जनवादी (संशोधनवादी) और कीन्सियाई रास्ते पर चलने वाले नेतृत्व को सत्ता में पहुँचा दें; अगर तमाम ‘तीसरी दुनिया’ के देशों में पैदा होने वाले भावी आन्दोलन भी बोलिवारियन लहर की तर्ज पर काम करें, तो समस्या का हल निकल जायेगा! लेख के अन्त में वे एक बार फिर से वॉल स्ट्रीट कब्ज़ा करो आन्दोलन का गुणगान करते हुए कहते हैं कि वह हर उस बोली को बोल रहा है जो वामपंथ ने पिछले 150 वर्षों में बोली है! अब इसका अर्थ तो प्रो. अहमद ही बता सकते हैं, क्योंकि कुछ पैराग्राफ़ पहले ही वह यह बता रहे थे कि किस तरह से वामपंथ के ह्रास के कारण इन आन्दोलनों में अराजकतावाद हावी हो चुका है, और मौजूदा पूँजीवाद-विरोधी जनउभारों की प्रभावी विचारधारा अराजकतावाद है! खै़र, हम प्रो. अहमद के इस लेख के विरोधाभासों को गिनाने का काम नहीं कर सकते क्योंकि उसके लिए एक अलग ही लेख लिखना पड़ जायेगा।

अन्त में कहा जा सकता है कि प्रो. एजाज़ अहमद से हम इतने कमज़ोर और बौद्धिक तौर पर अनिरंतर लेख की उम्मीद नहीं करते थे। अभी कुछ वर्षों पहले तक उनके लेखन में उनकी बौद्धिक ईमानदारी (एक राजनीतिक और साहित्यालोचक चिन्तक के तौर पर मार्क्‍सवाद के प्रति ईमानदारी, चाहे आप उनके विश्लेषणों से सहमत हों या असहमत) और राजनीतिक पक्षधरता (संशोधनवादी पार्टियों के साथ जुड़ाव) के बीच के तनाव और द्वन्द्व को महसूस कर सकते थे। लेकिन अब यह द्वन्द्व सुलझता नज़र आ रहा है; दुख की बात यह है कि यह हल राजनीतिक पक्षधरता की ओर झुकते हुए हो रहा है। नतीजा साफ़ है। यह हल बौद्धिक ईमानदारी की कीमत पर होता नज़र आ रहा है।

साहित्यालोचना और संस्कृति के क्षेत्र में आज भी उनके पुराने लेखन को उत्तर-आधुनिकता के हमलों के विरुद्ध मार्क्‍सवाद की सर्वश्रेष्ठ रक्षा के उदाहरणों में गिना जा सकता है। जेम्सन और ईगलटन द्वारा उत्तर-आधुनिकतावाद की नरम और कभी-कभी शर्मिंदा-सी दिखने वाली आलोचनाओं की तुलना में उनकी आलोचनाएँ अधिक तीक्ष्ण दिखती हैं। लेकिन इस लेख में उनकी अवस्थिति साफ़ तौर पर संशोधनवाद की तरफ़ बढ़ते झुकाव के कारण बौद्धिक धार के कुन्द पड़ने का सबूत है। हम इस पर अफ़सोस ही कर सकते हैं। प्रो. प्रभात पटनायक जिस नियति को पहले ही प्राप्त हो चुके हैं, प्रो. एजाज़ अहमद भी उसी नियति को प्राप्त होते दिख रहे हैं। यह लाजि़मी भी था। साहित्य के क्षेत्र में देर तक मार्क्‍सवादी होना/दिखना आसान होता है। राजनीतिक अर्थशास्त्र में विज्ञान की सटीकता का आग्रह ज़्यादा होने के कारण आप जल्दी पार लग जाते हैं! ग़लती प्रो. प्रभात पटनायक और वरीयता प्रो. एजाज़ अहमद की नहीं है; आइये इसका दोष/श्रेय अलग-अलग विषयों की विशिष्टताओं पर डाल दें!

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-फरवरी 2012

 

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