राष्ट्रीय प्रश्न पर ‘प्रतिबद्ध’ के सम्पादक सुखविन्दर का लेख: मार्क्सवाद और राष्ट्रीय प्रश्न पर चिन्तन के नाम पर बुण्डवादी राष्ट्रवाद, राष्ट्रीय कट्टरपन्थ और त्रॉत्स्कीपन्थ में पतन की त्रासद कहानी
शिवानी
(हाल ही में, आन्दोलन में एक ऐसी प्रवृत्ति पैदा हुई है जिसने उन दो ख़तरनाक भटकावों का एक मिश्रण तैयार किया है, जिनके ख़िलाफ़ लेनिन जीवनपर्यन्त संघर्ष करते रहे थे: बुण्डवादी राष्ट्रवाद और त्रॉत्स्कीपन्थ। ‘आह्वान’ की ओर से इस ट्रॉट–बुण्डवादी अवस्थिति की विस्तृत आलोचना पेश की गयी है। इसके कुछ हिस्से हम आपसे यहाँ साझा कर रहे हैं। इस पूरी आलोचना को ‘आह्वान’ पुस्तिका के रूप में जल्द ही प्रकाशित किया जायेगा। हम यहाँ इस आलोचना के कुछ हिस्से पेश कर रहे हैं। पूरी आलोचना को आप यहाँ पढ़ सकते हैं: www.ahwanmag.com/archives/7567 – सम्पादक)
कुछ प्रारम्भिक आधारभूत बिन्दु
उपरोक्त लेख में ‘प्रतिबद्ध’ द्वारा राष्ट्रीय प्रश्न पर मौजूद क्लासिकीय मार्क्सवादी अवस्थिति को न सिर्फ़ बेहद मनमाने ढंग से व्याख्यायित किया गया है बल्कि इस प्रश्न पर मार्क्सवादी लेखन में प्रस्तुत मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, स्तालिन, काउत्स्की आदि की प्रस्थापनाओं को सन्दर्भों से काटकर भी पेश किया गया है। साथ ही, राष्ट्रीय प्रश्न पर एक बेहद गड्डमड्ड अवस्थिति अपनाई गयी है। मूल मुद्दों से, यानी राष्ट्रीय प्रश्न क्या होता है, राष्ट्रीय दमन क्या होता है, पंजाबी क़ौम किस पैमाने से दमित क़ौम है आदि सवालों से बच निकलने का असफल प्रयास किया गया है। इसके अलावा हमारे (‘आह्वान’) द्वारा इन्हें राष्ट्रवादी व भाषाई अस्मितावादी विचलन का शिकार कहे जाने को इन्होंने हमारा वर्ग अपचयनवाद (class reductionism) कहा है, हमारी राष्ट्रीय प्रश्न के प्रति उदासीनता और केवल “मज़दूर मसलों” और “शिक्षा-रोज़गार के मसले” को प्राथमिकता देना कहा है। सच कहें तो हमें ऐसे ही जवाब की उम्मीद थी!
चूँकि राष्ट्रीय प्रश्न पर सही मार्क्सवादी अवस्थिति अपनाने का सवाल कोई अकादमिक क़वायद नहीं है, बल्कि सीधे तौर पर सर्वहारा क्रान्ति के कार्यक्रम से जुड़ा हुआ मुद्दा है, इसलिए इस पर कोई भी हवा-हवाई, अठोस, अमूर्त और वायवीय (ethereal) अवस्थिति आपको उतने ही हवा-हवाई, अमूर्त, वायवीय और ग़लत निष्कर्षों पर पहुँचाएगी, जोकि सुखविन्दर के उपरोक्त लेख में देखने को मिलते हैं।
साथ ही, ऐसा वायवीय विमर्श राष्ट्रीय प्रश्न सम्बन्धी ठोस कार्यक्रम व राजनीतिक माँगों के सूत्रीकरण और उससे निकलने वाले ठोस व्यावहारिक कार्यभारों को चिह्नित करने में न सिर्फ़ विचारधारात्मक गड़बड़ी पैदा करेगा बल्कि आपको एकदम ग़लत राजनीतिक कार्यदिशा की ओर भी ले जायेगा। इस लेख में सुखविन्दर ने राष्ट्रीय प्रश्न को, क़ौमी दमन को, जहाँ तक कि पंजाब का सवाल है, सांस्कृतिक–भाषाई दमन में अपचयित (reduce) कर दिया है और महज़ उसे ही क़ौमी दमन का नाम दे दिया है। यह अवस्थिति किस तरह से मार्क्सवादी-लेनिनवादी अवस्थिति का निषेध है, उससे विचलन है और अपने सारतत्व में ‘बुण्डवादी’, सांस्कृतिक-राष्ट्रीय स्वायत्ततावादी और त्रॉत्स्कीपन्थी अवस्थिति है, यह हम इस आलोचना में आगे दिखायेंगे।
हम ऊपर बता चुके हैं कि राष्ट्रीय प्रश्न क्या होता है इस पर सुखविन्दर द्वारा उनके लेख में सकारात्मक पक्ष रखने की बजाय नकारात्मक तौर पर अवस्थिति रखी गयी है। लेखक जो सिद्ध करने पर तुले हुए हैं वह ये है कि (1) राष्ट्रीय प्रश्न औपनिवेशिक प्रश्न के बग़ैर अस्तित्व में आ सकता है; (2) राष्ट्रीय प्रश्न अग्रेरियन प्रश्न/भूमि प्रश्न के बग़ैर अस्तित्व में आ सकता है; (3) राष्ट्रीय प्रश्न बिना किसी एक राष्ट्र के दबदबे/प्रभुत्व के (dominant nation) के अस्तित्व में आ सकता है; और (4) बुर्जुआजी के दमन के बिना भी राष्ट्रों का दमन हो सकता है।
हम सबसे पहले सुखविन्दर द्वारा पेश की गयी इन प्रस्थापनाओं पर अपनी बात केन्द्रित करेंगे क्योंकि इनके लेख का मूल मक़सद इन्हें ही सिद्ध करना है और दिखलायेंगे कि किस तरह ये प्रस्थापनाएँ लेख के पीछे के पूरे तर्क को संचालित करती हैं। सुखविन्दर अपने लेख के शुरू में ही बिना कहे यह ज़ाहिर कर देते हैं कि उन्हें इस लेख में साबित क्या करना है। उन्हें इस लेख और शायद आने वाले अन्य लेखों ( उन्होंने शुरू में ही कह दिया है कि वह ‘प्रतिबद्ध’ के आने वाले अंकों में ‘भारत में राष्ट्रीय प्रश्न’ और ‘पंजाब में राष्ट्रीय प्रश्न’ पर लेख प्रकाशित करेंगे) में यह दिखलाना है कि पंजाब एक दमित राष्ट्र है, एक ऐसा दमित राष्ट्र जहाँ न तो औपनिवेशिक प्रश्न, न भूमि/कृषि प्रश्न और न ही कोई दमित बुर्जुआ वर्ग मौजूद है। इसलिए वह जब भी भारत में “असमाधित राष्ट्रीय प्रश्न” की बात करते हैं तो कश्मीर और उत्तर-पूर्व के विषय में क़ौमी दमन का उदाहरण देते समय तो सैन्यकरण और वहाँ चल रहे मुक्ति संघर्ष का हवाला देते हैं। लेकिन जब “मुख्य भूमि” भारत में (मुख्यत: पंजाब में!) इस प्रश्न के “असमाधित” रहने की बात करते हैं तब राष्ट्रीय दमन को इन शब्दों में व्याख्यायित करते हैं –
“हिंदी का कभी ख़ुलेआम तो कभी चुपचाप थोपा जाना, विभिन्न राष्ट्रीय भाषाओं में शिक्षा पर रोक लगाना, इन भाषाओं के स्कूल बंद किया जाना और संविधान में भारत को जिस तरह का संघीय ढाँचा माना गया है उसके विपरीत जाकर भारतीय शासकों का ज़ोर हमेशा ऐकिक ढाँचे की ओर रहना।” (सुखविन्दर, ‘राष्ट्रीय प्रश्न और मार्क्सवाद’, प्रतिबद्ध-33)
यानी सुखविन्दर के अनुसार, “मुख्य भूमि” भारत में असमाधित राष्ट्रीय प्रश्न का यह स्वरुप है: भाषाओं का दमन और संघीय ढाँचे की अवमानना।
यह तर्क-पद्धति कितनी भोथड़ी है और राष्ट्रीय प्रश्न पर मार्क्सवादी-लेनिनवादी अवस्थिति का कितना भद्दा विकृतिकरण है यह यहीं पर स्पष्ट हो जाता है। अब आप समझ सकते हैं कि लेखक ने ऊपर गिनाये गये निष्कर्ष क्यों निकाले थे। ज़ाहिरा तौर पर यह पंजाब को दमित क़ौम साबित करने के लिए किया गया है। यह इसलिए भी किया गया है क्योंकि क्लासिकीय मार्क्सवादी लेखन में स्पष्ट तौर पर यह बताया गया है कि राष्ट्रीय प्रश्न का सीधा अर्थ राष्ट्रीय दमन का होना है, राष्ट्रीय दमन तभी हो सकता है जब दमित राष्ट्र के सम्बन्ध में या तो औपनिवेशिक प्रश्न (दूसरे शब्दों में, दमित राष्ट्र के ऊपर क्षेत्रीय कब्जे/annexation या उपनिवेशिकीकरण/colonization का प्रश्न) और दमित बुर्जुआ वर्ग की उपस्थिति हो या फिर भूमि सम्बन्धी (agrarian) प्रश्न और दमित बुर्जुआ वर्ग की उपस्थिति हो जैसाकि अर्द्धसामन्ती अर्द्धऔपनिवेशिक देशों में था। यदि इन दोनों में से कोई भी स्थिति नहीं है, तो हम राष्ट्रीय दमन की बात नहीं कर सकते हैं। इसमें भी जो सबसे महत्वपूर्ण बात है और राष्ट्रीय दमन के हर उदाहरण में मौजूद होती है, वह है बुर्जुआजी का दमन। राष्ट्रीय दमन सिर्फ़ और सिर्फ़ इसी रूप और अर्थ में अस्तित्वमान हो सकता है। दमित राष्ट्र का मतलब ही है कि वहाँ का बुर्जुआ वर्ग प्रभुत्वशाली राष्ट्र के शासक वर्गों द्वारा दमित है और उसका स्वतंत्र राजनीतिक अस्तित्व नहीं है; वह इस दमन के ख़िलाफ़ संघर्ष करता है या नहीं या इसके विरुद्ध राष्ट्रीय आन्दोलन में रैडिकल तरीके से उतरता है या नहीं, यह एक अलग बात है। वह आमूलगामी तरीके से उपनिवेशवाद-विरोधी साम्राज्यवाद-विरोधी अवस्थिति अपनाता है या अपना पाता है या नहीं, इससे इस बात का कोई रिश्ता नहीं है कि वह दमित है या नहीं।
विशेष तौर पर, साम्राज्यवाद के युग में राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति का कार्यभार पूँजीवादी जनवादी क्रान्ति के दायरे का अतिक्रमण कर जाता है और आम तौर पर राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग राष्ट्रीय मुक्ति के कार्यभार को पूरा करने में एक ढुलमुलयक़ीन मित्र में तब्दील हो जाता है, और कई बार तो करता ही नहीं, क्योंकि वह सर्वहारा वर्ग के उभार से डर जाता है। ऐसे में, राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग की भूमिका भी मँझोला व छोटा पूँजीपति वर्ग तथा किसान वर्ग निभाते हैं, जैसाकि लेनिन और माओ ने बताया था, और हम आगे दिखाएंगे। यह राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग जब भी सर्वहारा वर्ग व किसान वर्ग के उभार से घबराता है, तो दमनकारी राष्ट्र की बुर्जुआजी से मोलभाव और समझौते करने लगता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि वह दमित बुर्जुआजी नहीं है। यह भी हम आगे सन्दर्भ समेत दिखाएंगे।
इसका केवल यह अर्थ होता है कि साम्राज्यवाद के युग में राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति के कार्यभार को भी आमूलगामी तरीके से और सुसंगत जनवादी तरीके से पूरा करने के काम में बुर्जुआ वर्ग अक्षम हो जाता है, और यह कार्य भी सर्वहारा वर्ग को अपने नेतृत्व में लेना चाहिए और किसान वर्ग, पेटी बुर्जुआजी और राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग के सर्वाधिक आमूलगामी व क्रान्तिकारी तत्वों के साथ मिलकर जनता की जनवादी क्रान्ति के कार्यभार को सम्पन्न करना चाहिए। लेकिन राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग यदि ऐसा ढुलमुल बर्ताव करता है, तो भी यह उसके दमित न होने को प्रदर्शित नहीं करता है। कम-से-कम मार्क्सवादी-लेनिनवादी-माओवादी अवस्थिति तो यही कहती है। अब अगर सुखविन्दर पंजाब में राष्ट्रीय दमन साबित करने के फेर में कोई नया सिद्धान्त-प्रतिपादन कर रहे हों, तो बात अलग है! ऐसा करने में कोई दिक्क़त नहीं है, बस उन्हें यह स्पष्ट शब्दों में कहना चाहिए और यह भी दिखलाना चाहिए कि मार्क्सवादी-लेनिनवादी-माओवादी अवस्थिति इस प्रश्न पर ग़लत है। उन्हें अपनी धारणा को सही साबित करने के लिए मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धान्त का विकृतिकरण नहीं करना चाहिए, उसमें काट-छाँट नहीं करनी चाहिए और बजाय अपनी ग़लत धारणा बदलने के मार्क्सवादी सिद्धान्त नहीं बदलना चाहिए।
अगर भारत के विषय में बात करें तो कश्मीर और उत्तर-पूर्व में मौजूद दमित राष्ट्रों का भारतीय राज्य द्वारा ज़बरन क्षेत्रीय क़ब्ज़ा/अधिग्रहण/उपनिवेशीकरण (annexation/colonization) किया गया है। वहाँ की बुर्जुआजी व पेटी-बुर्जुआजी का दमन किया गया है। इसीलिए वहाँ उन क़ौमों का राष्ट्रीय दमन है और वहाँ राष्ट्रीय प्रश्न का समाधान होना बाकी है। कहने की आवश्यकता नहीं है, कि यह क़ौमी दमन राष्ट्रीय बुर्जुआजी के आर्थिक व राजनीतिक दमन से शुरू होता है, लेकिन फिर इसे पूरी क़ौम तक विस्तारित कर दिया जाता है और इस क़ौमी दमन के तौर पर भाषाओं का दमन, राजनीतिक अधिकारों का दमन भी होता है, जिसका सामना इन दमित क़ौमों के मेहनतकश वर्गों को भी करना पड़ता है। राजनीतिक दमन का चरित्र ही ऐसा होता है। जिस तरह एक हद तक पूँजीवाद के विकास और बुर्जुआ वर्ग के अस्तित्व में आये बग़ैर ‘राष्ट्र’ अस्तित्व में नहीं आ सकता है, उसी तरह बिना दमित बुर्जुआ वर्ग के दमित राष्ट्र अस्तित्व में नहीं आ सकता है। दूसरे शब्दों में, बुर्जुआजी के दमन के बिना राष्ट्रीय दमन की अवधारणा ही अवैध हो जाती है।
दुनियाभर के मार्क्सवादी-लेनिनवादी-माओवादी इस बात को जानते हैं, जैसाकि हम आगे उद्धरणों समेत दिखाएंगे। इतनी सामान्य-सी बात भी हमें बार-बार इसलिए दोहरानी पड़ रही है क्योंकि ‘प्रतिबद्ध’ के लेखक यह बुनियादी बात भी समझ नहीं पा रहे हैं या फिर समझ कर भी अनजान बन रहे है। इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है कि भारत और इन राष्ट्रों (यानी कश्मीर और उत्तर-पूर्व के राष्ट्रों) के क्षेत्र (territory) एक दूसरे से सटे हुए (contiguous) हैं। उपनिवेश या क्षेत्रीय क़ब्ज़े सात समन्दर पार हों, तो ही उन्हें उपनिवेश या क़ब्ज़ा नहीं माना जाता है। यदि कोई देश अपने क्षेत्र से सटे किसी राष्ट्र के क्षेत्र पर भी क़ब्ज़ा करता है, तो वह उपनिवेश या क़ब्ज़ा ही माना जाता है। आयरलैण्ड, पोलैण्ड आदि में ऐसा ही था। जहाँ तक राष्ट्रीय प्रश्न का सवाल है, इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है, जैसाकि लेनिन ने दिखलाया था और हम आगे उद्धरण समेत दिखाएंगे। कश्मीर और उत्तर-पूर्व के राज्य भी भारत द्वारा उपनिवेशीकृत क्षेत्र ही हैं। इसलिए आम तौर पर “मुख्य भूमि” भारत में और विशेष रूप से पंजाब में यह प्रश्न इन अर्थों में किस प्रकार असमाधित है, यह ‘प्रतिबद्ध’ के लेखक को बताना पड़ेगा। लेनिन ने बताया था कि क़ौमी दमन का अर्थ ही है किसी क़ौम को उसकी इच्छा के विपरीत किसी अन्य राज्य की सीमाओं के भीतर रखना, चाहे वह क्षेत्र उस राज्य से लगा हुआ हो, ऐतिहासिक तौर पर उसकी सीमाओं के भीतर रहा हो, या सात समन्तर दूर हो। इससे जुड़े उद्धरण हम आगे पेश करेंगे।
याद रखें, यहाँ हम राष्ट्र (nation) की बात कर रहे हैं, अल्पसंख्यक राष्ट्रीयताओं (minority nationalities) की नहीं। इन दोनों में लेनिन से लेकर माओ तक सभी ने फ़र्क़ किया है और वैज्ञानिक व राजनीतिक दृष्टि से फ़र्क़ किया जाना चाहिए। राष्ट्रों का एक क्षेत्रीयता का चरित्र (territoriality) होता है चाहे वे छोटे राष्ट्र हों या बड़े राष्ट्र, जैसाकि पंजाब का है, या कश्मीर, महाराष्ट्र, उत्तर-पूर्व के राज्यों आदि का है। अल्पसंख्यक राष्ट्रीयताएँ वे होती हैं, जिनकी कोई क्षेत्रीयता (territoriality) नहीं होती। मिसाल के तौर पर, यूरोप में यहूदी, स्विट्ज़रलैण्ड में इतालवी, अमेरिका में पुएर्तो रीकन लोग, आदि। कहने का अर्थ यह है कि स्विट्ज़रलैण्ड में इतालवी लोग अपना अलग देश बनाने, यानी राष्ट्रीय आत्मनिर्णय की माँग नहीं कर सकते हैं। या जो कश्मीरी आबादी मुख्यभूमि भारत में कहीं भी बस गयी है, वह वहाँ पर राष्ट्रीय आत्मनिर्णय की माँग नहीं कर सकती है, क्योंकि वहाँ वह एक अल्पसंख्यक राष्ट्रीयता है, न कि राज्य बनने की क्षमता रखने वाला राष्ट्र, जोकि अपने आत्मनिर्णय का अधिकार रखता है। ऐसी राष्ट्रीयताओं का संघर्ष मूलत: सुसंगत जनवाद, राजनीतिक समानता और भाषा के अधिकार को लेकर होता है।
यह समझना अनिवार्य है कि राष्ट्रीय प्रश्न इसी अर्थ में मौजूद हो सकता है। राष्ट्रीय दमन एक राजनीतिक अवधारणा है, इसका रिश्ता राजनीतिक जनवाद (political democracy) के क्षेत्र से है। इसके अलावा राष्ट्रीय दमन की कोई और व्याख्या, उसका किसी भी किस्म का सांस्कृतिकीकरण (culturalization), उसका किसी भी क़िस्म का वायवीयकरण (etherealization), न केवल मार्क्सवाद-विरोधी है बल्कि दमित राष्ट्रों के वास्तविक संघर्षों के प्रति भी बेहद ख़तरनाक दृष्टिकोण का परिचायक है जो अन्ततः आपको सुधारवादी निष्कर्षों तक पहुंचा देगा।
सुखविन्दर ने हमें वर्ग-अपचयनवादी कहा है और कहा है कि,
“कश्मीर और उत्तर-पूर्व के राष्ट्रों की आज़ादी के बारे में हम ठोंक बजाकर स्टैण्ड नहीं लेते, बस कभी-कभी ज़बानी जमा-ख़र्च तक सीमित रहते हैं, राष्ट्रीय मसलों को नकारते हैं, राष्ट्रीय मसलों के प्रति दिल्ली के शासकों के सुर में सुर मिलाते हैं, राष्ट्रीय भावनाओं के प्रति असंवेदनशील रवैया रखते हैं” आदि। (सुखविन्दर, ‘राष्ट्रीय प्रश्न और मार्क्सवाद’, प्रतिबद्ध-33)
ये बड़े गम्भीर आरोप हैं और यदि ये सच हैं तो उन्हें सन्दर्भों और तर्कों समेत दिखलाना चाहिए था कि हमारा राष्ट्रीय प्रश्न पर ऐसा वर्ग-अपचयनवादी रवैया कहाँ मौजूद रहा है। चूँकि हम पंजाब को दमित राष्ट्र नहीं मानते इसका मतलब यह नहीं है कि हम राष्ट्रीय प्रश्न या क़ौमी दमन होने से ही इन्कार करते हैं। वैसे भी पंजाब को दमित राष्ट्र आपको साबित करना है, हमें नहीं! हालाँकि आपके द्वारा इस लेख में की गयी सारी मशक्कत इस दिशा में बेहद असफल कोशिश जान पड़ती है। उल्टे, अपनी आलोचना में सप्रमाण और सन्दर्भों के साथ हम ज़रूर यह दिखलायेंगे कि किस तरह ‘प्रतिबद्ध’ के लेखक का राष्ट्रीय मसलों पर “अति-उत्साहपूर्ण” रवैया वास्तव में केवल पंजाब के लिए ही आरक्षित है और किस तरह यह अवस्थिति न सिर्फ़ ग़ैर-मार्क्सवादी है बल्कि भयंकर पंजाबी बुर्जुआ अन्धराष्ट्रवादी (Punjabi national chauvinist) विचलन से ग्रस्त है।
कश्मीर और उत्तर-पूर्व भारत में भारतीय राज्यसत्ता द्वारा किये जा रहे बेहद अमानवीय राष्ट्रीय दमन की मुख्यभूमि भारत के किसी भी प्रान्त या क़ौम से कोई तुलना ही नहीं है। कश्मीर दुनिया के सबसे सैन्यकृत इलाक़ों में से है, इसका ज़िक्र सुखविन्दर ने ख़ुद भी अपने लेख में किया है। कश्मीर और उत्तर-पूर्व में भारतीय राज्यसत्ता द्वारा लगातार आफ्सपा (AFSPA) कानून लगाकर एक क़िस्म का सैन्य शासन क़ायम किया गया है और जबरन इन क़ौमों को भारत में मिलाया गया है। इन जगहों पर भारतीय राज्यसत्ता के प्रति वैसी ही नफ़रत है जैसाकि औपनिवेशिक सत्ता के प्रति उपनिवेशों की दमित क़ौमों में होती है। इससे भी कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है कि वहाँ की बुर्जुआजी इन राष्ट्रों के मुक्ति संघर्षो में क्या और कितनी भूमिका अदा करती रही है, उनका चरित्र दमित बुर्जुआजी का ही रहेगा। हाँ, उसका एक हिस्सा जोकि दलाल, ग़ैर-राष्ट्रीय (non-national) है, वह भारतीय हुक्मरानों की कठपुतली के जैसा आचरण करता रहा है और आगे भी इसी की सम्भावना अधिक है, जैसाकि लगभग सारी ही दमित क़ौमों के मामले में देखने को मिलता है। लेकिन उससे यह तथ्य ख़ारिज नहीं हो जाता है कि इन क़ौमों की राष्ट्रीय बुर्जुआजी दमित है और ठीक इसीलिए यह क़ौमें दमित हैं। 5 अगस्त, 2019 के बाद तो यह बात और स्पष्ट रूप से सामने आई है जब कश्मीर के बुर्जुआ वर्ग के राजनीतिक प्रतिनिधियों तक को जेलों में डाल दिया गया, यहाँ तक कि उन्हें भी नहीं बख़्शा गया जोकि समझौतापरस्त रुख़ अपनाते रहे थे। इससे पहले शेख़ अब्दुल्ला के साथ क्या हुआ था, उससे भी कोई अनभिज्ञ नहीं है। भारत में आपातकाल को छोड़ दिया जाये, जोकि भारतीय राज्यसत्ता के राजनीतिक संकट की ही एक विशिष्ट अभिव्यक्ति था, ना कि कोई राष्ट्रीय दमन की नीति, तो ऐसा किस राष्ट्र की बुर्जुआजी के साथ हुआ है? भारतीय हुक्मरानों द्वारा जो चुनाव वहाँ करवाये जाते हैं उसका भी साल-दर-साल क्या हश्र हुआ है, सबके सामने है। प्रेस और मीडिया पर ज़बरदस्त पाबन्दियाँ हैं। लम्बे समय से इण्टरनेट की सेवाएँ बन्द हैं। आने-जाने, सड़क पर चलने, एक-दूसरे से मिलने-जुलने पर पुलिसिया रोकटोक और पाबन्दियाँ हैं। कहीं भी रोककर फ़ौज और अर्द्धसैनिक बलों द्वारा चेकिंग करना और कश्मीरियों की हत्या तक कर देना आम बात है। कोने-कोने पर चेकपोस्ट बने हुए हैं। शैक्षणिक संस्थानों की स्वायतत्ता बहुत पहले ही ख़त्म कर दी गयी थी। इस स्थिति की तुलना पंजाब या “मुख्यभूमि” भारत के सुखविन्दर के शब्दों में “असमाधित राष्ट्रीय प्रश्न” से पाठक ख़ुद ही कर लें। पंजाब के तथाकथित “क़ौमी दमन” की तुलना कश्मीर और उत्तर–पूर्व से करना यही दिखलाता है कि सुखविन्दर या तो वास्तव में राष्ट्रीय दमन की मार्क्सवादी–लेनिनवादी अवधारणा समझे नहीं हैं, या फिर बात कुछ और है।
अब हम सुखविन्दर द्वारा राष्ट्रीय दमन की अवधारणा पर पेश विचारों की आलोचनात्मक समीक्षा पर आते हैं। इसी प्रक्रिया में हम ऊपर हमारे द्वारा रखी गयी अवस्थितियों को भी मार्क्सवादी-लेनिनवादी क्लासिक्स में पेश अवस्थितियों के सन्दर्भों, उद्धरणों व उदाहरणों समेत सिद्ध करेंगे।
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पंजाब की स्थिति पर सुखविन्दर के क़ौमी दमन के सिद्धान्त को लागू करने से निकलने वाले विचित्र हास्यास्पद नतीजे
अब आइए सुखविन्दर के क़ौमी दमन के सिद्धान्त को पंजाब के मामले पर लागू करके देखते हैं। याद रहे, यह काम हम सिर्फ़ मनोरंजन के लिए नहीं कर रहे हैं, हालाँकि इस प्रक्रिया में काफी मनोरंजन हो सकता है!
उन्हें पंजाबी क़ौम के दमन को सिद्ध करना है। लेकिन पंजाबी बुर्जुआजी को न तो वह दमित मानते हैं और न ही दलाल, बल्कि एक राजनीतिक रूप से स्वतन्त्र बुर्जुआजी मानते हैं। यही कारण है कि सुखविन्दर दो उद्धरण ढूँढ कर लाए ताकि यह साबित कर सकें कि पंजाबी बुर्जुआजी के दमित (या दलाल) न होने की सूरत में भी, पंजाब को दमित क़ौम माना जा सकता है। हमने ऊपर देखा कि स्तालिन व लेनिन ऐसा कुछ नहीं कह रहे हैं और उनके उद्धरणों की व्याख्या करने में सुखविन्दर ने बुद्धि विवेक पर कम ज़ोर दिया है और अपने कल्पना के घोड़े ज़्यादा दौड़ा दिये हैं।
आइए, अब ज़रा सुखविन्दर के सिद्धान्त को पंजाब पर लागू करते हैं।
अगर पंजाब में राष्ट्रीय प्रश्न मौजूद है, तो इसका पंजाब के सन्दर्भ में एक ही मतलब है कि वहाँ राष्ट्रीय दमन है और वहाँ स्वतंत्र राष्ट्र-राज्य बनाने के हक़ की हिमायत करके और इस हक़ के लिए लड़कर ही एक सही कम्युनिस्ट अवस्थिति अपनाई जा सकती है। वजह यह है कि पंजाब एक राष्ट्र है, कोई अल्पसंख्यक राष्ट्रीयता नहीं जिसकी कोई टेरीटोरियैलिटी न हो। और कोई दूसरा रास्ता मार्क्सवादी अवस्थिति के अनुसार सम्भव ही नहीं है। जैसाकि यह शब्द “राष्ट्र” ख़ुद ही बताता है कि इसमें बुर्जुआ वर्ग (दलाल पूँजीपति वर्ग को छोड़कर) शामिल है, क्योंकि कोई राष्ट्र बिना बुर्जुआज़ी के अस्तित्व में आ ही नहीं सकता है और राष्ट्र-राज्य निर्माण की परियोजना और कुछ नहीं बल्कि एक बुर्जुआ परियोजना है। यह परियोजना साम्राज्यवाद के युग में बुर्जुआ वर्ग निभाने का पुंसत्व व शक्ति रखता है या नहीं, उससे इस कार्यभार की वर्ग अन्तर्वस्तु पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है। तो फिर इन अर्थों में, पंजाबी दमित राष्ट्र में या तो पूरी बुर्जुआज़ी या फिर बुर्जुआज़ी का वह हिस्सा दमित है जोकि राष्ट्रीय है और दलाल नहीं है। पंजाब में यह दमित बुर्जुआ वर्ग कौन है? सुखविन्दर साफ़ जवाब देने से बच निकलते हैं और आम सिद्धान्त प्रतिपादन करने लगते हैं और दावा करते हैं कि बुर्जुआजी के दमन के बिना भी राष्ट्रीय दमन सम्भव है। एक पल को यह मान लेते हैं कि पंजाबी क़ौम का दमन पंजाबी बुर्जुआजी के दमन के बिना सम्भव है और इस मज़ाक़िया सिद्धान्त को वास्तविकता पर लगाकर उसके मज़ाक़िया नतीजों को देखते हैं।
अगर पंजाबी बुर्जुआजी का कोई हिस्सा दमित नहीं है और वह बुर्जुआजी दलाल भी नहीं है, बल्कि राजनीतिक रूप से स्वतन्त्र है, और पंजाबी क़ौम का भारतीय शासक वर्ग यानी भारत के बड़े पूँजीपति वर्ग द्वारा दमन हो रहा है, जैसाकि सुखविन्दर कह रहे हैं, तो कई सवाल उठते हैं।
पहला सवाल, इस राष्ट्रीय दमन पर राजनीतिक रूप से स्वतंत्र पंजाबी बुर्जुआ वर्ग का क्या रवैया है? क्या वह इसमें शामिल है? क्या वह इसका विरोधी है?
अगर शामिल है तो तीन ही सम्भव नतीजे हो सकते हैं:
पहला यह कि पंजाबी बुर्जुआजी एक दलाल बुर्जुआजी है जोकि भारतीय राज्यसत्ता द्वारा पंजाबी क़ौम के क़ौमी दमन में शामिल है और भारतीय राज्यसत्ता की दलाल है। लेकिन इस सम्भावना को हम व सुखविन्दर दोनों ही पहले ही नकार चुके हैं। यह वैसे भी सम्भव नहीं है क्योंकि पंजाबी बुर्जुआजी मूलत: एक औद्योगिक-वित्तीय व खेती में भी उत्पादक सेक्टर में लगी हुई बुर्जुआजी है, जोकि दलाल हो ही नहीं सकती है। यह मूलत: और मुख्यत: कोई नौकरशाह या वाणिज्यिक बुर्जुआजी नहीं है। अब दूसरी सम्भावना पर आते हैं।
दूसरा सम्भव नतीजा यह है कि सुखविन्दर कह रहे हैं कि पंजाबी बुर्जुआजी पंजाबी क़ौम के भारतीय शासक वर्ग द्वारा दमन पर कुछ नहीं बोल रही है, चुप बैठी है और उसकी इस पर कोई अवस्थिति ही नहीं है! हम जानते हैं कि यह बेतुकी बात है क्योंकि पंजाबी बुर्जुआजी अपने वर्ग हितों को संगठित कर चुकी राजनीतिक रूप से सचेत बुर्जुआजी है, मार्क्स के शब्दों में महज़ एक सामाजिक वर्ग (social class) नहीं है, बल्कि एक राजनीतिक वर्ग (political class) है और एक राजनीतिक वर्ग हर प्रश्न पर एक अवस्थिति या चार्टर रखता है, जोकि उसके हितों की नुमाइन्दगी करता है। यदि ऐसा नहीं है तो मानना होगा कि वह एक राजनीतिक वर्ग के रूप में अभी संगठित ही नहीं हुआ है। ज़ाहिर है कि पंजाबी बुर्जुआजी की ऐसी स्थिति नहीं है।
तीसरा सम्भव नतीजा यह हो सकता है कि पंजाबी बुर्जुआजी को ख़ुद भारतीय शासक वर्ग में हिस्सेदारी हासिल है। लेकिन उस सूरत में सुखविन्दर फिर से एक मज़ाक़िया नतीजे पर पहुँच जायेंगे और वह यह कि पंजाबी बुर्जुआजी पंजाबी क़ौम का क़ौमी दमन कर रही है, दूसरे शब्दों में पंजाबी क़ौम अपना स्वदमन कर रही है! क्योंकि क़ौमी दमन का मतलब ही यह होता है कि एक क़ौम का दूसरी दमनकारी क़ौम या क़ौमों द्वारा दमन। यदि पंजाबी बुर्जुआजी ही पंजाबी जनता का दमन कर रही है, तो क़ौमी दमन की अवधारणा ही बेकार हो जाती है। आप देख सकते हैं कि सुखविन्दर के क़ौमी दमन के सिद्धान्त को अगर वास्तविकता में लागू किया जाय, तो उसके कैसे हास्यास्पद नतीजे सामने आते हैं।
सुखविन्दर जब भारत के सौ सबसे अमीर लोगों में 80 के गुज़राती होने के बारे में बात करते हैं, तो ऐसा ध्वनित होता है कि भारत की बड़ी बुर्जुआजी में पंजाबी बुर्जुआजी का हिस्सा नहीं है। यदि ऐसा है तो इसका अर्थ है कि पंजाबी बुर्जुआजी दमित है! सुखविन्दर को बिना शर्म यह स्वीकार कर लेना चाहिए और पंजाबी बुर्जुआजी से मोर्चा बना लेना चाहिए राष्ट्रीय मुक्ति के लिए! क्योंकि दमित बुर्जुआजी की परिभाषा ही यही होती है कि उसे राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी प्राप्त नहीं होती है, जोकि उसे अपना अलग घरेलू बाज़ार स्थापित करने और क़ायम रखने का अधिकार नहीं देती है। वह अन्य बुर्जुआ वर्गों द्वारा राजनीतिक तौर पर दमित होती है जोकि उसके आर्थिक विकास को भी स्वतंत्र नहीं होने देता और निर्भर बनाए रखता है। हमें पता नहीं किया सुखविन्दर आगे ऐसा नतीजा निकालेंगे या नहीं, लेकिन उनके द्वारा कही जा रही बातों में इसका स्पष्ट संकेत है। आगे बढ़ते हैं।
अब दूसरे सवाल पर आते हैं, जोकि सुखविन्दर के क़ौमी दमन के सिद्धान्त को पंजाब के ऊपर लागू करने से निकलता है।
दूसरा सवाल यह उठता है कि भारतीय शासक वर्ग यानी भारत की बड़ी बुर्जुआजी का राष्ट्रीय चरित्र क्या है? इसका इस सवाल से कोई रिश्ता नहीं है कि उसमें एक ही दमनकारी राष्ट्र शामिल है या कि वह कई दमनकारी राष्ट्रों के समझौते पर आधारित है, यानी उसका एक सम्मिश्रित बहुराष्ट्रीय चरित्र है, जैसाकि लेनिन ने ऑस्ट्रिया के मामले में बताया था। इस सवाल का सुखविन्दर कोई जवाब नहीं देते और ऐसा प्रतीत होता है कि वह एक ऐसे शासक वर्ग की कल्पना करते हैं कि जिसका कोई राष्ट्रीय चरित्र ही नहीं है। ऐसा अराष्ट्रीय शासक वर्ग कोई नहीं होता, जोकि मंगल ग्रह से आया हो! शासक वर्ग का एकराष्ट्रीय चरित्र हो सकता है, या बहुराष्ट्रीय चरित्र। ऐसा सुखविन्दर इसलिए करने को मजबूर हैं क्योंकि अगर वे मानेंगे कि भारतीय शासक वर्ग का बहुराष्ट्रीय चरित्र है और उसमें गुज़राती बुर्जुआजी के बाद क़ौमी मूल के तौर पर सम्भवत: सबसे शक्तिशाली बुर्जुआजी पंजाबी ही है, तो वह अन्तरविरोध में फँस जायेंगे। क्योंकि फिर यह सिद्ध नहीं किया जा सकेगा कि पंजाब का क़ौमी दमन हो रहा है।
यानी सुखविन्दर पंजाब के क़ौमी दमन को साबित करने के लिए पहले तो यह दावा करते हैं कि बिना बुर्जुआजी के दमित हुए भी कोई क़ौम दमित हो सकती है; फिर दावा करते हैं कि राष्ट्रीय दमन करने वाला एक भारतीय शासक वर्ग है जिसका कोई राष्ट्रीय चरित्र नहीं है क्योंकि उन्हें पंजाबी बुर्जुआजी की उसमें हिस्सेदारी और भागीदारी को छिपाना है; और फिर कहते हैं कि केवल भाषाई दमन के आधार पर पंजाब एक दमित क़ौम है! यानी कि पंजाबी क़ौम का दमन पूरी तरह से एक इम्प्रेशनिस्टिक मामला बन जाता है, यानी कि, चूँकि पंजाब में पंजाबी भाषा के साथ ग़ैर–बराबरी हो रही है, इसलिए पंजाबी क़ौम दमित क़ौम है। आगे एक भिन्न उपशीर्षक में हम आपको विस्तार से दिखलाएंगे कि पंजाब में पंजाबी भाषा के साथ जो अन्याय हो रहा है वह क्यों हो रहा है और कौन कर रहा है।
हमने अब तक की अपनी चर्चा में देखा कि सुखविन्दर द्वारा प्रतिपादित ये चारों प्रस्थापनाएँ कितनी कमज़ोर बुनियाद पर खड़ी हैं कि (1) राष्ट्रीय प्रश्न औपनिवेशिक प्रश्न के बग़ैर अस्तित्व में आ सकता है; (2) राष्ट्रीय प्रश्न अग्रेरियन प्रश्न/भूमि संबंधी प्रश्न के बग़ैर अस्तित्व में आ सकता है (जिसे अलग से साबित करने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी); (3) राष्ट्रीय प्रश्न बिना किसी एक राष्ट्र के दबदबे/प्रभुत्व के (dominant nation) के अस्तित्व में आ सकता है; और (4) बुर्जुआजी के दमन के बिना भी राष्ट्रों का दमन हो सकता है और साथ ही हमने यह भी देखा कि पंजाब के राष्ट्रीय दमन को साबित करने के मक़सद से सुखविन्दर जो राजनीतिक व विचारधारात्मक धूम्रावरण खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं, वह उन्हें इस प्रश्न पर मार्क्सवादी चिन्तक नहीं बल्कि बुण्डवादी मसख़रे में तब्दील कर दे रहा है।
…
तो फिर राष्ट्रीय दमन होता क्या है?
राष्ट्रीय दमन की परिभाषा वास्तव में राष्ट्र और जनता के बीच के फ़र्क़ से ही स्पष्ट हो जाती है। राष्ट्र का अर्थ ही होता है एक ऐसी आबादी जिसमें पूँजीवादी विकास हो चुका है और बुर्जुआजी पैदा हो चुकी है। यदि जनता का ही दमन हो रहा है, लेकिन बुर्जुआजी का नहीं, तो सीधा प्रश्न यह बनता है कि उसकी बुर्जुआजी की इस दमन पर अवस्थिति क्या है? या तो वह दलाल बुर्जुआजी है, जोकि राष्ट्रीय दमन करने वाले दमनकारी क़ौम या क़ौमों के शासक वर्ग के मातहत हो चुकी है, राजनीतिक रूप से स्वतन्त्र नहीं है और इसलिए ‘राष्ट्रीय’ नहीं है। या फिर वह बुर्जुआजी स्वयं दमित है।
वह इस दमन का कितनी आमूलगामिता से विरोध कर सकती है और राष्ट्रीय मुक्ति की लड़ाई को लड़ सकती है, इससे उसके दमित होने या न होने के तथ्य का कोई रिश्ता नहीं है। दरअसल, आम तौर पर भी और विशेष तौर पर साम्राज्यवाद के युग में राष्ट्रीय बुर्जुआजी किसी भी दमित राष्ट्र की राष्ट्रीय मुक्ति की लड़ाई में हमेशा ढुलमुल रवैया रखती है। यही वजह है कि लेनिन ने राष्ट्रीय जनवादी क्रान्ति और मुक्ति की लड़ाई के नेतृत्व को भी अपने हाथ में लेने के लिए सर्वहारा वर्ग का आह्वान किया और कहा कि सामान्य जनवादी प्रक्रिया (general democratic process) को पूरा करना साम्राज्यवाद के युग में बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के फ्रेमवर्क के भीतर आम तौर पर सम्भव नहीं रह गया है और इस कार्यभार को बुर्जुआ वर्ग के नेतृत्व में पूरा करना अब मुश्किल है। इसी के आधार पर लेनिन ने जनता की जनवादी क्रान्ति का सिद्धान्त दिया जोकि मज़दूर वर्ग, किसान वर्ग, छोटे पूँजीपति वर्ग और राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग के सबसे आमूलगामी व क्रान्तिकारी तत्वों के साथ मोर्चा बनाकर सम्पन्न की जायेगी।
यानी, यदि कोई क़ौम दमित है तो उसकी बुर्जुआजी के दमन के बिना यह क़ौमी दमन सम्भव ही नहीं है। ऐसा नहीं हो सकता है कि किसी दमित क़ौम की बुर्जुआजी राजनीतिक रूप से स्वतन्त्र हो, न तो उसका कोई हिस्सा दलाल हो और न ही वह दमित हो। तीसरा विकल्प यह है कि वह बुर्जुआजी स्वयं शासक वर्ग का हिस्सा बन चुकी है। लेकिन ऐसी स्थिति में वह क़ौम दमित नहीं रह जाती है क्योंकि फिर आपको कहना पड़ेगा कि वह क़ौम स्वयं अपना दमन कर रही है! जोकि किसी भी पैमाने से एक बेतुकी बात होगी। सारी दुनिया के माओवादी इस बुनियादी मार्क्सवादी–लेनिनवादी सिद्धान्त को समझते हैं। आइए कुछ प्रातिनिधिक उदाहरण देखते हैं।
ठीक ऐसी ही एक बहस कनाडा में क्यूबेक के दमित राष्ट्र होने या न होने को लेकर वहाँ के माओवादी संगठनों में चली जो इसी नतीजे पर पहुँची की चूँकि क्यूबेक की बुर्जुआजी दमित नहीं है और उसे कनाडा के शासक वर्ग में हिस्सेदारी प्राप्त हो चुकी है, इसलिए क्यूबेक की क़ौम भी दमित क़ौम नहीं है। उस बहस के एक दस्तावेज़ के एक अंश पर पर निगाह डालते हैं:
“क्यूबेक राष्ट्रीय प्रश्न पर एक से ज़्यादा अवस्थितियाँ हैं। साथ ही हितों के भी कई समुच्चय हैं जिनकी हिफ़ाज़त की जानी है। क्यूबेक बुर्जुआजी अपने हितों की स्वयं रक्षा करती है; कनाडा की बुर्जुआजी के अलग-अलग हिस्से भी ऐसा करते हैं। हम आम तौर पर यह सुनते हैं कि क्यूबेक राष्ट्रीय प्रश्न इन्हीं हितों से सम्बन्ध रखता है। यही वह चीज़ है जो यहाँ बहसतलब है और पिछले 30 वर्षों से इस विषय पर हो रहे विवाद की प्रकृति की व्याख्या करता है।
“अपने राजनीतिक व आर्थिक विकास को अपने ही उपकरणों से निर्धारित करने वाली क्यूबेक बुर्जुआजी का अस्तित्व – जो एक “शक्तिशाली” राज्य को भी अपने में शामिल करती है – साफ़ तौर पर दिखलाता है कि एक राष्ट्र के तौर पर क्यूबेक ऐसे किसी भी दमन का शिकार नहीं है, जोकि इसके अपने विकास को रोकता हो और फिर इस बात को वैध ठहराता हो – जैसाकि कुछ लोग अभी भी हमें भरोसा दिलाना चाहते हैं – कि इस प्रान्त में राजनीतिक स्वतंत्रता हासिल करने के लिए कोई राष्ट्रीय मुक्ति संघर्ष हो जिसमें सभी वर्ग शामिल हों।”
कनाडा की माओवादी पार्टी ‘रिवोल्यूशनरी कम्युनिस्ट पार्टी, कनाडा’ यह पूरा दस्तावेज़ निम्न लिंक पर पढ़ा जा सकता है:
http://www.pcr-rcp.ca/en/archives/114
और ऐसी ही बहस स्कॉटिश बुर्जुआजी को लेकर भी मार्क्सवादियों-लेनिनवादियों में ब्रिटेन में चल चुकी है, जोकि इसी नतीजे पर पहुँची कि स्काटलैण्ड कोई दमित राष्ट्र नहीं है, क्योंकि उसकी बुर्जुआजी दमित नहीं है और उसे सत्ता में हिस्सेदारी प्राप्त हो चुकी है। इनके दस्तावेज़ को इस लिंक पर पढ़ा जा सकता है:
उपरोक्त दोनों ही मामलों में क्रमश: कनाडा व ब्रिटेन के मार्क्सवादी–लेनिनवादी कॉमरेडों ने बिल्कुल सही अवस्थिति अपनाई है। बिना बुर्जुआ वर्ग के दमन के क़ौमी दमन की अवधारणा ही अनावश्यक हो जाती है। ये तो सिर्फ़ दो मिसालें हैं। पूरी दुनिया में ही मार्क्सवादी–लेनिनवादी और माओवादी संगठन व पार्टियां मार्क्सवाद के इस बुनियादी सिद्धान्त को मानते हैं।
यह सुखविन्दर ही हैं जो अपनी ही जगहँसाई करने के दृढ़संकल्प के साथ नये सिद्धान्त-प्रतिपादन पर पिल पड़े हैं। इस जिद के पीछे दरअसल एक क़ौमवादी सोच है जिसे हम इस लेख में और आगे भी विस्तार से दिखलाएंगे।
राष्ट्रीय दमन का अर्थ है जब किसी राष्ट्र को उसकी इच्छा के विपरीत, यानी ज़बरन, किसी राज्य की सीमा में रखा जाय। ज़ाहिर है, यह क़ौम की बुर्जुआजी के दमन के बग़ैर मुमकिन नहीं है। यह किसी ऐसी क़ौम के साथ हो सकता है, जिसकी क्षेत्रीय सीमा दमनकारी क़ौम/क़ौमों के राज्य के साथ लगी हुई (जैसे कि आयरलैण्ड, या हमारे देश में कश्मीर और उत्तर-पूर्व के राज्य) या फिर सात समन्दर दूर हों, जैसाकि हमारे द्वारा ऊपर पेश उद्धरणों में लेनिन व स्तालिन दोनों ने ही दिखलाया है। लेनिन ने ‘आत्मनिर्णय सम्बन्धी बहस के परिणाम’ लेख में एक अलग उपशीर्षक इसी बात को समझाने के लिए लिखा है, जिसमें उन्होंने बताया है कि इस मामले में हम यूरोप और एशिया, अफ्रीका आदि में कोई अन्तर नहीं कर सकते, जिस पर हम ऊपर बात कर चुके हैं। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध और बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में आयरलैण्ड हो, पोलैण्ड हो, चेक राष्ट्र हो, या फिर एशिया व अफ्रीका के ब्रिटिश या फ्रेंच उपनिवेश हों, वे उपनिवेश/क़ब्ज़ा ही माने जायेंगे और जहाँ तक राष्ट्रीय दमन का सवाल है, वे दमित राष्ट्र ही हैं और उनके राष्ट्रीय प्रश्न के समाधान का केवल एक ही रास्ता है: राष्ट्रीय आत्मनिर्णय का अधिकार। और राष्ट्रीय आत्मनिर्णय के अधिकार का एक ही अर्थ है: राजनीतिक आत्मनिर्णय, यानी अलग होने का अधिकार। इस अधिकार पर अमल करते हुए यदि कई राष्ट्र मिलकर कोई संघ बनाना चाहें, यूनियन बनाना चाहें, राष्ट्रीय स्वायत्तता की व्यवस्था चाहें, अलग होना चाहें, तो यह उनकी मर्जी है। कम्युनिस्टों का पहला काम है कि वे बिना किसी शर्त राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन करें, चाहें वे उन राष्ट्रों को दमित मानते हों या नहीं। फिर याद दिला दें, हम यहाँ राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों की बात नहीं कर रहे हैं, जिनकी कोई टेरिटोरियैलिटी नहीं होती है। उनके लिए कम्युनिस्ट कार्यक्रम एक सुसंगत जनवाद के लिए संघर्ष का कार्यक्रम होता है। जो साथी इस बात को समझना चाहते हैं वे लेनिन द्वारा तैयार ‘बिल ऑन दि इक्वालिटी ऑफ नेशंस’ (1914) तथा ‘नेशनल इक्वालिटी बिल’ (1914) के मसौदा पढ़ लें, जिससे कि आपको यह फ़र्क़ स्पष्ट हो जायेगा।
दूसरी बात यह कि अलग होने के अधिकार का समर्थन करना और अलग होने का समर्थन करना दो अलग चीज़ें हैं। हम अलग होने के अधिकार का समर्थन करते हुए, अलग होने के विरोध में जनता के बीच प्रचार कर सकते हैं। लेनिन ने इस अन्तर को बार-बार और बहुत-सी जगह स्पष्ट किया है।
“राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के अधिकार का अर्थ अनन्य रूप से राजनीतिक अर्थ में स्वतन्त्रता का, उत्पीड़नकारी राष्ट्र से मुक्त राजनीतिक पृथकता का अधिकार है। ठोस रूप में, राजनीतिक जनवाद की इस माँग का अर्थ है पृथकता के लिए आन्दोलन करने की पूर्ण स्वतन्त्रता तथा पृथक होने वाले राष्ट्र के जनमत संग्रह द्वारा पृथकता के प्रश्न का निर्णय। इसलिए यह माँग पृथकता की, राज्य के टुकड़े–टुकड़े करने की तथा छोटे राज्यों के गठन की माँग के बराबर कदापि नहीं है। वह सब तरह के राष्ट्रीय उत्पीड़न के विरुद्ध संघर्ष की मात्र सुसंगत अभिव्यक्ति है। कोई जनवादी राज्य प्रणाली पृथकता की पूर्ण स्वतंत्रता के जितने समीप होगी, पृथक होने की कामना व्यवहार में उतनी ही विरल और उतनी ही क्षीण होगी, इसलिए कि बड़े राज्यों के लाभ आर्थिक प्रगति के दृष्टिकोण से तथा जनसाधारण के हितों के दृष्टिकोण से अकाट्य होते हैं, इसके अलावा, वे पूँजीवाद के साथ बढ़ते जाते हैं। आत्मनिर्णय की मान्यता सिद्धान्त के रूप में संघ की मान्यता का पर्याय नहीं है। कोई इस सिद्धान्त का कट्टर विरोधी और जनवादी केन्द्रीयतावाद का पक्षधर हो सकता है, परन्तु इसके बावजूद वह पूर्ण जनवादी केन्द्रीयतावाद की ओर एकमात्र मार्ग के रूप में संघ को राष्ट्रों की असमानता पर तरजीह दे सकता है। ठीक इसी दृष्टिकोण से मार्क्स ने जो केन्द्रीयतावादी थे, आयरलैण्ड तथा इंग्लैण्ड के संघ तक को आयरलैण्ड को अंग्रेजों के ज़बरन मातहत रखे जाने पर तरजीह दी।” (लेनिन, 1983, समाजवादी क्रान्ति और जातियों के आत्मनिर्णय का अधिकार, संकलित रचनाएं (दस खण्डों में) खण्ड-6, प्रगति प्रकाशन, मॉस्को, पृ. 40-41)
और देखें लेनिन क्या कहते हैं:
“हर राष्ट्र के सिलसिले में उसके अलग हो जाने के प्रश्न का उत्तर “हाँ” या “नहीं” में देने की माँग बहुत “व्यावहारिक” प्रतीत हो सकती है। वास्तव में यह बिल्कुल बेतुकी माँग है, सिद्धान्त की दृष्टि से यह अधिभूतवादी है और व्यवहार में यह सर्वहारा वर्ग को पूँजीपति वर्ग की नीति के अधीनस्थ करती है। पूँजीपति वर्ग अपनी राष्ट्रीय माँगों को सर्वदा सर्वोपरि स्थान देता है और ऐसा बिना किसी शर्त के करता है। परन्तु सर्वहारा वर्ग के लिए ये माँगें वर्ग संघर्ष के हितों के अधीन होती हैं। सिद्धान्तत: पहले से यह बात दावे के साथ कहना असम्भव होता है कि किसी राष्ट्र के दूसरे राष्ट्र से अलग हो जाने से या उसके बराबर अधिकार प्राप्त कर लेने से पूँजीवादी जनवादी क्रान्ति पूरी हो जायेगी; दोनों ही सूरतों में, सर्वहारा वर्ग के लिए महत्वपूर्ण बात यह है कि वह अपने वर्ग के विकास को सुनिश्चित बनाए। पूँजीपति वर्ग के लिए महत्वपूर्ण बात यह है कि वह “अपने” राष्ट्र के उद्देश्यों को सर्वहारा के उद्देश्यों से आगे ठेलकर इस विकास में बाधा डाले। यही कारण है कि किसी राष्ट्र को कोई गारण्टी दिये बिना, किसी अन्य राष्ट्र के हितों की कीमत पर कुछ देने की हामी भरे बिना, सर्वहारा वर्ग, कहना चाहिए, अपने आपको आत्मनिर्णय के अधिकार को स्वीकार करने की नकारात्मक माँग तक ही सीमित रखता है।” (लेनिन, 1981, जातियों का आत्मनिर्णय का अधिकार, प्रगति प्रकाशन, मॉस्को, प्-23)
लेनिन आगे लिखते हैं:
“सर्वहारा वर्ग इस प्रकार की व्यावहारिकता के ख़िलाफ़ है। राष्ट्रों की बराबरी तथा राष्ट्रीय राज्य को स्थापित करने के उनके समान अधिकारों को स्वीकार करते हुए भी वह सभी राष्ट्रों के सर्वहारा गण की एकता को सबसे मूल्यवान समझता है, उसे सबसे ऊँचा स्थान देता है और हर राष्ट्रीय माँग का, हर राष्ट्रीय सम्बन्ध-विच्छेद का मूल्यांकन मज़दूरों के वर्ग संघर्ष दृष्टिकोण से करता है। व्यावहारिकता का यह आह्वान पूँजीवादी आकांक्षाओं को बिना सोचे-समझे मान लेने के आह्वान के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।” (वही, पृ. 24)
लेनिन एक अन्य रचना में लिखते हैं:
“जिन लोगों ने इस प्रश्न पर अच्छी तरह विचार नहीं किया है, वे सोचते हैं कि उत्पीड़क राष्ट्रों के सामाजिक-जनवादियों के लिए “अलगाव की स्वतंत्रता” का आग्रह करना और साथ ही उत्पीडित राष्ट्रों के सामाजिक-जनवादियों के लिए “एकीकरण की स्वतन्त्रता” का आग्रह करना “अन्तरविरोधपूर्ण” है। मगर मामूली तौर से भी ग़ौर किया जाय, तो यह ज़ाहिर हो जायेगा कि परिस्थिति विशेष से अन्तरराष्ट्रीयतावाद तथा राष्ट्रों के एकीकरण की दिशा में अन्य कोई मार्ग इस लक्ष्य की दिशा में न है और न ही हो सकता है।”
(लेनिन, 1983, आत्मनिर्णय सम्बन्धी बहस के परिणाम, संकलित रचनाएं (दस खण्डों में) खण्ड-6, प्रगति प्रकाशन, मॉस्को, पृ. 115)
इसलिए लेनिन ने 1916 में पोलैण्ड के कम्युनिस्टों को सलाह दी कि वे पोलैण्ड के अलग न होने के पक्ष में प्रचार करें, लेकिन इसका यह अर्थ निकालने की उन्होंने मनाही की कि पोलैण्ड के अलग होने के अधिकार का समर्थन न किया जाय। इसी प्रकार हाल ही में कैटालोनिया के तमाम माओवादियों ने कैटालोनिया के अलग न होने का समर्थन करते हुए भी उसके अलग होने के अधिकार के समर्थन के तौर पर अलग होने या न होने के प्रश्न पर रेफ़रेण्डम का समर्थन किया, हालाँकि उसने स्पष्ट बताया कि वह अलग होने के पक्ष में नहीं है और वह इस रेफ़रेण्डम में ‘नो’ वोट करेगा। यही बात स्कॉटलैण्ड पर भी लागू होती है। हम किसी भी क़ौम के अलग होने के अधिकार का समर्थन करने को एक सार्वभौमिक सिद्धान्त मानते हैं, लेकिन किन मामलों में अलग होने का समर्थन करना है और किन मामलों में विरोध, यह देश के अन्दर की और साथ ही अन्तरराष्ट्रीय परिस्थितियों के मूल्यांकन पर निर्भर करता है। सुखविन्दर इन दोनों के बीच के अन्तर को नहीं समझते हैं। इसलिए यह देखना दिलचस्प होगा कि पंजाब को वह किस प्रकार दमित राष्ट्र दिखलाते हैं और फिर उसके लिए क्या कार्यक्रम पेश करते हैं।
क्योंकि यदि पंजाब दमित राष्ट्र है, तो सुखविन्दर को न सिर्फ़ उसके आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन करना चाहिए, बल्कि उन्हें उसके अलग होने का भी समर्थन करना चाहिए, क्योंकि आज राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय दोनों ही परिस्थितियों पर निगाह डालें, तो इससे सर्वहारा वर्ग का कोई नुक़सान नहीं है। पोलैण्ड के अलग होने का समर्थन न करने का प्रचार करने का सुझाव लेनिन ने पोलिश सामाजिक-जनवादियों को इसलिए दिया था, क्योंकि वह राष्ट्रीय मुक्ति युद्ध (जिसका लेनिन समर्थन करते हैं) की बजाय साम्राज्यवादी युद्ध (जिसका लेनिन समर्थन नहीं करते) की ओर ले जाता और इसमें जर्मन, रूसी, पोलिश तीनों ही सर्वहारा वर्गों की हानि होती, और इसीलिए फ़िलहाल लेनिन ने अलग न होने का प्रचार करने की हिमायत की, हालाँकि तब भी वह अलग होने के अधिकार का बिना शर्त समर्थन कर रहे थे और ऐसा न करने के लिए पोलिश सामाजिक-जनवादियों की आलोचना कर रहे थे।
लेकिन पंजाब अगर दमित क़ौम है और वह अलग होता है, तो इससे कोई साम्राज्यवादी युद्ध नहीं छिड़ने वाला है और आन्तरिक तौर पर भी पंजाब के दमन को ख़त्म करने की लड़ाई का समर्थन करके ही पंजाबी व बाक़ी क़ौमों के सर्वहारा वर्ग के बीच एकता कायम की जा सकती है और भारतीय राज्यसत्ता के विरुद्ध समाजवादी क्रान्ति की लड़ाई को भी आगे बढ़ाया जा सकता है, क्योंकि क़ौमी दमन ही इस एकता को कमज़ोर करता है। तो यदि पंजाब दमित राष्ट्र है, तो सुखविन्दर को इसके अलग होने के अधिकार का ही नहीं बल्कि मौजूदा परिस्थिति में उसके अलग होने का भी समर्थन व प्रचार करना चाहिए, न कि फ़ेडरेशन माँगने का, जोकि वैसे भी गलत है और पूँजीवाद के तहत ऐसी माँग भी करना कम्युनिस्टों के लिए ऑस्ट्रो–मार्क्सवादी सुधारवाद के गड्ढे में गिरने के समान है। साथ ही, मूल राजनीतिक माँग क्षेत्रीय स्वायत्तता की भी नहीं हो सकती है। वह माँग तब जायज़ हो सकती है, जब सभी क़ौमें जोकि एक साझे राज्य के अन्तर्गत बिना राष्ट्रीय दमन के किसी भी रूप के, एक साथ रहने का निर्णय करती हैं। उस सूरत में हमारी राजनीतिक माँग क्षेत्रीय स्वायत्तता (अक्षेत्रीय सांस्कृतिक स्वायत्तता के विपरीत) होती है। इसलिए यदि पंजाबी क़ौम दमित है तो एक ही माँग राजनीतिक तौर पर सही है: अलग होने का अधिकार और इस मामले में तो कम्युनिस्ट अलग होने के अधिकार का ही नहीं बल्कि अलग होने का भी समर्थन करेंगे, क्योंकि राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय परिस्थितियाँ इसके लिए बिल्कुल अनुकूल हैं। यह सारी बातें हम एक क्षण के लिए यह मानकर कर रहे हैं कि पंजाबी क़ौम दमित है, जैसाकि सुखविन्दर कह रहे हैं। वास्तव में, हम पंजाबी क़ौम को दमित क़ौम नहीं मानते हैं। इसलिए हम बेसब्री से इन्तज़ार कर रहे हैं कि पंजाब में राष्ट्रीय दमन और उसके समाधान के प्रश्न पर सुखविन्दर कब और क्या लिखते हैं।
तो सुखविन्दर के अनुसार पंजाब की बुर्जुआजी दलाल भी नहीं है और दमित भी नहीं; लेकिन पंजाबी क़ौम दमित क़ौम है; तो यह पंजाबी बुर्जुआजी इस क़ौमी दमन पर क्या रागिणी गा रही है? वह कर क्या रही है? उसकी अवस्थिति क्या है? क्या वह इस दमन की भागीदार है? लेकिन तब तो मतलब यह निकला कि पंजाबी क़ौम अपना दमन स्वयं कर रही है! भारतीय शासक वर्ग है कौन, इसका कम्पोजीशन क्या है, उसमें पंजाबी बुर्जुआजी का क्या स्थान है? ये वे सवाल हैं, जो सुखविन्दर कभी पूछते ही नहीं क्योंकि उनके मूर्खतापूर्ण तर्कों का झोपड़ा, ये सवाल पूछते ही भरभरा कर गिर जाता है।
लुब्बेलुबाब यह कि सुखविन्दर ने राष्ट्रीय प्रश्न, राष्ट्रीय दमन पर लेख लिखने का काम तो कर दिया, लेकिन उन्होंने इस प्रक्रिया में यह दिखलाया कि उन्हें मार्क्सवाद और राष्ट्रीय प्रश्न पर बुनियादी रचनाओं का गम्भीरता से अध्ययन करने की सख्त ज़रूरत है। 107 पेज में 85 पेज उद्धरण भरकर वह अपनी बात को सही दिखलाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन हम दिखला चुके हैं कि किस प्रकार वह अपने ही द्वारा पेश उद्धरणों के सन्दर्भों को नहीं समझते, उनके मतलब को नहीं समझते या फिर अपने राष्ट्रवादी भटकाव को छिपाने के लिए जानबूझकर उन्हें सन्दर्भों से काटते हैं और उनकी गलत व्याख्या करते हैं।
(पूरी आलोचना यहाँ पढ़ें: www.ahwanmag.com/archives/7567)
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जुलाई-अक्टूबर 2020
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