Category Archives: फिल्‍म समीक्षा

फ़िल्मों के माध्यम से फ़ासीवादी दुष्प्रचार

फ़िल्मों के माध्यम से फ़ासीवादी दुष्प्रचार सौम्यध्रुव फ़ासीवादी भाजपा ने अपने फ़ासीवादी एजेण्डे के प्रचार के लिए हर माध्यम का बहुत ही कुशलतापूर्वक इस्तेमाल किया है। सत्ता में आने के…

कर्णन

कर्णन अविनाश उत्तरआधुनिकतावाद के दौर में जेण्डर, रेस, जातियाँ और तमाम अस्मिता या पहचान की राजनीति ने दर्शन, फ़िल्म, कला, संस्कृति व अन्य जगहों पर तेज गति से अपने पैर…

‘द ग्रेट इण्डियन किचन’: उच्चवर्गीय नारीवाद को अभिव्यक्ति देती फ़िल्म

यह फ़िल्म निश्चित तौर पर महिला उत्पीड़न का यथार्थवादी चित्रण पेश करती है, लेकिन क फिल्म में इस उत्पीड़न के समाधान की जो कुछ झलकें दिखती हैं वो वास्तव मौजूदा पूंजीवादी पितृसत्ता के दायरे का अतिक्रमण नहीं कर पाती। यह इस उत्पीड़न का समाधान देने में भी क़ामयाब होती है?

विचारधारा के पीछे अपनी कायरता को मत छिपाओ नवाज़ुद्दीन

बाज़ार के हाथों बिक चुके अभिनेताओं से यह उम्मीद नहीं की जा सकती है और न ही नवाज़ से यह उम्‍मीद रखी जा सकती है। नवाज़ सरीखा बॉलीवुड का कोई भी अभिनेता अपने कैरियर में ऊपर पहुँचने के लिए बहुत समझौते करता है। इसके लिए वह उन सभी सिद्धान्‍तों को बलि चढ़ाने से हिचकता नहीं है। किसी फासीवादी प्रयोजनमूलक फिल्म में काम करने को ”कला के लिए काम करना’ बताना लोगों की आँख में धूल झोंकना है।

मानवता के सामने दो ही विकल्पः पूँजीवाद या अराजकता!

क्रिस्टाफेर नोलन व्यवस्था के कुछ अँधेरे कोनों को दिखाते हुए पूँजीवाद की समालोचना रखते हैं और बताते हैं कि तमाम संकटों के कारण बेन सरीखे सिरफिरे व्यवस्था पर कब्ज़ा कर अराजकता फैला सकते हैं। बढ़ते आर्थिक संकट के कारण जो जन दबाव सड़कों पर फूट पड़ा है, नोलन उसका चित्रण बेन के अराजकतावाद में समाहित करते हैं और दूसरी तरफ इन ख़तरों से निपटने के लिए वर्ग सचेत पूँजीपति राज्य व्यवस्था के विजीलाण्टे की ज़रुरत को स्थापित करते हैं। फिल्म व्यवस्था को उस ‘रेफ्रेन्स फ्रेम’ से खडे़ होकर प्रदर्शित करती है जो बुर्जुआ वर्ग का है। यह बुर्जुआज़ी की हीरो की ज़रूरत को (शासन चलाने के लिये) हमारी ज़रूरत के रूप में पेश करती है। यह फिल्म पूँजीवाद की समालोचना कर उसे और अधिक स्थापित करती है। बेन या जोकर के रूप में यह पूँजीवाद का एकमात्र विकल्प बर्बरता दिखाती है। इसलिए अन्त में पूँजीवाद के प्रति समस्त नफ़रत के बावजूद आपको यह मानने के लिए प्रेरित किया जाता है कि समाज में ग़ैर-बराबरी और अपराध तो रहेगा ही, लेकिन यह सब कम-से-कम एक व्यवस्था का अंग है! अगर आप पूँजीवाद के विकल्प की बात करेंगे तो उसका अर्थ होगा हर प्रकार की व्यवस्था का नकार, जैसा कि मौजूद जनान्दोलनों में अराजकतावादियों के बारे में कहा भी जा सकता है। लेकिन फिल्म इस सम्भावना को जिक्र तक नहीं करती है कि पूँजीवादी व्यवस्था और समाज का विकल्प एक समाजवादी व्यवस्था और विकल्प हो सकते हैं। वास्तव में, जन अदालतों का रूपक फिल्म में कम्युनिज़्म की ओर ही इशारा करता है और यह दिखलाने का प्रयास करता है कि कम्युनिज़्म अवास्तविक और अयथार्थवादी है और वह अन्ततः बर्बर किस्म की अराजकता में ख़त्म हो सकता है। कहने की ज़रूरत नहीं कि कम्युनिज़्म की यह तस्वीर साम्राज्यवादी मीडिया का कुत्साप्रचार है।

स्माइल पिंकी: मुस्कान छीनने और देने का सच

कला के मापदण्डों और मानकों की कसौटियों के कुछ बिन्दुओं पर स्माइल पिंकी एक अच्छा लघुवित्तचित्र हो सकता है; बालमन पिंकी की संवेदनाओं के बारीक पहलुओं को उजागर करने, उसकी तकलीफ़ों और खुशी को उजागर करने का कला का यह एक सफ़ल प्रयास हो सकता है लेकिन कला की अपनी सामाजिक राजनीतिक और दार्शनिक पक्षधरता होती है; समस्या के मूल कारणों पर पर्दा डालने और विश्व बाजारवादी पूँजीवादी व्यवस्था के पोषण के कारणों से व तीसरी दुनिया के बाजार के कारण स्माइल पिंकी को यह पुरस्कार दिया गया है।

मुन्नाभाई के लगे रहने से कुछ नहीं होने वाला….

दरअसल, ऐसी गाँधीगीरी की देश के हुक्मरानों को जरूरत है। यह सीधे–सीधे कहती है कि जालिमों के ख़िलाफ लड़ो मत, उन्हें फूल भेजो और एक दिन वह शर्माकर तुम्हें लूटना–खसोटना छोड़ देंगे। अब हड़ताल आदि करने की जरूरत नहीं है। बस सत्याग्रह कीजिये और मालिक आपकी तनख्वाह बढ़ा देगा, आपको काम से नहीं निकालेगा। आज तक फालतू में मजदूरों ने इतना हंगामा किया अपने हक़ों के लिए। जबकि गाँधीगीरी करने को माँगता था! इतना सीधा–सा रास्ता किसी को समझ में क्यों नहीं आया ? इसलिए क्योंकि सभी जानते हैं कि यह कोई रास्ता नहीं है। यह सिर्फ़ धोखे की टट्टी है। भयाक्रान्त शासक वर्ग के सांस्कृतिक दलालों द्वारा जनता को दी जा रही सीख है कि संघर्ष, लड़ाई छोड़ दो; गुलाब भेजो!