‘द ग्रेट इण्डियन किचन’:
उच्चवर्गीय नारीवाद को अभिव्यक्ति देती फ़िल्म
वृषाली
हाल में ही मलयालम में एक फ़िल्म आयी थी। ‘द ग्रेट इण्डियन किचन’ नामक इस फ़िल्म को देश भर में काफ़ी प्रसिद्धि और सराहना मिली। फ़िल्म का निर्देशन किया है जियो बेबी ने। इसमें नायिका की भूमिका निभायी है निमिशा सजयान ने और नायक की भूमिका निभायी है सूरज वेंजरामुडु ने। इसमें कोई दो राय नहीं है कि ‘द ग्रेट इण्डियन किचन’ फ़िल्म समाज में स्त्रियों के उत्पीड़न को दर्शाती है और यह एक प्रभावशाली फ़िल्म है। भारत में स्त्रियों का उत्पीड़न आज भी जारी है, भले ही उत्पीड़न का पैमाना अलग-अलग घरों में अलग-अलग ही क्यों न हो। भारतीय समाज में यह स्थापित मान्यता है कि घरेलू कामों और खासकर रसोई के कामों की ज़िम्मेदारी महिलाओं की ही होगी। 2014 की नेशनल टाइम यूज़ सर्वे की रिपोर्ट भी इस बात की पुष्टि करती है। इसके अनुसार भारत में होने वाले घरेलू काम में प्रतिदिन पुरुष औसतन 19 मिनट और स्त्रियाँ औसतन 298 मिनट व्यतीत करती हैं।
फ़िल्म की कहानी की शुरुआत नृत्य का अभ्यास कर रही नायिका के दृश्य से होती है। दूसरी ओर रसोई में अलग-अलग व्यंजन पकते दिखाये जाते हैं। इसी दौरान नायिका का विवाह घर वालों की इच्छा से तय हो रहा होता है। अगले ही दृश्य में नायिका विवाह के उपरान्त अपने रूढ़िवादी, धार्मिक और पारम्परिक ससुराल में प्रवेश कर रही होती है। यहाँ पर वह अपनी सास को घरेलू कामों में व्यस्त देखती है। उसे लगता है कि ज़ल्द ही उसकी भी यही नियति होने वाली है। नायिका की सास अपने पति को टूथब्रश से लेकर चप्पलें तक खुद अपने हाथों से उठाकर देती है। नायिका का पति स्कूल में इतिहास का शिक्षक है। सास के अपनी बेटी के घर चले जाने के बाद घर की सारी ज़िम्मेदारी नायिका के ऊपर आ जाती है। विदेश में पली-बढ़ी नायिका को इस घर में खाने के टेबल पर हो रही अशिष्टता से लेकर अन्य तमाम तरह का व्यवहार अखरता है। घर में ‘वॉशिंग मशीन’ जैसी तकनीकी सुविधाएँ होने पर भी कपड़े धोने जैसे काम उसे पारम्परिक तरीक़े से यानी हाथ से ही करने को कहा जाता है। नौकरी हेतु आवेदन करने के सवाल पर भी नायिका का ससुर उसे मना कर देता है और कहता है कि नौकरी के लिए महिलाओं के बाहर निकलने पर घर के काम उपेक्षित हो जाते हैं। साथ ही नायिका के नृत्य सीखने को भी शान के खिलाफ़ कहकर दुतकारा जाता है। एक दृश्य में नायिका अपने पति के साथ बाहर खाने पर गयी होती है। वहाँ पर उसका पति काफ़ी तमीज़ से पेश आता है जबकि घर पर वह ऐसा नहीं करता। इस पर नायिका टिप्पणी कर देती है, इससे उसके पति के अहम को चोट पहुँचती है और अन्ततः नायिका को ही माफ़ी माँगनी पड़ती है। फ़िल्म के एक दृश्य में नायिका को इस कारण से डाँट खानी पड़ती है क्योंकि उसका नौकरी के लिए चयन हो गया था। बिना बताये आवेदन करने को पति और ससुर के आदेश की अवहेलना समझा जाता है और वे ऐसा करने पर उससे ख़फ़ा हो जाते हैं। दाम्पत्य जीवन में यौन सम्बन्धों की बेहतरी के विषय में चर्चा करना भी नायिका के पति को नागवार गुज़रता है। उसका पति उसकी इच्छा पर अंकुश लगाते हुए उसे ताने मारता हुआ दुत्कार देता है।
पुरानी रूढ़ियों और पाखण्ड को ढोते हुये नायिका के मन में धीरे-धीरे रोष पनपता रहता है। इसी बीच उसके पति और ससुर सबरीमाला के दर्शन के लिए संकल्प लेते हैं। धार्मिक अनुष्ठान के दौरान माहवारी के कारण नायिका के साथ भेदभाव किया जाता है और उसके रहने, खाने, नहाने तक की अलग व्यवस्था कर दी जाती है। इस विषय में नायिका को “शिक्षित” करने और रीति-रिवाज़ सिखाने के लिए नायिका का ससुर अपनी बहन को बुलाता है। फिल्म में दक्षिणपन्थी ताकतों का स्त्रियों की अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाया जाना भी नज़र आता है। सबरीमाला के मुद्दे पर सोशल मीडिया पर पोस्ट करने के कारण नायिका को भी यन्त्रणा झेलनी पड़ती है और उस पर भी पोस्ट को हटाने का दबाव बनाया जाता है। आखिरकार तंग आकर वह अपने पति और ससुर पर नाली का गन्दा पानी फेंक देती है और उनका धार्मिक अनुष्ठान भ्रष्ट करके उन्हें घर में बन्द कर बाहर निकल आती है। इसके बाद नायिका अपने मायके आ जाती है। इसके बाद वह कभी ससुराल नहीं जाती और अपनी ज़िन्दगी का नया रास्ता तलाशने लगती है।
फिल्म का लम्बा हिस्सा महिलाओं की दिनचर्या की तरह रसोई में ही फ़िल्माया गया है। तुच्छ, उबाऊ और पस्त कर देने वाले घरेलू कामों का चित्रण दर्शकों में भी वही खीज पैदा करता है जो महिलाओं की आम दिनचर्या का हिस्सा होता है। पितृसत्ता के वाहक केवल पुरुष ही नहीं होते, बल्कि महिलाएँ भी होती हैं। माहवारी के दौरान नायिका के साथ भेदभाव करने वाली एक महिला ही होती है। इसके इतर जब नायिका अपने घर वापस लौटती है तो उसकी माँ की भी यह सलाह होती है कि वह एक प्रतिष्ठित धार्मिक परिवार की सदस्य होने पर ख़ुद को सौभाग्यशाली समझे और पति व ससुर से माफी माँग कर समझौता कर ले। फिल्म में स्त्री-उत्पीड़न का वास्तविक चित्रण दर्शकों को प्रभावित करने में काफ़ी हद तक सफल होता है। फिल्म में दर्शाये गये रसोई और घरेलू कामकाज की नीरसता के दृश्यों से कोई भी स्त्री खुद को वास्तव में जोड़ सकती है।
कुल मिलाकर इस फिल्म को नारीवादियों और आलोचकों द्वारा काफ़ी सराहा गया है। हालाँकि कुछ के अनुसार फिल्म की पटकथा पुरानी है। यह फ़िल्म निश्चित तौर पर महिला उत्पीड़न का यथार्थवादी चित्रण पेश करती है, लेकिन क फिल्म में इस उत्पीड़न के समाधान की जो कुछ झलकें दिखती हैं वो वास्तव मौजूदा पूंजीवादी पितृसत्ता के दायरे का अतिक्रमण नहीं कर पाती। यह इस उत्पीड़न का समाधान देने में भी क़ामयाब होती है? फिल्म के एक दृश्य में नायिका की एक नर्तक सहेली उसे अपने एक कार्यक्रम में आने के लिए आमन्त्रित करती है। इस दृश्य में हम सहेली के पति को चाय बनाते व रसोई के अन्य काम करते देख सकते हैं। ज़ाहिर है नायिका के घर में पुरुष प्रधान गृहस्थी के बरक्स उसकी सहेली का सापेक्षिक तौर पर जनवादी घर ही आदर्श रूप में चित्रित किया गया है। अर्थात पितृसत्ता के खिलाफ़ लड़ाई घरेलू कामों में पुरुषों की भागीदारी सुनिश्चित करके ही लड़ी जा सकती है। और फ़िल्म के अनुसार इस प्रकार की भागीदारी सिखा पाने में मौजूदा शिक्षा प्रणाली अक्षम है। फ़िल्म में नायिका का पति स्कूल में इतिहास का शिक्षक है। घर से बाहर उसमें भी शिष्टाचार की कोई कमी नहीं रहती है। लेकिन चूँकि घर में स्वामी वह है, इस लिए वह घर की चौहद्दी के भीतर अपनी मर्ज़ी के अनुसार आचरण कर सकता है। ज़ाहिरा तौर पर यह फिल्म बुर्ज़ुआ नारीवाद की सीमाओं का अतिक्रमण करने का ख़तरा नहीं उठाती है। फिल्म के अन्त में नायिका अपने पति को छोड़ कर समाज में बाहर निकल आती है और अपनी आर्थिक आज़ादी प्राप्त कर लेती है। लेकिन उसके इस क़दम का पति और उसके घरवालों पर कोई असर नहीं पड़ता है। वे अपने लिए एक नयी, ज़्यादा आज्ञाकारी “घरेलू गुलाम” की व्यवस्था कर लेते हैं। अंततः फ़िल्म जिस गीत के साथ समाप्त होती है वह बुर्ज़ुआ नारीवाद का ही प्रतीक साबित होता है।
फ़िल्म वैचारिक स्तर पर जिस तरह से पितृसत्ता और इसके उत्पीड़न से लड़ने के तरीके सुझाती है उससे पितृसत्तात्मक मूल्य-मान्यताओं पर रत्ती भर की खरोंच नहीं आती। पूँजीवादी व्यवस्था में सिनेमा पर भी शासक वर्ग की विचारधारात्मक छाप होती है। यह फ़िल्म भी इस बात की कोई अपवाद नहीं है। फ़िल्म के अनुसार घरेलू कामकाज के प्रति पुरुषों की मानसिकता को बदल देना और उन्हें बचपन से ही घरेलू कामों में भागीदारी करना सिखा देना ही परिवार के जनवादीकरण का तरीका है और स्त्री-पुरुष समानता के लिए यही पर्याप्त है। यह फ़िल्म न केवल पूँजीवादी शोषण पर चुप है, बल्कि साथ ही घरेलू गुलामी की उत्पत्ति और इसके भौतिक आधार के बारे में भी ख़ामोश है। वर्ग समाज में परिवार समाज की आर्थिक इकाई है, और यह फ़िल्म इस आर्थिक इकाई को नष्ट करने या इसे ख़त्म करने के तरीक़ों पर कोई बात नहीं करती।
स्त्रियों की मुक्ति का रास्ता क्या है? परिवार, निजी सम्पत्ति और राज्य की उत्पत्ति में एंगेल्स कहते हैं “स्त्रियों की मुक्ति की पहली शर्त यह है कि समस्त नारी जाति फिर से सार्वजनिक श्रम में प्रवेश करे और इसके लिए यह आवश्यक है कि समाज कि आर्थिक इकाई होने का वैयक्तिक गुण नष्ट कर दिया जाये।” अर्थात व्यक्तिगत परिवारों के घरेलू कामों को सामाजिक/सार्वजनिक कर दिया जाये। बड़े पैमाने पर सार्वजनिक भोजनालय, लौंड्री, पालनाघर इत्यादि की सहायता से ही आधी आबादी को घरेलू कामों की दासता से मुक्त किया जा सकता है। पितृसत्ता के खिलाफ़ लड़ाई को विचारधारात्मक स्तर पर अपचयित नहीं किया जा सकता। स्त्रियों की गुलामी निजी सम्पत्ति की उत्पत्ति के साथ शुरू हुई और इसका ख़ात्मा भी निजी सम्पत्ति के ख़ात्मे के साथ ही सम्भव है। ‘एक महान शुरुआत’ में लेनिन कहते हैं, “स्त्रियों की वास्तविक आज़ादी तब ही सम्भव है जब सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में इस तुच्छ घरेलू अर्थव्यवस्था के खिलाफ़ संघर्ष किया जाये या यूँ कहें कि उसे बड़े पैमाने पर बृहत सामाजिक अर्थव्यवस्था में तब्दील कर दिया जाये।”
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-जून 2021
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