फ़िल्मों के माध्यम से फ़ासीवादी दुष्प्रचार
सौम्यध्रुव
फ़ासीवादी भाजपा ने अपने फ़ासीवादी एजेण्डे के प्रचार के लिए हर माध्यम का बहुत ही कुशलतापूर्वक इस्तेमाल किया है। सत्ता में आने के बाद पाठ्यक्रमों से लेकर हर चीज़ को अपने फ़ासीवादी प्रोजेक्ट का हिस्सा बना लेने वाले फ़ासीवादियों ने जिस तरह से सिनेमा का इस्तेमाल अपने नफ़रती एजेण्डे को फैलाने में किया है, वैसा पहले कभी देखने को नहीं मिला। बीते कुछ सालों में तमाम ऐसी फ़िल्मों का भाजपा और आरएसएस के नेताओं ने खुले तौर पर प्रचार किया है, जिसमें भर-भर के झूठ और अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ नफ़रत ही परोसी गयी है। महँगाई, बेरोज़गारी, शिक्षा और चिकित्सा जैसे ज़रूरी मुद्दों से जनता का ध्यान भटकाने के लिए मोदी सरकार का प्रचार तन्त्र ऐसे सिनेमा को जनता के बीच लोकप्रिय बना रहा है जो आम जनता के दिमाग़ में अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ नफ़रत भरने का काम कर रही है।
हाल ही में कश्मीर फ़ाइल्स जैसी नफ़रत से भरी फ़िल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। इसमें भी सबसे हास्यास्पद तो यह है कि कश्मीर फ़ाइल्स जैसी फ़िल्म को देश में “एकता और अखण्डता” बढ़ाने के लिए यह पुरस्कार दिया गया है जबकि यह फ़िल्म खुले तौर पर मुसलमानों के ख़िलाफ़ झूठ और नफ़रत फैलाकर आम जनता को आपस में लड़ाने और बाँटने का काम करती है। इन फ़ासीवादी प्रोपेगैण्डा फ़िल्मों की विशेषता यह है कि ये धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय के ख़िलाफ़ नफ़रत का ज़हर बोने के लिए किसी भी हद तक झूठ बोलने, इतिहास के तथ्यों को ठीक उल्टा करके पेश करने, जनता के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं की छवि को ख़राब करने के लिए तरह-तरह के झूठे नैरेटिव गढ़ने का काम करती हैं। कश्मीर फ़ाइल्स के अलावा “द केरला स्टोरी”, “72 हूरें” और “ग़दर-2” जैसी तमाम ऐसे फ़िल्में बनी हैं जो भाजपा और आरएसएस के अल्पसंख्यक मुस्लिम विरोधी एजेण्डे को आगे बढ़ाने का काम करती हैं। विशेष तौर पर ‘कश्मीर फ़ाइल्स’ और ‘द केरला स्टोरी’ देश भर में काफ़ी चर्चित हुईं। इन फ़िल्मों की चर्चा इसलिए भी ज़्यादा हुई क्योंकि भाजपा के नेताओं ने जगह-जगह इसकी स्पेशल स्क्रीनिंग भी करायी। विश्वविद्यालयों में इसके लिए स्क्रीनिंग और टॉक सेशन रखे गये। बहुत से विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थानों में संघी अध्यापक छात्राओं के समूह को ‘द केरला स्टोरी’ फ़िल्म दिखाने के लिए ले गये।
कश्मीर फ़ाइल्स की बात करें तो उसमें कश्मीरी पण्डितों की त्रासदी दिखाने की आड़ में संघ के अल्पसंख्यक विरोधी नफ़रती एजेण्डे को दिखाया गया है। इस फ़िल्म में कश्मीरी पण्डितों और पूरे कश्मीर की समस्या को उसके ऐतिहासिक सन्दर्भ से काटकर एक स्वतन्त्र समस्या के रूप में पेश किया गया है। इस फ़िल्म में बेहद शातिराना ढ़ंग से आधे सच में तमाम ऐसे झूठ को मिलाकर दिखाया गया है जो आम जनता के दिमाग़ में मुस्लिमों और वामपन्थियों के ख़िलाफ़ नफ़रत भरने का काम करती है। ऐसा कोई भी व्यक्ति जो कश्मीर के इतिहास के बारे में ठीक से नहीं जानता है वो बेहद आसानी से इस नफ़रती साज़िश का शिकार हो सकता है। ये फ़िल्म कश्मीर समस्याओं को लेकर विवेक पैदा करने के बजाय नफ़रत और गुस्सा पैदा करने का ही काम करती है। फ़िल्म के रिलीज़ होने के बाद ही तमाम ऐसे वीडियो सामने आ रहे हैं जिसमें मुस्लिमों के प्रति नफ़रत दिखायी जा रही है। कई ऐसे वीडियो सामने आये हैं जिसमें फ़िल्म देखते हुए कुछ लोग सिनेमाघरों में नफ़रती नारे लगा रहे हैं। फ़िल्म को देखने के बाद सिनेमा हॉल से बाहर निकले लोगों की प्रतिक्रिया को भी सोशल मीडिया पर प्रचारित करके नफ़रत और ग़ुस्से को और ज़्यादा तूल दिया जा रहा है। तमाम संघी नेता इस बात का प्रचार कर रहे हैं कि फ़िल्म में तो सब सच ही दिखाया गया है लेकिन फ़िल्म में इसका कोई ज़िक्र नहीं मिलता कि किस प्रकार आज़ादी के बाद कश्मीरियों ने इस्लाम के आधार पर बने पाकिस्तान में न मिलने का फ़ैसला किया था। कश्मीर में रायशुमारी कराने के वायदे से भारतीय राज्य के मुकरने, ज़ोर-जबर्दस्ती और दमन की वजह से कश्मीर समस्या लगातार उलझती चली गयी जिसका नतीजा कश्मीर घाटी की मुस्लिम आबादी में लगातार बढ़ते अलगाव के रूप में सामने आया। फ़िल्म में इसका भी कोई हवाला नहीं मिलता है कि कश्मीरी मुस्लिम आबादी के बीच भारत की राज्यसत्ता से बढ़ते अलगाव के बावजूद 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध से पहले कश्मीरी पण्डित अल्पसंख्यक आबादी के ख़िलाफ़ पूर्वाग्रहित भले ही हों लेकिन नफ़रत और हिंसा जैसे हालात नहीं थे।
इसी तरह “द केरला स्टोरी” भी ऐसे झूठे और नफ़रती नैरेटिव को प्रस्तुत करने वाली फ़िल्म है। इस फ़िल्म का झूठ तो इसके रिलीज़ होने से पहले ही उजागर हो गया था। पहले इस फ़िल्म के डायरेक्टर सुदिप्तो सेन ने यह दिखाया कि 32000 हिन्दू लड़कियों का धर्म परिवर्तन किया गया। लेकिन जैसे ही इसके ख़िलाफ़ चर्चा होने लगी और यह मामला सुप्रीम कोर्ट गया, तो उसके बाद चुपके से फ़िल्म के डायरेक्टर सुदिप्तो सेन ने 32000 के आँकड़े को सीधे 3 कर दिया। असल में उसमें से भी मात्र 1 लड़की ही हिन्दू थी। जबकि फ़िल्म में इस तरीक़े से दिखाया गया है जैसे हज़ारों हिन्दू लड़कियों का धर्म परिवर्तन सिर्फ़ केरल में किया जा रहा है। कुल मिलाकर बात यह है कि इस फ़िल्म के ज़रिये भी फ़ासीवाद अपने प्रचार तन्त्र के जाल फ़ैला रहा है। इस फ़िल्म की तमाम घटिया, बेबुनियादी तर्कों के बावजूद यह एक झूठ, जिसे पहले कई बार बोला जा चुका है, को स्थापित करने का काम करती है, और उसे लोगों में कॉमन सेंस के रूप में बिठाने का काम करती है। उसके बाद लोग इन झूठों की पड़ताल किये बग़ैर इसे सच मान बैठते हैं और फ़ासीवादी राजनीति के जाल में जा फँसते हैं। यह कोई पहली फ़िल्म नहीं है जो मुसलमानों के ख़िलाफ़ प्रचार के रूप में बनी हो। अभी लगातार ही उन फ़िल्मों को जान-बूझकर बढ़ावा दिया जा रहा है, जो मुस्लिम-विरोधी हों, उन्हें किसी न किसी रूप में जनता का दुश्मन साबित करती हों। हाल ही में रिलीज़ हुई ग़दर-2 भी इसका एक उदाहरण है। जिसमें पाकिस्तान की आड़ लेकर समुचे मुस्लिम समुदाय के ख़िलाफ़ ही नफ़रत को बढ़ावा दिया गया है। ऐसा नहीं है कि मोदी सरकार के सत्ता में आने से पहले ऐसे एजेण्डों पर फ़िल्में नहीं बनती थी। लेकिन मोदी सरकार के दौर में जिस तरह खुलेआम और बहुत अधिक नफ़रती भाषा में यह हो रहा है, वह अभूतपूर्व है।
2014 में फ़ासीवादी मोदी सरकार के आने के बाद से ही बॉलीवुड के फ़िल्मों में एक ख़ास तरह का रुझान देखने को मिला है जिसमें कुछ ख़ास शैली वाली फ़िल्में ज़्यादा बनने लगीं जैसे राजनीतिक बायोपिक, खेलों पर आधारित फ़िल्में, ऐतिहासिक फ़िल्में, युद्ध और सेना पर आधारित फ़िल्में तथा कुछ “सामाजिक सन्देशों” वाली फ़िल्में भी। उदाहरणों के साथ बात करें तो राजनीतिक बायोपिक में सबसे चर्चित रही फ़िल्म PM Modi जो कि प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के जीवन पर आधारित है जिसमें केवल झूठ परोसा गया है। फ़िल्म में तथ्यों से इतर नरेन्द्र मोदी को महामानव के तौर पेश किया गया है। 2002 के गुजरात दंगों के बारे में भी फ़िल्म केवल झूठ ही दिखाती है। हालांकि झूठ और फ़र्ज़़ीवाड़े से भरी यह फ़िल्म बहुत चल नहीं पायी। राजनीतिक बायोपिक में कुछ अन्य फ़िल्मों की बात करें तो विवेक अग्निहोत्री की ही फ़िल्म “द ताशकन्द फ़ाइल्स” जो 2019 में रिलीज़ हुई थी काफ़ी चर्चित रही। इस फ़िल्म में भी आधे सच और झूठ का मिश्रण करके संघी नफ़रत और झूठ के एजेण्डे को ही दिखाया गया है। फ़िल्म में धर्मनिरपेक्षता को एक गाली के तौर पर पेश किया गया है। ऐतिहासिक फ़िल्मों जैसे बाजीराव मस्तानी, पद्मावत और केसरी जैसी अन्य फ़िल्मों में भी इतिहास के तथ्यों को तोड़-मरोड़कर संघी अन्धराष्ट्रवादी नफ़रती एजेण्डे को ही आगे बढ़ाया गया है। केसरी में तो संघी मुस्लिम विरोधी एजेण्डे को आगे बढ़ाने के लिए ऐतिहासिक तथ्यों को सीधे उलट कर ही पेश किया गया है। युद्ध और सेना पर बनी फ़िल्मों में ख़ास तौर पर “उरी: द सर्जिकल स्ट्राइक” काफ़ी चर्चित हुई जिसको राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया। इस फ़िल्म में भी देशभक्ति की आड़ में अन्धराष्ट्रवादी उन्माद को ही बढ़ाने का काम किया गया है। ऐसी फ़िल्मों में युद्धों का महिमामण्डन बढ़ा-चढ़ाकर किया जाता है। जबकि हम सच जानते हैं कि राष्ट्र के नाम पर लड़े जा रहे इन युद्धों में आम घरों के युवा ही मरते हैं क्योंकि सेना में अम्बानी-अडानी और किसी नेता-मन्त्री के बच्चे तो नहीं जाते हैं। अब बात करें कुछ ऐसी फ़िल्मों की जो “सामाजिक सन्देशों” पर बनी हैं, जिसको बहुत बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है – उदाहरण के तौर पर “टॉयलेट: एक प्रेम कथा”। ऐसी फ़िल्मों में भी सरकार की फ़र्जी उपलब्धियों का ही गुणगान किया जाता है। मुख्यधारा में बन रही है तमाम अन्य फ़िल्मों का भी कमोबेश हाल कुछ ऐसा ही है। बीते दिनों में बनी ‘पठान’ फ़िल्म ऐसी है, जिसका संघियों ने काफ़ी विरोध किया था। लेकिन इस फ़िल्म को भी देखा जाए तो यह देश को बचाने के नाम पर अन्धराष्ट्रवादी एजेण्डे को ही आगे बढ़ाती है। दुखःद ये है कि ऐसी घटिया फ़िल्मों को लोग पसन्द करते हैं। आमतौर पर ही हिन्दी सिनेमा में हमेशा से ऐसी फ़िल्में बनती रही हैं जो आम जनता की चेतना को तर्क और बुद्धि से लैस करने के बजाए झूठ, अश्लीलता, नस्लीय भेदभाव और नफ़रत से भरती हैं। तमाम ऐसे फ़िल्ममेकर और बुद्धिजीवी अक्सर यह कहते हुए पाये जाते हैं कि जनता ऐसी फ़िल्में देखती ही है इसलिए ऐसी फ़िल्में बनती है। जबकि सच इसके ठीक उलट है। सच्चाई तो यह है कि हर जगह ऐसी फ़िल्मों का ही प्रचार किया जाता है जो फूहड़ता, अश्लीलता और हिंसा से भरी हों और जिनमें नफ़रती एजेण्डा हो। ऐसी कोई भी फ़िल्म जो इस व्यवस्था के सच को ज़रा-सा भी उजागर करती है उसे जनता तक पहुँचने से रोका जाता है।
विभिन्न कलाओं में ख़ासतौर पर सिनेमा का एक विशेष महत्व होता है। जनता की चेतना पर फ़िल्मों का बहुत गहरा असर होता है। अन्याय और शोषण पर टिकी ये व्यवस्था कभी नहीं चाहेगी कि लोगों की चेतना तर्क और बुद्धि से लैस हो और इसलिए ऐसी फ़िल्मों का ही प्रचार किया जाता है जो जनता की चेतना को कुन्द करती हैं। जर्मनी के महान नाटककार, कवि और फ़ासीवादी विरोधी योद्धा बेर्टोल्ट ब्रेष्ट ने कहा था कि ‘कला वास्तविकता का दर्पण नहीं बल्कि एक हथौड़ा है जिससे वास्तविकता को आकार दिया जा सकता है।’ हमें इस बात को समझना होगा कि कला और सिनेमा केवल मनोरंजन के लिए ही नहीं होती बल्कि इस शोषणकारी व्यवस्था का सच और एक नये समाज के निर्माण के लिए भी होती है। हम जानते हैं कि तमाम कला के माध्यमों में सिनेमा बहुत उन्नत माध्यम है। सिनेमा के माध्यम से जनता की चेतना को और उन्नत किया जा सकता है। ऐसी प्रगतिशील फ़िल्मों का दुनिया भर में एक इतिहास रहा है। भारत में भी ऐसी फ़िल्में बनती रही हैं जो इस व्यवस्था का सच दिखाती हैं और जनता की चेतना को तर्कणा और जनवाद से लैस करती हैं। पर आज के इस फ़ासीवादी दौर में तमाम ऐसी फ़िल्मों का बड़े पैमाने पर प्रचार-प्रसार किया जा रहा है जो आम लोगों की चेतना को केवल और केवल झूठ और नफ़रत से भरती हैं। ऐसी फ़िल्मों को सम्मानित किया जा रहा है जो जनता को आपस में बाँटकर देश भर में सामाजिक अलगाव को बढ़ावा दे रही हैं। पूरे समाज में ही इन फ़िल्मों के माध्यम से नफ़रत की फ़सल बोयी जा रही है, जिसका परिणाम हम आये दिन देश में हो रहे दंगों के रूप में देखते हैं।
तमाम इंसाफ़पसन्द लोगों को नफ़रत और झूठ से भरी इन फ़ासीवादी प्रोपेगैण्डा फैलाने वाली फ़िल्मों का खुले तौर पर विरोध करना होगा।
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मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्बर-अक्टूबर 2023
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