उद्धरण
व्लादीमिर मयाकोव्स्की की 81वीं पुण्यतिथि (14 अप्रैल) के अवसर पर… कविता में लय… लय की मूलभूत गूँज कहाँ से आती है, मैं यह नहीं जानता। मेरे लिये यह मेरे भीतर…
व्लादीमिर मयाकोव्स्की की 81वीं पुण्यतिथि (14 अप्रैल) के अवसर पर… कविता में लय… लय की मूलभूत गूँज कहाँ से आती है, मैं यह नहीं जानता। मेरे लिये यह मेरे भीतर…
दुनिया प्रगति कर रही है, उसका भविष्य उज्ज्वल है, तथा इतिहास की इस आम धारा को कोई नहीं बदल सकता। हमें दुनिया की प्रगति और उसके उज्ज्वल भविष्य से सम्बन्धित तथ्यों का जनता में प्रचार करते रहना चाहिए, ताकि उसके अन्दर विजय का विश्वास पैदा किया जा सके।
केवल उन किताबों को प्यार करो जो ज्ञान का स्रोत हों, क्योंकि सिर्फ़ ज्ञान ही वन्दनीय होता है; ज्ञान ही तुम्हें आत्मिक रूप से मज़बूत, ईमानदार और बुद्धिमान, मनुष्य से सच्चा प्रेम करने लायक, मानवीय श्रम के प्रति आदरभाव सिखाने वाला और मनुष्य के अथक एवं कठोर परिश्रम से बनी भव्य कृतियों को सराहने लायक बना सकता है।
“धार्मिक दृष्टिकोण के आधार पर विश्व के किसी भी भाग में आन्दोलन हो सकता है। किन्तु ऐसा प्रतीत नहीं होता है कि इससे कोई बहुमुखी विकास होगा। जीवन हम सबको प्रिय है और हम सब जीवन की पहेलियों को अनावृत्त करने के लिए उत्सुक हैं। प्राचीन काल में विज्ञान की सीमाबद्धताओं के फलस्वरूप एक कल्पित ईश्वर के चरणों में दया की भीख माँगने के सिवा हमारे पास कोई दूसरा रास्ता नहीं था, जिसे प्रकृति के रहस्यमय नियमों का नियन्ता माना गया। प्राक् वैज्ञानिक युग के मानव ने अपने को अत्यन्त असहाय महसूस किया और धर्म का आविर्भाव शायद इसी मानसिकता से हो सका। प्रकृति-सम्बन्धी विचार प्राचीन धर्मों में शायद ही सुपरिभाषित है। इसके अतिरिक्त इनकी प्रकृति आत्मनिष्ठ है, अतः ये आधुनिक युग की माँगों को पूरा नहीं कर सकते।”
युवकों के सामने जो काम है, वह काफी कठिन है और उनके साधन बहुत थोड़े हैं। उनके मार्ग में बहुत सी बाधाएँ भी आ सकती हैं। लेकिन थोड़े किन्तु निष्ठावान व्यक्तियों की लगन उन पर विजय पा सकती है। युवकों को आगे जाना चाहिए। उनके सामने जो कठिन एवं बाधाओं से भरा हुआ मार्ग है, और उन्हें जो महान कार्य सम्पन्न करना है, उसे समझना होगा। उन्हें अपने दिल में यह बात रख लेनी चाहिए कि “सफलता मात्र एक संयोग है, जबकि बलिदान एक नियम है।”
जिस धरती पर हर अगले मिनट एक बच्चा भूख या बीमारी से मरता हो, वहाँ पर शासक वर्ग की दृष्टि से चीज़ों को समझने की आदत डाली जाती है। लोगों को इस दशा को एक स्वाभाविक दशा समझने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। लोग व्यवस्था को देशभक्ति से जोड़ लेते हैं और इस तरह से व्यवस्था का विरोधी एक देशद्रोही अथवा विदेशी एजेण्ट बन जाता है। जंगल के कानूनों को पवित्र रूप दे दिया जाता है ताकि पराजित लोग अपनी हालत को अपनी नियति समझ बैठें।
मैं कंगाल होने के बजाय चोर बनना पसन्द करूँगा। मैं दास बने रहने के बजाय हत्यारा बनना पसन्द करूँगा। मैं इन दोनों में से कोई भी बनना नहीं चाहता, लेकिन अगर आप मुझे चुनने के लिए मजबूर करेंगे तो, कसम से, मैं वह विकल्प चुनूँगा जो अधिक साहसपूर्ण और अधिक नैतिक है। मैं किसी भी अपराध के मुकाबले ग़रीबी और दासता से अधिक नफरत करता हूँ।
प्रगति के समर्थक प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह अनिवार्य है कि वह पुराने विश्वास से सम्बन्धित हर बात की आलोचना करे, उसमें अविश्वास करे और उसे चुनौती दे। प्रचलित विश्वास की एक-एक बात के हर कोने-अंतरे की विवेकपूर्ण जांच पड़ताल उसे करनी होगी।
“क्रान्ति से हमारा क्या आशय है, यह स्पष्ट है । इस शताब्दी में इसका सिर्फ़ एक ही अर्थ हो सकता है-जनता के लिए जनता का राजनीतिक शक्ति हासिल करना । वास्तव में, यही है ‘क्रान्ति’, बाकी सभी विद्रोह तो सिर्फ मालिकों के परिवर्तन द्वारा पूँजीवादी सड़ाँध को ही आगे बढ़ाते हैं । किसी भी हद तक लोगों से या उनके उद्देश्यों से जतायी हमदर्दी जनता से वास्तविकता नहीं छिपा सकती, लोग छल को पहचानते हैं । भारत में हम भारतीय श्रमिक के शासन से कम कुछ नहीं चाहते । भारतीय श्रमिकों को-भारत में साम्राज्यवादियों और उनके मददगार हटाकर जो कि उसी आर्थिक व्यवस्था के पैरोकार हैं, जिसके जड़ें शोषण पर आधारित हैं-आगे आना है । हम गोरी बुराई की जगह काली बुराई को लाकर कष्ट नहीं उठाना चाहते ।
पहला सवाल यही बनता है कि इन्हें भगतसिंह की मूर्ति लगाने की ख्याल आज के दौर में ही क्यों आया । इसके पीछे निश्चित तौर पर देश में भगतसिंह के विचारों की बढ़ती प्रासंगिकता है । उनके विचारों की ग्रहणशीलता बढ़ी है । जिस समझौतापरस्त तत्कालीन नेतृत्व से आगाह करते हुए भगतसिंह ने कहा था कि अगर आज़ादी इनके माध्यम से आयेगी तो निश्चित तौर पर मुटठीभर अमीरजादों की आज़ादी होगी । विगत साठ साल के सफरनामे ने यही साबित किया है । व्यापक जनता के सामने तथाकथित आज़ादी का मुलम्मा उतर चुका है । ऐसे में जब तमाम तरीकों से भगतसिंह के विचार आम जन में पैठ बनाने लगे हैं तब शासक वर्ग की मजबूरी बनती दिख रही है कि अब वे सीधे–सीधे भगतसिंह को नकार नहीं सकते हैं । अगर ये सच्चे मन से भगतसिंह को स्वीकार कर रहे होते तो आज़ादी के बाद गांधी, नेहरू की संकलित रचनाओं के बरक्स उनके विचारों को दबाने का प्रयास नहीं करते । उनके लेखों, दस्तावेजों केा जन–जन तक पहुँचाने का काम सरकारी महकमे ने नहीं किया बल्कि भगतसिंह की सोच को मानने वाले क्रान्तिकारी संगठनों ने किया है ।