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पैदा हुई पुलीस तो इबलीस ने कहा…

पुलिस द्वारा स्त्रियों के बढ़ते उत्पीड़न के मामले सिर्फ़ इसी तथ्य को रेखांकित करते हैं कि समाज में शोषित-उत्पीड़ित और दमित स्त्री एक आसान निशाना या शिकार होती है। पुलिस बल ने कई मौकों पर साबित किया है कि वह देश की सबसे संगठित गुण्डा बल ही है जो व्यवस्था का रक्षक है। जनता का नहीं। जनता के कमज़ोर तबकों को दबाना तो पुलिस अपना कर्तव्य और धर्म समझती है।

राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी योजना – एक विशालकाय सरकारी धोखे का सच!

कुल मिलाकर यही है वह रोज़गार गारण्टी योजना जिसे ‘ऐतिहासिक’ बताया जा रहा था और जिसके लिए अभी भी इतना शोर मचाया जा रहा है, साल भर में महज़ 100 दिन का रोज़गार वह भी मात्र 50 रुपए की मज़दूरी पर! लेकिन साल के बाकी 265 दिन वह सौ दिन का (कहना चाहिए) ठेका मज़दूर और उसका परिवार क्या करेगा, क्या ख़ाकर ज़िन्दा रहेगा? ख़ैर, एक तरफ़ जहाँ सरकार इस पहलू पर आश्चर्यचकित ढंग से चुप्पी साधे हुए है, वहीं दूसरी ओर इस योजना के हिमायती यह कहते हुए घूम रहे हैं कि चलो कुछ लोगों को कुछ दिन के लिए ही सही कुछ तो मिल ही रहा है। लेकिन मनमोहन सिंह जी आपका यह “कुछ-कुछ” का सिद्धान्‍त तो वाकई में कुछ भी नहीं कर पा रहा है!

संसदीय वामपंथियों का अमेरिका-प्रेम!

जब इन संसदीय वामपंथी बातबहादुरों से पूछा गया कि ‘महोदय, आपकी कथनी और करनी में यह मायावी विरोधभास कैसे? इसे कैसे समझा जाय?’ तो इनका कहना था कि आपकी पार्टी विचारधारा और व्यक्तिगत जीवन में फ़र्क करती है! बाप रे बाप! हम तो चक्कर ही खा गये! कैसी विचित्र दैवीय अलौकिक तर्कपद्धति है! हमने तो मार्क्सवाद के बारे में जितना पढ़ा तो उससे हमें लगा था कि राजनीतिक व्यक्तिगत होता है और व्यक्तिगत राजनीतिक। इनमें कोई विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती। और यह भी कहीं पढ़ा था शायद कि जैसा जीवन होता है उसका प्रभाव विचारधारा और राजनीति पर दिखने लगता है! कोई हमसे यह भी कह रहा था कि अमेरिका के प्रति आपका यह प्रेम दरअसल इसी बात को दिखलाता है कि व्यक्तिगत जीवन में आप जैसे जीते हैं उसी की छाया आपकी राजनीति और विचारधारा पर भी नज़र आती है।

कैम्पसों में बढ़ती पुलिस मौजूदगी – आख़िर किस बात का डर है उन्हें?

कुल मिलाकर इस सारी कवायद का मक़सद यही है कि छात्रों को और कैम्पसों को मरघट की शान्ति से भर दिया जाय। कहीं कोई आवाज़ न उठाये; कहीं लोग एक-दूसरे से मिलें नहीं और आपसी संवाद और सम्बन्ध न कायम करें; कोई हक़ की बात न करे; सब शान्त रहें! यही चाहत है इस व्यवस्था और प्रशासन की। लेकिन पुलिस का डण्डा छात्रों को डराकर उनकी नौजवानी को कुचल नहीं सकता। छात्रों-युवाओं में एक सहज न्यायबोध होता है। उसे ऐसे किसी भोंडे प्रयास से कुचला नहीं जा सकता। साथ ही, छात्रों के राजनीतिकरण को भी रोकना इस व्यवस्था के बूते की बात नहीं। अंततः कैम्पस के भीतर या कैम्पस के बाहर नौजवानों को अपनी ज़िन्दगी की जद्दोजहद से यह समझ लेना है कि संगठित हुए बग़ैर उन्हें कुछ हासिल नहीं होगा। कैम्पसों को छावनियों में तब्दील करने की तमाम कोशिशों के बावजूद छात्र अपनी यह फ़ितरत नहीं भूल सकते-अन्याय के विरुद्ध विद्रोह न्यायसंगत है!

ख़र्चीला और परजीवी होता “जनतंत्र”, लुटती और बरबाद होती जनता

सरकारी आँकड़ों के मुताबिक आज से 50 साल पहले 5 व्यक्तियों का परिवार एक साल में जितना अनाज खाता था, आज उससे 200 किलो कम खाता है। भोजन में विटामिन और प्रोटीन जैसे जरूरी पोषक तत्वों की लगातार कमी होती गई है। आम आदमी के लिए प्रोटीन के मुख्य स्रोत दालों की कीमत में पिछले एक साल के अन्दर 110 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। हरी सब्जियाँ, दालें और दूध तो गरीब आदमी में भोजन से नदारद ही हो चुके हैं। इसी का नतीजा है कि कुपोषण के कारण कम वजन वाले बच्चों की सबसे बड़ी संख्या भारत में है। बेतहाशा बढ़ती महँगाई ने आम मेहनतक़श लोगों को जीवन की बुनियादी जरूरतों में कटौती करने के लिए विवश कर दिया है।