संसदीय वामपंथियों का अमेरिका-प्रेम!
शिवानी
अभी कुछ दिन पहले एक हिन्दी अख़बार में एक मज़ेदार ख़बर पढ़ने को मिली। इस ख़बर में हमारे देश के तथाकथित वामपंथी नेताओं के कुछ अनछुए पहलुओं पर रोशनी डाली गई जो अब तक दृष्टिओझल थे; क्या कहा? क्या अभी भी इनके बारे में कुछ और जानना बाक़ी है!)।‘‘वामपंथी’’ पार्टियों की संशोधनवादी राजनीति, जो अनगिनत विरोधभासों का समन्वय है, इनकी कथनी और करनी में जो ज़मीन–आसमान का फ़र्क है, वह इसी बात से साफ़ हो जाता है कि राजनीति में बेहद गरम-गरम बातें करने वाले हमारे ये ‘‘लाल’’ तोते , व्याक्तिगत जीवन में अमेरिका को काफ़ी पसंद करते हैं (चौंकिए नहीं! मगर यह वही अमेरिका है जो इनके द्वारा हर विरोध प्रदर्शन, रैली और धरनों में साम्राज्यवादी कहकर लताड़ा और कोसा जाता है)।
इस ख़बर के मुताबिक अधिकांश ‘‘वामपंथी’’ नेताओं के बच्चे अमेरिकी विश्वद्यिालयों में पढ़ रहे हैं। कुछ बड़े माकपा नेताओं की बेटियाँ तो शादी के बाद अमेरिका में ही बस चुकीं हैं। यही नहीं , हर साल इनके कई नेता अमेरिका की यात्रा के लिए हवाई जहाज़ पकड़ते हैं। घुम्मण जाने वास्ते इनको अमेरिका बहुत भाता है। देखिये अब यह मत पूछियेगा कि जब वे व्यक्तिगत ज़िन्दगी में अमेरिका के प्रति अपनी बेपनाह मुहब्बत का इस तरह से इस तरह से इज़हार करने का एक मौक़ा नहीं गँवाते, तो फ़िर क्यों बिना मतलब हर बात पर इस “सोहने-सलोने“ अमेरिका को पानी पी–पीकर कोसते रहते हैं!
जब इन संसदीय वामपंथी बातबहादुरों से पूछा गया कि ‘महोदय, आपकी कथनी और करनी में यह मायावी विरोधभास कैसे? इसे कैसे समझा जाय?’ तो इनका कहना था कि आपकी पार्टी विचारधारा और व्यक्तिगत जीवन में फ़र्क करती है! बाप रे बाप! हम तो चक्कर ही खा गये! कैसी विचित्र दैवीय अलौकिक तर्कपद्धति है! हमने तो मार्क्सवाद के बारे में जितना पढ़ा तो उससे हमें लगा था कि राजनीतिक व्यक्तिगत होता है और व्यक्तिगत राजनीतिक। इनमें कोई विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती। और यह भी कहीं पढ़ा था शायद कि जैसा जीवन होता है उसका प्रभाव विचारधारा और राजनीति पर दिखने लगता है! कोई हमसे यह भी कह रहा था कि अमेरिका के प्रति आपका यह प्रेम दरअसल इसी बात को दिखलाता है कि व्यक्तिगत जीवन में आप जैसे जीते हैं उसी की छाया आपकी राजनीति और विचारधारा पर भी नज़र आती है।
अगर हमें सुधी पाठकगण एक और बात पर ग़ौर करने की इजाज़त दें तो हम विनम्रतापूर्वक बताना चाहेंगे कि भारत के संसदीय वामपंथी बातबहादुरों की कार्यशैली और जीवनशैली में कुछ अहम बदलाव आए हैं। पहले अपने स्वर्गसुखभोग को मज़दूरों के ये दिव्य प्रतिनिधि कुछ परदों के भीतर किया करते थे। फ़िर कुछ भूमण्डलीकरण और उदारीकरण की हवा ने इन फ़टे-पुराने परदों को उड़ा दिया और बचे-खुचे परदे इन्होंने अपनी बढ़ती बेशर्मी के कारण खुद ही फ़ाड़ दिये! पहले मजाल थी कि कोई पत्रकार जान पाए कि निजी जीवन में इन वामपंथियों को अमेरिका से बेइन्तहाँ प्यार है? अब ये खुद ही नहीं छिपाते कि उन्हें अपने बच्चों को पढ़ाने और खुद अपने घूमने के लिए अमेरिका काफ़ी पसन्द है।
ख़ैर जो भी हो, इस ख़बर में जो कुछ सामने आया है, उससे चौंकने की ज़रूरत नहीं है। यह तो एक न एक दिन पता चलना ही था।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-मार्च 2008
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