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उत्तर प्रदेश में शिक्षामित्रों का जुझारू आन्दोलन

‘शिक्षामित्र’ प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर कार्यरत उन शिक्षकों की श्रेणी को कहा जाता है जिन्हें नियमित शिक्षकों के स्थान पर सालभर के ठेके पर नियुक्त किया जाता है। इनको नियुक्त करने की जिम्मेदारी किसी सरकारी महकमे की नहीं, बल्कि ग्राम पंचायतों और नगर-निगमों की होती है, और इन्हें नियमित शिक्षकों के बरक्स बेहद कम वेतनमान पर रखा किया जाता है। साथ ही ठेके पर होने के कारण इन्हें महँगाई भत्ता, पी.एफ. इत्यादि की भी कोई सुविधा नहीं दी जाती है। सालभर बाद इनकी कार्यकुशलता और काम के मूल्यांकन के अनुसार दोबारा ठेके पर रखा जा सकता है। ये लोग महज़़ उ.प्र. में नहीं बल्कि देश के ज़्यादातर राज्यों में अलग-अलग नामों के अन्तर्गत कार्यरत हैं।

पूँजीवादी न्याय का असली चरित्र

कानून की किताब में कुछ भी लिखा हो, अमीरों के लिए कानून का एक रुख़ होता है और ग़रीबों के लिए दूसरा। कानून के समक्ष समानता की सारी बातें किताबों में दबी रहती हैं। पूँजीवादी न्याय पूँजी के वर्चस्व का ही अंग होता है। इस प्रक्रिया ही ऐसी होती है कि कोई ग़रीब आदमी उस तक पहुँच ही नहीं पाता है। और अमीरों को तो न्याय व्यवस्था उनके दरवाज़े पर आकर न्याय देती है। और सबकुछ बेचने-खरीदने वाली व्यवस्था में न्याय का भी हश्र कमोबेश वैसा ही हो जाता है, जैसे कि किसी भी माल का।

जयपुर में छात्राओं का संघर्ष: एक रिपोर्ट

शिक्षा मन्त्री के इस रवैये से बौखलाए हुए छात्राओं ने पास ही कि सिविल लाइन्स रोड को जाम कर आवागमन बाधित कर दिया। बस इतना ही काफी था पुलिस प्रशासन के लिए इन छात्राओं पर निर्मम तरीके से लाठी चार्ज करने के लिए। 30 मिनट तक महिला एवं पुरुष पुलिसवालों ने मिलकर छात्राओं को जमकर पीटा जिसमें करीब 30 छात्राएँ बुरी तरह घायल हो गई। बाकी बची छात्राओं को धारा 144 का उल्लंघन करने के लिए गिरफ्तार कर लिया गया।

अमेरिकी संकट से भारतीय आई. टी. सेक्टर बदहाल

नासकॉम के अनुसार भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग का 61.4 फीसदी हिस्सा अमेरिकी वित्तीय बाजार की सेवाओं पर आश्रित है, 17.8 फीसदी, इंग्लैण्ड पर और 12 प्रतिशत यूरोपीय संघ पर । प्रत्यक्षत:, भारतीय आई.टी. सेक्टर का 23 हिस्सा अमेरिकी वित्तीय बाजारों से सम्बद्ध है । सबप्राइम संकट के आने के बाद ही अमेरिकी वित्तीय बाजार में उथल–पुथल मच गयी । वहां के कई बड़े बैंक धराशायी हो गये । ऐसे में आनन–फानन में ही उन्हें भारतीय कम्पनियों को दिये गये ठेके वापस लेने के मजबूर होना पड़ा । जैसे ही उनका ठेका हाथ से निकाला, भारतीय कम्पनियों ने इसका ठीकरा फोड़ा अपने कर्मचारियों पर ।

रामसेतु: किसके हेतु??

यहाँ प्रश्न यह है कि भारतीय जनमानस में तर्कपरकता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रति आग्रह इतना कम क्यों है? इसके कई कारण हैं। एक प्रमुख कारण रहा है कि भारतीय समाज का विकास क्रमिक रहा है, यह क्रान्तियों से होकर नहीं गुज़रा। समाज हमेशा गतिमान रहता है, लेकिन क्रान्ति सामाजिक चेतना को एक स्तर से दूसरे तक छलाँग लगाने में मदद करती है। यह छलाँग पूर्व की प्रवृत्तियों से निर्णायक विच्छेद करने में मदद करती है। जब यूरोप प्रबोधन की रोशनी में नहा रहा था उस समय हमारा देश औपनिवेशीकरण की प्रक्रिया के तहत आकर अपने स्वाभाविक विकास की गति को खो रहा था। भारत में धार्मिक सुधार आन्दोलनों में सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन के लिए नये उदीयमान वर्गों का दावा दिखना अभी भ्रूण रूप में शुरू ही हुआ था कि अंग्रेज़ी साम्राज्यवाद ने भारत को उपनिवेश बना लिया। भारत में भी स्वाभाविक विकास होने की सूरत में निश्चित रूप से ऐसे आन्दोलन शुरू हो सकते थे जो तर्कपरकता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को जनमानस में स्थापित करते और उसे अन्धविश्वास, ढकोसलों, पाखण्ड और अवैज्ञानिकता से मुक्त करते।

संगठित क्षेत्र में भी बेरोज़गारी में तीव्र वृद्धि

बेरोज़गारी का कारण उन्नत तकनीक नहीं है बल्कि वह उत्पादन प्रणाली व उत्पादन सम्बन्ध हैं जिनमें इन तकनीकों का इस्तेमाल किया जाता है। बेरोज़गारी को तो वैसे ही बेहद कम किया जा सकता है अगर मज़दूरों से जानवरों की तरह काम लेना बन्द कर दिया जाय। मिसाल के तौर पर, भारत में मज़दूरों को आज 10 से 14 घण्टे तक काम करना पड़ता है। उन्नत तकनीकों को बढ़ाकर तो लागत में सापेक्षिक कटौती की ही जाती है लेकिन साथ ही मज़दूरों के श्रम काल को बढ़ाकर उसमें निरपेक्ष रूप से भी कटौती की जाती है। ये दोनों परिघटनाएँ पूँजीवादी व्यवस्था में साथ-साथ घटित होती हैं। जबकि होना तो यह चाहिए कि उन्नत तकनीकों का प्रयोग करके श्रमकाल को घटाया जाय और कामगारों के जीवन में भी मानसिक, सांस्कृतिक उत्पादन और मनोरंजन की गुंजाइश पैदा की जाय। लेकिन मुनाफ़े की हवस में पूँजीपति वर्ग स्वयं एक पशु में तब्दील हो चुका है। मज़दूर उसके लिए महज मशीन का एक विस्तार है, कोई इंसान नहीं, जिसे वह बेतहाशा निचोड़ता है। आज अगर मज़दूरों से 6 घण्टे ही काम लिया जाय तो भी रोज़गार के अवसरों में दो से ढाई गुना की बढ़ोत्तरी हो जाएगी। लेकिन ऐसा इस पूँजीवादी व्यवस्था में असम्भव है। इसलिए बेहतर है विकल्प के बारे में सोचें।