अमेरिकी संकट से भारतीय आई. टी. सेक्टर बदहाल

शिवार्थ

हमने पिछले अंक में सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में उपलब्ध रोज़गार के अवसरों और इसको लेकर की जाने वाली ‘नॉलेज इकॉनमी बूम’ नामक परिघटना की सही तस्वीर पेश करने की कोशिश की थी । पिछले 3–4 महीनों में सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कार्यरत कम्पनियों में काफी उथल–पुथल का दौर रहा, जिसने इस क्षेत्र के कई नए पहलू उजागर किये हैं । आइए, नज़र डालते हैं कुछ आँकड़ों पर-

(1) टाटा कन्सेलटेंसी सर्विसेज़ निजी क्षेत्र में देश का सबसे बड़ा रोजगार उपलब्धकर्ता है। इसने 500 लोगों को नौकरी से निकाला ।

(2) आई.बी.एम. ने, जो कि एक और बड़ी आई.टी. कम्पनी है, 700 लोगों को नौकरी से हटाया ।

इसके पीछे ने इन दोनों ही कम्पनियों ने यही तर्क दिया कि यहाँ कोई छँटनी नहीं है, बल्कि कर्मचारियों के प्रदर्शन के आधार पर लिए गए फैसले हैं । ये और बात है कि 5–6 सालों में शायद पहली बार इन कम्पनियों को प्रदर्शन की याद आई है, क्योंकि इतनी बड़ी मात्रा में छँटनी इस दौरान नहीं हुई थी ।

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अगर अर्थशास्त्रियों की मानें तो इस छँटनी के तार जुड़े हुए हैं अमेरिकी वित्तीय बाजार में हाल ही में आये सबप्राइम संकट से । पिछले अंक में हमने इसकी भी विस्तृत चर्चा की थी, और इस निष्कर्ष तक पहुँचे थे कि ये संकट सिर्फ अमेरिकी अर्थव्यवस्था को नहीं प्रभावित करेगा, बल्कि भूमण्डलीकरण के दौर में विश्व की सभी बड़ी अर्थव्यवस्थाएँ इससे प्रभावित होंगी । इस संकट के आने के बाद ही शेयर मार्केटों में जहाँ ज़बरदस्त गिरावट दर्ज की गई, वहीं खाद्यान्न संकट, पेट्रोलियम संकट जैसे संकटों ने दुनिया भर की सभी अर्थव्यवस्थाओं को हिलाकर रख दिया । विस्तार में न जाते हुए हम वापस लौटते हैं अपने मूल विषय पर यानी कि किस प्रकार सबप्राइम संकट ने आई. टी. कम्पनियों को प्रभावित किया ।

भारतीय सूचना प्रौधगिकी उद्योग का आधार वित्तीय सेवाएँ जैसे कि बैकिंग, बीमा इत्यादि है । अमेरिका, यूरोपीय संघ, जैसी अर्थव्यवस्थाओं का 80 फीसदी हिस्सा वित्तीय सेवाओं पर आधारित है । वे इन सेवाओं सम्बन्धी कार्यभारों को पूरा करने के लिए दुनिया भर में सस्ते श्रम की तलाश में घूमती हैं । अपने मुनाफे को अधिक से अधिक बढ़ाने के लिए, वे दुनिया के बड़े ठेकेदारों को इसकी जिम्मेदारी देते हैं । ऐसे में उनके लिए इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि खुद उनके देश में बेरोज़गारों की भीड़ तैयार होती रहती है । इस पूरी प्रक्रिया को नाम दिया जाता है Human capital management का । इस तरह के ठेका लेने वाली तीसरी दुनिया के देशों की बड़ी कम्पनियाँ होती हैं । चूँकि यहाँ पर बेरोजगारों की फौज इतनी बड़ी होती है, इसीलिए सस्ते दरों पर 12–14 घण्टे खटने वाले लोग इन्हें आसानी से मिल जाते हैं । टाटा ऐसा ही एक ठेकेदार है जो टाटा कन्सेलटेंसी सर्विसेज के अंतर्गत ये ठेका लेता है । इन्फोसिस इत्यादि भी इसी श्रेणी में आती है ।

नासकॉम के अनुसार भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग का 61.4 फीसदी हिस्सा अमेरिकी वित्तीय बाजार की सेवाओं पर आश्रित है, 17.8 फीसदी, इंग्लैण्ड पर और 12 प्रतिशत यूरोपीय संघ पर । प्रत्यक्षत:, भारतीय आई.टी. सेक्टर का 23 हिस्सा अमेरिकी वित्तीय बाजारों से सम्बद्ध है । सबप्राइम संकट के आने के बाद ही अमेरिकी वित्तीय बाजार में उथल–पुथल मच गयी । वहां के कई बड़े बैंक धराशायी हो गये । ऐसे में आनन–फानन में ही उन्हें भारतीय कम्पनियों को दिये गये ठेके वापस लेने के मजबूर होना पड़ा । जैसे ही उनका ठेका हाथ से निकाला, भारतीय कम्पनियों ने इसका ठीकरा फोड़ा अपने कर्मचारियों पर । बहुत भारी स्तर पर टी.सी.एस. से लेकर सत्यम कम्पयूटर तक में छँटनी की गई । कर्मचारियों को दिये जाने वाले वेतनमान में भी कटौती की गयी । स्पष्ट है कि आज विश्व पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में आने वाले किसी भी हिचकोले से भारतीय बाज़ार और उद्योग का कोई भी हिस्सा अनछुआ नहीं रह सकता, आई. टी. सेक्टर की तो बात ही क्या है । ऐसे में तमाम बाज़ारू–अखबारी टीकाकारों को सूचना प्रौद्योगिकी ‘बूम’ पर ताता–थैया करना बन्द कर देना चाहिए और उसकी अर्थी पर स्यापा करने के लिए रुदालियों का काम सीख लेना चाहिए! यही काम पूँजीवाद की ‘अन्तिम विजय’ पर बुश–ब्राउन के दरबार में प्रशस्ति–गान गाने वाले चारण और भाटों को भी सीख लेना चाहिए!

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, अक्‍टूबर-दिसम्‍बर 2008

 

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