ब्रिटेन का छात्र आन्दोलन कुछ अनछुए पहलू
सुजय
ब्रिटेन लम्बे समय बाद एक जुझारू किस्म के छात्र उभार का साक्षी बन रहा है। नवम्बर के पूरे महीने के दौरान ब्रिटेन में शिक्षा मदों में कटौती और फीसों को बढ़ाये जाने की सरकार की योजना के खि़लाफ स्कूल और विश्वविद्यालय के छात्र बार-बार सड़कों पर उतरे और अपने गुस्से का हिंस्र प्रदर्शन किया। एक बार तो हज़ारों छात्रों के हुजूम ने सत्ताधारी कंज़र्वेटिव पार्टी के दफ्तर पर ही हमला बोल दिया और वहाँ जमकर तोड़-फोड़ की। छात्रों के इस आन्दोलन के समर्थन में जल्द ही देश की ट्रेड यूनियनें भी उतर आयीं। 24 नवम्बर को अलग-अलग जगह हुए प्रदर्शनों में करीब 1 लाख 30 हज़ार छात्रों ने हिस्सा लिया। ट्रैफलगार चौराहे पर एक भीड़ ने हमला करके काफी तोड़-फोड़ मचायी। ब्रिटेन के सत्ताधारी गठबन्धन ने इस प्रदर्शनों की निन्दा की और कहा कि हम हिंसा करने वालों से बात नहीं करते हैं। हज़ारों की संख्या में पुलिस की तैनाती करके भी इन प्रदर्शनों पर काबू पाने में सरकार को विशेष सफलता नहीं मिली। सरकार भी शिक्षा सुधार करने पर अड़ी हुई है। सरकार ने मीडिया पर इस प्रदर्शन की कवरेज न करने के लिए कहा है। इससे सरकार की बौखलाहट साफ तौर पर नज़र आती है। यह टिप्पणी लिखे जाने तक छात्रों का आन्दोलन और प्रदर्शन जारी थे।
इससे पहले फ्रांस में भी छात्र शिक्षा में किये जाने वाले सुधारों के खि़लाफ जुझारू प्रदर्शन कर रहे थे। यही स्थिति जर्मनी, स्पेन, पुर्तगाल और यूनान की भी थी। यूरोप भर में पिछले कुछ वर्षों के दौरान सरकार की भूमण्डलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों के खि़लाफ मज़दूर और छात्र सड़कों पर उतरते रहे हैं। विशेष तौर पर यह पूरा सिलसिला 2006 के उत्तरार्द्ध में शुरू हुई वैश्विक मन्दी के बाद शुरू हुआ है। कारण यह है कि मन्दी ने इन देशों की पूँजीवादी अर्थव्यवस्थाओं को बुरी तरह डावाँडोल कर दिया है। दक्षिण यूरोपीय देशों का सम्प्रभु ऋण संकट अभी भी पूरी तरह से काबू में नहीं आ पाया है। वित्तीय संस्थानों का डूबना यूरोप में अभी भी जारी है। हाल ही में यूरोपीय संघ द्वारा दिये गये स्टिम्युलस पैकेज का कोई ख़ास असर नहीं हो पाया है और वास्तव में उसने उसी सट्टेबाज़ी को नये रूपों में और अधिक बढ़ा दिया है जिसके कारण यह संकट आया था। अभी से ही विश्व पूँजीवाद के शीर्षस्थ अर्थशास्त्री एक नये और अधिक भयंकर संकट के आने की भविष्यवाणी करने लगे हैं। अपने-अपने देश के पूँजीपति वर्ग को इस संकट से बचाने के लिए पूँजीवादी सरकारों ने अपने बजट घाटे को घटाने के नाम पर सार्वजनिक व्यय में कमी करना शुरू कर दिया है जिन्हें विश्व पैमाने पर आजकल ऑस्टीयरिटी उपाय बोला जा रहा है। उन्नत देशों की पूँजीवादी सरकारें भी सार्वजनिक ख़र्चों को अभूतपूर्व सीमा तक घटाने के लिए मजबूर हो गयी हैं। 1930 के दशक की महामन्दी के बाद की सबसे बड़ी मन्दी में यह होना लाजिमी था। और ऐसे में यह होना ही था जो आज ब्रिटेन और फ्रांस समेत कई यूरोपीय देशों में हो रहा है। जनता सड़कों पर उतर रही है और सवाल पूछ रही है कि सट्टेबाज़ी में लिप्त बैंकों और वित्तीय संस्थानों के जुए की कीमत हम क्यों अदा करें? यहाँ पर दो बातें ग़ौर करने योग्य हैं।
पहली बात यह है कि विश्व पूँजीवाद के शीर्ष पर बैठे उन्नत पूँजीवादी देशों का पूँजीपति वर्ग विश्व भर में अपनी साम्राज्यवादी लूट की बदौलत लम्बे समय से अपने देश के निम्न मध्यवर्ग और मज़दूर वर्ग को तमाम सहूलियतें देने में कामयाब रहा है। इसके चलते वह अपने देश में आन्दोलनों और मज़दूर या छात्र असन्तोष से काफी हद तक बचा रहा है। 1968 में इन देशों में हुआ छात्र आन्दोलन आर्थिक की बजाय विचारधारात्मक मुद्दों पर ज़्यादा आधारित था। लेकिन आज के समय में जो छात्र उभार हो रहे हैं, उनके ठोस आर्थिक कारण हैं। इसका कारण यह है कि 2000 के पूरे दशक में जारी मन्दी और 2006 से इसके विकराल रूप धारण कर लेने के बाद इसकी आँच उन्नत पूँजीवादी देशों पर पड़ने लगी है। अमेरिका में बेरोज़़गारी दर 10 प्रतिशत के करीब पहुँच रही है। यूरोप में भी स्थिति कोई अधिक भिन्न नहीं है। इन देशों में इस समय जमकर छँटनी और तालाबन्दी हो रही है। सरकारें सार्वजनिक ख़र्च में कटौती न करें तो पूँजीपतियों के लिए जीवन-मरण की स्थिति पैदा हो जायेगी। इसलिए सार्वजनिक ख़र्च कम करके सारा बोझ जनता के सिर पर डाला जा रहा है। नतीजतन, इन देशों में छात्र और मज़दूर सड़कों पर उतर रहे हैं।
लेकिन दूसरी बात और अधिक महत्त्वपूर्ण है। इन छात्र या मज़दूर आन्दोलनों से कोई बहुत अधिक उम्मीद पालना एक ग़लती होगी। कई पत्र-पत्रिकाओं में कुछ इस अन्दाज़ में इन आन्दोलनों के बारे में लिखा गया है मानो इन उन्नत यूरोपीय देशों में कोई क्रान्ति दरवाज़े पर दस्तक देने वाली है। अभी भी इन देशों के पूँजीपति वर्ग में इतनी कूव्वत है कि वे अपने वर्चस्व को बनाये रख सकें। दूसरी बात यह कि ये आन्दोलन स्वयं कोई यूटोपिया नहीं प्रस्तुत कर रहे हैं। ये सिर्फ इन मुद्दों पर केन्द्रित आन्दोलन हैं। इन देशों में सरकारें थोड़ा व्यायाम-वर्जिश के बाद स्थिति को नियन्त्रण में लाने में कामयाब हो जायेंगी। यह उम्मीद करना कि यहाँ से कोई नया रास्ता फूटने वाला है, भावी निराशा को आमन्त्रण देना है। निश्चित रूप से इन आन्दोलनों के जुझारूपन को सलाम किया जाना चाहिए और उन संघर्षरत छात्रों के साथ अपनी एकजुटता का इज़हार करना चाहिए और उनकी स्पिरिट से सीखा जाना चाहिए। लेकिन साथ ही इन आन्दोलन की सीमाओं को भी समझना चाहिए। ये आन्दोलन अभी पश्चिमी पूँजीवाद के वर्चस्व के दायरे को तोड़ने तक नहीं पहुँचे हैं और निकट भविष्य में ये पहुँचने वाले भी नहीं हैं। जल्दी ही इन्हें इस पूँजीवाद के द्वारा सहयोजित कर लिया जाना है। इसका कारण अन्तरराष्ट्रीय पैमाने पर इन उन्नत पूँजीवादी देशों का राजनीतिक प्रभुत्व और आर्थिक शक्तिमत्ता है। आज भी अगर हम उम्मीद के साथ विश्व में कहीं देख सकते हैं तो उन देशों की तरफ देख सकते हैं, जहाँ साम्राज्यवादी और पूँजीवादी लूट और शोषण का दबाव सबसे ज़्यादा है। यानी, तीसरी दुनिया के वे देश जहाँ जनता देशी पूँजीवाद के बर्बरतम और सबसे शोषणकारी शासन तले दबी हुई है और जहाँ इन देशों का पूँजीपति वर्ग साम्राज्यवादियों के साथ मिलकर अपने-अपने देश की जनता को तबाहो-बरबाद कर रहा है। विश्व पूँजीवाद की कमज़ोर कड़ी अब भी एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका के अपेक्षतया पिछड़े पूँजीवादी देश हैं। यहाँ सतह पर दिखती ख़ामोशी के नीचे असन्तोष का भयंकर ज्वालामुखी धधक रहा है। क्रान्तिकारी नेतृत्व की अनुपस्थिति में इस असन्तोष का दिशा-निर्देशन नहीं हो पा रहा है। लेकिन यह स्थिति हमेशा बनी रहने वाली नहीं है।
इसलिए जहाँ हमें यूरोप के इन देशों में हो रहे छात्र आन्दोलनों को सलाम करना चाहिए और उनके साथ एकजुटता जतानी चाहिए, वहीं इन आन्दोलनों की सीमाओं को भी समझना चाहिए। कोई भी भावुकतापूर्ण अति-उत्साहकारी मूल्यांकन अन्ततः निराशा के गड्ढे में ले जायेगा।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,नवम्बर-दिसम्बर 2010
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