कहीं भी नहीं है लहू का सुराग़…
कहीं नहीं है, कहीं भी नहीं लहू का सुराग
नः दस्त-ओ–नाख़ून–ए–कातिल न आस्तीं पेः निशाँ
नः सुर्खी-ए–लब-ए–ख़ंजर , नः रंग-ए–नोक-ए–सनाँ
नः ख़ाक पर कोई धब्बा नः बाम पर कोई दाग़
कहीं नहीं है, कहीं भी नहीं लहू का सुराग़
कहीं नहीं है, कहीं भी नहीं लहू का सुराग
नः दस्त-ओ–नाख़ून–ए–कातिल न आस्तीं पेः निशाँ
नः सुर्खी-ए–लब-ए–ख़ंजर , नः रंग-ए–नोक-ए–सनाँ
नः ख़ाक पर कोई धब्बा नः बाम पर कोई दाग़
कहीं नहीं है, कहीं भी नहीं लहू का सुराग़
पूँजीवादी समाज पर लोगों का विश्वास बना रहे इसके लिए न्यायपालिका राज करने वाले धनिक वर्ग के लोगों में से भी कुछ को सज़ा सुना देती है । पर ऐसे मामले गिनती के होते हैं जबकि हज़ारों–लाखों ऐसे मामले होते हैं जिनमें ग़रीब आदमी को ही दोषी ठहराया जाता है । ‘इस देश को भगवान भी नहीं बचा सकते’ जैसी टिप्पणी से न्यायपालिका यह भी जताना चाहती है कि जर्जर होती इस व्यवस्था का कोई विकल्प नहीं है । यानी इस आदमखोर पूंजीवादी समाज में लुटते हुए जीना पड़ेगा । पर ढाँचे के पैरोकार और बुद्धिजीवी ‘इतिहास के अन्त’ और पूँजीवाद को मानव–विकास की अन्तिम मंजिल बताने का कितना भी राग अलापते रहें, तमाम बहादुर, संवेदनशील और इंसाफपसन्द नौजवान इस पर यक़ीन नहीं करेंगे । वे न्यायपालिका को दिखला देंगे कि वाकई भगवान इस देश का कुछ नहीं कर सकता है । अगर कोई कर सकता है तो वे इस देश के आम नौजवान और मेहनतक़श हैं ।
पिछले दिनों दो प्रमुख बाज़ारू मीडिया संस्थानों-इंडिया टुडे और टाइम्स ऑफ़ इंडिया, ने देश भर में नौकरियों की भरमार का जो हो-हल्ला मचाया, उसकी असलियत जानने के लिए कुछ और पढ़ने या कहने की जरूरत नहीं है, बस खुली आँखों से आस-पड़ोस में निगाह डालिये; आपको कई ऐसे नौजवान दिखेंगे जो किसी तरह थोड़ी-बहुत शिक्षा पाकर या महँगी होती शिक्षा के कारण अशिक्षित ही सड़कों पर चप्पल फ़टकारते हुए नौकरी के लिए घूम रहे है या कहीं मज़दूरी करके इतना ही कमा पाते है कि बस दो वक्त का खाना खा सके। शायद आप स्वयं उनमे से एक हों और नंगी आँखों से दिखती इस सच्चाई को देखकर कोई भी समझदार और संवेदनशील आदमी मीडिया द्वारा फ़ैलाई गई इस धुन्ध की असलियत को समझ सकता है।
तरुणाई के दिनों से ही सामाजिक बदलाव के लक्ष्य के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले इस नौजवान की प्राणरक्षा के लिए जारी अपील पर देशभर से तत्काल बड़ी संख्या में लोगों ने प्रतिसाद दिया और उन सबसे मिले सहयोग की बदौलत ही योगेश का अब तक का इलाज जारी है। हम उन सबके आभारी हैं। इसने हमारे इस विश्वास को मज़बूत बनाया है कि सामाजिक कार्यकर्ताओं के जीवन को मूल्यवान समझने वाले और गहन मानवीय सरोकार वाले लोगों की समाज में कमी नहीं है। छात्र-युवा कार्यकर्ताओं की टोलियाँ पारी बाँधकर दिन-रात अस्पताल में योगेश की देखभाल में जुटी रही हैं।
कहीं भी कोई व्याख्यान, नाटक, म्यूजिक कंसर्ट, गोष्ठी आदि का आयोजन करने के लिए इतने चक्कर लगवाये जाते हैं कि आप वहाँ ऐसे कार्यक्रमों के आयोजन का विचार ही त्याग दें। इनकी जगह अण्डरवियर की कम्पनियों की वैन, फैशन शो, जैम सेशन और इस तरह की गतिविधियों को आयोजित करवाने का काम स्वयं छात्र संघ में बैठे चुनावबाज करते हैं। इस तरह से कैम्पस का विराजनीतिकरण (डीपॉलिटिसाइजेशन) करने की एक साजिश की जा रही है। इसकी वजह यह है कि ऊपर बैठे हुक्मरान डरते हैं। उन्हें डर है कि अगर कैम्पस में इतना जनवादी स्पेस होगा तो उसका इस्तेमाल क्रान्तिकारी ताक’तें छात्रों को एकजुट, गोलबन्द और संगठित करने में कर सकती हैं। तो जनवादी अभिव्यक्ति की जगहों को ख़त्म किया जा रहा है और पुलिस का आतंक छात्रों के दिल में बैठाया जा रहा है। जनतंत्र के नाम पर छात्र संघ तो है ही! वहाँ किस तरह की राजनीति होती है यह किसी से छिपा तथ्य नहीं है। वैसी राजनीति की तो सत्ता पर काबिज लोगों को जरूरत है। वे छात्र राजनीति को अपने जैसी ही भ्रष्ट, दोगली और अनाचारी राजनीति की नर्सरी के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। इस काम में बाधक क्रान्तिकारी राजनीतिक शक्तियों का गला घोंटने के लिए ही तरह–तरह के नियम–क़ायदे–क़ानूनों की आड़ में जनवादी स्पेस को सिकोड़ा और जनवादी अधिकारों का धीरे–धीरे हनन किया जा रहा है। जिम्मेदार क्रान्तिकारी छात्र शक्तियों को इस साजिश को समझना होगा और इसे नाक़ाम करना होगा।
भूमण्डलीकरण और उदारीकरण के दौर में बदली शिक्षा नीति ने इस प्रणाली को और अधिक अमानवीय बना दिया है जिसमें केवल सबसे पहले स्थान पर आने वाले के लिए ही मौका है, जबकि उससे कमतर छात्रों का भविष्य अंधकार में छोड़ दिया जाता है। साथ ही पूँजीवादी मीडिया और संस्कृति भी यही प्रचारित करती है “पढ़ो ताकि बढ़ा आदमी बनो और ख़ूब पैसा कमाओ’’। वह स्वयं भी गुनगुनाता है, “दुनिया जाए भाड़ में ऐश करो तुम”। यह सोच छात्रों को लालची, स्वार्थी और संवेदनशून्य बना रही है। इस शिक्षा व्यवस्था के दूसरे पहलू पर ग़ौर करना भी ज़रूरी है। कोई छात्र इस शिक्षा व्यवस्था में सफ़लता प्राप्त कर ले, तो क्या वह एक बेहतर इंसान की ज़िन्दगी जी पाएगा? इस शिक्षा व्यवस्था के केन्द्र में इंसान नहीं है आम घरों से आने वाले छात्रों को शिक्षा इसलिए दी जाती है ताकि उन्हें इस व्यवस्था के यंत्र का एक नट-बोल्ट बनाया जा सके। यानी उस भीड़ में शामिल किया जा सके जो इस व्यवस्था की सेवा में लगी है।