मणिपुर : जनजातीय संघर्ष का एक साल और फ़ासीवादी भाजपा की भूमिका

अमित

यदि तुम्हारे घर के
एक कमरे में आग लगी हो
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में सो सकते हो?
यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में
लाशें सड़ रहीं हों
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो?
यदि हाँ
तो मुझे तुम से
कुछ नहीं कहना है।
देश काग़ज़ पर बना
नक़्शा नहीं होता
कि एक हिस्से के फट जाने पर
बाकी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहे
और नदियाँ, पर्वत, शहर, गाँव
वैसे ही अपनी-अपनी जगह दिखें
अनमने रहें।
….
याद रखो
एक बच्चे की हत्या
एक औरत की मौत
एक आदमी का
गोलियों से चिथड़ा तन
किसी शासन का ही नहीं
सम्पूर्ण राष्ट्र का है पतन।
ऐसा ख़ून बहकर
धरती में जज़्ब नहीं होता
आकाश में फहराते झण्डों को
काला करता है।
जिस धरती पर
फ़ौजी बूटों के निशान हों
और उन पर
लाशें गिर रही हों
वह धरती
यदि तुम्हारे ख़ून में
आग बन कर नहीं दौड़ती
तो समझ लो
तुम बंजर हो गये हो-
तुम्हें यहाँ साँस लेने तक का नहीं है अधिकार
तुम्हारे लिए नहीं रहा अब यह संसार। …
– सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

3 मई 2023 को मणिपुर में महिलाओं के साथ बर्बरता के वायरल वीडियो ने देश के हर संवेदनशील इंसान को झकझोर कर रख दिया था। बड़े पैमाने पर बेघर लोग, महिलाओं के साथ बलात्कार और बर्बरता, क़त्लेआम और आगजनी की घटनाओं से जलते हुए मणिपुर की तस्वीर जिसे मोदी सरकार और उसकी पालतू मीडिया ने लोगों की निगाहों से छिपा कर रखा था, वह अचानक सामने आ गयी। बात-बात पर जनता को मन की बात सुनाने वाले प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के मुँह से मणिपुर के भयंकर हालात पर एक शब्द भी नहीं निकला। मणिपुर का दौरा करने की बजाय प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ख़ुद चुनावी रैलियों और विदेश यात्राओं में लगे रहे और उधर मणिपुर हिंसा की आग में जलता रहा। आज एक साल बाद जब हम पलटकर मणिपुर के हालात पर नज़र डालते हैं, तो साफ़ समझ में आता है कि सत्ता में बैठी भाजपा सरकार ने किस तरह अपने फ़ासीवादी एजेण्डे के तहत मणिपुर को अब तक सुलगता हुआ छोड़ रखा है।
भाजपा सरकार ने पूरी कोशिश की कि किसी भी तरह से मणिपुर में हो रहे इस भयानक घटनाक्रम की ख़बरों को बाहर न आने दिया जाये। इस दौरान ‘एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इण्डिया’ की एक फ़ैक्ट-फ़ाइण्डिंग टीम मणिपुर पहुँची और उसने इस घटना के मीडिया कवरेज पर एक रिपोर्ट दी। उस रिपोर्ट में भाजपा सरकार के तमाम झूठे दावों की पोल खोलते हुए इस सच्चाई को उजागर किया गया था कि पुलिस और सशस्त्र बलों के हथियार लोगों ने नहीं छीने थे, बल्कि ख़ुद सरकार के आदेश द्वारा पुलिस और सशस्त्र बलों के हथियार लोगों को देकर इस हिंसा को अंजाम दिया गया। ख़ुद पुलिस बलों ने मैतेयी समुदाय के पक्ष में खड़े होकर इस हिंसा को भड़काने में भरपूर भूमिका निभायी और कुकी समुदाय के गाँवों में छापेमारी आदि घटनाओं को अंजाम दिया।
वायरल वीडियो के सामने आने के एक महीने बाद 3 सदस्यीय जाँच कमेटी बनायी गयी। लेकिन उससे पहले ही यह बात स्पष्ट हो चुकी थी कि पुलिस प्रशासन ख़ुद ही इन महिलाओं और उनके परिवार को भीड़ के हवाले करके हिंसक भीड़ की बर्बरता का तमाशबीन बना रहा रहा। हाल ही में आये एक इण्टरव्यू से पता चला कि इस पूरे मामले में अपराधियों को चिन्हित कर लिये जाने के बाद भी उन पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं की गयी। घटना के मुख्य आरोपी अभी भी राज्य द्वारा समर्थित हिंसक समूहों के साथ खुलेआम घूम रहे हैं।
200 से अधिक मौतों और 70,000 से ज़्यादा आबादी के विस्थापन की इस त्रासदी के बाद प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी को इस घटना पर मुँह खोलने में ही दो महीने का समय लग गया मानो उन्हें पता ही न हो कि देश में मणिपुर जैसी कोई जगह भी है जहाँ पर इतने भयंकर हालात बने हुए हैं। ऊपर से बेशर्मी यह कि चुनावों से ठीक पहले असम ट्रिब्यून को दिये गये एक इण्टरव्यू में नरेन्द्र मोदी ने केन्द्र सरकार के समय से हस्तक्षेप करके स्थिति को नियन्त्रित करने का दावा किया। लेकिन हाल ही में मीडिया चैनल ‘द वायर’ के करन थापर द्वारा मणिपुर हिंसा के एक साल पूरा होने के बाद मैतेयी और कुकी समुदाय के स्थानीय नेताओं के साथ लिया गया एक इण्टरव्यू इस बात की पुष्टि करता है कि एक साल बाद मणिपुर में हालात अभी भी जस-के-तस बने हुए हैं। सत्ता में बैठी बीरेन सिंह की सरकार से लेकर केन्द्र में बैठी नरेन्द्र मोदी की सरकार ने मणिपुर के हालात को सुधारने के लिए कोई हस्तक्षेप नहीं किया ताकि अपनी साम्प्रदायिक फ़ासीवादी राजनीति के हित में इसका इस्तेमाल कर सकें।
करन थापर के इस इण्टरव्यू में मैतेयी और कुकी समुदाय के प्रतिनिधियों ने जो बातें रखीं, उससे इतना स्पष्ट है कि एक साल बाद मणिपुर में हालात और भयंकर हुए हैं। अभी भी पूरे राज्य में मैतेयी समुदाय के हथियारबन्द हिंसक समूहों की मौजूदगी बनी हुई है जिन्हें सत्ता का संरक्षण प्राप्त है। अभी भी मुख्यमन्त्री एन बीरेन सिंह लगातार कुकी समुदाय के आरक्षण के दर्जे पर और बाहरी लोगों को राज्य से निकालने जैसी टिप्पणियाँ कर रहे हैं ताकि हिंसा की आग में सुलगते मणिपुर पर भाजपा और संघ परिवार अपनी राजनीतिक रोटी सेंक सके।

मणिपुर हिंसा का ज़िम्मेदार कौन है?

अगर अतीत में जाकर देखें तो मणिपुर में नृजातीय संघर्ष के तार ब्रिटिशों द्वारा भारतीय उपमहाद्वीप के औपनिवेशिकीकरण के इतिहास से जुड़ते हैं, परन्तु अंग्रेजों के जाने के बाद भारतीय बुर्जुआ राज्यसत्ता ने पूर्वोत्तर के अधिकांश हिस्सों की ही तरह जिस प्रकार से मणिपुर पर भी वहाँ के लोगों की रज़ामन्दी के बिना ज़ोर-ज़बरदस्ती और कूटनीतिक तिकड़मबाज़ी की ज़रिये क़ब्ज़ा किया उसकी वजह से वहाँ एक तरफ़ भारतीय राज्य के दमन के ख़िलाफ़ सशस्त्र संघर्ष उठ खड़े हुए वहीं दूसरी ओर राज्य के विभिन्न हिस्सों में रहने वाले नृजातीय समूहों के बीच आपस में ज़़मीन और संसाधनों को लेकर विवाद और टकराव बढ़ते चले गये। मिसाल के लिए नगा-कुकी विवाद, नगा-ज़ोमी विवाद, मैतेयी-मुस्लिम विवाद, कुकी-मैतेयी विवाद, कुकी-कार्बी विवाद, नगा-मैतेयी विवाद आदि। भारतीय राज्यसत्ता ने भी अपने ख़िलाफ़ खड़े हो रहे प्रतिरोध को तोड़ने के लिए विभिन्न नृजातीय अस्मिताओं पर आधारित सैन्य गुटों के निर्माण को बढ़ावा दिया, इन नृजातीय अस्मिताओं का नेतृत्व कर रहे नेताओं को विकास के नाम पर दिये जा रहे फ़ण्ड में हिस्सेदारी सुनिश्चित कर उन्हें भ्रष्ट करने का काम किया। पूँजीवादी विकास के फलस्वरूप पैदा हुए क्षेत्रीय असन्तुलन ने इन टकरावों को और तीखा करने का काम किया। ग़ौरतलब है कि मणिपुर के पहाड़ी इलाक़ों में बसने वाली कुकी व नगा जैसी जनजातियों का मुख्य पेशा झूम खेती रहा है। परन्तु पूँजीवादी विकास की ज़रूरतों के मद्देनज़र भारतीय राज्यसत्ता और मणिपुर की राज्य सरकार मणिपुर के पहाड़ी इलाक़ों में जनजातियों को बेदख़ल करके ज़मीन, जंगलों व अन्य संसाधनों पर अपना क़ब्ज़ा करना चाहती है। इस साल फ़रवरी के महीने में मणिपुर की पहाड़ियों में स्थित कई कुकी गाँवों को अवैध बताकर सैकड़ों लोगों को बेदखल किया गया था जिसके बाद कुकी लोगों का ज़बर्दस्त रोष देखने में आया था और उस समय भी मणिपुर में अशान्ति की स्थिति उत्पन्न हुई थी।
इलाक़े की भौगोलिक स्थिति की बात करें तो मणिपुर के पहाड़ी इलाक़ों में नगा और कुकी जैसी जनजातियाँ रहती हैं जबकि मैदानी इलाक़े में मैतेयी जनजाति के लोगों का बाहुल्य है। मणिपुर के कुल भूगोल का मात्र 11% होने के बावजूद मणिपुर की जनसंख्या का बहुलांश मैदानी इलाक़े में ही है जहाँ आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक दृष्टि से मैतेयी समुदाय वर्चस्वशाली स्थिति में है।
मणिपुर हिंसा का तात्कालिक कारण मणिपुर उच्च न्यायालय का वह निर्णय था जिसमें केन्द्र सरकार को मैतेयी समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिये जाने का सुझाव भेजा गया था। इस निर्णय के विरोध में ‘ऑल ट्राइबल स्टूडेण्ट्स यूनियन ऑफ़ मणिपुर’ ने इम्फाल में एक मार्च निकाला था, जिसके बाद हिंसा भड़क उठी। लेकिन सच्चाई यह है कि इस पूरे घटनाक्रम की पूर्वपीठिका पहले ही तैयार हो रही थी।
ग़ौरतलब है कि बीरेन सिंह नीत भाजपा सरकार के सत्ता में आने के साथ ही मणिपुर में कुकी समुदाय के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाना तेज़ कर दिया गया था। ‘नार्को आतंकवाद’ के ख़िलाफ़ जंग छेड़ने के नाम पर समूचे कुकी समुदाय के ख़िलाफ़ नफ़रती मुहिम छेड़ी गयी। मणिपुर साम्राज्य की बात करते हुए लोगों की भावनाओं के भड़काया गया और कुकी समेत हर उस समुदाय को बाहरी घोषित करने का अभियान चलाया गया जिन्हें बाहर करना भाजपा और संघ परिवार के नफ़रती एजेण्डे के लिए ज़रूरी था। मणिपुर के मुख्यमन्त्री बीरेन सिंह द्वारा बार-बार मणिपुर में भी असम की तर्ज़ पर एनआरसी कराने की बात कही गयी, जो और कुछ नहीं बल्कि कुकी समुदाय के ख़िलाफ़ छेड़ी गयी नफ़रती मुहिम का ही हिस्सा था।
मैतेयी आबादी का बहुलांश हिन्दू धर्म को मानने वाला है जबकि पहाड़ी इलाक़ों में रहने वाले विभिन्न समुदाय इसाई व अन्य धर्मों को मानते हैं। भाजपा व संघ परिवार ने बहुत सचेत तौर पर अपने हिन्दुत्व की राजनीति से मैतेयी समुदाय को जोड़ने और विभिन्न समुदाय को बीच नफ़रत को बढ़ावा देने का काम किया है। इस नफ़रती मुहिम में लोगों को जनजातीय समुदायों की आबादी के बढ़ने और उनके वर्चस्व की स्थिति में पहुँच जाने का भय दिखाने, अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिलाकर मैतेयी समुदाय को पहाड़ी इलाक़ों में सम्पत्ति ख़रीदने आदि के अधिकार हासिल करने जैसे दुष्प्रचारों की एक पूरी मुहिम चलायी जाती रही है। मुख्यमन्त्री एन बीरेन सिंह द्वारा बार-बार कुकी समुदाय के लोगों के ख़िलाफ़ नफ़रती बयान देना, पुलिस प्रशासन से लेकर राज्य की मीडिया का सीधे-सीधे भाजपा और संघ परिवार के एजेण्डों पर काम करना यह साफ़ कर देता है कि इस पूरे हिंसा के माहौल को भड़काने में इन साम्प्रदायिक फ़ासीवादी ताक़तों की कितनी अहम भूमिका रही है।
अन्त में, यह सही है कि अतीत में भी मणिपुर की विभिन्न जनजातियों के बीच भी संघर्ष हुए हैं, लेकिन फ़ासीवादी भाजपा और संघ परिवार द्वारा इन जनजातियों के बीच मौजूद पुराने पूर्वाग्रहों और अन्तरविरोधों का इस्तेमाल करके मणिपुर को नफ़रत की आग में झोंक देने को हमेशा से चले आ रहे जनजातीय संघर्ष की तरह नहीं देखा जा सकता है। पिछले लम्बे समय से मणिपुर भी भाजपा और संघ परिवार के फ़ासीवादी प्रयोग की प्रयोगशाला बना हुआ है और पिछले 7 सालों से सत्ता में बैठी भाजपा सरकार ने जनता के बीच मौजूद अन्तरविरोधों को तीखा करते हुए जो नफ़रत की आग लगायी थी, आज मणिपुर उसी नफ़रत की आग में जल रहा है। इस पूरी स्थिति का फ़ायदा अन्ततः फ़ासीवादी ताक़तों और भारतीय राज्यसत्ता को मिलेगा जो इन हालात में न केवल इन राज्यों में अपनी सैन्य उपस्थिति को और म़जबूत करेगी बल्कि हालात को नियन्त्रित करने के नाम पर दमन के हथकण्डों को और अधिक मज़बूत करने का ही काम करेगी। इसलिए यह बहुत ज़रूरी है कि मणिपुर और पूर्वोत्तर के राज्यों की जनता के बीच आपसी अन्तरविरोध समाप्त हों और वह अपने असली दुश्मन की पहचान करे। अपनी क्रान्तिकारी लामबन्दी कर अपने मुक्ति की लड़ाई सही दिशा में ले जा सके। देश के तमाम इंसाफ़पसन्द छात्रों-नौजवानों और नागरिकों को इस संघर्ष में उनके साथ खड़ा होना होगा।

(मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2024)

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