Tag Archives: जाति प्रश्‍न

माया की माला और भारतीय पूँजीवादी जनतंत्र के कुछ जलते सवाल

इतिहास में हमेशा ही शासक वर्ग जनता की चेतना को अनुकूलित करके उससे अपने ऊपर शासन करने की अनुमति लेते रहे हैं। यहाँ भी ऐसा ही हो रहा है। जब तक मायावती जैसे नेताओं का यह तर्क आम दलित आबादी के बीच स्वीकारा जाता रहेगा कि जो कुछ सवर्ण करते रहे हैं, वही सबकुछ करने की उन्हें भी छूट है, तब तक व्यापक दलित जनता की मुक्ति का वास्तविक आन्दोलन आगे नहीं बढ़ेगा। मायावती की राजनीति पर दलित समाज के भीतर से पुरज़ोर आवाज़ों का अब तक न उठना, न्यूनतम जनवादी चेतना की कमी को दिखलाता है। यह काफी चिन्ता की बात है और दलित जातियों के सोचने–समझने वाले बाले नौजवान जब तक इस सवाल पर नहीं सोचेंगे तब तक आम दलित आबादी की ज़िन्दगी में बुनियादी बदलाव लाने की लड़ाई आगे नहीं बढ़ जाएगी। इसके लिए दलित समाज के भीतर व्यापक सांस्कृतिक कार्रवाइयां और प्रबोधन के काम को हाथ में लेना होगा।

गुण्डे चढ़ गये हाथी पर–मूँग दल रहे छाती पर!

आम घरों से आने वाले दलित नौजवानों को यह समझ लेना चाहिए कि बसपा और मायावती की माया बस एक धोखे की टट्टी है। यह भी उतनी ही वफ़ादारी से प्रदेश के दबंग शासक वर्गों, गुण्डों और ठेकेदारों की सेवा करती है। इस बात को आम जनता अब धीरे-धीरे समझने भी लगी है। मनोज गुप्ता की हत्या के बाद जिस कदर जनता प्रदेश में और ख़ास तौर पर औरैया में सड़कों पर उतरी उसे देखकर साफ़ अन्दाज़ा लगाया जा सकता था कि यह सिर्फ़ एक इंजीनियर की आपराधिक हत्या के जवाब में पैदा हुआ गुस्सा नहीं था। यह पूरी शासन–व्यवस्था और बसपा सरकार की नंगी गुण्डई, भ्रष्टाचार और तानाशाही के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतरने वाले लोग थे जो मौजूदा व्यवस्था से तंग आ चुके हैं और किसी परिवर्तन की बेचैनी से तलाश कर रहे हैं।

आरक्षण पक्ष, विपक्ष और तीसरा पक्ष

सत्ताधारी वर्ग जब नौकरियों या उच्च शिक्षा में आरक्षण का लुकमा फेंकते हैं तो पहले से नौकरियों पर आश्रित, मध्यवर्गीय, सवर्ण जातियों के छात्रों और बेरोज़गार युवाओं को लगता है कि आरक्षण की बैसाखी के सहारे दलित और पिछड़ी जातियाँ उनके रोज़गार के रहे-सहे अवसरों को भी छीन रही हैं। वे इस ज़मीनी हक़ीक़त को नहीं देख पाते कि वास्तव में रोज़गार के अवसर ही इतने कम हो गये हैं कि यदि आरक्षण को एकदम समाप्त कर दिया जाये तब भी सवर्ण जाति के सभी बेरोज़गारों को रोज़गार नहीं मिल पायेगा। इसी तरह दलित और पिछड़ी जाति के युवा यह नहीं देख पाते कि यदि आरक्षण के प्रतिशत को कुछ और बढ़ा दिया जाये और यदि वह ईमानदार और प्रभावी ढंग से लागू कर दिया जाये, तब भी दलित और पिछड़ी जातियों के पचास प्रतिशत बेरोज़गार युवाओं को भी रोज़गार नसीब न हो सकेगा। उनके लिए रोज़गार के जो थोड़े से नये अवसर उपलब्ध होंगे, उनका भी लाभ मुख्यतः मध्यवर्गीय बन चुके दलितों और आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक रूप से प्रभावशाली पिछड़ी जातियों के लोगों की एक अत्यन्त छोटी-सी आबादी के खाते में ही चला जायेगा तथा गाँवों-शहरों में सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा का जीवन बिताने वाली बहुसंख्यक आबादी को इससे कुछ भी हासिल नहीं होगा।