कैसी खुशियाँ आज़ादी का कैसा शोर, राज कर रहे कफ़नखसोट-मुर्दाखोर!
श्वेता, दिल्ली
‘‘आजादी’’ कि 60 साल पूरे होते ही इस व्यवस्था की चाकरी में लगा हुआ मीडिया और पूरा शासक वर्ग हमेशा की तरह नशे में चूर था। पिछले 60 सालों की ‘‘उपलब्धियाँ’’ का बखान पूरे ज़ोर-शोर से किया गया। देश में लगातार करोड़पतियों की बढ़ती संख्या, शेयर बाज़ार में आ रही तेज़ी, अर्थव्यवस्था का 8 फ़ीसदी की वृद्धि दर को छूना, देशी पूँजीपति घरानों द्वारा विदेशी पूँजीपतियों की कम्पनियों का अधिग्रहण-इन सब के जरिए भारत की चमकती तस्वीर को पेश किया जा रहा है और सत्ताधारी वर्ग एक ही सुर में भारत के विकास की गाथा का आलाप कर रहा है। और वहीं दूसरी तरफ़ हाल ही में इस ‘‘चमकते भारत’’ की असली नंगी तस्वीर एक सरकारी रिपोर्ट के ज़रिए सामने आई। नेशनल कमीशन फ़ॉर एंटरप्राइज़ेज इन द अनऑर्गेनाइज्ड सेक्टर(असंगठित क्षेत्र के उपक्रमों के लिए राष्ट्रीय आयोग) द्वारा भारत के कामकाजी ग़रीबों पर एक रिपोर्ट तैयार गई जिसके अनुसार आज लगभग 84 करोड़ लोग रोज़ाना 20 रुपए से भी कम की आय पर गुज़ारा कर रहे हैं। यही नहीं इसमें से 22 फ़ीसदी लोग रोज़ाना 11.60 रुपए की आय पर गुज़ारा कर रहे थे, 19 फ़ीसदी लोग 11.60 से 15 रुपए की आय पर जी रहे थे और 36 फ़ीसदी लोग 15 से 20 रुपए रोज़ाना की आय पर गुज़ारा कर रहे थे।
खैर, वैसे भी अगर सरकारी पैमाने के अनुसार ग़रीबी रेखा की परिभाषा पर ग़ौर किया जाए तो वह सिवाय एक घटिया मज़ाक के और कुछ भी नहीं है। इस पैमाने के अनुसार अगर प्रतिदिन की आपकी आय 13.60 रुपए है तो आप गरीबी रेखा के नीचे नहीं है। या इसे यों कहा जाए कि अगर आपकी मासिक आय लगभग 400 रुपए हैं तो आप को ग़रीब नहीं समझा जा सकता है। यह पैमाना जिस आधार पर तय किया गया है उससे साफ़ तौर पर पता चलता है कि सरकार का मकसद केवल आँकड़ों के ज़रिए ही गरीबी कम करना है ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग इस रेखा के ऊपर की श्रेणी में बने रहे और जनता को यह भ्रम बना रहे कि सरकार की नीतियों व कार्यक्रमों के तहत गरीबी लगातार कम हो रही है।
रिपोर्ट में आगे लिखा गया है कि अनुसूचित जातियों और जनजातियों की आबादी का 88 फ़ीसदी, अन्य जातियों का 80 फ़ीसदी और मुसलमानों में से 85 फ़ीसदी लोग रोज़ाना 20 रुपए से भी कम की आय पर जीवन बसर कर रहे थे। गाँव के गरीब किसानों की हालत तो और भी अधिक ख़राब है। उनकी रोज़ाना प्रति व्यक्ति औसत आय 17 रुपए हैं। वैसे इस रिपोर्ट ने काफ़ी हद तक चौतरफ़ा हो रहे विकासों पर बजाए जाने वाले ढोल-नगाड़ों को शांत कर दिया है। इस रिपोर्ट ने भूमण्डलीकरण का जाप करने वाले और आर्थिक सुधारों का दावा करने वाले तमाम अर्थशास्त्रियों द्वारा इस व्यवस्था के बनाए रखने के लिए तैयार गए नकाब को उतार फ़ेंका है। इसका लक्ष्य देश की व्यवस्था को बदलना नहीं बल्कि आज की सरकार को चेताना है कि ‘देखिये महोदय, भाजपा की सरकार की तरह आप भी कुछ ‘भारत उदय’ जैसी बात मत करिये। इससे जनता मूर्ख नहीं बनती। कहीं आपका भी वैसा ही हश्र न हो जो राजग सरकार का हुआ था। इसलिए थोड़ा सा सम्भल जाइये!’
जहाँ, एक ओर पिछले कुछ वर्षों में लगातार पूँजीपति घरानों की आमदनी में 150 से 200 गुणा की बढ़ोतरी हुई है, वही दूसरी ओर एक बहुत बड़ी आबादी पूँजी की मार से बेहाल हो रही है। अमीर–गरीब के बीच की खाई लगातार गहरी और चौड़ी हो रही है। नए-नए गाड़ियों के मॉडल, शॉपिंग मॉल, एयरकण्डीशन्ड अस्पताल परजीवी जमात की ऐयाशियों के लिए तैयार किए जा रहें है और इन सब के आधार पर ही सरकार ‘विकास की अवधारणा’ तय करती है। आँखों को चुंधिया देने वाली इस चकाचौंध में विलासिता के टापुओं से दूर खदेड़े जाने वाली एक बहुत बड़ी आबादी आँखों से ओझल हो रही है जो अत्यंत अमानवीय परिस्थितयों में अपना जीवन बसर करने को मजबूर है। कुल मिलाकर कहा जाए तो इस तथाकथित ‘‘विकास’’ का फ़ायदा तो केवल आबादी के छोटे हिस्से को ही प्राप्त है। आम जनता की स्थितियाँ तो बद से बदतर हो रही है। वैसे भी पूँजीवादी व्यवस्था का मकसद पूरे समाज का हित करना नहीं है। किसी भी प्रकार का उत्पादन यहाँ केवल मुनाफ़े के लिए किया जाता है। इसलिए इस तरह के किसी भी रिपोर्ट के सामने आ जाने के बावजूद सरकार से समस्या के समाधान की उम्मीद नहीं की जा सकती। इस व्यवस्था में सरकार चलाने की बागडोर चाहे किसी भी चुनावी पार्टी के हाथ में हो, उनसे किसी भी प्रकार के बदलाव की उम्मीद करना बेकार है। वे ज्यादा से ज्यादा इसी व्यवस्था की चौहद्यिों के भीतर पैबन्दसाज़ी के नए-नए उपक्रमों की तलाश करते है ताकि आम जनता के गुस्से की आग पर ठंडे पानी की थोड़ी छीटें छिड़ककर उसे शांत किया जाए।
लेकिन जिस आम जनता पर मँहगाई, बेरोज़गारी, तबाही का कहर बरपा किया जा रहा है, वह चुपचाप सब कुछ सहती रहेगी, ऐसा नहीं होगा। ऐसे में संवेदन छात्रों-युवाओं को सोचना होगा की आखिर विकल्प क्या है?
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-मार्च 2008
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