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मूल निवास की राजनीति का दूसरा चेहरा

अमेरिका में पिछले हफ्ते इमिग्रेशन अधिकारियों ने वीज़ा कानून के उल्लंघन के आरोप में वैली विश्वविद्यालय के 18 भारतीय छात्रों के पैरों में इलेक्ट्रॉनिक टैग लगा दिये थे, ताकि उनकी हरकत पर नज़र रखी जा सके। यह दुर्व्यहार सम्बन्धी एक नया मामला है जो मध्य पूर्व एशिया में जारी गतिरोध के कारण मीडियाई बहसों में नहीं उभर पाया। बहरहाल इसे यूरोप में जारी अमानवीयता की शृखंला की नयी कड़ी के रूप में ही देखा जाना चाहिए।

क्या विकीलीक्स से कुछ बदलेगा?

निश्चित रूप से विकीलीक्स ने साम्राज्यवादी अपराधों का दस्तावेज़ी प्रमाण मुहैया कराकर अमेरिका के साम्राज्यवाद के अपराधों पर पड़े बेहद झीने परदे को थोड़ा-सा उठा दिया है। लेकिन ऐसे किसी भी खुलासे का अर्थ तभी हो सकता है जब उसमें कुछ ऐसा नया हो जिसका अन्दाज़ा भी जनता को न हो और जब ऐसे खुलासे का संगम इस पूरी बर्बर और अमानवीय विश्व पूँजीवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की कोशिशों के साथ हो। यह सोचना एक कोरी कल्पना है कि महज़ खुलासे और भण्डाफोड़ कोई परिवर्तन ला सकते हैं। पूँजीवाद को एक जनक्रान्ति के ज़रिये उखाड़ फेंकने के कामों के इरादे के साथ किये गये खुलासे ही किसी भी रूप में कारगर हो सकते हैं।

ओबामा की भारत यात्रा के निहितार्थ

ओबामा की भारत, इण्डोनेशिया, जापान एवं दक्षिण कोरिया की यात्रा के दो प्रमुख मकसद स्पष्ट हैं। प्रथम है मन्दी की मार झेल रही अमेरिका की अर्थव्यवस्था को बचाना और अमेरिकी कम्पनियों के लिए नये बाज़ार की खोज व अमेरिका में रोज़गार के सृजन से अपने खो रहे जनाधार को वापस लाना। यह यात्रा आगामी चुनावी वर्षों में अमेरिकी पूँजीवाद की नुमाइन्दगी के लिए ओबामा प्रशासन की तैयारी है। दूसरा विश्व पूँजीवाद में पिछले दो दशको में आये बदलाव एवं कई नये राष्ट्र-राज्यों के पूँजी उभार से विश्व बाज़ार में अमेरिकी पूँजी की चौधराहट में कमी आयी है। एशिया में चीन के आर्थिक उभार व विश्व बाज़ार में सशक्त उपस्थिति को देखते हुए अमेरिका दक्षिण पूर्व एशिया को अपनी दूरगामी विदेशी नीति के केन्द्र एवं बाज़ार क्षेत्र के रूप में देखता है। ओबामा की इस यात्रा का मकसद चीन को यह सन्देश भी देना है कि विश्व व्यापार एवं आर्थिक साझेदारी के लिए दक्षिण पूर्वी एशिया अमेरिका के साथ है।

‘मानवाधिकारों’ के हिमायती अमेरिका के बर्बर कारनामे

विकीलीक्स के जूलियन असांजे ने इस सन्दर्भ में एक मार्के की बात कही है जो हर युद्ध के बारे में सही बैठती है। उन्होंने कहा – ‘‘सच के ऊपर पर्दा डालने का काम युद्ध से काफी पहले शुरू हो जाता है जो युद्ध के काफी लम्बे समय बाद तक जारी रहता है।’‘ अमेरिकी शासक वर्ग ने भी इराक पर हमले का औचित्य सिद्ध करने के लिए बुर्जुआ मीडिया के भाड़े के टट्टुओं की मदद से झूठ के पुलिन्दे पेश किये थे। जैव-रासायनिक हथियारों के जखीरे और नाभिकीय हथियारों के गुपचुप निर्माण का काफी शोर अमेरिकी शासकों ने मचाया था। ये बातें इतिहास का ऐसा झूठ साबित हुई हैं, जिनके बारे में अब अमेरिका-ब्रिटेन के सत्ताधारी और उनके अन्धप्रचारक भी कुछ कहने से कतराने लगे हैं।

इराक से अमेरिका की वापसी के निहितार्थ

आश्चर्य की बात नहीं है कि ओबामा ने अपने भाषण में एक जगह भी इराकियों के दुख-दर्द के बारे में कुछ नहीं कहा। इसके लिए इराकियों से कभी माफी नहीं माँगी गयी कि इराकी जनता के 10 लाख से भी अधिक लोगों की इस साम्राज्यवादी युद्ध में हत्या कर दी गयी; इराक की पूरी अवसंरचना को नष्ट कर दिया गया; इराकी अर्थव्यवस्था की कमर टूट गयी, जो वास्तव में दुनिया के सबसे समृद्ध अर्थव्यवस्थाओं में से हुआ करती थी; आज इराक के बड़े हिस्सों में बिजली और पीने का पानी तक मयस्सर नहीं है; बेरोज़गारी आसमान छू रही है और जनता के पास शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाएँ भी नहीं हैं। आज के इराक को देखकर कोई अन्धा भी बता सकता है कि सद्दाम हुसैन के शासन के अन्तर्गत वह कहीं बेहतर स्थिति में था।

साम्राज्यवाद के ‘चौधरी’ अमेरिका के घर में बेरोज़गारी का साम्राज्य

इन तथ्यों और आँकड़ों की रोशनी मे साफ़ है कि विश्व को लोकतन्त्र व शान्ति का पाठ पढ़ने वाला अमेरिका खुद अपनी जनता को बेरोज़गारी, ग़रीबी, भूखमरी, अपराध से निजात नहीं दिला पाया। दूसरी तरफ़ शान्तिदूत ओबामा की असलियत ये है कि जिस हफ़्ते ओबामा को नोबल शान्ति पुरस्कार दिया गया, उसी हफ़्ते अमेरिकी सीनेट ने अपने इतिहास में सबसे बड़ा सैन्य बजट पारित किया 626 अरब डॉलर। और बुशकालीन युद्धनीति में कोई फ़ेरबदल नहीं किया गया और इस कारण आज भी अफ़गान-इराक युद्ध में अमेरिकी सेना वहाँ की निर्दोष जनता को ‘शान्ति का अमेरिकी पाठ’ पढ़ा रही है इन हालतों से साफ़ है कि पूँजीवादी मीडिया द्वारा जिस अमेरिका समाज की चकाचौंध दिखाई जाती है उससे अलग एक और अमेरिकी समाज है जो पूँजीवाद की लाइलाज बीमारी बेरोज़गारी, ग़रीबी आदि समस्या से संकटग्रस्त है।

लैंग्सटन ह्यूज की कविताएँ

ह्यूज की कविताओं का विषय मुख्य रूप से मेहनतकश आदमी है, चाहे वह किसी भी नस्ल का हो। उनकी कविताओं में अमेरिका की सारी शोषित-पीड़ित और श्रमजीवी जनता की कथा-व्यथा का अनुभव किया जा सकता है। ह्यूज का अमेरिका इन सब लोगों का है – वह मेहनतकशों का अमेरिका है, वही असली अमेरिका है, जो दुनिया में अमन-चैन और बराबरी चाहता है, और तमाम तरह के भेदभाव को मिटा देना चाहता है। ह्यूज की इसी सोच ने उन्हें अन्तरराष्ट्रीय कवि बना दिया और दुनिया-भर के मुक्तिसंघर्षों के लिए वे प्रेरणा के स्रोत बन गये।

बुश के ऊपर स्वतन्त्र समाज की व्यथित कर देने वाली अभिव्यक्ति!

बुश पर जूते फ़ेंकते समय ज़ैदी ने जो बात कही वह सारी इराक़ी जनता की भावना का प्रतिनिधित्व करती है। जै़दी ने कहा, “ये रहा विदाई चुम्बन, कुत्ते!” दुनिया के सबसे शक्तिशाली व्यक्ति ने जो दुनिया के सर्वशक्तिशाली देश का राष्ट्रपति है, कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि राष्ट्रपति के तौर पर उनके कार्यकाल का अन्त इस किस्म की विदाई से होगा। बुश मानसिक तौर पर काफ़ी व्यथित हुए होंगे। एक तो उनके पूरे कार्यकाल में उन्हें एक बेवकूफ़ व्यक्ति के रूप में प्रचारित किया गया जिसे राजनीति का क ख ग भी नहीं आता, दूसरी ओर उन्होंने जहाँ हाथ डाला तबाही मिली। और अब जाते-जाते दुनिया भर की जनता को आज़ाद करने का ये सिला मिला है!!?? जूते!!??

मन्दी के मारे अमेरिकी खाने की ख़ातिर बन्दूकें बेचने को मजबूर!

लॉस एंजेल्स के कॉम्प्टन शहर में लोग पिस्तौलों के बदलें में खाने का सामान जुटा रहे हैं। यह लॉस एंजेल्स के दक्षिण में पड़ने वाला सापेक्षतः ग़रीब आबादी वाला एक शहर है। ज्ञात हो कि अमेरिकी लोग बन्दूक रखना अपना जनतांत्रिक अधिकार मानते हैं। यहाँ तक तो बात समझ में आती है लेकिन वे बन्दूक से लगभग-लगभग प्यार करते हैं और यह उनके सबसे कीमती सामानों में से एक होता है। ख़ास तौर पर कैलीफ़ोर्निया में लगभग हर घर में दो से तीन बन्दूकें पाई जा सकती हैं। लेकिन अमेरिकी अर्थव्यवस्था में आई भयंकर मन्दी ने इस लगाव और प्यार पर गहरा असर डाला है। लोगों को अपनी बन्दूकों और अन्य आग्नेय अस्त्रों को खाने की ख़ातिर बेचना पड़ रहा है! क्योंकि अब बन्दूक तो खाई नहीं जा सकती!

महामंदी – ll

पूँजी की गति को विनियमित करना पूँजीवादी सरकारों के बूते की बात नहीं होती है । मुनाफ़े की हवस से चलने वाली एक अनियंत्रित, अनियोजित और निजीकृत अर्थव्यवस्था में यही हो ही सकता है । बीच–बीच में होने वाला सरकारी कीन्सियाई हस्तक्षेप संकट को कुछ समय के लिए टाल सकता है, सिर्फ दुबारा और अधिक तूफानी गति और संवेग के साथ आने के लिए । यह विनियमन एक शेखचिल्ली का सपना है । ऐसा कोई भी विनियमन पूँजीवादी विश्व को इन चक्रीय संकटों से नहीं बचा सकता है ।