बाज़ार के हाथों में उच्च शिक्षा को बेचने का षड्यंत्र

विवेक

मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने जब यह घोषणा की कि यू.जी.सी को खत्म कर उच्च शिक्षा की मौनिटरिंग और वित्त के लिए दो नये संस्थान एच.ए.सी.आई. (हेकी) और एच.इ.एफ.ए. (हेफा) बनाये जाएँगे, तब आश्चर्यजनक रूप से केंद्र सरकार के हर फैसले पर विरोध करने वाला विपक्ष चुप रहा व मीडिया ने भी इसे कोई तवज्जो नहीं दी। एक तरफ तो सरकार उच्च शिक्षा से अपना हाथ खींच कर इसे बाज़ार के रहमोकरम पर छोड़ रही है वहीं दूसरी तरफ विशिष्ट संस्थान का दर्जा देकर जिओ इंस्टिट्यूट को 1000 करोड़ रुपये दे रही है। एक शिक्षण संस्थान जो अभी खुला नहीं है , जिसका कोई भौतिक अस्तित्व नहीं है , उस पर इतनी मेहरबानी करना संदेहास्पद तो है ही। खैर, हेकी और हेफा के द्वारा शिक्षा को बाज़ार के हाथों सौपना यह कोई अचानक से घटने वाली घटना नहीं है।  अपितु इसकी पूर्वपीठिका काफी पहले से लिखी जा रही थी। यू.पी.ए.सरकार के कार्यकाल से ही शिक्षा के निजीकरण के प्रयास ज़ोरों पर थे। इसकी परिणिति आज मोदी सरकार के कार्यकाल में जाकर हो रही है। कुल मिलाकर इसकी एक गतिकी है जो कई दौरों से होकर गुजरी है।

आज़ाद भारत में उच्च शिक्षा का इतिहास

भारत को आज़ादी मिलने के बाद उच्च शिक्षा की रूपरेखा तय करने के लिए 1948 में यूनिवर्सिटी एजुकेशन कमीशन, सर्वपल्ली राधा कृष्णन की अध्यक्षयता में बना। एक वर्ष के बाद इसने अपनी रिपोर्ट पेश की, हालाँकि इस पर टाटा-बिरला प्लान का प्रभाव साफ़ देखा जा सकता था। जिसमें उच्च शिक्षा के संचालन के लिए स्वायत्त संस्था के निर्माण की सिफारिश की गयी थी। इसी के आधार पर 1956 में यू.जी.सी की स्थपना की गयी जिसके मातहत उच्च शिक्षण संस्थान को अनुदान देना और इसके अतिरिक्त शिक्षकों की बहाली, व अन्य आधारभूत चीजों का कार्यान्वयन देखना था।

   1950-1960  का समय वह दौर था जब उच्च शिक्षा में आबादी का बहुत छोटा हिस्सा ही पहुँच पाता था। भारत का बुर्जुआ वर्ग अभी इतना मज़बूत भी नहीं हुआ था जो अपने दम पर शिक्षण संस्थान खोल पाता पर साथ ही साथ नेहरू के पब्लिक सेक्टर समाजवाद को भी पनपने के लिए  कुशल पेशेवरों की आवश्यकता थी। अत: परिणाम स्वरूप इस दौरान उच्च शिक्षा पूरी तरह से सरकार के हवाले रही। कई नये विश्वविद्यालय व आईआईटी जैसे संस्थान खोले गये। 1947 में जब केवल 20 विश्वविद्यालय थे जो 1970 के दशक के अन्त तक बढ़कर 100 के करीब हो गये। हालाँकि उस वक़्त भी कुछ चुनिन्दा संस्थानों को छोड़कर ज्यादातर शिक्षण संस्थानों की हालत बहुत अच्छी नहीं थी। उच्च शिक्षा में आने वाले छात्रों की संख्या बढ़ी जरूर पर यह संख्या कुल आबादी के अनुपात में अभी कम ही थी।

एक बार पुन: शिक्षा में किये गये कार्यों का अवलोकन करने के लिए 1964 में डी.एस. कोठारी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय शिक्षा आयोग गठित हुआ, जिसे कोठारी कमीशन के नाम से भी जाना जाता है। इस आयोग का कार्य भारत में शिक्षा के हरेक पहलू का निरीक्षण करना था और इसमें सुधार के लिए सिफारिशें देना था। 1966 मे इसने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी, जिसमें शिक्षा पर जीडीपी का 6 प्रतिशत खर्च करने, पहले से खुले संस्थानों की दशा सुधारने जैसी सिफारिशें की गयी थीं। इस रिपोर्ट की कई सिफारिशें लागू भी की गयीं परन्तु शिक्षा पर खर्च को लेकर तत्कालीन इन्दिरा सरकार मौन ही रही।

1991  में जब उदारीकरण व निजीकरण की नीतियाँ लागू की गयीं तो इसका असर उच्च शिक्षा पर भी पड़ा। अन्य क्षेत्रों में निवेश की सम्भावना खुलने के साथ-साथ भारत का बुर्जुआ वर्ग अब यह चाहने लगा था कि उच्च शिक्षा को भी ‘प्रॉफिट मेकिंग इण्टरप्राइज़’ में बदला जाए। सो, इसकी तैयारियाँ भी शुरू होने लगीं, 1993 में जस्टिस पुनिया और डी.स्वामीनाथन की अध्यक्षता में दो अलग-अलग कमेटियाँ बनी, अगले वर्ष ही 1994 में इन्होने रिपोर्ट यू.जी.सी. को सौंपी जिनमे प्रमुख सिफारिशें थी फ़ीस वृद्धि, स्ववित्त पोषित कोर्स को शुरू करना, स्कॉलरशिप के बदले स्टूडेण्ट लोन की शुरुआत करना आदि। 1995 में राज्य सभा में प्राइवेट यूनिवर्सिटी बिल भी लाया गया परन्तु निजी क्षेत्र के दबाव के कारण पास नहींं हो सका। यह बिल उनकी इच्छा अनुरूप नहीं था, उनपर कई बंदिशे लगाता था। 1997 में वित्त मंत्रालय ने एक दस्तावेज जारी किया जिसमें पहली बार उच्च शिक्षा को ‘नॉन-मेरिट गुड’ की श्रेणी में रखा गया। अब अधिकारिक रूप से शिक्षा खरीदने बेचने वाला एक माल थी, शिक्षा की मूल परिभाषा ही बदल दी गयी। अब विद्यार्थी ग्राहक थे और शिक्षण संस्थान सेवा प्रदाता था।

हद तो तब हुई जब वर्ष 2000 में शिक्षा में निजीकरण को बढ़ावा देने के लिए नीति तैयार करने के लिए मुकेश अम्बानी व कुमारमंगलम बिड़ला की सदस्यता वाली एक समिति ने सरकार को एक रिपोर्ट सौंपी। इसके बाद तो देश भर में निजी विश्वविद्यालयों की बाढ़ सी आ गयी। रोजगार परक कोर्स जैसे इंजीनियरिंग व मेडिकल के लिए कॉलेज धड़ल्ले से खोले गये। चूँकि 2010 तक कई क्षेत्रों में मुनाफे की दर सिकुड़ने लगी थी इसलिए भारत को कॉर्पोरेट वर्ग के लिए यह आवश्यक था कि वह शिक्षा क्षेत्र में प्रवेश करे। यही कारण था कि अज़ीम प्रेमजी, गोयनका और अब मुकेश अम्बानी जैसे बड़े कॉर्पोरेट भी इस खेल में उतरे।

भारत में उच्च शिक्षा के बाजारीकरण के प्रयास वैसे तो पिछले दो दशकों से जारी है। जिसका पहला चक्र यू.पी.ए-1 के शासन काल में तब पूरा हुआ जब तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2005 में दोहा में शिक्षा को डब्लूटीओ-गेट्स समझौते के अन्तर्गत लाने के लिए वार्ता पर सहमति दी थी। इस फैसले की परिणति तब हुई जब वर्तमान प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने दिसम्बर 2017 में नैरोबी में इस समझौते पर दस्तखत किये। यानी अब भारत का शिक्षा बाज़ार देशी-विदेशी दोनों किस्म की पूँजी के लिए खुला हुआ है। इसके अतिरिक्त केंद्र सरकार द्वारा ऐसे कई फैसले लिए गये जिससे उच्च शिक्षा के प्रति उनके रवैये को स्पष्ट तौर पर समझा जा सकता है। वित्तीय स्वायत्तता देने के नाम पर 62 शिक्षण संस्थानों के निजीकरण की साजिश रची गयी। इसके अलावा उच्च शिक्षा के यूजीसी को दिए जाने वाले बजट में कटौती, वैज्ञानिक शोधों के लिए सीएसआईआर को दिये जाने वाले बजट में कटौती की गयी। इसके दुष्परिणाम भी सामने आये, फण्ड की कमी के कारण कुछ शोध परियोजनाएँ बन्द भी करनी पड़ी। लेकिन मौजूदा सरकार इतने पर भी नहीं रुकी है, पिछले दिनों केंद्र सरकार ने यह घोषणा की कि यूजीसी (यूनिवर्सिटी ग्राण्ट  कमीशन) को खत्म कर उच्च शिक्षा की मॉनिटरिंग के लिए एक नयी संस्था एचएसीआई (हायर एजुकेशन कमीशन ऑफ़ इंडिया ) की स्थापना की जाएगी। संसद में इस बार के मानसून सत्र में इससे सम्बन्धित बिल भी पेश किया जायेगा।

हेकी और हेफा, आखिर हैं क्या ?

हेकी यानी हायर एजुकेशन कमीशन ऑफ़ इंडिया एक ऐसा निकाय होगा जो मानव संसाधन मंत्रालय के मातहत कार्य करेगा और इसके पास शिक्षण संस्थानों को मान्यता देने, नियमित करने, विनिवेश करने का अधिकार होगा। यूजीसी के पास अपनी स्वायत्तता थी जबकि हेकी सरकार के मातहत कार्य करेगा। सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि हेकी के पास किसी तरह की आर्थिक शक्तियाँ नहीं होंगी, अर्थात शिक्षण संस्थानों को फण्ड देना इसके अधिकार क्षेत्र में नहीं होगा। अब फण्डिंग देने का काम एक और नयी संस्था हेफा ( हायर एजुकेशन फाइनेंसिंग एजेंसी ) करेगी, नाम से ही स्पष्ट है कि यह नयी संस्था फाइनेंस करेगी, यह शिक्षण संस्थानों को ग्राण्ट नहींं देगी। हालाँकि, हेफा कोई सरकारी संस्थान नहींं है ये आर.बी.आई  के पास कम्पनी एक्ट के अन्तर्गत पंजीकृत एक नॉन बैंकिंग फाइनेंसिंग कम्पनी है। खुद इसकी वेबसाइट पर यह लिखा है कि यह कैनरा बैंक व एम.एच.आर.डी का संयुक्त उपक्रम है।

हेफा की स्थापना के वक़्त इसकी मूल पूँजी 2000 करोड़ थी, जिसे केबिनेट के फैसले के बाद बढ़ाकर अब 10000 करोड़ कर दिया गया है। हेफ़ा के दायरे में पहले जहाँ आई.आई.टी., एन.आई.टी., आई.आई.एस.सी., आईसर आते थे अब इसका दायरा बढ़ाकर केंद्रीय विश्वविद्यालयों को भी इसमें शामिल कर लिया गया है। दरअसल हेफा शिक्षण संस्थानों को अनुदान नहींं बल्कि उधार देगी। यह बाज़ार से कॉर्पोरेट सोशल रेस्पोंसिबिलिटी (सीएसआर) और निजी परोपकारी दानकर्ताओं के जरिये पूँजी इकठ्ठा करेगी और शिक्षण संस्थानों को देगी। परन्तु, इस उधार का मूलधन शिक्षण संस्थानों को खुद ही चुकाना होगा व ब्याज केंद्र सरकार चुकाएगी। यानी जनता का पैसा निजी कोर्पोरेटो को समर्पित कर देगी। उच्च शिक्षा में फंडिंग करने का यह मॉडल अमेरिका के ‘येल मॉडल’ के आधार पर बनाया गया है। जहां उच्च शिक्षा में निवेश सरकार के बदले निजी क्षेत्रों से आता है। इसका यह परिणाम भी निकला है कि अमेरिका में कॉलेज की शिक्षा प्राप्त करना बहुत महँगा हो चुका है। अब इस पूरे खेल को समझिये, इस फैसले से केंद्र सरकार कई चीज़ों पर निशाना साध रही है, अब वह विश्वविद्यालयों पर सीधा नियंत्रण भी कर सकेगी, क्योंकि पिछले कुछ समय से मोदी सरकार की फासीवादी नीतियों के खिलाफ सबसे ज्यादा प्रतिरोध के स्वर  विश्वविद्यालयों से आये है, अब इन सुधारों के जरिये वह इस पर लगाम लगा सकेगी। साथ ही शिक्षण संस्थानों को सीधे-सीधे बाज़ार के हवाले किया सकेगा| इसके लिए सीएसआर जैसा शब्द भी इजाद किया जा चुका है। अब पूँजीवाद में अगर कोर्पोरेट पूँजीपति अगर कहीं पैसा लगाएगा तो  मुनाफा कमाना उसका मुख्य ध्येय होगा। अब तो यह केंद्र सरकार ही समझ सकती है कि बाज़ार और चन्द परोपकारी पूँजीपतियों की “भलमनसाहत” से उच्च शिक्षा का कितना “भला” हो सकता है?

ये सुधार उच्च शिक्षा के लिए विनाशकारी होंगे!

लेकिन यह बात भी उतनी ही सच है कि ज्यादतर निजी शिक्षण संस्थान गुणवत्तापूर्ण शिक्षा उपलब्ध नहींं कराते। एक तरफ बाज़ार के हाथों में उच्च शिक्षा को निजी विश्वविद्यालय कुकुरमुत्ते की तरह खुलते रहे वहीं सरकारी विश्वविद्यालयों की हालत बद से बदतर होती रही। 2014 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 677 विश्वविद्यालय है जिनके अन्तर्गत करीब 37,204 कॉलेज है। लेकिन वास्तविकता में इनमे से ज्यादातर सिर्फ डिग्री देने वाले संस्थान भर है। एक हालिया सर्वे के अनुसार सिर्फ 18  प्रतिशत इंजीनियरिंग स्नातक ही नौकरी कर पाने के लायक है वहीं केवल 5 प्रतिशत अन्य विषयों के स्नातक छात्र नौकरी करने के लायक है। देशभर के विश्वविद्यालयों में करीब 65000  शिक्षकों के पद खाली हैं। राज्य विश्वविद्यालय की बात छोड़ भी दें तो देश के सैंतालीस केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में करीब 47 प्रतिशत शिक्षकों के पद खाली हैं। यहाँ तक की आईआईटी जैसे संस्थानों में भी करीब 40 प्रतिशत पद खाली हैं। ऐसे वक़्त में जब उच्च शिक्षा पर सरकारी खर्चे बढ़ाने की जरूरत है उस वक्त सरकार शिक्षा से विनिवेश की तैयारी  कर रही है।

अब आप ही सोचिये अगर ये प्रस्तावित बदलाव संसद में पास हो गये तो यह कितना भयावह होगा। 12वीं पास करने वाली आबादी का केवल 7 प्रतिशत ही विश्वविद्यालयों की दहलीज़ तक पहुँच पाता है। इन तथाकथित सुधारों के बाद उच्च शिक्षा आम मेहनतकश आबादी की पहुँच से ही दूर हो जाएगी। अब एक उदाहरण लीजिये , बिहार के शिवहर जिला की औसत वार्षिक आय 7000 रु है, बिहार के अधिकतर जिलों की औसत आय 15000 रु से कम ही है। कमोबेश ऐसा ही हाल उड़ीसा और झारखंड जैसे राज्यों का भी है। इन इलाकों से आने वाले छात्रों के लिए यह तथाकथित सुधार विनाशकारी होगा। इन सुधारों के कारण होगा यह कि आर्थिक रूप से पिछड़े  इलाकों से आने वाले छात्र उच्च शिक्षा तक नहींं पहुँचेंगे और बहुत मुमकिन है कि वे असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मजदूर बनेंगे, इस प्रकार ऐसे पिछड़े इलाके उद्योगों के लिए मजदूरों की सप्लाई चेन बन जायेंगे। भारत के छात्र-युवा आन्दोलन के लिए अब यह आवश्यक है कि इसके लिए संगठित हो क्योंकि अब बड़ी छात्र आबादी के लिए अस्तित्व का संकट ही पैदा हो चुका है।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जुलाई-दिसम्बर 2018

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