सबरीमाला के निहितार्थ

राखी नारायण

सबरीमाला मन्दिर में महिलाओं के प्रवेश का मुद्दा केरल में राजनीतिक ध्रुवीकरण का अहम मुद्दा बन रहा है। भाजपा और संघ ने इस मुद्दे के जरिये अपनी ज़मीन को विस्तारित करने का प्रयास किया है। हाल ही में केरल भाजपा अध्यक्ष की फोन पर बातचीत का ऑडियो उजागर हुआ जिसमें वे इस मुद्दे के जरिये राजनीतिक विस्तार की बात कर रहे थे। इस मुद्दे पर तमाम चुनावी और राजनीतिक दलों की अवस्थिति सामने आ रही है। जहाँ भाजपा इसके जरिये अधिक से अधिक अपने प्रचार और हिन्दू भावनाओं को ‘आहत’ कर अपनी राजनीतिक ज़मीन को विस्तारित कर रही है तो वहीं काँग्रेस ने इस मुद्दे में सक्रिय तौर पर मन्दिर में महिलाओं के प्रवेश को बन्द करने की माँग उठाई है। वहीं सीपीएम इस मुद्दे पर कभी मन्दिर में महिलाओं के प्रवेश को मना कर रही थी तो कभी इसपर यह प्रदर्शित कर रही थी कि वे महिलाओं के प्रवेश के समर्थक हैं और अब वे सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस फैसले को लागू करवाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। उनकी अवस्थिति अवसरवादी चुनावी राजनीति के मद्देनज़र हिन्दू भावना को ठेस न पहुँचाने की ही रही है। इस मसले में सबसे ज़्यादा फायदा भाजपा और संघ को मिल रहा है।

भाजपा को एक तरफ जहाँ मुस्लिम महिलाओं के तीन तलाक मुद्दे में महिला सशक्तिकरण नज़र आ रहा था वहीं अब उसको हिन्दू महिलाओं के मन्दिर में प्रवेश जैसे मुद्दे पर धर्म और परम्पराओं में हस्तक्षेप लगता है। इस पूरे मामले में यह भी पूरी तरह स्पष्ट होता है कि असल में बीजेपी सरकार को न तो स्त्रियों से कुछ लेना देना है न ही महिला सशक्तिकरण से, उनका लक्ष्य केवल और केवल धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति करके सत्ता हासिल करना है। बीजेपी-आरएसएस की “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते” संस्कृति पर अगर लिखा जाए तो कई किताबें लिखनी पड़ सकती हैं, आगे हम इसके कुछ उदाहरण भी रखेंगे, फिलहाल हम अपना ध्यान सबरीमाला के मुद्दे पर केन्द्रित करते हैं। फिर भी इस पूरे मामले की पड़ताल करते हुए हम धार्मिक पोंगापन्थ और उसके झण्डाबरदारों यानी बीजेपी-आरएसएस की असलियत को सामने रखने का प्रयास करेंगे। सबरीमाला मुद्दे पर यह स्पष्ट करना जरूरी है कि धार्मिक आचरण करने में भी पुरुषों के समान महिलाओं के अधिकार को स्वीकार करते हुए भी यह बात ज़ोर देकर उठायी जानी चाहिए कि हमारे देश की महिलाओं का सशक्तिकरण एक मन्दिर में प्रवेश करने या न करने से नहींं होने वाला, दरअरसल यह महिला मुक्ति की लड़ाई को धार्मिक पोंगापन्थ के दायरे में ही सीमित करने की एक कोशिश है। वहीं यह सवाल भी उठाया जा रहा है कि क्या लोगों को अपने धर्म के अनुसार पूजा पाठ व मन्दिर में कर्मकाण्ड करने का अधिकार नहीं है। व कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि कुछ मन्दिरों में केवल महिलाओं को जाने की अनुमति है व यह महिला या पुरुष का मसला नहींं बल्कि धार्मिक आचरण का मसला है। यहाँ सवाल यह है कि अगर धार्मिक आचरण मानव अधिकारों और जनवादी अधिकारों के खिलाफ जाएगा तो निश्चित ही ऐसा धार्मिक आचरण गलत है। इस मसले को गहराई से समझने के लिए हमें पहले सबरीमाला के इतिहास को देख लेना चाहिए।

सबरीमाला मन्दिर और सुप्रीम कोर्ट का फैसला

  सबरीमाला मन्दिर केरल में स्थित है। भगवान अय्यप्पा का यह मन्दिर 12वीं सदी में बनवाया गया। इस मन्दिर में 10 से 50 साल की उम्र की महिलाओं का जाना वर्जित है। उसकी मान्यता के हिसाब से मन्दिर में विराजमान भगवान अयप्पा ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले थे, ऐसे मे अगर उनकी नज़र किसी भी बालिग स्त्री या नवयुवती (10 से 50 उम्र की) पर पड़ेगी तो इससे उनका ब्रह्मचर्य भंग हो जायेगा! एक अन्य मान्यता के अनुसार स्त्री अपने मासिक धर्म के दौरान अपवित्र हो जाती है, ऐसे में उन्हें अयप्पा भगवान का दर्शन नहींं करना चाहिए। यह सोच मनुस्मृति को नैतिक शास्त्र मानने वाले ब्राह्मणवादी विचारों की ही अभिव्यक्ति है जिसका अनुपालन संघ करता है। मसलन मनुस्मृति महिलाओं के बारे में यह कहती है:

“धरती पर मनुष्यों को भ्रष्ट करना महिलाओं की प्रकृति है; इसी कारण से, सतर्क पुरुष लापरवाह नहींं होते और लापरवाह महिलाओं के बीच भी लापरवाही नहींं करते … किसी को भी अकेले में अपनी मां, बहन या बेटी के साथ नहींं बैठना चाहिए; क्योंकि संवेदनात्मक शक्तियों के मजबूत समूह के कारण एक विद्वान आदमी भी भटक जाता है। “

इस नैतिकता के चलते भ्रष्ट महिलाओं को पाठ पढ़ाने के लिए सबरीमाला की तरफ जा रही महिला पत्रकारों से आरएसएस के काडर मारपीट कर रहे हैं। ये “महावीर” और उनकी सुर में सुर मिलाती मुख्यधारा मीडिया हमें यह बता रही है कि यह हज़ारों साल पुरानी परम्परा है जिसके समर्थन में एक बड़ी आबादी को एकजुट किया जा रहा है। संघ के तमाम नेता ऐसा दावा कर रहे हैं कि मन्दिर में सदियों पुरानी परम्परा है।  कोर्ट में सबरीमाला मन्दिर के समर्थकों द्वारा दायर की गयी अपील को सुन लेना भी मजेदार है और इस सवाल पर बहस के बाद ही कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया था। इस अपील के अनुसार:

“मन्दिर के मालिक के रूप में ईश्वर को संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत निजता का अधिकार है, जो उन्हें अपने ब्रह्मचर्या का पालन करने का अधिकार देता है … अन्त में ईश्वर को भी अपने धरम का पालन करने का अधिकार है जिस तरह हर व्यक्ति अनुच्छेद 21(1) के तहत कर सकता है।“

दरअसल यही तर्क आज तमाम बहसों में इस्तेमाल हो रहा है। खैर जब देश में एक तरफ 9000 बच्चे रोज़ भूख से मरते हों तब इस तरह के तर्क लोगों को भ्रमित रखने के लिए ज़रूरी होते हैं। सबरीमाला मन्दिर में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबन्ध का इतिहास जानने के लिए अगर हम केरल के क्षेत्रीय अखबारों को और इस मामले में दायर की गयी याचिका को आधार बनायें तो कुछ अलग ही सच्चाई  सामने आती है। सबरीमाला मन्दिर में 1965 तक महिलाओं के प्रवेश पर कोई रोक नहींं थी, उसके बाद पाबन्दी लगने के बावजूद पारम्परिक रीति-रिवाजों जैसे कि दुधमुँहे बच्चे के पहले अन्न पारण्ड की रस्म निभाने माताएँ अपने बच्चों को लेकर जाती थीं। इसके अतिरिक्त और भी ऐसे उदाहरण हैं जब यह बात सामने आती है कि उच्च वर्ग की महिलाएँ वहाँ जाया करती थीं। इसके अलावा मन्दिर में बहुत बार अभिनेत्रियों के साथ फ़िल्म शूटिंग होती रही है।  इन विशेष महिलाओं का प्रवेश-वर्जित केवल 1990 के बाद ही लगाया गया जब 1990 में एस महेन्द्रनाथ की दायर याचिका पर 1991 में केरल उच्च न्यायालय ने सभी महिलाओं और 10 से 15 साल की लड़कियों के प्रवेश पर भी रोक लगा दी। ऐसे में यह बातसाफ हो जाती है कि यह कोई सदियों पुरानी परम्परा नहींं है जिसकी रट लगाकरआरएसएस और बीजेपी अपनी राजनीति कर रहे हैं। इसके अलावा अगर यह सदियों पुरानी परम्परा भी होती तो भी आज ऐसी सड़ी गली परम्पराओं की सही जगह कूड़ेदान ही हो सकती है।

     धार्मिक मामलों में स्त्रियों के साथ भेदभाव कोई नयी बात नहींं है, सभी प्रमुख धर्मों ने स्त्रियों को दोयम दर्जे का माना है। मनुस्मृति से लेकर तुलसीदास तक के लेखन में जातिवादी और पितृसत्तात्मक ज़हर मौजूद रहा है। यह मामला इतने आश्चर्य की बात भी नहींं है क्योंकि इस देश में ब्राह्मणवादियों ने हजारों सालों से शूद्रों का मन्दिर में प्रवेश वर्जित रखा है जो आज भी देश के कुछ हिस्सों में देखने को मिल सकता है। फिलहाल सबरीमाला इकलौता मन्दिर नहींं है जहाँ स्त्रियों के साथ दोयम  दर्जे का व्यवहार किया जाता है, हिन्दू और मुसलमान दोनों ही धर्मों में ऐसी बहुत सारी धार्मिक विधियाँ और नियम है जिनके तहत महिलाओं को बहुत सारे कर्मकाण्ड करने से रोका जाता है और उन पर पुरुष प्रधानता थोपी जाती है। अगर प्रवेश पर ही चर्चा करें तो सबरीमाला के अलावा और भी ऐसे कई धार्मिक स्थल है जहाँ उनका जाना वर्जित है। उनमें से कुछ हैं- पुष्कर का कार्तिकेय मन्दिर, असम का पटबौसीसत्र मन्दिर, तिरुवनन्तपुरम का पद्मनाभ स्वामी मन्दिर के मुख्य भाग में महिलाओं के जाने की मनाही, असम के कामाख्या मन्दिर में मासिक धर्म के दौरान महिलाओं के प्रवेश पर रोक, महाराष्ट्र के शनि शिंगणापुर मन्दिर 2016 के पहले महिलाओं के प्रवेश पर रोक  आदि। ऐसे ही कुछ मस्जिद और दरगाह भी हैं जहाँ महिलाएँ नहींं जा सकती जैसे कि दिल्ली की निजामुद्दीन दरगाह, श्रीनगर की हज़रतबल दरगाह आदि। ऐसे ज्यादातर मन्दिरों में प्रवेश न देने का मुख्य कारण एक ही दिया जाता है कि मासिकधर्म में महिलाएँ अशुद्ध हो जाती हैं। यह मान्यता अपने आप में कितनी अवैज्ञानिक, अप्राकृतिक और घोर स्त्री-विरोधी है यह समझा जा सकता है। ऐसे  में आज महिलाओं को यह तय करने की जरूरत है कि क्या एक धार्मिक स्थल में उनको प्रवेश मिल जाने मात्र से इस समाज में उनको बराबरी मिल सकती है?

ऐसी सैकड़ों स्त्रीविरोधी मान्यताओं से अलग-अलग लड़ने की बजाय इनका पोषण करने वाली सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को समझना बेहद जरूरी है।  जिस सामाजिक व्यवस्था और जिन मान्यताओं ने स्त्रियों को दोयम दर्जे का बनाकर रखा, उनको अपवित्र समझा, उनको पुरुषों के अधीन समझा, मुक्ति के मार्ग में बाधा समझा, घूँघट में रहने योग्य समझा, चूल्हे-चौकी की सीमाओं में बाँधे रखा उससे कुछ दया याचना करने या उसके चरणों मे स्थान पाने की विनती करने की बजाय उन मान्यताओं और पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था को तोड़ने की लड़ाई लड़ना ज्यादा बेहतर होगा। अगर हमें इन कुरीतियों से मुक्ति चाहिए तो इसकी जड़ को ही खोदकर आगे बढ़ने से कम कोई भी माँग काफ़ी नहींं होगी। इस सामाजिक आर्थिक व्यवस्था के अन्दर लोगों की दोयम जीवन परिस्थिति ही धर्म का आधार है।

सबरीमाला के जरिये भाजपा का राजनीतिक दाँव

सबरीमाला मन्दिर में महिलाओं के प्रवेश का विरोध करने के दौरान कई महिला पत्रकारों को पीटने के बाद विश्व हिन्दू परिषद के सन्त ने कहा कि सबरीमाला दक्षिण का अयोध्या साबित होगा। और भाजपा इस में कोई कसर नहींं छोड़ रही है। यह पूरा प्रकरण बीजेपी और आरएसएस का केरल में (जहाँ सी.पी.एम. और कांग्रेस का ही आधार है) अपने को धर्मरक्षक और धार्मिक परम्पराओं के रक्षक के रूप में स्थापित कर अपनी पहुँच बनाने की कोशिश है। आज इनके समर्थक कहते हैं कि “अगर कोई महिला मन्दिर में प्रवेश करेगी तो उसको दो फाड़ में चीर देंगे, एक फाड़ दिल्ली में फेकेंगे और दूसरा मुख्यमंत्री दफ्तर के सामने”। दरअसल बीजेपी इस समय खुद को काफी असुरक्षित महसूस कर रहीहै।  देश के अलग-अलग हिस्सों में किसान मज़दूर सड़कों पर उतर रहे हैं, महँगाई पर सरकार की किरकिरी हो रही है, बेरोजगारी चरम पर है, बैंक डूब रहे हैं, उत्पादन उद्योग कम क्षमता पर काम कर रहे हैं, रफाल की हड्डी न निगलते बन रही न उगलते, ऐसे में बीजेपी और संघ कुछ ऐसे मुद्दों को हवा देने की कोशिश कर रहे हैं जो एक तरफ लोगों का ध्यान इन जरूरी मुद्दों से भटकाये तथा दूसरी तरफ इनके पक्ष में राजनीतिक ध्रुवीकरण भी करें। विजयदशमी पर संघ प्रमुख के राम मन्दिर के ऊपर बयान और सबरीमाला में संघ बीजेपी के बदले तेवर को इसी रोशनी में समझा जा सकता है। इसमें यह बात भी ध्यान देने वाली है कि सिर्फ बीजेपी ही नहींं बल्कि कांग्रेस भी महिलाओं के प्रवेश के विरुद्ध खड़ी है और वहाँ हिंसक प्रदर्शन करने वाले लोगों के साथ है। कांग्रेस ऐसा इसलिए कर रही है क्योंकि सत्ता में काबिज लेफ्ट पार्टी के बाद सबसे प्रमुख पार्टी कांग्रेस ही है और केरल में अबतक दक्षिणपन्थी राजनीति का कार्यभार उसने ही उठाया है, ऐसे में केरल में घुसने की कोशिश कर रही बीजेपी से अपना आधार बचाने के लिए कांग्रेस वही अवस्थिति ले रही है। ऐसे में यह बात ठीक से समझ लेनी चाहिए कि इन चुनावी पार्टियों को महिला मुक्ति या दलित मुक्ति से कोई लेना देना ही नहींं है इनके लिए सत्ता प्राप्ति के लिए जो फायदे मन्दलगता है वही अवस्थिति अपनाते हैं और फायदे के लिए उसको बदल भी लेते हैं।

बीजेपी-आर.एस.एस. की “यत्र नार्यस्त पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता” संस्कृति की मिसाल ये लोग खुद ही बीच-बीच मे देते रहते हैं। ये वही लोग हैं जो बलात्कारियों के समर्थन में रैलियाँ निकालते रहे हैं, जिनके नेता सेक्स-स्कैंडलों में पकड़े जाते रहे हैं, जिनके नेता यह बयान देते हैं कि “औरतों को आज़ादी चाहिए तो वे नंगा घूमें” , जिनके समर्थक यह कहते हैं कि “अगर कोई औरत सबरीमाला मन्दिर में गयी तो उसको दो फाड़ चीर देंगे..”, जिनके नेता कहते हैं कि “महिलाएँ स्वतंत्रता के काबिल नहींं हैं”! संघियों  और भाजपा समर्थकों द्वारा सबरीमाला मुद्दे पर रिपोर्टिंग करने पहुँचीं महिला पत्रकारों को मारा-पीटा  जाता है, ये वही पार्टी है जो दिल्ली में जनवादी अधिकारों के लिए विरोध प्रदर्शन करने वाली लड़कियों के खिलाफ पुरुष पुलिस भेजकर उनके साथ अभद्रता करवाती है। ऐसे सैकड़ों उदाहरण इनकी महिलाओं के प्रति घिनौनी सोच  को उजागर करते हैं। ये ब्राह्मणवादी और पूँजीवादी शासक वर्ग के सबसे बड़े प्रतिनिधि हैं जिनके अन्दर पितृसत्ता का मवाद भरा हुआ है। इससे पहले कि ये मवाद रिस-रिस कर महामारी बन जाये महिलाओं को इन्हें ठिकाने लगाने की जरूरत है।  हमें समझना होगा कि महिला मुक्ति का रास्ता पिंजरे में बदलाव करके नहींं बल्कि उस पिंजरे को तोड़कर आएगा।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जुलाई-दिसम्बर 2018

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