मोदी सरकार के दो साल: जनता बेहाल, पूँजीपति मालामाल
सम्पादक मण्डल
16 मई 2016 को मोदी सरकार के दो वर्ष पूरे हो गये। इन दो वर्षों में नरेन्द्र मोदी औसतन हर सप्ताह में एक दिन विदेश दौरे पर रहे। इसमें अमेरिका के चार दौरे प्रमुख थे। इन दो सालों में मोदी ने ओबामा से सात मुलाकातें कीं और अमेरिकी राष्ट्रपति को ‘‘बराक-बराक’’ बोलकर भारतीय मीडिया और यहाँ के भयंकर अज्ञानी मध्य वर्ग के सामने अपने आपको ऊँचा दिखाने का प्रयास किया। लेकिन पता नहीं कैसे हर बार इन प्रयासों के कारण मोदी का मज़ाक ही उड़ा। अमेरिका के बार-बार दौरों से ऐसा मालूम पड़ रहा था कि पहले अमेरिका ने गुजरात दंगों के कारण मोदी को वीज़ा देने से जो इंकार किया था और उस समय अमेरिका जाने की जो हसरत मोदी के दिल में दबी रह गयी थी, उसे मोदी मचल-मचल कर पूरा कर रहे थे! मोदी एक मामले में तो तमाम प्रधानमंत्रियों से आगे निकल ही गये हैं। आज़ाद भारत के इतिहास में अपनी मूर्खता और अज्ञान के लिए किसी प्रधानमंत्री का इतना मज़ाक नहीं बना है, जितना कि मोदी का बना है। मगर एक मामले में मोदी की बुद्धि बुलेट ट्रेन की रफ्तार से चलती है! कारपोरेट घरानों, विदेशी पूँजी, बड़े दुकानदारों और समूचे पूँजीपति वर्ग की आक्रामक अंदाज़ में खिदमत करने और मज़दूरों और आम मेहनतकशों की जेब से आखिरी चवन्नी तक उड़ा लेने में मोदी ने अपने सभी पूर्ववर्तियों को पीछे छोड़ दिया है।
इन दो वर्षों में मोदी सरकार के कारनामों पर अगर एक सरसरी निगाह डाली जाय तो यह बात साफ़ हो जाती है। इसके लिए आइये सबसे पहले मोदी सरकार के दो बजटों पर एक संक्षिप्त निगाह डालते हैं। 2015 के बजट में मोदी सरकार ने घोषणा की कि प्रत्यक्ष करों में कटौती के कारण सरकारी खजाने को रु. 8415 करोड़ का घाटा हुआ था जबकि अप्रत्यक्ष करों में बढ़ोत्तरी के कारण सरकार को रु. 23,383 करोड़ का लाभ हुआ था। 2016 में प्रत्यक्ष करों में कटौती के कारण सरकारी राजस्व को रु. 1060 करोड़ का घाटा हुआ और अप्रत्यक्ष करों में बढ़ोत्तरी के कारण रु. 20,670 करोड़ का लाभ हुआ। यानी कि दोनों वर्षों में अप्रत्यक्ष करों में रु. 44,053 करोड़ की बढ़ोत्तरी हुई जबकि प्रत्यक्ष करों में रु. 9,375 करोड़ की कमी हुई। जैसाकि हम सभी जानते हैं, अप्रत्यक्ष कर मुख्य रूप से आम जनता देती है, जबकि प्रत्यक्ष कर मुख्य रूप से कारपोरेट घराने, पूँजीपति और अमीर वर्ग देते हैं। जो जितना धनी होता है, कानूनन उसे उतना ज़्यादा प्रत्यक्ष कर देना होता है। ज़ाहिर है, कि मोदी सरकार ने धनिक वर्गों को प्रत्यक्ष करों के बोझ से भारी छूट दी है। इसके अलावा, मोदी सरकार ने तमाम पूँजीपतियों को विभिन्न करों, शुल्कों आदि से पहले ही भारी छूट दे रखी है। दूसरी ओर आम मेहनतकश लोगों की मेहनत की लूट को बढ़ाने में अप्रत्यक्ष करों में भारी बढ़ोत्तरी कर मोदी सरकार ने पूँजीपति वर्ग की भारी मदद की है। महँगाई बढ़ने के तमाम कारणों में से एक अप्रत्यक्ष करों में लगातार की जा रही बढ़ोत्तरी भी है। इन कदमों से देश में पैदा हो रही सम्पदा को लगातार अमीरों की तिजोरियों में स्थानान्तरित किया जा रहा है जबकि ग़रीबों की जेब काटने का काम हो रहा है।
2015-16 में मोदी सरकार ने कारपोरेट घरानों को जो कर छूटें दीं उनका आँकलन किया जाय तो हम पाते हैं कि इससे सरकारी खजाने को करीब 69 हज़ार करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। इस रकम से राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तीन वर्ष की धनराशि जुटायी जा सकती थी। कस्टम शुल्क से जवाहरात और आभूषण उद्योग को करीब 61 हज़ार करोड़ रुपये की छूट दी गयी है। इस वर्ष के बजट में स्पष्ट कर दिया गया है कि सरकार तमाम पब्लिक सेक्टर सम्पत्तियों को विनिवेश और निजी खरीद के लिए खोल देगी, जिनमें कि ज़मीन भी शामिल है। विशालकाय तेल कारपोरेशनों को भारी छूटें तोहफे में दी गयी हैं। वहीं खाद्यान्न व्यापार, रक्षा, बैंक आदि समेत 15 प्रमुख क्षेत्रों को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए खोल दिया गया है। इतनी बेशरमी और नंगई से पल्टी मारने में भी मोदी पहले प्रधानमंत्री साबित हुए हैं। अभी दो वर्ष पहले ही मोदी ने खुदरा व्यापार में 50 प्रतिशत से ज़्यादा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की आज्ञा देने के लिए कांग्रेस-नीत संप्रग सरकार को काफ़ी खरी-खोटी सुनायी थी और जनता के सामने वायदा किया था कि वह अन्तिम साँस तक एफडीआई के विरुद्ध लड़ेंगे। लेकिन अब उसके बारे में मोदी सरकार और संघ परिवार ने चुप्पी साध ली है। संघियों के स्वदेशी जागरण मंच का क्या हुआ, इसके बारे में भी कोई कुछ नहीं बोल रहा है। ज़ाहिर है, तमाम फासीवादियों की तरह हमारे देश के साम्प्रदायिक फासीवादी भी झूठ बोलने की तकनीक और जनता के ‘भूलने की शक्ति’ पर काफ़ी निर्भर कर रहे हैं।
खाद्यान्न की खरीद के मामले में मोदी सरकार ने ‘विकेन्द्रीकरण’ का नारा बुलन्द किया है। यानी कि अब भारतीय खाद्य निगम द्वारा केन्द्रीकृत खाद्यान्न खरीद की व्यवस्था को भंग कर इसे राज्य सरकारों और साथ ही निजी क्षेत्र के हवाले किया जायेगा। संप्रग सरकार ने पहले ही सार्वजनिक खाद्य वितरण प्रणाली के अन्तिम संस्कार का इन्तज़ाम कर दिया था; भाजपा की मोदी सरकार बस उसी काम को पूर्णता तक पहुँचा रही है कहा जाये तो मुर्दे को फूँकने का काम कर रही है। इसी क्रम में मोदी सरकार ने कृषि उत्पादों के विपणन की ई-मार्केटिंग का रास्ता खोलकर एग्री. बिज़नेस कम्पनियों और इस क्षेत्र की विशालतम इजारेदार कम्पनियों के लिए बेरोक-टोक मुनाफ़ाखोरी और जनता के लिए भयंकर खाद्यान्न असुरक्षा का रास्ता खोल दिया है।
इसके साथ ही मोदी सरकार ने अपने ‘बिग बैंग एफडीआई सुधारों’ में 15 क्षेत्रों को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए खोल दिया है। इसमें बैंकिंग, सिंगल ब्राण्ड रीटेल, रक्षा, निर्माण, ब्रॉडकास्टिंग, नागरिक उड्डयन, फार्मास्यूटिकल जैसे रणनीतिक आर्थिक क्षेत्र शामिल हैं। जहाँ एक ओर यह सच है कि एफडीआई के कारण छोटी पूँजी की तबाही पर विधवा-विलाप करना हमारा कार्य नहीं है, वहीं यह भी सच है कि फार्मास्यूटिकल और खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश से लम्बे दौर में महँगाई में बढ़ोत्तरी होगी। इससे छोटे व्यापारियों का एक वर्ग सड़क पर आयेगा। लेकिन यह भी सच है कि छोटे व्यापारियों का यह वर्ग अभी मज़दूर और आम मेहनतकश आबादी को लूटने-खसोटने में किसी भी रूप में इज़ारेदार कम्प़नियों से पीछे नहीं रहा है, बल्कि हर प्रकार के विनियमन से बच पाने के कारण और मुनाफ़े के मार्जिन के कम होने के कारण वह आम मेहनतकश आबादी को ज़्यादा बेशरमी से लूटता है। कहने की आवश्यककता नहीं है कि इस प्रश्न पर तमाम वामपन्थियों की अवस्थिति आर्थिक तौर पर सिस्मोंदिवाद और नरोदवाद का मिश्रण पेश करती है। निश्चित तौर पर, कोई भी प्रगतिशील और क्रान्तिकारी व्यक्ति देशी-विदेशी पूँजी को खुली छूट दिये जाने के तमाम कदमों (जिसमें एफडीआई और एफआईआई शामिल हैं) का विरोध करेगा; लेकिन उसकी अवस्थिति सर्वहारावर्गीय अवस्थिति होगी न कि टुटपुंजिया वर्गों का स्यापा, जो कि पूँजीवाद का खेल तो खेलना चाहते हैं लेकिन उसके इस नियम से छूट चाहते हैं कि बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है। वास्तव में, जब इन छोटे और मँझोले व्यापारियों को अपने से छोटे व्यापारियों को निगलने का अवसर मिलता है तो वे कभी शिकायत नहीं करते हैं; तब वे बराबरी वालों में प्रतिस्पर्द्धा के सिद्धान्त का वास्ता नहीं देते हैं। अपने से छोटी पूँजी को निगल जाना वे अपना दिव्य अधिकार समझते हैं। मगर अपने से बड़ी पूँजी से वे सरकार द्वारा संरक्षण चाहते हैं। ऐसे में, हमारी अवस्थिति उनकी छोटी पूँजी की रक्षा की नहीं हो सकती है। हमारी अवस्थिति यह प्रचार करने की होनी चाहिए कि हम तमाम टुटपुंजिया वर्गों को भी यह बतायें कि पूँजीवाद के तहत उनकी यही नियति है। वे इससे बच नहीं सकते। केवल इस नियति को कुछ टाल सकते हैं। यही सच भी है। इसलिए हमारा प्रचार सर्वहारा अवस्थिति को अपनाने के लिए होना चाहिए।
बहरहाल, मोदी सरकार के दो वर्षों में उपरोक्त आर्थिक नीतियों के कारण आम मेहनतकश जनता को अभूतपूर्व महँगाई का सामना करना पड़ रहा है। इन दो वर्षों में ही रोज़गार सृजन में भारी कमी आयी है और साथ ही बेरोज़गारों की संख्या में भी खासा इज़ाफ़ा हुआ है। मज़दूरों के शोषण में भी तेज़ी से बढ़ोत्तरी हुई है क्योंकि मन्दी के दौर में मज़दूरों को ज़्यादा निचोड़ने के लिए जिस प्रकार के खुले हाथ और विनियमन की पूँजीपति वर्ग को ज़रूरत है, वह मोदी सरकार ने उन्हें देनी शुरू कर दी है। कृषि क्षेत्र भी भयंकर संकट का शिकार है। यह संकट एक पूँजीवादी संकट है। साथ ही, सरकारी नीतियों के कारण ही देश कई दशकों के बाद इतने विकराल सूखे से गुज़र रहा है। इन सभी कारकों ने मिलकर व्यापक मज़दूर आबादी और आम मेहनतकश जनसमुदायों के जीवन को नर्क बना दिया है। यही कारण है कि मोदी सरकार ने हाफपैण्टिया ब्रिगेड को दो चीज़ों की पूरी छूट दे दी है: पहला, सभी शैक्षणिक, शोध व सांस्कृतिक संस्थानों को खाकी चड्ढीधारियों के नियंत्रण में पहुँचा दिया है ताकि देशभर में आम राय के निर्माण के प्रमुख संस्थान संघ परिवार के हाथ में आ जायें और दूसरा, देश भर में आम मेहनतकश अवाम के भीतर इस भयंकर जनविरोधी सरकार के प्रति विद्रोह की भावना न पनपे इसके लिए उन्हें दंगों, साम्प्रदायिक तनाव, गौरक्षा, घर-वापसी जैसे बेमतलब के मुद्दों में उलझाकर रखने के प्रयास जारी हैं। यह रणनीति फिलहाल आंशिक तौर पर काम कर रही है। इसका एक कारण यह भी है कि क्रान्तिकारी वाम अपने कठमुल्लावाद और लकीर की फकीरी की अपनी प्रवृत्ति के कारण इसका कोई पुरज़ोर और कारगर जवाब नहीं दे पा रहा है। लेकिन फिर भी ऐसी चालें लम्बी दूरी में कामयाब नहीं होती हैं। इस मामले में भी मोदी सरकार की ये चालें कामयाब नहीं हो पायेंगी और आने वाले समय में यह देश के इतिहास की सम्भवत: सबसे अलोकप्रिय सरकार साबित होगी। ऐसे में, सत्तासीन फासीवादी और ज़्यादा हताशा में जायेंगे और इतिहास बताता है कि हताश और असफल होते फासीवादियों से खतरनाक और कोई नहीं होता। इसलिए हम मोदी सरकार की बढ़ती अलोकप्रियता को देखकर तमाशबीनों की तरह ताली बजायेंगे, तो बुरी तरह फँसेंगे। बेहतर होगा कि हम मोदी सरकार के ज़रिये पूरी पूँजीवादी व्यवस्था के विश्वव्यापी अवसान को जनसमुदायों के समक्ष स्पष्ट करें और यह भी स्पष्ट करें कि पूँजीवाद इतिहास का अन्त नहीं है। विकल्प का प्रश्न ही आज का सबसे बड़ा प्रश्न है और हमारा भविष्य काफ़ी हद तक इस विकल्प के निर्माण पर निर्भर करता है। l
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मई-जून 2016
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