पेशावर की चीख़ें

अनन्त

पिछला साल एक बार फिर इंसानियत और इंसाफ़ व तरक्कीपसन्द अवाम के लिए दिल दहला देने वाला रहा। अवाम के सपनों की लूट जारी रही, नदियों की कलकल आवाज़ मरती रही, चिड़ियों की आवाज़ जंगलों के नष्ट होने से घुटती रही, ग़ाज़ा से लेकर पेशावर तक हमारी चीख़ें और हमारे बच्चों की किलकारियाँ दफ्न होती रहीं। पूँजीवाद के संकट से पैदा होने वाले फ़ासीवादियों और धार्मिक कट्टरपन्थियों ने रक्तरंजित खेल जारी रखा। विगत 16 दिसम्बर की तारीख़ सिर्फ़ पाकिस्तान के लिए ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के लिए दिल दहला देने वाली तारीख़ थी। इस दिन सुबह के दस बजे पाकिस्तान के पेशावर शहर के एक आर्मी स्कूल पर आतंकवादियों ने हमला बोल दिया। इस हमले में 132 बच्चों समेत 162 लोग मारे गये और 100 से भी ज़्यादा लोग ज़ख्मी हुए। ज़ख्मी लोगों में ज़्यादातर की हालत गम्भीर है। इस जघन्य घटना में हमलावरों ने तीन-तीन साल के छोटे बच्चों को भी नहीं छोड़ा। बच्चों को बचाने आयी एक शिक्षिका को ज़िन्दा जला दिया। प्रत्यक्षदर्शियों के मुताबिक़ सात आतंकवादी पाकिस्तानी सैन्य वर्दी में भारी हथियारों से लैस होकर स्कूल परिसर में घुस आये और लोगों पर गोलियाँ बरसाना शुरू कर दिया। घटना को अंजाम देने के बाद उन्होंने अपने आपको धमाके में उड़ा लिया।

pakistan2दुनिया भर के तमाम नेताओं-मन्त्रियों ने इस घटना की निन्दा की है। एक बार फिर पूँजीवादी मीडिया “आतंकवाद-आतंकवाद” का शोर मचने लगा है। दुनिया की सबसे बड़ी “चुनौती” पर मोदी से लेकर ओबामा तक ने कमर कसने की बात कही। सभी ने एक स्वर में कहा कि अन्तरराष्ट्रीय समुदाय को आतंकवाद की हर कारवाई से लड़ना होगा। गुजरात दंगों में हज़ारों बेगुनाहों का क़त्ल करके एक आबादी को कई सालों से आतंक के साये में एक अनकहा नस्लभेदीकरण कर जीने के लिए मज़बूर करने वाले भारत के “माननीय” प्रधानमन्त्री श्री नरेन्द्र मोदी ने भी घटना पर घड़ियाली आँसू बहाते हुए अफ़सोस ज़ाहिर किया। भारतीय संसद ने इस पर एक मिनट का मौन रखा। आतंकवाद विरोधी मुहिम के नाम पर बच्चों समेत सैकड़ों बेगुनाहों पर ड्रोन से हमले करवानेवाले श्रीमान ओबामा भी इस घटना से बड़े “आहत” हैं।

बीता साल पूरी दुनिया में मासूम बच्चों की हत्या के लिहाज से इस सदी का एक काला अध्याय है। इस घटना में जहाँ 132 बच्चे मारे गये वहीं गाज़ा पर हमले के 50 दिनों के दौरान जियनवादी फ़ासिस्टों ने दो हज़ार से भी अधिक लोगों को मौत के घाट उतार दिया जिनमें 504 बच्चे थे। सीरिया और इराक में इस्लामिक स्टेट का ताण्डव अभी भी जारी है। अब तक हज़ारों परिवार उनकी बर्बरता के शिकार हो चुके हैं। सैकड़ों बच्चे मारे जा चुके हैं और हज़ारों अनाथ हो चुके हैं। मोसुल से लेकर कोबानी तक और विशेषकर यजीदियों और कुर्दों के साथ आईएस के आतंकियों ने जो बर्बरता दिखायी है इतिहास में वैसी मिसालें बहुत कम मिलेंगी।

ऐसे में बरबस यह सवाल उठता है कि ऐसी घटनाओं के पीछे आख़िर क्या वजह है? क्यों ऐसे क़त्लेआम का दौर दुनिया भर में छाया हुआ है? क्या इनका कारण महज़ कुछ लोगों की धार्मिक अन्धता है? या कुछ और? इन सवालों के जवाब सिर्फ़ सतही घटना का विश्लेषण मात्र से नहीं मिल सकता। हमें इसके पीछे की सच्चाई को देखना होगा। हमें इन सवालों को ही दूसरे तरीक़े से समझना होगा। इन सवालों को घटना विशेष के अलग-अलग सन्दर्भों में ही नहीं बल्कि मौजूदा वैश्विक सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक सन्दर्भों में समझना होगा। हमें यह समझना होगा कि धार्मिक कट्टरपन्थ और धार्मिक साम्प्रदायिक आतंकवाद के नये फ़ासिस्टी दानव के दुनिया के विभिन्न हिस्सों में प्रचण्ड उभार के मूल कारण क्या हैं? दुनिया भर में हो रहे ऐसे क़त्लेआम तथा हमारे अपने देश में मौजूदा मोदी सरकार तथा इनके लग्गुओं-भग्गुओं द्वारा हर जगह कराये जा रहे छोटे-बड़े दंगे “घर-वापसी”, “लव-जिहाद”, “धर्म-परिवर्तन” आदि को एक-दूसरी से जुड़ी कड़ियों के रूप में समझना होगा। इसे समझने के बाद ही इससे निजात पाने के वास्तविक और व्यावहारिक रास्ते की सही समझदारी हासिल की जा सकती है।

यह सच है कि प्रगति में गतिरोध के समय काल में, परिवर्तनकारी सामाजिक शक्तियों के व्यापक प्रभाव की अल्पता के समय में, वर्गीय समाज की शोषणकारी प्रतिक्रियावादी ताक़तें सम्पूर्ण सामाजिक-राजनीतिक जीवन पर हावी हो जाती हैं और तर्कणा का स्थान कूपमण्डूकता व तद्जनित साम्प्रदायिक नफ़रत ले लेती है। ऐसे समय में पुनरुत्थानवादी ताक़तें लोगों के बीच पहले से मौजूद पुराने अतार्किक सांस्कृतिक-धार्मिक आग्रहों को हवा देकर लोगों को पीछे की ओर लौटने का रास्ता सुझाती हैं। लोग विज्ञान से विमुख हो धर्म और अन्धविश्वास की शरण की ओर जाने लगते हैं। ऐसे में शासक वर्ग तरह-तरह से धार्मिक कट्टरपन्थ की राजनीति को हवा देकर अपना उल्लू् सीधा करने के लिए जनता को धार्मिक आधार पर बाँटता है। परन्तु यह धार्मिक कट्टरतावाद और इससे पैदा हुआ आतंकवाद हमेशा पूँजीवादी शासक वर्ग के नियन्त्रण में नहीं रहता है और कई बार यह ख़ुद साम्राज्यवाद या देशी पूँजीवाद के लिए ही ख़तरा बन जाता है। ऐसे में अन्धी महत्वाकांक्षाओं और धार्मिक अन्धता के मद में चूर धार्मिक कट्टरपन्थी आतंकवाद न केवल शासक वर्गों के लिए समस्या पैदा करता है बल्कि वह हर प्रगतिशील मानवीय मूल्य के लिए ख़तरा बन जाता है तथा जनता का दुश्मन भी बन जाता है। निश्चित तौर पर, शासक वर्ग को ख़तरा वास्तव में उसकी सत्ता को ख़तरा होता है। लेकिन जनता के लिए यह ख़तरा एक अस्तित्व और जीवन का प्रश्न बन जाता है।

शासक वर्ग इन परिस्थितियों में आतंकवाद-विरोधी युद्ध के नाम पर जिस कार्यवाही को अंजाम देता है, वह भी आम जनता को ही अपना निशाना बनाती है। पूँजीवाद के प्रारम्भिक दौर के बाद से ही इसके लिए धर्म एक रक्षक की भूमिका निभाता रहा और पूँजीवाद ने भी इसे समाज में इसलिए बनाये रखा कि इसकी मौजूदगी के कारण लोगों को तर्कणा से दूर रखा जा सकता है और वर्तमान समाज के खुले और नंगे अन्याय और असमानता के लिए वैधीकरण निर्मित किया जा सके। यह किसी भी शोषणकारी व्यवस्था को बने रहने के लिए ज़रूरी होता है। विश्व पूँजीवाद के असमाधेय ढाँचागत संकट के इस दौर में पूँजीवादी जनवाद का सामाजिक दायरा काफ़ी संकुचित हुआ है। समाज में तरह-तरह की निरंकुश स्वेच्छाचारी प्रवृत्तियों के फलने-फूलने की मुफ़ीद ज़मीन तैयार हुई है। धार्मिक कट्टरता की चहुँमुखी बढ़ोत्तरी का यह एक अहम कारण है। जहाँ तक धर्म का सवाल है, पूँजीवादी समाज में इसने एक नया आधार प्राप्त किया है। जब तक समाज में शोषण, उत्पीड़न, दमन, ग़रीबी, मुफ़लिसी, बेरोज़़गारी कायम रहेगी तब तक धार्मिक व अन्य प्रकार के कट्टरपन्थ के पैदा होने की ज़मीन भी उपजाऊ बनी रहेगी। ज़िन्दगी की बदहाली से थकी हुई और इस बदहाली के वास्तविक कारणों को समझने में नाकाम जनता के लिए शासक वर्ग के अलग-अलग हिस्से अलग-अलग कल्पित शत्रुओं को आसानी से पैदा करते रहते हैं। शासक वर्ग को अपना शासन बनाये रखने के लिए इस बात की दरकार होती है कि आम मेहनतकश जनता को अलग-अलग आधारों पर बाँटे रखा जाये। धार्मिक कट्टरपन्थ जनता की वर्गीय एकजुटता को तोड़ता है और उसके जनवादी अधिकारों पर चोट करता है।

अब पाकिस्तान में घटी घटना-विशेष पर आते हैं। पाकिस्तान समय-समय पर तालिबानी आतंकवाद का शिकार होता रहा है। तालिबानी आतंकवाद सिर्फ़ पाकिस्तान का ही नहीं बल्कि पूरे विश्व मीडिया में चर्चा का विषय रहा है। इस इस्लामिक आतंकवाद की जड़ पाकिस्तानी राज्य और उसके प्रतिक्रियावादी शासक वर्ग के ऐतिहासिक और रणनीतिक चरित्र में निहित है जोकि उत्पीड़क शासन के रथ के चक्के को चलाने के लिए इस्लामिक कट्टरपन्थ पर निर्भर करता है। एक तरफ़ जहाँ पाकिस्तान तालिबान पर कार्रवाई के नाम पर लाखों लोगों को उनके घर से बेघर करता है वहीं दूसरी तरफ़ क़त्ल और दूसरे संगीन अपराधों के अपराधी सही-सलामत छोड़ दिये जाते हैं। हत्यारों पर अदालत में फूलों की बारिश की जाती है, उन्हें माला पहनायी जाती है। आरोपियों पर शायद ही मुक़दमा चलाया जाता है। न्यायपालिका में बैठी आलाकमान ख़ुद ही इन धार्मिक जिहादी पन्थों के अनुयायी हैं। 1970-80 के दशक में जनरल ज़िया-उल-हक के शासन काल में इस्लामिक क़ानून लादा गया और सरकारी कर्मचारियों को रोज़़ाना पाँच बार नमाज़ अदा करना अनिवार्य बना दिया गया।

पाकिस्तान के इस इस्लामीकरण में अमेरिकी साम्राज्यवाद के इशारे पर आईएसआई द्वारा सीआईए और सउदी ख़ुफ़िया एजेंसी की निगरानी में धार्मिक कट्टरपन्थियों ने अहम भूमिका निभायी। अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान में रूस-परस्त नज़ीबुल्ला सरकार के विरुद्ध लड़ने के लिए इन जिहादी कट्टरपन्थियों को ट्रेनिंग और हथियार मुहैया कराने में अहम भूमिका निभायी थी। और इन आतंकियों के लालन-पालन हेतु सीआईए ने हेरोइन उत्पादन और ड्रग्स तस्करी का काम शुरू किया। आज यह उद्योग विशाल अर्थतन्त्र बन गया है जोकि पाकिस्तान के औपचारिक अर्थतन्त्र से तकरीबन दोगुना है। यही हेरोइन आज उन लोगों को भी वित्तीय सहायता उपलब्ध करा रहा है जो अमेरिकी साम्राज्यवाद और ख़ुद अपने आका आईएसआई पर हमला बोल रहे हैं। आज सारे तालिबानी आतंकवाद की जड़ में यही हेरोईन उद्योग है। अमेरिकी साम्राज्यवाद और इस्लामिक कट्टरपन्थ की यह उपज जब पलटकर अपने आकाओं पर ही हमला करती है तो ये साम्राज्यवादी आका “आतंकवाद-आतंकवाद” चिल्लाते हुए “आतंकवाद-विरोधी” कार्रवाई के नाम पर आम जनता पर ही हमले करते हैं और संसाधनों को लूटते हैं। जहाँ एक तरफ़ अमेरिकी ड्रोन हमले में बेगुनाह मारे जा रहे हैं वहीं दूसरी तरफ़ पाकिस्तानी सेना ने उत्तरी वजीरिस्तान में जून 2014 से जारी सैन्य कार्रवाई में लाखों लोगों को घर से बेघर कर दिया है।

पाकिस्तान और ऐसे ही कई मुल्कों में आतंकवाद दरअसल साम्राज्यवादी पूँजीवाद और देशी पूँजीवाद की सम्मिलित लूट की शिकार जनता के प्रतिरोध को बाँटने के लिए खड़े किये गये धार्मिक कट्टरपन्थ का नतीजा है। इस दुरभिसन्धि में जनता दोनों ही आतंक का निशाना बनती है चाहे वह धार्मिक कट्टरपन्थी आतंकवाद हो या फिर उसके नाम पर राज्य द्वारा किया जाने वाला दमनकारी आतंकवाद। साम्राज्यवादी लूट और ज़ियनवादी हमलों के शिकार ग़ाज़ा के स्त्री-पुरुष और बच्चे तथा पेशावर में आतंकवादी हमले में मारे गये बच्चे समूची मानवता पर पूँजीवादी दमन, शोषण और आतंक के बर्बरतम हमले के शिकार हैं। राजकीय और धार्मिक कट्टरपन्थी आतंकवाद, जो हमारे सपनों, हमारे बच्चों की किलकारियों और मुस्कान को दफ्न कर रहा है उसकी क़ब्र मज़दूर इंक़लाब के ज़रिये ही खोदी जा सकती है। आज शासक वर्ग का कोई भी हिस्सा इस काम को अंजाम देने का पुंसत्व खो चुका है।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-अप्रैल 2015

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