मुम्बई पर आतंकवादी हमलाः सोचने के लिए कुछ ज़रूरी मुद्दे

सम्‍पादक

26 नबम्बर को मुम्बई पर हुआ आतंकवादी हमला साल 2008 की सबसे बड़ी राष्ट्रीय घटना बन गया है। 26 नवम्बर के बाद से एक महीने से भी अधिक समय तक के लिए ये हमले मीडिया और अखबारों में सुर्खी बने रहे और तमाम चैनलों पर इस मुद्दे को लेकर चर्चाएँ आयोजित होती रहीं। इस पूरे दौर में मीडिया की भूमिका पर काफ़ी कुछ कहा जा चुका है। सरकारी एजेंसियों ने मीडिया की भूमिका की आलोचना इस आधार पर की कि उनकी कवरेज के कारण आतंकवादियों को सहायता मिल रही थी। कुछ लोगों ने मीडिया को इस विषय पर सनसनी फ़ैलाने के लिए लताड़ा। लेकिन मीडिया ने जो सबसे बड़ा काम किया वह था अन्धराष्ट्रभक्ति की एक लहर को फ़ैलाना। इस रूप में मीडिया तमाम अन्तरविरोधों के बावजूद कुल मिलाकर देश के शासक वर्गों की सेवा ही कर रहा था। एकाएक वे सारे मुद्दे कहीं नेपथ्य में जा छिपे जो कुछ समय पहले तक जनता को परेशान और बेचैन कर रहे थे। 26 नवम्बर के बाद कोई महँगाई, बेरोज़गारी, मज़दूरों की बदतर होती हुई स्थितियों की बात नहीं कर रहा था। यह अपने ‘आपसी वैरभाव और वैमनस्य को भुलाकर’ ‘राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोने’ का समय था! अब यह बात दीगर है कि राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोने का पवित्र विचार शासक वर्गों को उसी समय आता है जब उसे अपनी समस्याओं से निपटने की ज़रूरत होती है। उससे पहले अपनी आर्थिक नीतियों और राजनीति से राष्ट्र को टुकड़े-टुकड़े करते समय शासन के कर्ताधर्ता इस बात को लेकर इतने चिन्तित नहीं होते हैं।

IN23_MUMBAI_14006fकोई भी संवेदनशील और न्यायप्रिय नागरिक और नौजवान पूरे दिल से इन हमलों की निन्दा करेगा और इन्हें एक जघन्य अपराध मानेगा। हर कोई जानता है कि इन हमलों में तमाम आम, बेगुनाह लोगों की जानें गई हैं। उनके परिजनों-मित्रों के दर्द को हर कोई महसूस कर सकता है। इसमें कोई शक़ नहीं है कि ऐसे मानवताविरोधी कृत्यों की निन्दा सिर्फ़ औपचारिक रूप से दुख प्रकट करके नहीं की जा सकती और एक सोचने-समझने वाला इंसान अपने आपको ऐसे औपचारिक खेद-प्रकटीकरण तक सीमित नहीं रख सकता है। लेकिन हर विवेकवान नौजवान के लिए इस समय यह भी ज़रूरी है कि अंधराष्ट्रवादी उन्माद की लहर में बहने की बजाय वह संजीदगी के साथ आतंकवाद के मूल कारणों के बारे में सोचे? जिन आतंकवादियों ने मुम्बई में इस भयंकर हमले को अंजाम दिया वे जानते थे कि इसके बाद उनका बच पाना सम्भव नहीं है। इसके बावजूद वह कौन–सा जुनून और उन्माद था जो उनके सिर पर सवार था? सभी जानते हैं कि ये आतंकवादी लश्कर–ए–तैयबा और जैश-ए–मुहम्मद जैसे आतंकवादी संगठनों से जुड़े होते हैं। ये इस्लामी कट्टरपंथी संगठन धार्मिक उन्माद को भड़का कर आम ग़रीब घरों से आने वाले Kasab_1628658cयुवाओं की हताशा और गुस्से को आतंकवाद की ओर मोड़ते हैं और उनके अन्दर एक छद्म चेतना को पैदा करते हैं। इसका मूल कारण और मूल आधार समझना बेहद ज़रूरी है। पहली बात तो यह है हर किस्म का आतंकवाद, चाहे वह धार्मिक कट्टरपंथ से पैदा होता हो, या फ़िर, व्यवस्था को फ़टाफ़ट बदल डालने की बग़ावती जल्दबाज़ी से, दरअसल राज्य द्वारा किये जाने वाले दमन का नतीजा होता है। यह बात देश स्तर पर भी लागू होती है और विश्व स्तर पर भी। विश्व स्तर पर आज जो इस्लामी कट्टरपंथी आतंकवाद पैदा हो रहा है उसका कारण साम्राज्यवादी दमन और लूट है। मध्य-पूर्व के देशों के तेल भण्डारों और प्राकृतिक गैस भण्डारों पर कब्ज़े के लिए साम्राज्यवादी देशों ने औपनिवेशिक काल से ही उसे अपने अन्तरविरोधों की एक ज़मीन बना रखी है। औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति के बाद भी इन संसाधनों पर कब्ज़े के लिए पहले ब्रिटेन और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद अमेरिका ने मध्य-पूर्व की जनता पर अन्यायपूर्ण युद्ध थोपने जारी रखे और वहाँ अकथनीय अमानवीय कृत्यों को अंजाम दिया। इन साम्राज्यवादी हमलों और दबाव का जवाब एक समय वहाँ के राष्ट्रीय पूँजीपति वर्ग ने दिया था। लेकिन इन देशों में ही पूँजीवाद के उत्तरोत्तर विकास ने इस पूँजीपति वर्ग के सामने साम्राज्यवादियों से तालमेल को भी एक मजबूरी बना दिया। ऐसे में मध्य-पूर्व के देशों के उस पूँजीपति वर्ग की साम्राज्यवाद के दमन का विरोध कर पाने की सामर्थ्य कम होती गयी, जिसके नेतृत्व में हुए आन्दोलनों के फ़लस्वरूप ही इन देशों को आज़ादी मिली थी। इन देशों के पूँजीपति वर्गों की कहानी आज एक ‘खण्डित नायकत्व’ की कहानी के रूप में सामने है। राष्ट्रीय पूँजीपति वर्गों के राजनीतिक और नैतिक पराभव के साथ ही साम्राज्यवादी दमन के प्रतिरोध का यह स्रोत सूख गया। जनता की ताक़तें इन देशों में संगठित नहीं थीं। कुछ समय के लिए कुछ देशों में कुछ रैडिकल पार्टियों ने साम्राज्यवाद-विरोधी संघर्षों को संगठित करने का प्रयास किया लेकिन वे अपनी वैचारिक-राजनीतिक कमज़ोरियों के चलते बदलते वक्त का दबाव नहीं झेल पाए और विसर्जन का नाम-मात्र अस्तित्व का शिकार हो गये।

लेकिन किसी प्रगतिशील या रैडिकल बुर्जुआ नेतृत्व के न होने की सूरत में जनता किसी का इंतज़ार नहीं करती रह सकती थी। यही वह निर्वातनुमा समय था जिसमें तमाम इस्लामी कट्टरपंथी ताक़तों ने मध्य-पूर्व में पाँव जमाया। सच तो यह है कि इन ताक़तों को खड़ा एक समय में साम्राज्यवाद ने ही किया था ताकि वह इन देशों की साम्राज्यवाद-विरोधी सत्ताओं के ख़िलाफ़ तोड़-फ़ोड़ की गतिविधियाँ चला सके। तालिबान हो या अलकायदा, या फ़िर सद्दाम हुसैन की सत्ता ही क्यों न हो, हर मामले में यह बात सत्य है। लेकिन साम्राज्यवाद ने इन ताक़तों के रूप में एक भस्मासुर को पैदा कर दिया। कारण यह है कि हर ऐसी राजनीतिक सामाजिक ताक़त के अस्तित्व में आने के बाद उनकी कुछ आंतरिक गति होती है और उसके हर पहलू पर साम्राज्यवादियों को नियंत्रण नहीं रह सकता था। ये ताक़तें कालान्तर में साम्राज्यवाद से अपने अन्तरविरोधों के चलते स्वतन्त्र हो गयीं और उनके ख़िलाफ़ जा खड़ी हुईं। ऐसे में जनता के सामने ऐसी धार्मिक कट्टरपंथी या फ़िर सर्वसत्तावादी ताक़तें ही एकमात्र विकल्प रह गयीं जो साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ लड़ रही थीं। जनता का एक हिस्सा इनकी असलियत समझते हुए भी इनके साथ खड़ा हुआ क्योंकि वह अमेरिकी साम्राज्यवाद से तहे-दिल से नफ़रत करता था और जो भी उसके ख़िलाफ़ लड़ता वह उसके साथ खड़ा होता। एक दूसरा हिस्सा जो अभी अपनी राजनीतिक अवस्थिति को लेकर असमंजस में था वह धार्मिक कट्टरपंथी बन गया। और इसके अतिरिक्त, किसी प्रगतिशील सत्ता और समाज के न होने की सूरत में और कोई उन्नत भविष्य न होने की सूरत में जनता के बीच पीछे की ओर देखने की एक पुनरुत्थानवादी प्रवृत्ति तो होती ही है जो धार्मिक कट्टरपंथ के उदय के लिए एक उपजाऊ ज़मीन मुहैया कराती है। मध्य-पूर्व के अधिकांश देशों में साम्राज्यवादी दबाव और उसके क्रान्तिकारी प्रतिरोध के न होने के कारण इस्लामी कट्टरपंथ पनपा है और उसे जनाधार भी प्राप्त हुआ है। हमास, हिजबुल्ला, तालिबान, अल-कायदा-ये सभी ऐसी ही कट्टरपंथी ताक़तें हैं, हालाँकि इन सबमें बुनियादी भिन्नताएँ भी हैं जिन पर चर्चा यहाँ सम्भव नहीं है। इन ताक़तों को उन सभी देशों में मुसलमान आबादी का समर्थन और हमदर्दी मिलती है जो साम्राज्यवादी दबाव या देशी शासन का कहर झेल रहे हैं।

संक्षेप में, ये ही वे कारण हैं जिनके कारण विश्व स्तर पर मध्य-पूर्व और विचारणीय मुसलमान आबादी वाले देशों में इस्लामी कट्टरपंथी आतंकवाद पैदा हुआ है और मौजूद है। जब तक साम्राज्यवाद का दबाव और उत्पीड़न रहेगा और इन देशों में उसके प्रतिरोध को संगठित करने वाली कोई क्रान्तिकारी और प्रगतिशील ताक़त नहीं होगी तब तक ऐसे आतंकवाद का आधार और कारण मौजूद रहेगा और किसी भी प्रकार के कानून और सैन्य हमले या प्रतिबन्ध से उसे ख़त्म नहीं किया जा सकता क्योंकि उसके पीछे जनता खड़ी है।

अगर भारत में हुए आतंकवादी हमले की बात करें तो उसका एक कारण यह भी है विश्व स्तर पर पिछले कुछ समय में भारत की छवि एक अमेरिका-परस्त देश की बनी है। हमले के बाद के दौर में भी स्वयं भारत ने अमेरिका से ऐसे शिकायतें कीं मानो वह दुनिया भर का अभिभावक हो। इसके अतिरिक्त, भारत ने तमाम अन्तरराष्ट्रीय मुद्दों पर भी अमेरिका-समर्थक अवस्थिति अपनाई। कहने की ज़रूरत नहीं है कि ये कदम भारतीय पूँजीपति वर्ग ने अपने हितों के मद्देनज़र उठाये हैं, अमेरिका की कठपुतली या दलाल होने के नाते नहीं। वैश्विक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में अभी भी भारतीय पूँजीपति वर्ग के हित अमेरिकी पूँजीवाद से सबसे करीबी से नत्थी है। यह बात दीगर है कि ढिमलाते अमेरिकी साम्राज्यवाद के विकल्पों के बारे में भारतीय पूँजीपति वर्गों ने अपने प्रयासों को तेज़ कर दिया है। यह एक अलग चर्चा का विषय है जिस पर फ़िर कभी।

लुब्बेलुबाब यह कि फ़िलहाल विश्व राजनीति में भारत अमेरिकी शिविर में खड़ा अधिक दिखाई देता है इसलिए इस्लामी कट्टरपंथी आतंकवाद का एक निशाना वह भी बन जाता है।

भारत की मुसलमान आबादी में से भी अगर कुछ नौजवान इस धार्मिक कट्टरपंथ की चपेट में आ जाते हैं तो इसका ज़िम्मेदार कौन है? अखबारों में इस बाबत ख़बरें आईं कि मुम्बई हमले के बाद देश भर के सार्वजनिक स्थानों तक पर मुसलमानों के साथ कैसा व्यवहार किया गया। इसके पहले विभाजन के समय, उसके बाद रामजन्मभूमि विवाद के शुरू होने पर, बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद होने वाले देशव्यापी दंगों के दौरान, और फ़िर भयंकरतम और बर्बर रूप में गुजरात में हुए मुसलमानों के नरसंहार के दौरान–हमेशा से ही देश में साम्प्रदायिक फ़ासीवादी संघ गिरोह ने मुसलमान आबादी को निशाना बनाया है। उनके ख़िलाफ़ हिन्दू जनता के मन में लगातार ज़हर घोलने का काम शाखाओं से लेकर संघ के तमाम स्कूलों आदि में किया जाता है। उन्हें देश की समस्याओं का ज़िम्मेदार, भारत पर आक्रमण करने वाले, भारतीय स्त्रियों का अपमान करने वाले, हिन्दुओं के धर्म का अपमान करने वाले, और भारत को पहली बार गुलाम बनाने वालों के रूप में चित्रित किया जाता है। आज के समय में उन्हें देश की ग़रीबी और बेरोज़गारी तक के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाता है क्योंकि वे कथित रूप से ‘ज़्यादा बच्चे पैदा करते हैं’, जो तथ्यतः ग़लत साबित हो चुका है। मुसलमान शासक धार्मिक रूप से कट्टरपंथी थे या उनके कृत्यों के पीछे कोई धार्मिक भावना काम कर रही थी, इसे तमाम इतिहासकारों ने पहले ही ग़लत साबित कर दिया है। और वैसे भी किसी कथित ‘हिन्दू-विरोधी’ कदमों के लिए आज के मुसलमानों को निशाना बनाना कहाँ की समझदारी और विवेक है? लेकिन संघ परिवार यही सोच कई दशकों से भारतीय समाज के हिन्दू जनमानस में घोलने की कोशिश कर रहा है और उसके साम्प्रदायिकीकरण की साज़िश में वह एक हद तक कामयाब भी हुआ है। ऐसे में मुसलमानों को तमाम मौकों पर समाज में अलगाव का सामना करना पड़ता है। कदम-कदम पर उन्हें अहसास कराया जाता है कि वे हिन्दुस्तान में नाहक जमे हुए हैं और यह उनका देश नहीं है। उनके साथ सरकारी सेवाओं, निजी सेवाओं से लेकर और सांस्कृतिक-सामाजिक धरातल पर दोयम दर्ज़े का और परायों-सा बर्ताव किया जाता है। ऐसे में, मुसलमान आबादी का एक हिस्सा इस्लामी कट्टरपंथी आतंकवाद की ओर धकेल दिया जाता है। इस प्रक्रिया को इस बात से भी बल मिलता है कि मुसलमानों की बहुसंख्या भयंकरतम ग़रीबी और बेरोज़गारी का शिकार है। जीवन की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक निराशा उन्हें कई बार आतंकवाद के रास्ते पर ले जाती है। आज़ादी के बाद से मुसलमानों पर किये गये अत्याचार भी इसमें एक बड़ी भूमिका निभाते हैं। इस आग में घी डालने का काम तमाम इस्लामी कट्टरपंथी बखूबी करते हैं।

देश स्तर पर इस्लामी कट्टरपंथी आतंकवाद के पैदा होने की वजह मुख्यतः सत्ता-व्यवस्था और सामाजिक ढाँचे द्वारा किया जाने वाला मुसलमान आबादी का यह दमन-उत्पीड़न है। अगर भारतीय राज्य वाकई एक सेक्युलर राज्य की तरह आचरण करता तो एक-तिहाई समस्या तो ऐसे ही हल हो जाती। लेकिन सभी जानते हैं कि दो प्रमुख चुनावी पार्टियों में से एक खुले तौर पर हिन्दू साम्प्रदायिक फ़ासीवादी है और दूसरी वक्तन–ज़रूरतन हिन्दू साम्प्रदायिक कार्ड खेलने से बाज़ नहीं आती। संसदीय वामपंथियों और सपा-बसपा जैसों का सतरंगा और नपुंसक सेक्युलर चरित्र भी सभी के सामने है। ऐसे में आम मुसलमान के सामने या तो सिर झुकाकर कोड़े खाते और ज़िल्लत झेलते जीने का विकल्प बचता है या आत्महत्या करने का और या फ़िर उग्रवाद की तरफ़ जाने का। एक विकल्प और है लेकिन वह अभी अनुपस्थित है। देश में मेहनतकश वर्ग की किसी क्रान्तिकारी पार्टी होने की सूरत में मुसलमान अल्पसंख्यकों का एक विशालकाय हिस्सा जो वस्तुतः मज़दूर है, उस पार्टी का एक अंग होता और इस रूप में किसी प्रतिक्रियावादी जवाब (यानी आतंकवाद) का अंग की बजाय वह एक प्रगतिशील जवाब का अंग बनता। लेकिन क्रान्तिकारी ताक़तों के बिखरे होने और लकीर की फ़कीरी करने के कारण ऐसा विकल्प फ़िलहाल अनुपस्थित है और यह खाली स्थान निकट भविष्य में भरने के कोई आसार भी फ़िलहाल नज़र नहीं आ रहे हैं। इस विकल्प के निर्माण के बारे में सोचना आज के छात्र-युवा आन्दोलन का एक अहम कार्यभार है।

यही वे कारण हैं जो राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर आतंकवाद की परिघटना को जन्म दे रहे हैं। जब तक ये कारण मौजूद रहेंगे तब तक आतंकवाद मौजूद रहेगा; इस रूप में या उस रूप में। किसी भी सख़्त कानून से जनता की रक्षा आतंकवाद के दानव से नहीं हो सकती है। कोई भी ‘इलीट फ़ोर्स’ आतंकवाद से नहीं निपट सकती। जैसा कि ज़िन्दा पकड़े गये आतंकवादी कसाब से पूछताछ करने वाले एक पुलिस अधिकारी ने अपना नाम न बताने की शर्त पर कहा था-आप उन्हें मार दें या ज़िन्दा पकड़ लें, कोई फ़र्क नहीं पड़ता। ये अपने-आपको पहले से ही मरा मान चुके होते हैं और इनके सिर पर न जाने कैसा जुनून सवार रहता है। मार्कोस के चीफ़ ने एण्टी-टेरर ऑपरेशन समाप्त होने के बाद प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा, ‘वेल, दे वर ए डेटरमिण्ड लॉट!’ (वे लोग काफ़ी दृढ़ता से लड़ रहे थे!’) इसी से पता चलता है कि कोई कानून या फ़ोर्स आतंकवाद का इलाज नहीं है। यह लक्षणों को जबरिया दबाने का प्रयास है जिसमें कोई सफ़लता हासिल नहीं होने वाली। यूएपीए जैसे कानूनों को असल निशाना तो क्रान्तिकारी ताक़तें हैं। यह बिगड़ते हालातों में भविष्य के लिए सत्ता को चाक-चौबन्द करने का प्रयास है। आतंकवाद महज़ बहाना है। सत्ता के पैरोकार भी जानते हैं कि आज तक कानूनों से न आतंक से लड़ा जा सकता है न कभी लड़ा जा सकता है। ऐसे कानून अलग चर्चा का विषय हैं जिसके लिए अभी मफ़ुीद वक्त नहीं है।

हम दो बातों की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहेंगे।

मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमले भारत और पाकिस्तान, दोनों ही देशों के शासक वर्गों के लिए एक वरदान के रूप में आए हैं। ग़ौरतलब है कि भारतीय अर्थव्यवस्था वैश्विक मन्दी के दबाव में तड़फ़ड़ा रही है। 2004 में अमेरिकी सबप्राइम संकट की शुरुआत के बाद से भारत में लाखों नौकरियों में कटौती की जा चुकी है। ख़ास तौर पर आई.टी. सेक्टर व बैंक-बीमा क्षेत्र को काफ़ी नुकसान उठाना पड़ा है और जगह-जगह कर्मचारियों की छंटनी हो रही है और उन्हें जबरिया छुट्टी पर भेजा जा रहा है। अब मन्दी की मार मैन्युफ़ैक्चरिंग क्षेत्र में भी पहुँच चुकी है। पिछले 25 वर्षों का सबसे कम मैन्युफ़ैक्चरिंग उत्पादन पिछले वित्तीय वर्ष में सामने आया है और भारतीय औद्योगिक वृद्धि इस पूरे काल में पहली बार इतनी नीचे गई है। छोटे-छोटे उद्योग जो वैश्विक अर्थव्यवस्था की असेम्बली लाइन में एक कड़ी के रूप में काम करते हैं, बरबाद हो रहे हैं। मिसाल के तौर पर, ऑटोमोबाइल स्पेयर पार्ट्स के धन्धे में मन्दी का प्रवेश हो चुका है। होटल, बैंक, रेस्तराँ के सेक्टर के हालात भी कुछ ऐसे ही हैं। विविध सेवा प्रदाताओं के क्षेत्र में भी मन्दी की आँच महसूस की जाने लगी है। अभी-अभी ख़बर आई है कि भारतीय निर्यात उद्योग को मन्दी के कारण 1000 करोड़ रुपये का घाटा उठाना पड़ा है और यह सिर्फ़ बफ़र्खण्ड का सिरा मात्र है। सरकारी प्रतिनिधियों ने साफ़ कह दिया है कि 2011 तक किसी भी राहत की उम्मीद न की जाय; तब तक तो हालात और बदतर होंगे। इसके बाद भी अगर स्थिरता आ जाय तो वह एक प्रियकर आश्चर्य होगा। इस पूरे काल में भारतीय अर्थव्यवस्था चक्रीय क्रम में बढ़ती मुद्रास्फ़ीति, घटते निर्यात, बढ़ते आयात, बढ़ती महँगाई, बढ़ती बेरोज़गारी, ग़रीबी, भुखमरी आदि आते रहेंगे। बजट घाटा बढ़ता जा रहा है और अगर आंतरिक और बाह्य कर्ज़ मिला दें तो भारत पर 20,000 करोड़ रुपये से भी ज़्यादा कर्ज़ है। संक्षेप में कहें तो भारतीय अर्थव्यवस्था के हालात नाजुक थे और अब उसके सामाजिक नतीजे भी सामने आने लगे थे। महँगाई चुनावी गणित बिगाड़ रही थी और जनअसन्तोष को बढ़ा रही थी। बढ़ती बेरोज़गारी मज़दूरों और बेरोज़गार नौजवानों को सड़कों पर धकेल रही थी। ऐसे में मुम्बई पर हुए आतंकवादी हमले ने सामाजिक मनोविज्ञान और प्रतिक्रिया के धरातल पर एक बड़ा अन्तर पैदा कर दिया और शासक वर्गों को कुछ मोहलत दे दी कि वे जनता का ध्यान मुख्य मुद्दों से भटका कर लोगों को बुर्जुआ अन्धराष्ट्रवाद की बाढ़ में बहाएँ। इसमें मीडिया ने शासक वर्गों का बखूबी साथ निभाया। पाकिस्तान के ख़िलाफ़ युद्धोन्माद को सस्ते बाज़ारू तरीके से सारे निजी व सरकारी समाचार चैनलों ने भड़काना शुरू कर दिया। नतीजा सबके सामने है। मुट्ठी भर विवेकवान लोगों को छोड़ दिया जाय तो पूरा का पूरा मध्य वर्ग और मेहनतकश आबादी का भी एक छोटा-सा हिस्सा देशभक्ति की गर्म हुई मण्डी की चपेट में आ गया। भाजपा के हाथ से उसके दो-तीन प्रमुख मुद्दों में से भी एक निकल गया-आतंकवाद। इसे भी कांग्रेस ने लपक लिया और संघीय जांच एजेंसी, इलीट एण्टी टेरर फ़ोर्स और आतंकवादी निरोधक कानून में संशोधन कर यह साबित करने की कोशिश की कि वह आतंकवाद पर नरम नहीं है बल्कि ज़्यादा विवेकवान रूप से सख़्त है! लोकसभा चुनाव करीब थे और चार राज्यों के चुनावों में एक-दो दिन का ही वक्त बाकी था। तभी हमला हो गया और इस पर अन्धराष्ट्रवाद और युद्धोन्माद फ़ैलाकर जनता को मूल मुद्दों से भटका देने की पूरी राजनीति का श्रीगणेश हो गया।

यही कहानी पाकिस्तान में भी घटित हुई। ज्ञात हो कि इस वर्ष के शुरू से ही पाकिस्तान की पूरी अर्थव्यवस्था दीवालिया होने की कगार पर खड़ी है। पूर्ण दीवालियेपन से बचाने के लिए 24 नवम्बर को अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने पाकिस्तान के लिए 7.6 अरब डॉलर का बेलआउट पैकेज घोषित किया जिसका पहला आधा हिस्सा पाकिस्तान को दिया जा चुका है। यह मुख्य तौर पर पाकिस्तान के कंगाल हो चुके विदेशी मुद्रा भण्डार के लिए था। पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था भी निर्यात पर काफ़ी निर्भर है और विदेशी मुद्रा भण्डार के बिना निर्यात के कम होने का ख़तरा था। कराची स्टॉक एक्सचेंज में शेयर के मूल्यों में 48.5 प्रतिशत की गिरावट आ चुकी है जो पिछले तीन वर्षों के निम्नतम स्तर पर है। पाकिस्तान का चालू बजट घाटा जुलाई से नवम्बर के बीच 6.8 अरब डॉलर तक पहुँच चुका था। विदेशी मुद्रा प्रवाह में भारी कमी आ चुकी है। कुल विदेशी कर्ज़ 46.9 अरब डॉलर तक पहुँच चुका है। ग़रीब और अमीर के बीच की खाई बेरोज़गारी के बढ़ने के साथ तेज़ी से बढ़ती गई है। जनसंख्या का करीब आधा हिस्सा गरीबी रेखा के नीचे या उसके आस-पास जी रहा है। मुद्रास्फ़ीति में पिछले कुछ समय में 32.05 प्रतिशत वृद्धि हो चुकी है। एक अमेरिकी प्रतिष्ठान इण्टरनेशनल रिपब्लिकन इंस्टीट्यूट द्वारा किये गये एक सर्वे से पता चला है कि 58 प्रतिशत पाकिस्तानी मानते हैं कि बढ़ती महँगाई सबसे बड़ी समस्या है और 77 प्रतिशत पाकिस्तानियों को मानना है कि आर्थिक तंगी सबसे बड़ी समस्या है। ज़ाहिर है, पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था भारत से भी बुरी हालत में चल रही है। ऐसे में पाकिस्तान के शासक वर्गों को भी एक मौका मिल गया कि भारत के ख़िलाफ़ युद्धोन्माद भड़का कर वह पाकिस्तानी जनता का ध्यान उनकी बुनियादी समस्याओं से हटा दें। पाकिस्तान के प्रधानमन्त्री से लेकर राष्ट्रपति तक ऐसे कथन दे रहे हैं कि पाकिस्तान भारत का उपनिवेश नहीं है और हम किसी भी हमले का मुँहतोड़ जवाब देने में सक्षम हैं। भारत के प्रति युद्धोन्माद और नफ़रत को भड़का कर पाकिस्तानी पूँजीपति वर्ग पाकिस्तानी जनता में फ़ैलते असन्तोष को नेपथ्य में धकेलना चाहता है और उसे अन्धराष्ट्रवाद के झण्डे तले घुमाना चाहता है। मुम्बई हमला ही वह घटना थी जिसने भारतीय और पाकिस्तानी शासक वर्गों को एक सुनहरा मौका दिया कि वे अपने संकट से उबर पाएँ और जनता के असन्तोष को किनारे लगाकर अन्धराष्ट्रवाद और युद्धोन्माद की लहर चला सकें।

दूसरी महत्वपूर्ण चीज़ जो सामने आई वह यह थी कि मुम्बई हमलों के बाद जनता का असन्तोष सड़कों पर फ़ूटकर बहने लगा। यह एक जरिया था या ‘फ़र्दीनान्द की हत्या’। आतंकवाद पर हुए प्रदर्शनों में पाकिस्तान से चलाया जाने वाला आतंकवाद निशाने पर कम था और भारत की नेताशाही और अफ़सरशाही ज़्यादा। यह एक बहाना था जिसने जनता को यह मौका दिया कि वह सड़कों पर उतरे और इस पूरे निज़ाम और सत्ता में बैठे टुकड़खोरों के ख़िलाफ़ अपनी नफ़रत का इज़हार कर सके। इन सभी प्रदर्शनों में नेताओं की सुरक्षा पर होने वाले विशालकाय ख़र्च पर सवाल उठाए गए, भ्रष्टाचार को कठघरे में खड़ा किया गया, खोखले वायदों को निशाना बनाया गया। सारी नारेबाज़ी नेताओं और नौकरशाहों के ख़िलाफ़ की गई। ये प्रदर्शन हुए मुम्बई हमले के मौके पर थे, लेकिन इनका निशाना महज़ आतंकवाद नहीं था बल्कि इस देश का भ्रष्ट, परजीवी, नग्न हो चुका, बेशर्म, नकारा और जनविरोधी नेता वर्ग और अफ़सर वर्ग था जो दरअसल पूँजीपति वर्ग का चाकर और टुकड़खोर है। तमाम मुद्दे हालिया समय में सामने आये हैं जिसमें जनता ने सामान्य रूप से शासन–व्यवस्था, पूँजीपति वर्ग और नौकरशाही के ख़िलाफ़ अपनी नफ़रत का खुलकर इज़हार किया है। यह मुद्दा उनमें से एक अहम मुद्दा था।

अन्त में, हम अपने पाठकों को एक बार फ़िर याद दिलाना चाहेंगे कि आतंकवाद की समस्या के मूल कारणों को संजीदगी से समझना होगा। हमें समझना होगा कि इसकी जड़ एक ऐसी दुनिया में निहित है जो मुनाफ़े की लूट पर केन्द्रित है; जिसमें आम मेहनतकश अवाम, छात्रों-नौजवानों और तमाम दबाए और सताए गए तबकों के हितों के लिए कोई जगह नहीं है। राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर हम एक लुटेरी व्यवस्था के लिए जी रहे हैं और इस व्यवस्था द्वारा जनता का दमन ही आतंकवाद के ज़हरीले पौधे को खाद-पानी दे रहा है और जब तक यह व्यवस्था कायम रहेगी तब तक देता रहेगा। मुनाफ़े की लूट पर केन्द्रित इस पूँजीवादी व्यवस्था से निजात ही हमें आतंकवाद के अभिशाप से छुटकारा दिला सकती है।

 

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-मार्च 2009

 

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