साम्राज्यवाद के ‘चौधरी’ अमेरिका के घर में बेरोज़गारी का साम्राज्य

सत्यनारायण

‘‘येस वी कैन (हाँ हम कर सकते हैं)’’ का नारा लगाते हुए जब बराक ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति बने तो अमेरिकियों को ऐसा लगा कि बुश काल की भयंकरताओं से निजात पाने का एक रास्ता मिल गया है। बुश काल के आर्थिक संकट, अश्वेत दमन, जनवादी अधिकारों के खात्मे, मज़दूरों के शोषण-उत्पीड़न आदि से मुक्ति दिलाने वाले मसीहा के रूप में दुनियाभर के मीडिया ने ओबामा को पेश किया। लेकिन अमेरिकियों की यह आशा पल-प्रतिपल दम तोड़ती नजर आ रही है। बेरोज़गारी व भयंकर किस्म के अपराध इस पूँजीवादी दुनिया के चौधरी के स्वर्ग में ताण्डव मचा रहे हैं। अमेरिकी श्रम-विभाग के अनुसार 13 फ़रवरी को समाप्त हुए सप्ताह में बेरोज़गारी भत्ते के लिए दावा करने वाले लोगों की तादाद बढ़कर चार लाख 73 हजार पहुँच गई। यह इससे पहले के सप्ताह के चार लाख 42 हजार के मुकाबले 31 हजार ज़्यादा है। दुनियाभर की मेहनतकश जनता को अमेरिकी साम्राज्यवादी पूँजी की अधीनता के तहत लाकर, उनके शरीर से ख़ून की एक-एक बूँद निचोड़ लेने के बावजूद ओबामा के अमेरिका में बेरोज़गारी की दर 18.5 फ़ीसदी पहुँच गयी है। बढ़ती बेरोज़गारी का सामना करने के लिए अमेरिका में ‘स्वदेशी जागरण’ चलाने की तैयारी की जा रही है। एक प्रभावशाली अमेरिकी सीनेटर रस फ़ेनगोल्ड ने नए रोज़गार कानून में ‘अमेरिकी माल खरीदो’ संबधी प्रावधान डालने की वकालत की है।

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अमेरिका का पूँजीवादी समाज भले ही इस बात पर गर्व करे कि यहाँ समृद्ध होने के लिए सबको ‘समान अवसर’ प्राप्त है पर यह कड़वी सच्चाई है कि डूबते बैंको के आला अफ़सरों को लाखों डॉलर बोनस दिया जा रहा है जबकि महीनों से बेरोज़गार आम आदमी अपनी बची-खुची पूँजी खत्म होने के बाद बदहवास घूम रहा है या फि़र अपराध की ओर अग्रसर हो रहा है। घाटे का सामना करने वाले न्यूयॉर्क के सैंकड़ों वित्तीय संस्थानों और बैंकों ने सिर्फ बोनस के रूप में लगभग 20 करोड़ डॉलर अपने बड़े अफ़सरों को बाँटे। उदाहरण  के लिए, विश्व प्रसिद्ध बैंक ‘सिटी ग्रुप’ में चीफ़ एक्ज़ीक्यूटिव विक्रम पंडित को 32 लाख डॉलर सालाना बोनस के रूप में मिले। दूसरी ओर अमेरिकी श्रम विभाग चार महीने से ज़्यादा समय तक बेरोज़गारी भत्ता नहीं देता।

बेरोज़गारी, अलगाव व मानसिक अवसाद के चलते अमेरिका में भयंकरतम अपराध लगातार बढ़ रहे हैं। अखबारों में आए दिन किसी व्यक्ति द्वारा पागलपन में आकर दर्जनों व्यक्तियों को मार देने की ख़बरें पढ़ने को मिलती है। कहने को तो ओबामा अश्वेतों के प्रतिनिधि हैं, लेकिन अश्वेतों के बीच भयंकर ग़रीबी, बेरोज़गारी व अपराध का बोलबाला है। 25 से 29 वर्ष के 9 अश्वेत नौजवानों में से एक जेल में है। सरकारी रिपोर्ट के अनुसार अश्वेत परिवारों की औसत आय 6616 डॉलर, श्वेत परिवार की औसत आय 67000 डॉलर  से दस गुना कम है। हकीकत यह है कि ओबामा अमेरिकी जनता के नहीं बल्कि अमेरिकी पूँजीपति वर्ग के प्रतिनिधि हैं। मन्दी के दौर में पूँजीपतियों को राज्य की सहायता की ज़रूरत होती है। हर देश की सरकारों की तरह अमेरिका भी आम लोगों के दम पर इकट्ठे किए गये राजस्व का बड़ा हिस्सा पूँजीपतियो को बेलआउट पैकेज देने में लगा हुआ है।

इन तथ्यों और आँकड़ों की रोशनी मे साफ़ है कि विश्व को लोकतन्त्र व शान्ति का पाठ पढ़ने वाला अमेरिका खुद अपनी जनता को बेरोज़गारी, ग़रीबी, भूखमरी, अपराध से निजात नहीं दिला पाया। दूसरी तरफ़ शान्तिदूत ओबामा की असलियत ये है कि जिस हफ़्ते ओबामा को नोबल शान्ति पुरस्कार दिया गया, उसी हफ़्ते अमेरिकी सीनेट ने अपने इतिहास में सबसे बड़ा सैन्य बजट पारित किया 626 अरब डॉलर। और बुशकालीन युद्धनीति में कोई फ़ेरबदल नहीं किया गया और इस कारण आज भी अफ़गान-इराक युद्ध में अमेरिकी सेना वहाँ की निर्दोष जनता को ‘शान्ति का अमेरिकी पाठ’ पढ़ा रही है इन हालतों से साफ़ है कि पूँजीवादी मीडिया द्वारा जिस अमेरिका समाज की चकाचौंध दिखाई जाती है उससे अलग एक और अमेरिकी समाज है जो पूँजीवाद की लाइलाज बीमारी बेरोज़गारी, ग़रीबी आदि समस्या से संकटग्रस्त है।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मार्च-अप्रैल 2010

 

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