परिसरों में कम होता जनवादी स्पेस और बढ़ता प्रशासनिक दमन

प्रांजल

अभी पिछले दिनों प्रशासनिक लापरवाही के कारण एक छात्र की मौत की वजह से इलाहाबाद विश्वविद्यालय सुर्ख़ियों में रहा। इस घटना के बाद सुरक्षा और शान्ति के नाम पर परिसर में बचे-खुचे जनवादी स्पेस पर भी प्रशासनिक बुलडोज़र चलाया जा रहा है। अभी हाल ही में प्रशासन द्वारा अनुशासनात्मक कार्रवाई का हवाला देते हुये एक निरंकुश फ़रमान जारी हुआ है जिसके ज़रिये परिसर में बिना अनुमति छात्र गतिविधियों पर प्रत्यक्ष तौर पर रोक लगा दी गयी है।
विश्वविद्यालय परिसर में किसी भी प्रकार की छात्र गतिविधि जैसे सांस्कृतिक कार्यक्रम, अध्ययन चक्र, विचार गोष्ठी, यहाँ तक कि विरोध प्रदर्शन तक के लिए प्रॉक्टर की पूर्व अनुमति को अनिवार्य कर दिया गया है। शाम को पाँच बजे के बाद विश्वविद्यालय परिसर में छात्रों के प्रवेश पर रोक लगी हुई है। परिचय-पत्र की जाँच के नाम पर विद्यार्थियों को परेशान किया जा रहा है। परिसर को ख़ाकी वर्दी के गश्त का अड्डा बना दिया गया है। पिछले दिनों सुरक्षाकर्मियों द्वारा छात्रों पर गोली तक चलायी गयी। विश्वविद्यालय के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है। छात्रों द्वारा वाजिब माँगों को लेकर प्रदर्शन करने पर निलम्बन-निष्कासन और जेल भेजना आम परिघटना बनती जा रही है।
विश्वविद्यालय में जो जनवादी अधिकार लम्बे संघर्ष और अकूत क़ुर्बानियों की क़ीमत पर हासिल हुये थे उन्हें वर्तमान दौर में अभूतपूर्व गति से छीना जा रहा है। विश्वविद्यालय में व्यापक छात्र आबादी का कोई जनवादी प्रतिनिधित्व न होने के कारण क्या पढ़ाया जायेगा, कैसे पढ़ाया जायेगा, शिक्षक भर्ती किस प्रकार होगी, फ़ीस आदि की व्यवस्था जैसे मसलों पर फ़ैसला लेने में छात्रों की कोई भूमिका नहीं है। छात्रों के भविष्य से जुड़े सारे फ़ैसले अब सत्ताधारी, विश्वविद्यालय प्रशासन और शासक वर्ग की चाटुकारिता में लगे विचारक और राजनीतिज्ञ ले रहे हैं। छात्रसंघ जैसी संस्था की ग़ैरमौजूदगी की वजह से विश्वविद्यालय प्रशासन खुले तौर पर मनमानी कर रहा है और विश्वविद्यालय को बोर्डिंग स्कूल में बदल देने पर आमादा है जहाँ तर्कणा, वैज्ञानिकता और प्रतिरोध की संस्कृति से रिक्त बिना कोई सवाल किये केवल हुक़्म बजाने वाले आज्ञाकारी रोबोट तैयार हों। कमोबेश यही स्थिति देश के अन्य विश्वविद्यालयों की भी है। देश के जिन इने-गिने विश्वविद्यालयों में छात्रसंघ है भी वहाँ भी इसे लिंगदोह कमीशन की सिफ़ारिशों के ज़रिये बेजान बना दिया गया है।
लोकतन्त्र में चुनने और चुने जाने का अधिकार एक बुनियादी अधिकार है। लेकिन गुण्डागर्दी और अराजकता को रोकने के नाम पर विश्वविद्यालय प्रशासन ने छात्रसंघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। मीडिया और अख़बारों के ज़रिये छात्रों और आम आबादी के बीच इस कुतर्क के द्वारा ऐसी धुन्ध पैदा की जाती है कि बहुत से छात्र और नागरिक छात्र संघ जैसी संस्थाओं के ख़िलाफ़ हो जाते हैं और वो प्रशासन के नज़रिये से सोचने लगते हैं। यह सोचने वाली बात है कि अगर गुण्डागर्दी और अराजकता के बहाने छात्रसंघ पर प्रतिबन्ध लगाना उचित है तब तो इसी तर्क को आगे बढ़ाते हुए देश की संसद और विधानसभाओं, प्रशासनिक संस्थाओं आदि पर भी ताला जड़ देना चाहिए क्योंकि इन सभी संस्थाओं में गाली-गलौच, गुण्डागर्दी, भ्रष्टाचार और अपराध का बोलबाला है। लेकिन इन पर कभी प्रतिबन्ध नहीं लगाया जायेगा क्योंकि वह शासक वर्ग का अड्डा है। विश्वविद्यालय में अराजकता कौन फैलाता है यह किसी से छुपा नहीं है। तमाम चुनावबाज़ पार्टियों के छात्र संगठन कैम्पस को गुण्डागर्दी, धनबल-बाहुबल के नंगे प्रदर्शन के अड्डे और एमपी-एमएलए बनाने के ट्रेनिंग सेण्टर के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। पिछले दिनों जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय से लेकर लखनऊ विश्वविद्यालय में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का जो नंगा नाच हुआ वो किसी से छुपा नहीं है। देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में संघ के इस बगलबच्चा संगठन द्वारा उत्पात मचाया जा रहा है लेकिन विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा इन पर कभी रोक लगाने की कोशिश नहीं जाती है। निश्चित तौर पर हमारा मानना है कि कैम्पस में व्याप्त अराजकता और गुण्डागर्दी पर रोक लगनी चाहिए न कि छात्रों के जनवादी अधिकार पर! गुण्डागर्दी और अराजकता फैलाने वालों पर रोक लगनी चाहिये न कि छात्र संघ पर!
कैम्पसों में छात्रों के जनवादी अधिकारों पर बढ़ता हमला कोई आकस्मिक घटना नहीं है। वास्तव में 1990-91 में उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद से ही शिक्षा को बाज़ार के हवाले किया जा रहा है। शिक्षा जगत को मुट्ठीभर धनपशुओं की लूट का अड्डा बनाया जा रहा है। आज अज़ीम प्रेमजी, गोयनका और अब मुकेश अम्बानी जैसे बड़े कॉरपोरेट भी शिक्षा के क्षेत्र में पूँजी निवेश कर रहे हैं। पिछले तीन दशकों में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप के तहत शिक्षा को पूरी तरह से तबाह और बर्बाद करके इसे निजी स्कूलों-विश्वविद्यालयों और बड़े-बड़े फ़्रेन्चाइजियों के हाथ में दे दिया गया है। शिक्षा पर सरकारी ख़र्च साल दर साल कम होता गया जिसे इस आँकड़े से समझा जा सकता है कि 1990-91 से 2023-24 के बीच शिक्षा पर केन्द्र सरकार द्वारा ख़र्च जीडीपी के 1.4 फ़ीसदी से घटकर 0.37 फ़ीसदी रह गया है। और अब रही-सही कसर नयी शिक्षा नीति-2020 ने पूरी कर दी है, जिसके मुताबिक़ सरकार द्वारा विश्वविद्यालयों को दिया जाने वाला अनुदान रोक दिया जायेगा। जिसके बाद विश्वविद्यालय को अपने ख़र्च ख़ुद जुटाने होंगे। इसका असर भी स्पष्ट रूप में दिखने लगा है। अभी हाल ही में इलाहाबाद विश्वविद्यालय, गोरखपुर विश्वविद्यालय, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय आदि विश्वविद्यालयों में कई गुना फ़ीस बढ़ा दी गयी। विश्वविद्यालयों में नियमित कोर्स की जगह स्ववित्तपोषित कोर्स लाकर शिक्षा तन्त्र को देशी-विदेशी शिक्षा माफ़ियाओं को सौंपा जा रहा है। जिसकी वजह से आम घरों से आने वाले छात्रों के लिए विश्वविद्यालय तक पहुँच पाना मुश्किल हो गया है।
लोकतन्त्र और जनवाद का ढिंढोरा पीटने वाली नयी शिक्षा नीति में इस बात का कहीं ज़िक्र तक नहीं है कि विश्वविद्यालयों में छात्रों का प्रतिनिधित्व करने वाला छात्रसंघ होगा या नहीं। छात्रों का प्रशासन और अध्यापकों के साथ सम्बन्ध कैसा होगा, इसकी कोई चर्चा नहीं की गयी है। बल्कि बोर्ड ऑफ़ गवर्नर्स (बीओजी) का एक नया तन्त्र सुझाया गया है जो विश्वविद्यालय समुदाय के प्रति किसी भी रूप में जवाबदेह नहीं होगा। बीओजी के पास फ़ीस पर फ़ैसला करने, उच्च शिक्षा संस्थान (एचईआई) के प्रमुख सहित नियुक्तियाँ करने और शासन के बारे में निर्णय लेने का अधिकार होगा। शासन का यह मॉडल स्वायत्तता और अकादमिक उत्कृष्टता को नष्ट कर देगा। यह शिक्षा नीति शिक्षण-संस्थानों को शैक्षिक-प्रशासनिक और वित्तीय स्वायत्तता देने की बात करता है लेकिन दूसरी तरफ़ प्रशासनिक केन्द्रीकरण का पुरज़ोर समर्थन भी करता है। इस तरह यह दस्तावेज़ कैम्पसों के बचे-खुचे जनवादी स्पेस का भी गला घोंट देता है।
ऐसे समय में जब दमनकारी शक्तियाँ अपने उफान पर हैं, अगर छात्र-नौजवान छात्रसंघ जैसी संस्थाओं और अपने जनवादी अधिकारों को बचाने के लिए एक जुझारू संघर्ष की शुरुआत नहीं करते तो विश्वविद्यालय प्रशासन ख़ुद सबसे बड़ा गुण्डा बन जायेगा (और एक हद तक बन भी चुका है)। छात्रों-युवाओं को भयंकर रूप से बढ़ती फ़ीसों और घटती सीटों का सामना करना पड़ेगा। यही नहीं, कैम्पस में छात्रावासों की सुविधा, कैण्टीन, मेस, मेडिकल सुविधा, साइकल स्टैण्ड, शिक्षकों की कमी, लड़कियों के लिए पिंक टॉयलेट, पिंक हॉल आदि मामलों में जो भयंकर स्थिति है उसके ख़िलाफ़ छात्र-युवा चूँ तक भी नहीं कर पाएंगे। और ये सब कोई दूर भविष्य की बात नहीं है बल्कि हमारे सामने घट रहा है।
विश्वविद्यालय प्रशासन की तानाशाही के ख़िलाफ़ देश के विभिन्न हिस्सों में छात्रों-युवाओं में व्यापक असन्तोष है और न्यायप्रिय छात्र-युवा इसका विरोध भी कर रहे हैं। लेकिन छात्रों की एक आबादी ऐसी भी है जो विराजनीतिकरण की राजनीति का शिकार है। यह आबादी इन मुद्दों से प्रभावित होने के बावजूद भी प्रतिरोध के मामले में तटस्थ है। लेकिन उनकी तटस्थता उन्हें इस दमन से सुरक्षित नहीं रख सकेगी। छात्रों का जो धड़ा इस तानाशाही के ख़िलाफ़ लड़ रहा है उसमें से ज़्यादातर भयंकर राजनीतिक भटकाव के शिकार हैं। साथ ही साथ यह पूरा आन्दोलन बिखराव का शिकार भी है जिसकी वजह से संघर्षरत युवाओं की बड़ी आबादी देर-सवेर निराशा की शिकार होकर निष्क्रिय हो जाती है और दमन को अपनी नियति समझ लेती है।
ऐसे में आज इस तानाशाही का जवाब केवल क्रान्तिकारी विचारों से लैस और अपने दौर की राजनीतिक-सामाजिक परिस्थितियों की गहरी समझ रखने वाले छात्रों-युवाओं के जुझारू आन्दोलन के ज़रिये ही दिया जा सकता है। हमे एक बात और भी स्पष्ट समझ लेनी चाहिए कि परिसरों में घटते लोकतान्त्रिक मूल्यों की असली वजह वर्तमान सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था का लाइलाज आन्तरिक संकट है। मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था अपने उत्तरोत्तर विकास में आर्थिक संकट को पुनरुत्पादित करती रहेगी। इस प्रक्रिया में पूरे समाज में जनवादी स्पेस सिकुड़ता ही जायेगा। इसलिए अगर हम अपने संघर्ष को केवल परिसरों तक सीमित रखते है तो तमाम तात्कालिक जीतों के बावजूद अन्ततोगत्वा जीते गये सारे अधिकार हमसे छीन लिए जायेंगे। इसलिए हमें अपने संघर्ष को देश की व्यापक आबादी के मुक्ति के लिए चल रहे संघर्ष से भी जोड़ना होगा।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्बर-अक्टूबर 2023

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