आपस में नहीं, सबको रोज़गार की गारण्टी के लिए लड़ो!
अविनाश (इलाहाबाद)
अभी हाल ही में बीटीसी-बीएड विवाद में सर्वोच्च न्यायालय का फ़ैसला आया जिसके बाद यह मुद्दा सुलझने की जगह और उलझता हुआ नज़र आ रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने राजस्थान हाईकोर्ट के फ़ैसले को बरक़रार रखते हुए प्राथमिक अध्यापक (PRT) के लिए बीएड की योग्यता को समाप्त कर दिया है। फ़ैसले के बाद छात्र समुदाय में दो फाड़ हो गया है। जहाँ इसके ख़िलाफ़ देश के विभिन्न हिस्सों में बीएड अभ्यर्थी सोशल मीडिया से लेकर सड़कों पर उतर कर प्रतिरोध कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर बीटीसी अभ्यर्थी इस फ़ैसले को जीत के तौर पर ले रहे हैं और जश्न मना रहे हैं। इस पूरी प्रक्रिया में रोज़गार गारण्टी का महत्वपूर्ण सवाल नेपथ्य में धकेल दिया गया है।
बीटीसी-बीएड विवाद क्या है?
देश में शिक्षक भर्ती के लिए योग्यता का निर्धारण राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद (NCTE) नामक संस्था करती है। परिषद ने 28 जून 2018 में एक अधिसूचना (Notification) जारी कर प्राथमिक शिक्षकों के लिए बीएड अभ्यार्थियों को योग्य क़रार दिया था। इस अधिसूचना के बाद राजस्थान सरकार द्वारा शिक्षक पात्रता परीक्षा के लिए अधिसूचना जारी की गयी जिसमें बीएड अभ्यर्थियों को प्राथमिक शिक्षक बनने के लिए अयोग्य माना गया। इन्हीं दो अधिसूचनाओं के बाद इस विवाद ने ज़ोर पकड़ा। राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद के फ़ैसले को राजस्थान हाईकोर्ट में चुनौती दी गयी। दूसरी तरफ़ डिप्लोमा इन एलीमेण्ट्री एजुकेशन (D.El.ED) के अभ्यर्थियों ने भी बीएड धारकों की प्राथमिक शिक्षक के पद पर भर्ती को चुनौती दी। इस पूरे मामले में राजस्थान सरकार डीएलएड और बीटीसी अभ्यर्थियों के साथ खड़ी रही। 25 नवम्बर 2021 को हाईकोर्ट ने राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद अधिसूचना को ख़ारिज कर बीएड अभ्यर्थियों को प्राथमिक शिक्षक के लिए अयोग्य घोषित कर दिया। इसके बाद राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद ने राजस्थान हाईकोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ सर्वोच्च न्यायालय में अपील की।
ध्यान रहे कि इस पूरी प्रक्रिया के दौरान विभिन्न राज्यों में शिक्षक भर्ती प्रक्रिया चलती रही और हज़ारों की संख्या में बीएड अभ्यर्थी प्राथमिक शिक्षक बने। अब अचानक आये इस फ़ैसले के बाद इनका भविष्य क्या होगा यह भी अभी अँधेरे में है। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फ़ैसले में अनुच्छेद 21A का हवाला देते हुये कहा कि “शिक्षा के मौलिक अधिकार में मुफ़्त के साथ गुणवत्तापूर्ण शिक्षा भी शामिल है। इसके बिना शिक्षा का कोई मतलब नहीं है। बीएड अभ्यर्थियों में कक्षा 1 से 5 तक के बच्चों को पढ़ाने के लिए ज़रूरी कुशलता और पहुँच नहीं है। वे बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं दे पाएंगे इसलिए वे इसके लिए अयोग्य माने जाएंगे।”
आपस में नहीं, सबके रोज़गार की गारण्टी के लिए लड़ो!
आपस में लड़ने से पहले इस बात पर ध्यान देने कि ज़रूरत है कि फ़ैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने मुफ़्त और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात तो की है लेकिन ये कैसे हासिल किया जायेगा यह नहीं बताया। आज शिक्षा का तीव्र बाज़ारीकरण हो रहा है। शिक्षकों के पदों को लगातार घटाया जा रहा है। नयी शिक्षा नीति-2020 भेदभावपूर्ण दोहरी शिक्षा प्रणाली के लिए ज़िम्मेदार महँगे निजी स्कूलों के शोषणकारी जाल को न सिर्फ़ बनाये रखती है बल्कि उसे और ज़्यादा मज़बूत करती है। शिक्षा को सबके लिए अनिवार्य और निःशुल्क करने की जगह पीपीपी मॉडल के तहत इसे भी मुनाफ़े के मातहत कर दिया गया है। जहाँ पुरानी शिक्षा नीति में विद्यालयों की संख्या पहुँच के हिसाब से तय किए जाने का प्रावधान था उसे नयी शिक्षा नीति में बच्चों की संख्या के हिसाब से कर दिया गया है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020, 50 से कम छात्रों वाले सरकारी स्कूलों का विलय करने या बन्द करने की भी सिफ़ारिश करती है। इसका असर भी दिखना शुरू हो गया है। 2020 में भाजपा की डबल इंजन सरकार ने उड़ीसा में कम नामांकन वाले 11,517 विद्यालयों के विलय की पहल की थी। इसी प्रकार 2021 में हरियाणा सरकार ने 743 प्राथमिक और 314 उच्च प्राथमिक विद्यालयों को बन्द करने के लिए हरी झण्डी दिखा दिया था। कमोबेश यही स्थिति देश के अन्य राज्यों की भी है। इतना ही नहीं इस शिक्षा नीति के मुताबिक़ 3-6 साल के बच्चों को ‘अर्ली चाइल्डहुड केयर एण्ड एजुकेशन’ दी जायेगी लेकिन इसके लिए नियमित अध्यापकों की भर्ती नहीं की जाएगी बल्कि इन्हें आँगनबाड़ी केन्द्रों और स्वयंसेवकों के भरोसे चलाया जायेगा।
शिक्षा मन्त्रालय के स्कूली शिक्षा और साक्षरता विभाग के मुताबिक़ देश भर में 10 लाख 32 हज़ार से ज़्यादा संचालित होने वाले विद्यालयों में से लगभग 68 फ़ीसदी सरकारों द्वारा संचालित हो रहे हैं। वहीं दूसरी ओर देश भर में सरकारी शिक्षकों की संख्या कुल शिक्षकों की संख्या का केवल 50 फ़ीसदी है। अगर सर्वोच्च न्यायालय सचमुच निःशुल्क और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए चिन्तित है तो इसके लिए सबसे पहले निजी विद्यालयों की लूट पर रोक लगाने की ज़रूरत है। आज की तारीख़ में संचालित निजी विद्यालयों के राष्ट्रीयकरण और शिक्षकों के पुराने मानकों के मुताबिक़ ख़ाली पड़े पदों पर भर्ती करने भर से लगभग 39 लाख शिक्षकों की ज़रूरत होगी। इसके अलावा प्राथमिक शिक्षकों से लिए जाने वाले अन्य कामों पर रोक लगाई जाय और इसके जगह पर भर्तियाँ की जाय तो इस प्रक्रिया में भी लाखों पद सृजित होंगे। लेकिन सच्चाई यह है कि मुफ़्त और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा केवल लफ़्फ़ाज़ी है और इसकी आड़ में बेरोज़गारी की मार झेल रहे छात्रों-नौजवानों को आपस में उलझा कर सबके लिए रोज़गार गारण्टी के सवाल को नेपथ्य में धकेला जा रहा है।
अब इन आँकड़ों की रोशनी में सोचिए! जब सरकारी प्राथमिक विद्यालय रहेंगे ही नहीं तो क्या सारे बीटीसी वालों को नौकरी दी जा सकती है? या अगर बीएड अभ्यर्थियों को योग्य मान भी लिया जाय तो सभी को रोज़गार दिया जा सकता है? दरअसल आज नौकरियाँ ही तेज़ी से सिमटती जा रही हैं। निजीकरण छात्रों-नौजवानों के भविष्य पर भारी पड़ता जा रहा है। रेलवे, बिजली, कोल, संचार आदि सभी विभागों को तेज़ी से धनपशुओं के हवाले किया जा रहा है। अगर इस स्थिति के ख़िलाफ़ कोई देशव्यापी जुझारू आन्दोलन नहीं खड़ा होगा तो यह स्थिति और ख़राब होगी। इसलिए ज़रूरी है कि आपस में लड़ने की जगह रोज़गार गारण्टी की लड़ाई के लिए कमर कसी जाय।
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मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्बर-अक्टूबर 2023
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