भाजपा की साम्प्रदायिक फ़ासीवादी राजनीति की आग में जलता मणिपुर

सम्पादकीय

पिछले कई महीनों से मणिपुर जनजातीय ख़ूनी संघर्ष की आग में जल रहा है। अभी तक इस हिंसा में सैकड़ों लोग मारे जा चुके हैं। हज़ारों लोग घायल हैं। बड़ी संख्या में लोगों के घर, उनके पूजा/प्रार्थना स्थल नष्ट हुए हैं और हज़ारों लोग बेघर हो चुके हैं। पुलिस की मौजूदगी में दो लड़कियों के साथ हुई बर्बरता की घटना के ख़ुलासे के बाद देश का हर संवेदनशील इंसान सदमे में था। लेकिन ‘बेटी बचाओ’ का ढोंग रचने वाली भाजपा सरकार पर इसका कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। मोदी को इस घटना के बाद चौतरफ़ा दबाव की मज़बूरी में अपना मुँह खोलना पड़ा। मणिपुर की भाजपा सरकार द्वारा इण्टरनेट बन्द करने के कारण वहाँ इस दौरान अनिवार्य तौर पर हुई होंगी अन्य बर्बर घटनाएँ लोगों के सामने नहीं आ सकीं। दो लड़कियों के साथ बर्बरता की घटना की जानकारी भी लोगों को घटना के काफ़ी समय बाद एक वीडियो के वायरल होने से हो सकी। इससे मणिपुर की भयावह स्थिति का अन्दाज़ा लगाया जा सकता है।
अतीत के नृजातीय संघर्ष और सरकारी भोंपू की नज़र से देखने पर मणिपुर की वर्तमान स्थिति के लिए वहाँ की कुकी जनजाति और मैतेई समुदाय का आपसी संघर्ष मुख्य कारण मालूम पड़ता है। लेकिन तथ्यों की रोशनी में गहराई से देखने पर पता चलता है कि सच्चाई कुछ और ही है। आगे हम मणिपुर के भारतीय राज्य से सम्बन्ध, मणिपुर के नृजातीय संघर्ष के इतिहास, भाजपा के सत्ता में आने के बाद मणिपुर में साम्प्रदायिक राजनीति के उभार और भाजपा सरकार के “हिंसा” रोकने के लिए उठाए गये क़दमों के आधार पर वस्तुस्थिति की तस्वीर पेश करेंगे।

आज़ादी पूर्व औपनिवेशिक सत्ता और आज़ादी के बाद भारतीय राज्य की भूमिका

इतिहास के पन्नों में थोड़ा पीछे जाकर देखें तो हम पाते हैं कि उत्तर-पूर्व का पूरा क्षेत्र आज़ादी से पहले किसी भी भारतीय साम्राज्य का हिस्सा नहीं था। औपनिवेशिक काल में अंग्रेज़ इस क्षेत्र के भूराजनीतिक-सामरिक महत्व और अपने आर्थिक हितों के मद्देनज़र इसे भारत और चीन के बीच एक ‘बफ़र रीजन’ बनाना चाहते थे। मैदानी क्षेत्रों की जनता के विद्रोहों से इस क्षेत्र को अलग-थलग करने के लिए अंग्रेज़ों ने बड़ी ही चालाकी से उत्तर-पूर्व की आबादी की शेष भारत की आबादी से पारस्परिक अन्तरक्रिया नहीं होने दी। इसकी वजह से भूराजनीतिक दृष्टि से शेष भारत से जुड़ने के बावजूद इस क्षेत्र की जनता का सांस्कृतिक अलगाव बना रहा। औपनिवेशिक शासन के अन्तिम दौर में और आज़ादी के बाद राजनीतिक दमन, आर्थिक शोषण, सांस्कृतिक अलगाव से उत्तर-पूर्व की विभिन्न जनजातियों में भारतीय राज्य के ख़िलाफ़ प्रतिरोध की चेतना एक ख़ास क़िस्म के नृजातीय राष्ट्रवाद के रूप में पनपी। नगा जैसी कुछ जनजातियाँ अपने कई उपसमूहों को मिलाकर एक राष्ट्र के रूप में विकसित हुईं तो कुछ राष्ट्रीयताओं और उपराष्ट्रीयताओं के रूप में। इन राष्ट्रों-राष्ट्रीयताओं के प्रतिरोध का साझा बिन्दु दिल्ली की केन्द्रीय सत्ता का विरोध था। परन्तु इनमें आपसी अन्तरविरोधों का भी एक लम्बा इतिहास रहा है। मसलन नगा-कुकी विवाद, नगा-मेइती विवाद, नगा-जोमी विवाद, असमी-बोडो विवाद आदि।
भारतीय संघात्मक ढाँचा वास्तव में यदि आत्मनिर्णय के अधिकार को मान्यता देने के बाद अस्तित्व में आता तो भारतीय संघ के भीतर उत्तर-पूर्व अपने आपमें कई नृजातीय राष्ट्रों-राष्ट्रीयताओं का संघ होता और इन राष्ट्रों-राष्ट्रीयताओं के भीतर भी कई उपराष्ट्रीयताओं और भाषिक समुदायों के अपने स्वायत्तशासी क्षेत्र होते। लेकिन इसकी जगह अतिकेन्द्रीयकृत भारतीय संघात्मक ढाँचा ऊपर से थोप दिया गया। इस वजह से उत्तर-पूर्व की जनता दिल्ली की सत्ता को औपनिवेशिक काल की निरन्तरता में ही देखती रही।
उत्तर-पूर्व के विभिन्न राज्यों के इतिहास पर निगाह डालने से भारतीय राज्यसत्ता का ऐतिहासिक विश्वासघात स्पष्ट रूप से सामने आता है। मणिपुर में औपनिवेशिक काल में ही हिजाम इराबोट के नेतृत्व में सामन्तवाद और उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ एक शक्तिशाली जनवादी आन्दोलन उभरा। जिसकी वजह से अंग्रेज़ों के जाने के बाद ‘मणिपुर संविधान क़ानून 1947’ पास हुआ और मणिपुर राज्य आधुनिक ढंग-ढर्रे पर एक संवैधानिक राजतन्त्र के रूप में सामने आया। नये संविधान के तहत मणिपुर में चुनाव भी हुए और विधानसभा भी गठित हुई। परन्तु 1947 में ही भारत सरकार के प्रतिनिधि वी.पी. मेनन ने राज्य में गिरती क़ानून-व्यवस्था पर विचार-विमर्श के लिए राजा को शिलांग बुलाया और वहाँ कुटिलता से उससे भारत में विलय के समझौते पर हस्ताक्षर करा लिया। भारत सरकार ने इस समझौते की अभिपुष्टि नवनिर्वाचित मणिपुर विधानसभा द्वारा नहीं कराया। उल्टे विधानसभा को भंग कर मणिपुर को चीफ़ कमिश्नर के मातहत कर दिया गया। यहाँ से भारतीय राज्य द्वारा प्रलोभन और दमन की नीति अपनाकर प्रतिरोध को दबाने का सिलसिला शुरू हुआ और इसी के समान्तर सशस्त्र संघर्षों का भी सिलसिला शुरू हो गया। ‘आर्म्ड फोर्सेज़ स्पेशल पावर्स एक्ट’ की आड़ में भारतीय सेना द्वारा की गयी बर्बरता ने इस प्रतिरोध को और तेज़ कर दिया। 2004 में भारतीय सैनिकों द्वारा एक मणिपुरी महिला मनोरमा के बलात्कार और हत्या के विरोध में वहाँ की महिलाओं ने निर्वस्त्र होकर सेना मुख्यालय के सामने विरोध प्रदर्शन किया। भारतीय राज्यसत्ता ने अपने ख़िलाफ़़ खड़े हो रहे प्रतिरोध को तोड़ने के लिए विभिन्न नृजातीय अस्मिताओं पर आधारित सैन्य गुटों के निर्माण को बढ़ावा दिया। इन नृजातीय अस्मिताओं का नेतृत्व कर रहे नेताओं को विकास के नाम पर दिये जा रहे फ़ण्ड में हिस्सेदारी सुनिश्चित कर उन्हें भ्रष्ट करने का काम भी किया।

मणिपुर में नृजातीय संघर्ष के कुछ वस्तुगत कारक

घाटी और पहाड़ी इलाक़ों में रहने वाले अलग-अलग समुदायों के बीच ज़मीन और प्राकृतिक संसाधनों को लेकर, राष्ट्र को लेकर अस्मितावादी तनावों, टकराहटों व हिंसा का पुराना इतिहास रहा है। मणिपुर भौगोलिक रूप से मोटे तौर पर दो भागों – पहाड़ी भाग और इम्फ़ाल घाटी – में बाँटा जा सकता है। पहाड़ी भाग में कुकी और नगा जैसी जनजातियों की बहुतायत है जबकि इम्फ़ाल घाटी में मैतेई नृजाति के लोग रहते हैं। मणिपुर के कुल क्षेत्रफल का मात्र 11 प्रतिशत होने के बावजूद इम्फ़ाल घाटी में मणिपुर की जनसंख्या का बहुलांश निवास करता है जिनमें बड़ा हिस्सा मैतेई लोगों का है। जो आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक दृष्टि से मणिपुर की सबसे प्रभुत्वशाली नृजातीय समुदाय है। मैतेई लोगों की आबादी मणिपुर की कुल जनसंख्या का 53 प्रतिशत है जबकि ज़्यादातर पहाड़ी इलाक़ों में निवास करने वाले नगा और कुकी जनजातियों की आबादी मणिपुर की कुल आबादी का क़रीब 40 प्रतिशत है। पूँजीवादी असमान विकास की स्थिति में वर्तमान समय में मैतेई समुदाय राजनीतिक व आर्थिक दृष्टि से सबसे प्रभुत्वशाली नृजातीय समुदाय है। मैतेई समुदाय की आर्थिक महत्वाकांक्षा उसे जंगल तथा पहाड़ी इलाक़ों की तरफ़ ले जाती है। लेकिन यह इसलिए सम्भव नहीं है क्योंकि मैतेई समुदाय ओबीसी दर्जे के चलते इन इलाक़ों में ज़मीन नहीं ख़रीद सकती। इस मामले में यह इलाक़ा यहाँ रहने वाली एसटी दर्ज़ा प्राप्त कुकी और नगा आबादी के लिए आरक्षित है। इस वजह से मैतेई समुदाय काफ़ी समय से ख़ुद को जनजाति का दर्ज़ा देने की माँग उठा रहा है, ताकि यह बाधा ख़त्म हो सके। जबकि कुकी जनजाति का मानना है कि मैतेई समुदाय राज्य में एक सशक्त समुदाय है और मणिपुर की 60 में से 40 विधायी सीटों पर उनका क़ब्ज़ा है। उनका आगे तर्क है कि मैतेई भाषा संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल है और वे आदिवासियों की तुलना में शैक्षिक, सामाजिक और आर्थिक रूप से बेहतर हैं। इसलिए, यदि मेइती लोगों को एसटी का दर्ज़ा दिया जाता है, तो वे न केवल संविधान द्वारा जनजातियों को दी जाने वाली सभी सरकारी नौकरियों और अन्य लाभों पर क़ब्ज़ा कर लेंगे, बल्कि आदिवासियों की ज़मीन भी हड़प लेंगे। इसी तरह नगा जनजाति के साथ कुकी जनजाति के झगड़े नगाओं के नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालिम (एनएससीएन) की 1980 के दशक में कुकियों द्वारा बसाए गये क्षेत्र को ग्रेटर नगालिम में शामिल करने की माँग से उपजी थी। हालाँकि, 1990 के दशक में नगाओं के साथ संघर्ष के बाद एक अलग राज्य की माँग प्रमुख हो गयी। 1992 और 1997 के बीच, नगा उग्रवादी समूहों द्वारा कुकी लोगों का जातीय सफ़ाया किया गया, जिसके बाद राज्य में अलग/स्वतन्त्र कुकीलैण्ड की माँग करने वाले कई कुकी सशस्त्र समूह सामने आये।
फ़िलहाल, कुकी जनजाति और मैतेई समुदाय के बीच हिंसा के शुरू होने का तात्कालिक कारण अप्रैल माह में मणिपुर उच्च न्यायालय द्वारा दिया गया एक फ़ैसला था, जिसमें राज्य सरकार को एक महीने में मैतेई समुदाय को अनुसूचित जनजाति का दर्ज़ा देने के लिए केन्द्र सरकार को सुझाव भेजने का आदेश दिया गया था। उसके बाद ‘ऑल ट्राइबल स्टूडेण्ट्स यूनियन ऑफ़ मणिपुर’ ने राजधानी इम्फ़ाल में एक जनजाति समर्थन मार्च निकाला था, जिसके बाद से प्रदेश में हिंसा भड़क उठी।

मणिपुर में वर्तमान हिंसा में फ़ासीवादी भाजपा की साम्प्रदायिक राजनीति की भूमिका

उपरोक्त कारकों के अलावा मणिपुर की हालिया हिंसा में एक नया और बड़ा कारण मणिपुर में संघ परिवार व भाजपा की मौजूदगी और उसका फ़ासीवादी प्रयोग रहा है। ग़ौरतलब है कि मणिपुर में 2017 से ही भाजपा की सरकार है जिसका इस समय दूसरा कार्यकाल चल रहा है। पिछले छह वर्षों में संघ परिवार ने सचेतन रूप से मणिपुर में मैतेयी राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने और उसे हिन्दुत्ववादी भारतीय राष्ट्रवाद से जोड़ने के तमाम प्रयास किये हैं। हाल के वर्षों में ऐसी अनेक संस्थाएँ अस्तित्व में आयी हैं जो मैतेयी लोगों के हितों की नुमाइन्दगी करने के नाम पर खुले रूप में मणिपुर की अन्य जनजातियों, जैसे कुकी और नगा के प्रति घृणा का माहौल पैदा कर रही हैं। ऐसे ही मैतेयी राष्ट्रवादी संगठन मैतेयी लोगों को अनुसूचित जनजाति का दर्ज़ा दिलाने की माँग ज़ोर-शोर से उठा रहे हैं। ये संगठन मैतेयी लोगों को यह लालच दे रहे हैं कि अनुसूचित जनजाति का दर्ज़ा मिलने के बाद वे पहाड़ी इलाक़ों में ज़मीन ख़रीद सकेंगे जो वे फ़िलहाल नहीं कर सकते। वे मैतेयी लोगों में इस डर को फैला रहे हैं कि आप्रवासन की वजह से पहाड़ों में रहने वाली जनजातियों, ख़ासकर कुकी लोगों की आबादी में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है और जल्द ही मैतेयी लोग अल्पसंख्यक बन जायेंगे। मणिपुर के मुख्यमन्त्री एन. बीरेन सिंह भी मैतेयी समुदाय से आते हैं और हाल की हिंसा में उन्होंने खुलकर मैतेयी लोगों का पक्ष लेते हुए कुकी लोगों के ख़िलाफ़़ ज़हर उगला है और इस हिंसा के लिए मुख्य रूप से कुकी मिलिटेंसी को ज़िम्मेदार ठहराया। बीरेन सिंह की सरकार ने प्रशासन व पुलिस के शीर्ष पदों पर भी मैतेयी लोगों की नियुक्ति करके पहाड़ी इलाक़ों में बसने वाली जनजातियों की प्रशासन में भागीदारी भी लगातार कम की है और इस वजह से मौजूदा हिंसा के दौरान भी समूचे प्रशासन का रवैया कुकी लोगों के प्रति दुर्भावना व भेदभाव वाला रहा है।
ग़ौरतलब है कि मैतेयी लोगों की अधिकांश आबादी हिन्दू धर्म को मानने वाली है जबकि पहाड़ी इलाक़ों में रहने वाले कुकी और नगा जनजातियों की अधिकांश आबादी ईसाई धर्म को मानने वाली है। मैतेयी और कुकी विवाद को धार्मिक व साम्प्रदायिक रंग में रंगने का ही नतीजा यह रहा कि मौजूदा हिंसा में कुकी लोगों के घरों सहित उनके चर्चों पर हमले किये गये। जवाब में कुकी समूहों ने भी मैतेयी लोगों के मन्दिरों पर हमले किये। संघ परिवार ने अपने साम्प्रदायिक फ़ासीवादी एजेण्डे के तहत देशभर में इस पूरे प्रकरण को ईसाई बनाम हिन्दू के रूप में प्रचारित किया।
इस पूरे प्रकरण में एक कारक और आकर जुड़ जाता है, वह है मणिपुर की सीमा से लगे म्यांमार से कई जनजातियों का भारत में प्रवास! म्यांमार में पिछले दो वर्षों के दौरान वहाँ के सैन्य शासकों द्वारा दमन की वजह से कई जनजातियों के लोग भारत की ओर पलायन करने को मजबूर हैं। ऐसे तमाम आप्रवासी मिज़ोरम व मणिपुर में शरण ले रहे हैं। कुकी जनजाति के लोगों को म्यांमार में चिन कहा जाता है। एक ही जनजाति होने के नाते कुकी लोगों ने हाल के वर्षों में चिन लोगों को पनाह दी है। क़ायदे से भारत सरकार व मणिपुर की राज्य सरकार को मानवीय आधार पर शरणार्थियों को शरण देने के औपचारिक इन्तज़ामात करने चाहिए थे, परन्तु इसकी बजाय मैतेयी राष्ट्रवादी संगठन इम्फ़ाल में मैतेयी लोगों के बीच यह अफ़वाह उड़ा रहे हैं कि कुकी लोगों की बढ़ती आबादी की वजह से मैतेयी लोग मणिपुर में अल्पसंख्यक बन जायेंगे और चूँकि कुकी लोग इम्फ़ाल में ज़मीन ख़रीद सकते हैं इसलिए इम्फ़ाल में उनका प्रभुत्व हो जायेगा। सबसे ख़तरनाक बात यह है कि मणिपुर की सरकार इन मैतेयी संगठनों के सुर से सुर मिला रही है। हाल ही में मणिपुर के मुख्यमन्त्री एन. बीरेन सिंह ने मणिुपर में भी असम की तर्ज़ पर नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिजन्स (एनआरसी) तैयार करने की बात की है ताकि चिन आप्रवासियों को अवैध करार देकर उन्हें मणिपुर से बाहर निकाला जा सके।
मैतेयी अस्मितावादी राजनीति की प्रतिक्रिया में कुकी लोगों के बीच से भी कुकी पहचान पर ज़ोर देने वाली कुकी अस्मितावादी राजनीति भी ज़ोर पकड़ रही है। कुकी नेशनल ऑर्गनाइज़ेशन जैसे कुकी अस्मितावादी संगठन मणिपुर से अलग होकर भारतीय यूनियन के भीतर कुकी लोगों का अपना राज्य कुकीलैण्ड बनाने की माँग कर रहे हैं। हाल ही में मणिपुर के कुछ कुकी विधायकों ने इस बाबत केन्द्र सरकार से अपील भी की है।
इस प्रतिस्पर्धी अस्मितावादी राजनीति ने मणिपुर के हालात बिगाड़ने में अहम भूमिका अदा की है क्योंकि इसकी वजह से मणिपुर हिंसा और प्रतिहिंसा के दुष्चक्र से बाहर नहीं निकल पा रहा है। परन्तु हालात को इस नाज़ुक मुक़ाम पर पहुँचाने के लिए सर्वोपरि तौर पर भारतीय राज्यसत्ता ज़िम्मेदार है क्योंकि उसने वर्षों से अपने ख़िलाफ़ हो रहे प्रतिरोध को तोड़ने के लिए नृजातीय अस्मितावादी संगठनों और साम्प्रदायिक राजनीति को बढ़ावा दिया है। पूर्वोत्तर के राज्यों में बढ़ती नृजातीय हिंसा का फ़ायदा उठाकर भारतीय राज्यसत्ता को समूचे क्षेत्र में अपनी सैन्य उपस्थिति को बढ़ाने व उसे जायज़ ठहराने तथा ऑर्म्ड फ़ोर्सेज़ स्पेशल पावर्स एक्ट जैसे कुख्यात क़ानून का लागू करने में भी मदद मिलती है। इसमें ताज्जुब की बात नहीं है कि भारतीय राज्यसत्ता पर हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्टों के क़ाबिज़ होने के बाद अस्मिताओं के टकराव और भी ज़्यादा हिंसक रूप में सामने आ रहे हैं। मणिपुर व पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों के लोगों को भारतीय राज्यसत्ता की ‘फूट डालो व राज करो’ की इस राजनीति को समझना होगा और नृजातीय संघर्षों में उलझने के बजाय अपनी शक्ति अपने साझा उत्पीड़क व दमनकर्ता यानी भारतीय राज्यसत्ता के ख़िलाफ़ संघर्ष में लगानी होगी। तभी वे अपने राष्ट्रीय मुक्ति के संघर्ष को भी मुक़ाम तक ले जा सकेंगे।

(मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, अक्टूबर-सितम्बर 2023)

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