ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम चुनाव के नतीजे : तेलंगाना व आन्ध्र में संघी फ़ासीवादी राजनीति की छलाँग के संकेत

पराग

पिछले दिसम्बर की शुरुआत में हुए ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम के चुनाव प्रचार के लिए जब अमित शाह, योगी आदित्यनाथ, स्मृति इरानी, जे.पी. नड्डा और जावड़ेकर जैसे फ़ासिस्ट नेताओं ने हैदराबाद में डेरा डाला तो कई लोगों को बहुत ताज्जुब हुआ कि भला एक स्थानीय निकाय के चुनाव में इतने दिग्गज नेता क्यों कूद पड़े हैं। यहाँ तक कि नरेन्द्र मोदी भी कोरोना वैक्सीन बनाने वाले एक निजी लैब का दौरा करने के बहाने चुनाव प्रचार के आख़ि‍री दिन हैदराबाद पहुँच गये। नतीजों से पता चला कि पिछले नगर निगम चुनाव में केवल चार सीटें जीतने वाली भाजपा ने इस बार के चुनाव में 48 सीटें हासिल कर लीं। इससे पहले तेलंगाना के दुब्बका विधान सभा क्षेत्र के उपचुनाव में भाजपा के उम्मीदवार एम. रघुनन्दन राव ने जीत हासिल की थी। ग़ौरतलब है कि दुब्बका विधान सभा सीट तेलंगाना राष्ट्र समिति (टी.आर.एस.) का गढ़ मानी जाती थी। भाजपा की ये जीतें हाल के वर्षों में तेलंगाना में उसकी बढ़ती पैठ का ही सूचक है। इससे पहले 2019 के लोक सभा चुनावों में भाजपा ने 4 सीटें जीतीं थी और उसे 34% वोट मिले थे जबकि 2014 के लोकसभा के चुनावों में उसे महज़ एक सीट ही मिली थी और 2018 के विधान सभा चुनावों में उसे 18 प्रतिशत वोट ही मिले थे। हाल के दिनों में तेलंगाना राष्ट्र समिति और तेलुगूदेशम पार्टी के कई नामीगिरामी नेता और विधायक भाजपा में शामिल हुए हैं जो तेलंगाना व आन्ध्र में भाजपा की बढ़ती पैठ को ही दिखाता है।
नगर निगम के चुनावों में भाजपा की सफलता अनायास नहीं है, बल्कि यह संघ परिवार की विषैली हिन्दुुत्ववादी राजनीतिक रणनीति का नतीजा है। ग़ौरतलब है कि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आर.एस.एस.) ने हाल के वर्षों में दक्षिण भारत में अपने वैचारिक-राजनीतिक कामों पर ज़ोर बहुत बढ़ा दिया है। कर्नाटक में पहले से ही संस्थागत रूप में स्थापित होने के बाद अब दक्षिण भारत के अन्य हिस्सों में हिन्दुत्व की फ़ासिस्ट विचारधारा को विस्तारित करने के लिहाज़ से आन्ध्र और तेलंगाना, आर.एस.एस के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण क्षेत्र हैं। संघ के रणनीतिज्ञों को अच्छी तरह से पता है कि दक्षिण भारत में हैदराबाद वह केन्द्र है जहाँ लोगों का ध्रुवीकरण होने पर उसका असर तेलंगाना और आन्ध्र के कोने-कोने तक होगा और हिन्दुत्व की राजनीति को वहाँ अपनी पैठ बढ़ाने में मदद मिलेगी। हैदराबाद नगर निगम चुनाव को एक मंच की तरह इस्तेमाल करके भाजपा के नेताओं ने लोगों के बीच साम्प्रदायिक नफ़रत, ख़ौफ़ और आशंका फैलाने का काम किया। हैदराबाद में कई सालों से कोई दंगे नहीं हुए हैं और अमूमन आम नागरिक विभिन्न धर्मों के होने के बावजूद हैदराबादी के रूप में एकजुट रहना पसन्द करते हैं। पर ऐसा नहीं है कि वहाँ दंगे हो ही नहीं सकते। हैदराबाद में दंगों का एक पुराना इतिहास भी रहा है। आज़ादी के बाद के दशकों में चारमीनार का अतिक्रमण करके भाग्यलक्ष्मी मन्दिर का निर्माण किया गया और हैदराबाद के नाम को भाग्यनगर में बदलने की जो बातें पहले कभी-कभार सुनने में आती थीं उन्हें भाजपा के नेताओं ने इन चुनावी रैलियों में दोहराकर आने वाले दिनों में अपनी घिनौनी राजनीति को आगे करने के संकेत पूरी तरह से दे दिये हैं।
यही नहीं ग्रेटर हैदराबाद के नगर निगम चुनाव के दौरान कभी स्मृति ईरानी ने रोहिंग्या मुसलमानों के हैदराबाद के पुराने शहर में छुपे होने की बात कही तो कभी प्रदेश अध्यक्ष संजय बण्डी ने हैदराबाद के पुराने शहर पर, जोकि शहर का मुस्लिम बहुल हिस्सा है, पाकिस्तान की तरह सर्जिकल स्ट्राइक करने की बात कही। हैदराबाद में पुराने शहर की सीटों पर मुस्लिम अस्मिता के आधार पर ओवैसी की पार्टी के उम्मीदवार भारी बहुमत से जीत दर्ज करते आये हैं। ओवैसी बंधुओं की राजनीति भी कट्टर मुस्लिम कट्टरपन्थी राजनीति‍ है और उनके द्वारा दिए गए सभी बयान और भाषण जिसमें वो हिन्दू समुदाय को अक्सर चुनौती देते पाए जाते हैं, वो भी भाजपा को हिन्दुओं को संगठित करने में मददगार साबित होती है। ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम मुस्लिम पहचान को संगठित करती रही है और हैदराबाद में भाजपा के इस प्रवेश के साथ वो भी हिन्दू-मुस्लिम की राजनीति का लाभ उठाने को तत्पर है। हैदराबाद की जनता के बीच अब दोनों ही तरफ़ से प्रतिक्रियावादी सामग्री परोसी जा रही है और साम्प्रदायिक ज़हर फैल रहा है। चुनावी रैली में भाजपा के नेता तेजस्वी सूर्या ने ओवैसी को जिन्ना कह कर सम्बोधित किया और हैदराबाद के हिन्दुओं के बीच ये ज़हर उगला कि पुराना शहर पाकिस्तान की तरह है और उसे सही करने के लिए हिन्दुओं की पार्टी भाजपा का सत्ता में आना ज़रूरी है। हैदराबाद नगर निगम चुनाव प्रचार के दौरान जनता को सम्बोधित करते समय योगी और अमित शाह बार-बार निज़ाम संस्कृति से मुक्ति की बात कर रहे थे। हैदराबाद में रहने वाले जानते हैं कि वहाँ की संस्कृति को हिंदुस्तानी/दक्खिनी संस्कृति कहा जाता है जोकि एक साझा संस्कृति है और इससे आज़ाद होने की माँग तो कभी वहाँ की आम जनता ने उठाई ही नहीं है। निज़ाम संस्कृति जैसी शब्दावली हैदराबाद की आम जनता इस्तेमाल ही नहीं करती है। इस तरह के नये शब्द गढ़ने के पीछे घृणित साम्प्रदायिक राजनीति ही है। शब्दों द्वारा लोगों के मन में एक-दूसरे से असुरक्षित महसूस करवाने की यह चाल है। इस तरह के शब्द भी भविष्य में फ़ासिस्ट राजनीति को बढ़ाने के उद्देश्य से लोगों के बीच ज़ोर शोर से प्रचारित किये जा रहे हैं। अमित शाह ने अपने वक्तव्य में कई बार यहाँ की जनता को निज़ाम संस्कृति से मुक्ति दिलाने की बात कहते हुए ये भी कहा की यहाँ मिनी इंडिया बनाया जाएगा। इससे ये बात साफ़ हो जाती है की जहाँ भी मुस्लिम बहुल आबादी रहती है उसे वो असली भारत मानते ही नहीं हैं और अब वहाँ के हिन्दुओं को धर्म और राष्ट्र के नाम पर खतरा बताकर उकसायेंगे और भविष्य में साम्प्रदायिक दंगे तक करवाने से नहीं चूकेंगे। सोशल मीडिया पर तैनात आई टी सेल द्वारा अब हज़ारों बार निज़ाम संस्कृति बोला जा रहा है, फिर भाग्यलक्ष्मी मन्दिर से जुड़ी मिथकीय बातें भी प्रचलित की जा रही हैं। यही नहीं ये खबरें भी फैलाई जा रही हैं कि रोहिंग्या ‘‘आतंकवादी’’ आपके शहर में ही रहते हैं। हैदराबाद के हिन्दुओं को वो ख़तरा भी महसूस करवाया जा रहा है जो है ही नहीं।
ऐतिहासिक तौर पर फ़ासिस्ट झूठ को बार बार बोलकर सच बनाने में और मिथकों को इतिहास बनाने में माहिर होते हैं और यही हैदराबाद में किया जा रहा है। पिछले चार-पाँच सालों से जिस तरह आर.एस.एस ने हर हिन्दू त्योहारों जैसे गणेश चतुर्थी या हनुमान जयन्ती को एक मेगा इवेण्ट और पेड बाइक रैलियों में तब्दील किया है, उससे साफ़ समझ आता है कि ये योजना कोई यकायक नहीं बनी है। इन विशाल आयोजनों में अकूत धन का इस्तेमाल किया जाता है और बड़ी रैलियों द्वारा हिन्दुओं की लामबन्दी को देख कर लगता है कि आने वाले सालों में किसी भी त्योहार पर कुछ छोटे विवाद द्वारा बड़ा दंगा प्रायोजित किया जा सकता है जिससे तेजी से धार्मिक ध्रुवीकरण और बढ़ेगा।
हाल ही की एक रिपोर्ट बताती है कि पिछले साल देश में सबसे ज्यादा इलेक्टोरल बॉण्ड हैदराबाद में भजाये गये और टी.आर.एस और भाजपा द्वारा नगर निगम चुनाव में बहाये पैसे से साफ़ तौर पर दिखाई भी पड़ता है। भाजपा का इरादा यह है कि स्थानीय निकायों के चुनाव जीतकर यहाँ एनआरसी लागू करने की प्रक्रिया शुरू करने का भी है। हैदराबाद में यदि एनआरसी हो जाये और गोदी मीडिया द्वारा कुछ लोगों को रोहिंग्या या घुसपैठिये साबित कर दिया जाए तो हैदराबाद के द्वारा पूरे देश में साम्प्रदायिकता की लहर फैलाई जाये। यही कारण है कि हैदराबाद को फ़ासिस्ट अपनी राजनीति का अहम हिस्सा मानते हैं। एण्टी सीएए प्रोटेस्ट में हैदराबाद में जो जन सैलाब उमड़ा था उसे देखकर फासिस्टों ने उसे चुनौती की तरह लेते हुए वहाँ दंगे करवाने की मन में ठान ली है और इसलिए उन्होंने निज़ाम संस्कृति और भाग्यलक्ष्मी मन्दिर की बात शुरू कर दी है।
जिस तरह नब्बे के दशक में अयोध्या में राम जन्मभूमि की ज़मीन को लेकर विवाद खड़ा करने से लेकर बाबरी मस्जिद के ढहने के पीछे हिन्दुत्व फ़ासिस्ट ताकतों का हाथ रहा है, बिल्कुल उसी तरह हैदराबाद में भाग्यलक्ष्मी मन्दिर को दो समुदायों के विवाद के रूप में एक लम्बे कालखण्ड में स्थापित किया जा रहा है। स्थानीय लोग बताते हैं कि भाग्यलक्ष्मी मन्दिर का निर्माण एक छोटे मन्दिर के रूप में आज़ादी के बाद के दशकों में हुआ और अतिक्रमण करते हुए अब मन्दिर लगभग चारमीनार की दीवार से जा लगा है। भारतीय पुरातत्व विभाग भी पिछले दो दशकों में कई बार चारमीनार के पास से मन्दिर को हटाने का सुझाव दे चुका है। उन्होंने ये भी कहा है कि इस तरह के अतिरिक्त अवैध निर्माण के कारण ही चारमीनार, यूनेस्को द्वारा घोषित वैश्विक धरोहर स्मारकों की सूची में शामिल नहीं हो पा रहा है। पुरातत्व विभाग के अनुसार धीरे धीरे बढ़ते अतिक्रमण की वजह से मन्दिर के गर्भगृह और चारमीनार के बीच एक साझा दीवार है और मन्दिर के पिछली तरफ़ की दीवारें दक्षिण-पूर्वी मीनार की संरचना में प्रविष्ट भी कर चुकी हैं और दोनों संरचनाओं के बीच अब कोई जगह नहीं बची है और इससे संरक्षण सम्बंधित विभिन्न मुद्दे पैदा हो रहे हैं। हालाँकि कई स्थानीय लोग मानते हैं कि मन्दिर का निर्माण चन्द दशकों पहले ही हुआ है, लेकिन प्रचार द्वारा साम्प्रदयिक ताकतों ने हिंदू समूहों के बीच ये तर्क भी गढ़ दिया है कि यह ढाँचा चारमीनार जितना ही पुराना है। ‘द हिन्दू’ अख़बार की एक ख़बर में चारमीनार की दो तस्वीरें दिखाई गयी जिसमें पुरानी ब्लैक एण्ड व्हाइट तस्वीर में कोई मन्दिर नहीं है और आज की तस्वीर में एक बड़ा मन्दिर दिखाई देता है। इससे ये साफ़ हो जाता है कि भाग्यलक्ष्मी मन्दिर का अस्तित्व आज से पचास-साठ साल पहले तक वहाँ था ही नहीं। फिर भी फ़ासीवादी भाजपा एक राजनीतिक षडयंत्र के तहत लोगों के बीच ये धारणा स्थापित करना चाहती है कि ऐतिहासिक तौर पर वह जगह हिन्दुओं की जगह है और मन्दिर का अस्तित्व चारमीनार के पहले से है। इसी झूठ को सच बनाने की कड़ी में ही गृह मंत्री अमित शाह जब हैदराबाद नगर निगम चुनाव प्रचार के लिए जब हैदराबाद पहुंचे तो एयरपोर्ट से सीधे भाग्यलक्ष्मी मन्दिर गये और वहाँ पूजा करने के बाद ही रोडशो में शामिल हुए। हैदराबाद शहर में साम्प्रदायिक माहौल तैयार करने के लिए ये कदम उठाया गया था। हैदराबाद शहर में बहुत प्राचीन मन्दिर हैं जैसे यादगिरिगुट्टा या चिलकुर बालाजी मौजूद हैं परन्तु अमित शाह ने सोची-समझी राजनीतिक साजिश के तहत भाग्यलक्ष्मी मन्दिर को ही चुना जो कि एक मुस्लिम बहुल इलाक़े में है और जिसका अस्तित्व विवादास्पद है। नगर निगम चुनाव में हिन्दुओं के वोट पाने के लिए और आने वाले समय में भी शहर में अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए लोगों के बीच साम्प्रदायिक वैमनस्य फैलाने के मद्देनज़र ही भाग्यलक्ष्मी मन्दिर और शहर का नाम भाग्यनगर रखने का राजनीतिक दाँव खेला गया है।
फ़ासिस्ट अपने काडरो द्वारा हर गली मोहल्ले में सामाजिक-धार्मिक समितियों का गठन करते हैं और हर त्योहार या घटना का राजनीतिक लाभ उठाते हुए अपना आधार धीरे धीरे लोगों के बीच बढ़ाते जाते हैं। सिकन्दराबाद की लोक सभा सीट पर तो भाजपा आडवाणी-वाजपेयी के दिनों से जीतती आ रही है। सिकन्दराबाद में क्रिस्चियन समुदाय काफी संख्या में रहता है और भाजपा के काडर उस इलाके में धार्मिक तनाव बनाते हुए लगातार प्रचार करते हैं जिससे हिन्दू वोट संगठित होकर उन्हें मिलते हैं। इस इलाके में पिछड़ी जातियों से आने वाले हिन्दू जो मुख्यतः व्यापारी हैं, वो भी भाजपा के पुराने समर्थक हैं। इसी प्रकार उत्तर तेलंगाना की तीन सीट निज़ामाबाद, आदिलाबाद और करीमनगर में पिछले तीन सालों में लम्बाडा समुदाय और अन्य आदिवासी समुदाय के बीच तनाव को और बढ़ाया गया है। अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीमित सीटों को लेकर लम्बाडा समुदाय और अन्य अनुसूचित जनजातियों के बीच लड़ाई बनी हुई है। आदिवासियों के नेताओं का ये मानना है कि लम्बाडा समुदाय को इस सूची से बाहर निकाल देना चाहिए क्योंकि वो अब दूसरों के अधिकार छीन रहे हैं। इन इलाक़ों में मौजूद इस तरह के सामाजिक तनाव और धार्मिक तनाव का फायदा भाजपा ने खूब उठाया और बहुसंख्यक आदिवासी समुदाय के उन नेताओं को टिकट दिया जिससे उसे फ़ायदा हुआ और जीत मिली। ये उन लोगों के लिए समझना ज़रूरी है जो भाजपा को केवल उच्च जातियों की ब्राह्मणवादी पार्टी घोषित करते रहते हैं। भाजपा एक काडर पर आधारित फ़ासिस्ट पार्टी है जो समाज में मौजूद किसी भी तरह के धार्मिक या अंतर्जातीय भेद को सोशल इंजीनियरिंग द्वारा और पैसे के बल पर अपने पक्ष में कर चुनाव जीतती है।
टीआरएस का मुख्य आधार हैदराबाद शहर की 50% जनसंख्या के बीच रहा है जो पिछड़ी जातियों से आते हैं और पृथक तेलंगाना आन्दोलन के समय से टीआरएस के समर्थक रहे हैं। पर इन पिछड़ी जातियों में भी अपनी ख़ास जाति‍ की नुमाइन्दगी को लेकर आपसी संघर्ष है। तेलंगाना राज्य बनने के बाद से ही मध्यवर्ती जाति जैसे रेड्डी जो सम्पत्ति‍वान वर्ग है उसे संख्या के अनुपात में राजनीति में अधिक प्रतिनिधित्व मिला जिसके कारण जो अति पिछड़ी जातियाँ हैं उन्हें अपना प्रतिनिधित्व बढ़ाने की राजनीति ने खींचा है। ग्रेटर हैदराबाद चुनाव में इस अन्तरजातीय अन्तरविरोध का फ़ायदा लेने के लिए भाजपा ने अति पिछड़ी जातियों के एक बड़े हिस्से के प्रतिनिधियों को टिकट दिए जिससे उसे फ़ायदा भी हुआ। टीआरएस ने अन्य पिछड़ी जातियों के उम्मीदवारों को टिकट देने के इतिहास को फिर दोहराया पर भाजपा ने अति पिछड़ी जाति‍ के उम्मीदवारों को टिकट देकर अस्मितावादी राजनीति में भी जीत अर्जित कर ली। इसका नतीजा ये रहा कि वोट शेयर के आधार पर टीआरएस और भाजपा में मामूली 0.3% का ही फ़र्क़ बच गया। काडर के आधार पर हिन्दू वोट संगठित करती भाजपा व संघ के स्थानीय कार्यकर्ताओं ने कुरुमा, कुम्मारी, वढेरा, विश्वकर्मा और चत्तााड़ा श्रीवैष्णनव जैसी अति पिछड़ी जातियों के लिए विभिन्न कार्यक्रम भी आयोजित किये और उन्हें पार्टी में कई पदों पर नियुक्त भी किया। इसके अलावा जिन इलाक़ों में परम्परागत उच्च जातीय वोट बैंक मौजूद है वहाँ उन्हें भी आगे बढ़ाया। पिछड़ी जातियों को हिन्दुत्व की विचारधारा के साथ जोड़ के रखने के लिए आर एस एस एक लम्बे समय से काम कर रहा है और भाजपा भी इस बात से अवगत है कि दक्षिण भारत में ख़ासतौर पर तेलंगाना जैसे प्रदेश में पिछड़ी जातियों के बीच हिन्दुत्व का प्रचार-प्रसार और साम्प्रदायिक तनाव ही उनका राजनीतिक आधार बढ़ा सकता है।
हैदराबाद शहर की जनसंख्या का लगभग एक तिहाई हिस्सा मुस्लिम समुदाय है परन्तु सत्तर फ़ीसदी मुस्लिम हैदराबाद की पुराने शहर में बसे हुए हैं। यहीं से ओवैसी बंधुओं की पार्टी जीतती भी रही है। हैदराबाद में सदी के सबसे पहले दंगे 1938 में हुए थे। यही वो दौर था जब हैदराबाद में मुस्लिम लीग और आर्य समाज दोनों का ही आधार बढ़ा था। सामन्ती निज़ाम के ख़ि‍लाफ़ तेलंगाना सशस्त्र विद्रोह के क्रूरता पूर्ण दमन के लिए कांग्रेस ने ही एआईएमआईएम को कम्युनिस्टों को टक्कर देने के लिए बढ़ावा दिया। अगले दंगे इमरजेंसी के बाद के हालत में 1978 में हुए। पर हैदराबाद में सबसे भयानक साम्प्रदायिक दंगे 1990-91 की ठण्ड में हुए थे जिसमें 150 से ज्यादा लोग मारे गए थे। यही वो समय है जबसे भाजपा ने सिकन्दराबाद से चुनाव में जीतना भी शुरू किया था। इसके बाद बाबरी मस्जिद विध्वंस हुआ पर शहर में उस समय दंगे नहीं हुए। इसके बाद पिछले तीस सालों में छुटपुट धार्मिक तनाव तो हुए लेकिन दंगे नहीं हुए हैं। यही कारण है कि आम हैदराबादी व्यक्ति मानता है कि हैदराबाद में दंगे नहीं हो सकते क्यों कि यहाँ की मिलीजुली दक्खनी संस्कृति लोगों को बाँधे रखती है। परन्तु यहाँ का इतिहास बताता है कि यदि एक समुदाय भी राजनीतिक दुष्प्रचार का हिस्सा बन गया तो दंगों संभावनाओं को नकारा नहीं जा सकता। लोगों में ये भय पैदा करने की सक्षमता की एक अहम् वजह थी जिसके कारण भाजपा की सीटें 4 से बढ़कर 48 तक पहुँच गयीं।
भाजपा और संघ परिवार की बढ़ती पैठ की अन्य वजह यह है कि तेलंगाना की आम जनता मौजूदा टीआरएस सरकार से त्रस्त है। पृथक तेलंगाना बनने के बाद आम मेहनतकश जनता के जीवन में कोई सुधार नहीं आया और हैदराबाद में हाल ही में आई बाढ़ में जनता त्राहि-त्राहि करती रही और केसीआर प्रशासन सोता रहा। इसके पहले बस ट्रांसपोर्ट मजदूरों की तनख्वाह ना बढ़ने और प्रवासी मज़दूरों के साथ किये गए सलूक़ से भी जनता में केसीआर सरकार के ख़ि‍लाफ़ असंतोष है। रियल एस्टेट माफ़ि‍या को नदी नालों के ऊपर भी निर्माण करने की अनुमति मिलने के कारण बारिश का पानी निकलने तक के लिए शहर में जगह नहीं बची है जिसके कारण बाढ़ की स्थिति बनी। टीआरएस की भ्रष्ट परिवारवादी पूँजीपरस्त जातिगत राजनीति के बरक्स भाजपा की साम्प्रदायिक राजनीति लोगों के बीच जगह बनाने लगी है। चुनावों में धार्मिक ध्रुवीकरण बढ़ाने से ओवैसी की एआईएमआईएम को भी फायदा पहुँचता है और भाजपा को भी। इन दोनों की ही राजनीति ने एक दूसरे के वोटों को बढ़ाने का काम किया। भाजपा ने हैदराबाद शहर में रैलियों में और वोटरों को बांटने के लिए बहुत धन राशि भी इस्तेमाल की। पूँजीपतियों के समर्थन से राज करती भाजपा को इलेक्टोरल बॉण्ड के माध्यम से किसी भी राजनीतिक दल से ज्यादा पैसा मिलता है। धन बल का इस्तेमाल वो चुनावी प्रचारों में तो लगाती ही है परन्तु इसके अलावा वो ग़रीब वोटरों में भी पैसे बँटवाती है। यही वो फ़ार्मूला है जिसके बल पर ग्रेटर हैदराबाद नगर निगम चुनावों में भाजपा ने अपनी सीटें दस गुना तक बढ़ा ली हैं। ये सब समझते हुए बेहद ज़रूरी है कि यहाँ का प्रगतिशील तबक़ा ये बात समझे कि किसी तरह की जातिगत लामबन्दी या धार्मिक लामबन्दी इस फ़ासिस्ट खतरे से मुकाबला नहीं कर सकती है क्योंकि भाजपा इसमें माहिर है। तेलंगाना विद्रोह की इस ज़मीन पर लोगों को फ़ासिस्टों से सभी मोर्चों पर लड़ना होगा और आम मेहनतकश जनता के बीच उनकी जीवन से जुड़ी माँगों को उठाते हुए तृणमूल स्तर पर इस ख़तरे से निपटने के लिए संगठित करना होगा।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, नवम्बर 2020-फ़रवरी 2021

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