सीएए-एनआरसी-एनपीआर विरोधी जनान्दोलन को फ़ासीवाद-विरोधी आन्दोलन का रूप देना होगा!
एनपीआर के ख़िलाफ़ देशव्यापी जनबहिष्कार है अगला क़दम!

सम्पादकीय

मोदी-शाह की फ़ासीवादी भाजपा सरकार के विरुद्ध पहला बड़ा जनान्दोलन पूरे देश में पिछले कुछ महीनों से जारी है। नागरिकता संशोधन क़ानून के ख़िलाफ़ शाहीन बाग़ में शुरू हुए विरोध प्रदर्शन के साथ इस आन्दोलन की शुरुआत हुई थी। इसके बाद शाहीन बाग़ की तर्ज़ पर पूरे देश में सैंकड़ों जगह इस साम्प्रदायिक क़ानून के ख़िलाफ़ विरोध व धरना प्रदर्शन शुरू हो गये। उनमें से कई सरकार द्वारा दमन के लाख प्रयासों के बावजूद अभी तक जारी हैं। दिल्ली में इन प्रदर्शनों पर हमले और दंगे करवाकर मोदी-शाह सरकार ने कुछ प्रदर्शनों को बन्द करवाने में कामयाबी पायी। लेकिन उनके लिए दिक़्क़त की बात यह है कि अब इस बात से बहुत-कुछ तय नहीं होता कि कितने प्रदर्शन जारी हैं या जारी रहते हैं। इन प्रदर्शनों ने वह मूल कार्यभार एक हद तक पूरा कर दिया है, जो इन्हें करना था। इनकी वजह से देश में सीएए और एनआरसी कम-से-कम एक मुद्दा बन गया। इसके बाद निश्चित तौर पर संघ परिवार ने झूठे प्रचार के ज़रिये हिन्दू जनसमुदायों के व्यापक हिस्सों को इस बात पर सहमत करने का प्रयास किया है कि सीएए और एनआरसी का निशाना वास्तव में मुसलमान हैं। लेकिन इसके बावजूद हिन्दू जनसमुदायों का भी एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा है जो कि असम में एनआरसी के अनुभवों के बाद एनआरसी पर संशयग्रस्त है और कई इसका मुखर विरोध भी कर रहे हैं। निश्चित तौर पर, जहाँ भी सीएए-एनआरसी विरोधी प्रदर्शन जारी हैं, वहाँ ज़रूरी जारी रहने चाहिए। लेकिन अब आन्दोलन को इन विरोध-प्रदर्शनों को जारी रखते हुए इनसे आगे भी जाना होगा। वजह यह है कि घर-घर तक पहुँचने के मामले में संघ परिवार अभी भी जनवादी और प्रगतिशील शक्तियों और संगठनों से आगे है।

सबसे अहम बात यह है कि सीएए-एनआरसी-एनपीआर के विरुद्ध जारी संघर्ष को केवल इन्हीं मुद्दों तक सीमित रखना एक ग़लती होगी और यह सिर्फ़ प्रतिक्रियात्मक स्वतःस्फूर्तता की श्रेणी में आयेगा। एक पल को यह फ़र्ज़ करें कि भाजपा की फ़ासीवादी मोदी-शाह सरकार इन क़ानूनों व क़दमों को वापस लेने, टालने या ठण्डे बस्ते में डालने को मजबूर होती है (यह सम्भव है क्योंकि स्वयं भारतीय पूँजीपति वर्ग के बीच इस प्रश्न पर एक राय नहीं है, जैसा कि कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों द्वारा एनपीआर को अपने राज्य में लागू करने से इन्कार करने से साफ़ प्रकट होता है), तो क्या अपने नापाक मंसूबों को पूरा करने के लिए वह कोई नया क़दम नहीं उठायेगी? ज़ाहिर है, ऐसा नहीं होगा। अधिक सम्भावना यही है, कि मोदी-शाह सरकार अपने फ़ासीवादी मंसूबों को पूरा करने के लिए अल्पसंख्यकों को निशाना बनाने के लिए कोई नयी साज़िश लेकर सामने आयेगी। इसलिए सीएए-एनआरसी-एनपीआर की मुख़ालफ़त के आन्दोलन को एक व्यापक फ़ासीवाद-विरोधी आन्दोलन में तब्दील करना एक अनिवार्यता है।

मौजूदा जनान्दोलन को एक व्यापक फ़ासीवाद-विरोधी आन्दोलन में तब्दील करने के लिए यह ज़रूरी है कि सीएए-एनआरसी-एनपीआर के तात्कालिक रूप से प्रधान मुद्दे के साथ आज जनता को प्रभावित करने वाले सभी बुनियादी मुद्दों को उठाया जाये और उनको लेकर जनता के व्यापक जनसमुदायों को जागृत, गोलबन्द और संगठित किया जाये। इस आन्दोलन में बेरोज़गारी का मुद्दा (जो कि आज अभूतपूर्व सीमाओं तक पहुँच चुकी है), आर्थिक मन्दी से देश की तबाही, महँगाई, बेघरी,  व्यावसायीकरण, अभूतपूर्व गति से निजीकरण और मुनाफ़े में चल रही सरकारी कम्पनियों व उपक्रमों को पूँजीपतियों को औने-पौने दामों पर बेचना और साथ ही कोरोना वायरस की रोकथाम में सरकार की पूर्ण अरुचि और लापरवाही को भी मुद्दा बनाया जाना चाहिए। ये ही वे मुद्दे हैं जिन पर अपनी नाकामी छिपाने के लिए फ़ासीवादी मोदी सरकार देश में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण, दंगों और नरसंहारों की साज़िशाना राजनीति कर रही है।

आन्दोलन को यह व्यापक राजनीतिक स्वरूप देने के लिए विशेष तौर पर मज़दूर वर्ग, निम्न मध्यवर्ग, छात्रों-युवाओं, और स्त्रियों के बीच ऐसे व्यापक जनअभियान, सघन जनसम्पर्क अभियान, पदयात्राएँ, साईकिल यात्राएँ, बाइक यात्राएँ निकालने की आवश्यकता है, जो उन्हें इन मुद्दों पर जागृ‍त, गोलबन्द और संगठित करने का काम करें। बेहद सरल और लोकप्रिय भाषा में पर्चों, पुस्तिकाओं, नाटकों, गीतों, डॉक्युमेण्ट्री फ़िल्मों को छापना-बनाना होगा जो कि इन सभी मुद्दों की गम्भीरता से जनता को अवगत करायें और मोदी-शाह की फ़ासीवादी सत्ता और समूची पूँजीवादी व्यवस्था व पूँजीपति वर्ग की सच्चाई से उनका परिचय करायें। केवल इसी के ज़रिये संघ परिवार की प्रचार मशीनरी को शिकस्त दी जा सकती है जो दिनों-रात झूठे फ़ासीवादी प्रचार में लगी रहती है।

प्रचार के इन रूपों के साथ-साथ सोशल मीडिया, विशेष तौर पर, व्हॉट्सऐप और फ़ेसबुक के ज़रिये भी प्रगतिशील व जनवादी शक्तियों को सच्चाई को जनता के बीच लेकर जाना चाहिए। इसके लिए छोटे-छोटे वीडियो, एनिमेशन, पर्चे, लेख आदि को तैयार किया जाना चाहिए, जिन्हें सोशल मीडिया के माध्यम से जनता के बीच पहुँचाया जा सके। अब तक भी जनवादी और प्रगतिशील शक्तियाँ यह काम करती रही हैं, लेकिन यह क़तई नाकाफ़ी पैमाने पर हुआ है और इसे कहीं ज़्यादा सघन और व्यापक पैमाने पर करने की दरकार है।

इस पूरी प्रक्रिया में तात्कालिक कार्यभार है जनता को 1 अप्रैल से शुरू हो रही एनपीआर की प्रक्रिया के बहिष्कार के लिए तैयार करना। अब काफ़ी लोग इस बात को समझ रहे हैं कि एनपीआर ही एनआरसी का पहला क़दम है और एनपीआर के आधार पर ही एनआरसी तैयार होगी। यह भी कई लोग समझ चुके हैं कि नागरिकता पर ‘डी’ यानी संदेहास्पद का चिह्न एनपीआर फ़ॉर्म में नहीं लगेगा, बल्कि एनपीआर डेटा के आधार पर तैयार होने वाले एनआरसी में लगाया जायेगा। और सरकार ने अदालत में अपने एफ़िडेविट में फिर से स्पष्ट शब्दों में कहा है कि एनआरसी किया जायेगा क्योंकि यह “देश के लिए ज़रूरी है”। इससे स्पष्ट है कि यदि सरकार एनपीआर की प्रक्रिया चलाने में कामयाब होती है, तो वह एनआरसी भी निश्चित तौर पर करेगी। और एनआरसी का नतीजा पूरे देश में क्या होगा, इसकी एक झांकी असम में एनआरसी से सामने आ चुकी है। 19 लाख लोग जो एनआरसी से बाहर हुए, उसमें से क़रीब 13.5 लाख हिन्दू हैं और अन्य मुसलमान। इस सच्चाई के ज़रिये आम हिन्दू आबादी को भी यह समझाया जाना चाहिए, एनआरसी का विरोध न सिर्फ़ जनवादी और सेक्युलर सिद्धान्तों के आधार पर किया जाना चाहिए, बल्कि यह भी समझने की ज़रूरत है कि यह सिर्फ़ मुसलमानों के ख़िलाफ़ नहीं है, बल्कि आम जनता के ख़िलाफ़ है, चाहे उसका मज़हब कुछ भी हो। असम की मिसाल से यह तथ्य सन्देह से परे है। इसलिए इन सच्चाइयों को जनता के सामने लाकर उन्हें एनपीआर के बहिष्कार के लिए तैयार किया जाना चाहिए, गली-गली, मुहल्ले-मुहल्ले में एनपीआर बहिष्कार समितियाँ बनायीं जानी चाहिए। ये ही जनसमितियाँ आगे सभी जन मसलों पर जनता के ग्रासरूट संगठन का स्वरूप ले सकती हैं, चाहे वह बेरोज़गारी व महँगाई का मसला हो या समान व निशुल्क शिक्षा व चिकित्सा का मसला। ये कमेटियाँ जनता के वे निकाय बन सकती हैं, जहाँ जनता क्रान्तिकारी नेतृत्व में राजनीतिक निर्णय लेना सीखती है। शुरुआत इस क़दम से होनी चाहिए कि इन कमेटियों के ज़रिये एनपीआर की प्रक्रिया को नाकाम कर दिया जाये, जिसके आधार पर मोदी सरकार एनआरसी तैयार करने और देश की व्यापक मेहनतकश जनता को सालों-साल क़तारों में खड़ा करने, एक आबादी को डिटेंशन सेण्टरों में पहुँचा कर उनसे ग़ुलाम श्रम निचोड़ने, और उसे मौत, यातना और बीमारियों के गर्त में धकेलने का षड्यंत्र रच रही है।

यह समझना बहुत ज़रूरी है कि एक अच्छी-ख़ासी आम हिन्दू आबादी भी संघ परिवार के प्रचार के प्रभाव में है। उसे सीएए-एनआरसी-एनपीआर की सच्चाई नहीं पता है। वह भी बेरोज़गारी, महँगाई और पहुँच से दूर होती शिक्षा, चिकित्सा और आवास से परेशान है, नाराज़ है, असन्तुष्ट है। और यही नाराज़गी उसमें एक ग़ुस्से और प्रतिक्रिया को जन्म दे रही है। सही राजनीतिक शिक्षा और चेतना के साथ यह नाराज़गी सही शत्रु को पहचान सकती है और उसे निशाना बना सकती है, यानी कि मौजूदा फ़ासीवादी सत्ता और समूची पूँजीवादी व्यवस्था को। लेकिन राजनीतिक चेतना और शिक्षा की कमी के कारण फ़ासीवादी शक्तियाँ उनकी अन्धी प्रतिक्रिया को एक नकली दुश्मन, यानी मुसलमान और दलित, देने में कामयाब हो जाती हैं। आज संघ परिवार और मोदी-शाह की फ़ासीवादी सत्ता इसी प्रयास में लगी है। यह नहीं कह सकते कि वे कामयाब हो रहे हैं, लेकिन वे लगे हुए हैं और कामयाब हो भी सकते हैं, यदि क्रान्तिकारी शक्तियों ने एक सही योजना और कार्यक्रम के तहत काम नहीं किया। मुसलमान आबादी तो अपने दमन और उत्पीड़न के कई दशकों से स्वभावतः इस बात को समझ रही है कि सीएए और एनआरसी में उसे निशाना बनाया जायेगा, लेकिन व्यापक मेहनतकश और आम मध्यवर्गीय हिन्दू आबादी को भी यह समझाना होगा कि सीएए-एनआरसी की गाज उन पर भी गिरने वाली है, जैसा कि असम में हुआ है। जब तक ऐसा नहीं होता, फ़ासीवादी शक्तियों के मंसूबों के कामयाब होने का ख़तरा बना रहेगा।

इसीलिए जहाँ कहीं भी शाहीन बाग़ जारी है, उसे अधिकतम सम्भव समय तक जारी रखा जाना चाहिए, बेहतर हो तब तक जब‍ तक कि सीएए और एनआरसी को वापस लेने के लिए हम मौजूदा फ़ासीवादी निज़ाम को मजबूर नहीं कर देते हैं, लेकिन अब इतना ही काफ़ी नहीं है। आन्दोलन एक नये चरण में है, जिसमें कि अब इन प्रदर्शनों को भरसक जारी रखते हुए, सभी धर्मों के और विशेष तौर पर हिन्दुओं की व्यापक मेहनतकश और आम मध्यवर्गीय आबादी तक फ़ासीवादी मोदी सरकार की असलियत को उजागर किया जाये, सीएए-एनआरसी की साज़िश से उन्हें अवगत कराया जाये और साथ ही मौजूदा आर्थिक संकट, बेरोज़गारी, महँगाई, निजीकरण, शिक्षा, चिकित्सा व आवास के बाज़ारीकरण के ख़िलाफ़ उसे संगठित किया जाये और राजनीतिक शिक्षा और संघर्ष की प्रक्रिया में उसे समझाया जाये कि उसके दुश्मन मुसलमान, दलित, या ईसाई नहीं हैं, बल्कि सभी धर्मों और जातियों की आम मेहनतकश आबादी की दुश्मन यह फ़ासीवादी सत्ता और पूँजीवादी व्यवस्था है। इसी के लिए आन्दोलन के इस नये चरण में हमें इस सच्चाई को लेकर घर-घर तक पहुँचना होगा। इसी पर हमारे आन्दोलन का भविष्य निर्भर करता है।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मार्च-अप्रैल 2020

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