पूँजीवाद की नई गुलामी
तपीश, दिल्ली
आज अगर दिल्ली, बंगलोर, कोलकाता और मुम्बई जैसे महानगरों के मध्यवर्गीय नौजवानों का साक्षात्कार लिया जाय तो उनमें कइयों का सपना होगा कि वे अमेरिका जाएँ। वैश्विक मीडिया और हॉलीवुड की फ़िल्मों ने अमेरिका की छवि एक स्वर्ग जैसे ऐश्वर्यपूर्ण, तमाम सुख-सुविधाओं से लैस देश की बनाई है, जहाँ कोई “ग़रीब” नहीं, और अगर है, तो वो भी कार में चलता है। नतीजतन, अमेरिका तीसरी दुनिया के देशों के मध्यवर्ग का स्वप्नदेश बन गया है-‘एवरीबाडी वॉण्ट्स टू फ्लाई टू अमेरिका’।
लेकिन थोड़ा क़रीब से देखें तो हम पाते हैं कि अमेरिका के स्काई स्क्रेपर्स की बुनियाद में इंसानों की लाशें हैं और उसमें सीमेण्ट की जगह इंसानों की हडि्डयों का चूरा लगा है। ‘‘सिलिकॉन घाटी’’-यह नाम शायद ही किसी युवा के लिए अनजाना हो। अमेरिकी ऐश्वर्य का पर्याय बन चुकी यह जगह दुनिया के कम्प्यूटर उद्योग का प्रमुखतम केन्द्र है। यहाँ पहुँचकर उद्योग खड़ा करने वाले उद्यमियों के किस्से वैसे ही मशहूर हैं जैसे हमारे देश के मारवाड़ी महाजनों के किस्से, जो सिर्फ़ लोटा और धोती लेकर निकल पड़े थे और बाद में बड़े-बड़े उद्योगपति बन गये!
लेकिन चलिए यह मान कर चलते हैं कि आप उन लोगों में नहीं है जो सुनी-सुनायी बातों पर यकीन करते हैं; आप सच्चाई का सिर्फ़ एक पक्ष नहीं देखते, दूसरा पक्ष भी देखते हैं और न्याप्रिय हैं; आप का न्याय आप के पेट और स्वार्थपूर्ण इच्छाओं का गुलाम नहीं है; वह सिर्फ़ उसी को सही मानता है जो हक़ीकत है। सिलिकॉन वैली का एक दूसरा पहलू भी है, जिसमें रुपर्ट मर्डक सरीखों की कोई दिलचस्पी नहीं है। आइए ज़रा कुछ तथ्यों पर गौर करें।
सिलिकॉन वैली में वर्ष 1998 में शीर्ष 14 प्रतिशत वेतनभोगियों की सालाना आय शेष 86 प्रतिशत कामगारों की कुल आय के बराबर थी! इतना ही नहीं वर्ष 1989 के मुकाबले 1996 में 75 प्रतिशत कामगारों की प्रति घण्टा आय जहाँ घटी है वही शीर्ष 20 प्रतिशत आबादी की आय 1992-1997 के बीच 32 प्रतिशत बढ़ गई है। जहाँ के अधिकांश कामगार लातिनी अमेरिका और एशियाई मूल के मज़दूर है जिनका श्रम पूँजीवादी जोकों को ज्यादा सस्ते में मिल जाता है।
ये वो शहर है जहाँ 28,000 से ज्यादा लोगों के पास सोने की जगहें नहीं हैं। उन्हें आप गैराज में, कारों या फ़िर अपने दोस्तों के पास उनकी एकमात्र कोठरी की फ़र्श पर सोता हुआ पा सकते हैं। यहाँ भुखमरी की मार झेल रही 1 लाख आबादी में 41 प्रतिशत वे मज़दूर हैं जो इस शहर के कम्प्यूटर उद्योग में मज़दूरी करते हैं!
पूँजीवाद आज पहले से ज्यादा क्रूर और नंगा हो चुका है। अब तो उसे स्वांग भरने की ज़रूरत भी महसूस नहीं होती। उसके उद्योगों में मज़दूर को ऐसे ही छीला-काटा जाता हैं, जैसे मवेशियों को मांस उद्योग में! भूमण्डलीकरण और एकाधिकार पूँजी के बढ़ते ज़ोर के सामने श्रमिक कानूनों, मानवाधिकारों और मानवीय मूल्यों का कोई स्थान नहीं रह गया है।
मज़दूरों की मेहनत का आखिरी क़तरा तक निचोड़ लेने की हवस ने यहाँ के उद्यमियों/उद्योगपतियों के दिमाग़ पर वही असर किया है जो अच्छा खाद-पानी मिलने पर मुरझाये पौधे पर पड़ता है। कम्पनियों ने मज़दूरी घटाने, पेंशन देने, चिकित्सा सुविधाओं से कन्नी काटने व अन्य रियायतों में भारी कटौती करने के नये-नये तरीके खोज निकाले हैं।
इन नई उद्योग नगरियों में मज़दूर को सीधे फ़ैक्ट्रियों में काम देने की बजाय कांट्रेक्ट पर काम दे दिया जाता है। जिसे वे अपने पूरे परिवार के साथ मिलकर पूरा करते हैं। इस तरह कम समय में बेहद सस्ती दरों पर ज़्यादा उत्पादन होने लगा है। कम्प्यूटर में इस्तेमाल होने वाले करीब 4 हज़ार ट्रांज़िस्टर दिये गये सर्किट के अनुसार जोड़ने पर प्रति ट्रांज़िस्टर महजे 1 पेन्स भुगतान किया जाता है! इतना ही नहीं, इस उद्योग में इस्तेमाल होने वाले रसायनों जैसे बेंज़ीन, आर्सेनिक, क्रोमियम आदि कैंसर का कारण बन रहे हैं। मज़दूरों के बच्चों में जन्मजात विकृतियों के मामले तेज़ी से बढ़े हैं। इन मज़दूरों के हालात रोम के गुलामों की याद दिलाते हैं। 15–16 घण्टे इन मज़दूरों को खटना होता है जिसके बाद वे मुश्किल से अपना गुज़ारा चला पाते हैं। कोई सुरक्षा नहीं होती और भविष्य अंधकारमय और जीवन स्थितियाँ पशुवत होती हैं लेकिन गुलामी चाहे कितनी भी लम्बी हो, ख़त्म हो जाती है।
इस अन्याय के ख़िलाफ़ जनता चुप बैठी हो ऐसा नहीं हैं। कई जगह हड़तालें और विरोध-प्रदर्शन हुये। एक मज़दूर ने मीटिंग में खुलेआम ऐलान किया कि “गुलामी के दिन पूरे होने को आये हैं”।
यह प्रतिरोध अभी अपनी शैशवावस्था में है और धीरे-धीरे जड़ें जमा रहा है।
यह सच है कि तकनोलॉजी ने मानवता के विकास के नए रास्ते खोल दिए हैं। लेकिन पूँजीवाद में तकनोलॉजी उसी प्रकार होती है जैसे बन्दर के हाथ में उस्तरा। तकनोलॉजी का इस्तेमाल अन्धाधुन्ध मुनाफ़ा कमाने के लिए किया जाता है और ऐसा करने में इंसानी ज़िन्दगी, पर्यावरण, सबकुछ तबाह कर दिया जाता है।
क्या कोई ऐसा, इंसाफ़पसंद नौजवान होगा जो इस सच्चाई से इंकार कर ख़ून में लिथड़ी ऐश्वर्य की दुनिया को गले लगाना चाहेगा!
आह्वान कैम्पस टाइम्स, जुलाई-सितम्बर 2005
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