यूक्रेन विवाद के निहितार्थ

विराट

Ukraine 2बाज़ार और मुनाफ़े के लिए विभिन्न साम्राज्‍यवादी इज़ारेदारियों के बीच गलाकाटू प्रतिस्पर्धा यानी लूट की होड़ में अव्वल रहने की ख़ातिर तरकश का हरसम्भव तीर इस्तेमाल करने का सिलसिला काफ़ी लम्बा है। इसी श्रृंखला के रूप में हम इस समय यूक्रेन विवाद से रूबरू हैं। जहाँ एक तरफ़ अमेरिका और यूरोपीय संघ अपने साम्राज्यवादी हितों की पूर्ति के लिए यूक्रेन के “उग्र राष्ट्रवादियों” द्वारा सरकार के तख़्तापलट की हिमायत कर रहे हैं, वहीं दूसरी और रूस भी यूक्रेन में पश्चिमी घुसपैठ को नाकाम करने के हरसम्भव प्रयास कर रहा है। हर तरफ़ से विरोधी शब्दबाणों की वर्षा बदस्तूर जारी है। अमेरिका रूस को एकतरफ़ा प्रतिबन्ध और व्यापार प्रतिबन्ध की घुड़की दे रहा है तो रूस भी उसे जवाबी प्रतिबन्ध की धमकी दे रहा है। यूरोपीय संघ ने रूस पर कुछ आर्थिक प्रतिबन्ध लगाये तो रूस ने भी पलटकर उस पर प्रतिबन्ध लगा दिये। इसने पश्चिमी साम्राज्यवादियों को अवाक कर दिया।

बहरहाल, यूक्रेन के आन्तरिक अन्तरविरोधों का फ़ायदा उठाकर साम्राज्यवादी घुसपैठ की कोशिश का वस्तुपरक मूल्यांकन यूक्रेन की समसामयिक आर्थिकी एवं फासीवादी ध्रुवीकरण में निहित है। यूक्रेन की आर्थिकी फ़िलहाल ख़स्ताहाल है। उसे डूबने से बचने के लिए 35 बिलियन डॉलर की दरकार है और 13 बिलियन डॉलर मौजूदा वर्ष की क़र्ज़ अदायगी के लिए उसे ज़रूरत है। रूस को गैस बिलों का भारी भुगतान भी बाकी है। इस डूबते जहाज के समक्ष दो विकल्प मौजूद थे। पहला विकल्प यूरोपीय संघ-अमेरिका-अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा प्रस्तुत किया गया। यूरोपीय संघ ने यूक्रेन के समक्ष यूरोपीय संघ में शामिल होने के लिए ‘ट्रेड डील’ प्रस्तुत की। यूक्रेन के वित्त मन्त्री की अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के अधिकारियों से मुलाक़ात के पश्चात दो शर्तों पर क़र्ज़ देना तय हुआ, जिसमें यूक्रेनियन मुद्रा का अवमूल्यन व गैस तथा उर्जा की सब्सिडी में कटौती की शर्तें शामिल थी। दूसरा विकल्प रूस द्वारा प्रस्तुत था जिसके तहत यूक्रेन को 15 बिलियन डॉलर का क़र्ज़  व बेहद ज़रूरी गैस आपूर्ति रियायती दरों पर मुहैया करवाने के प्रस्ताव थे। राष्ट्रपति विक्तोर यानुकोविच ने रूसी प्रस्ताव स्वीकृत किया क्योंकि यूरोपीय संघ का प्रस्ताव पहले से दरिद्र यूक्रेन पर अतिमितोपभोग थोपने वाला था। इस मंजूरी के विरोध में 22 जनवरी को राजधानी कीव (पश्चिम यूक्रेन) में फासीवादियों के उग्र प्रदर्शन भड़क उठे। उग्र प्रदर्शनों में जगह जगह आगजनी की घटनायें एवं कुछ पुलिसवालों समेत 100 से अधिक लोगों की हत्या को अंजाम दिया गया। सम्पूर्ण घटनाक्रम का ठीकरा राष्ट्रपति विक्तोर यानुकोविच के सर फूटा तथा संसद द्वारा महाभियोग चलाकर उन्हें पद से अपदस्थ कर वहाँ से भागने के लिए मजबूर किया गया और आनन-फानन में कार्यकारी राष्ट्रपति के तौर पर अलेक्जे़न्दर तुर्चिनोव की नियुक्ति की गयी। हालांकि यानुकोविच सरकार भी अपने भूतपूर्व गणतन्त्रों की तरह अपनी लोकप्रियता खो चुकी थी, ग़ैरलोकतांत्रिक तथा सर से पांव तक भ्रष्टाचार में लिथड़ी हुई थी।

Ukraine 3गौरतलब है कि राष्ट्रपति के अपदस्थ करने के पश्चात जो नयी सरकार अस्तित्व में आयी है वो पश्चिम विश्व की हिमायत करने वाली बुर्जुआ सरकार है जिसमें धुर दक्षिणपन्थी फासीवादी पार्टी ‘स्वोबोदा’ के मन्त्री शामिल हैं जिसका भरण-पोषण अमेरिका व यूरोपीय संघ अपनी हितपूर्ति के लिए करते हैं। यूक्रेन की भौगोलिक स्थिति के हिसाब से रूसी भाषी अल्पसंख्यक मुख्यतः दक्षिण और पूर्वी यूक्रेन जिसमें अर्द्धस्वायत्त राज्य क्रीमिया भी पड़ता है, रहते है, यूक्रेन का नव-फासीवादी समूह ‘स्वोबोदा’ रूसी भाषी अल्पसंख्यकों को अपनी राजनीतिक हितपूर्ति के लिए लगातार निशाना बनाता है। यूक्रेनियन संसद द्वारा रूसी भाषा को प्रशासनिक भाषा की मान्यता के क़ानून को हटाने के प्रस्ताव को राष्ट्रपति द्वारा अस्वीकृत किये जाने पर भी इन्होनें राजधानी कीव में प्रदर्शन किया था। २६ फरवरी को यूरोपीय संघ के विदेशी मामलों के उच्च प्रतिनिधि कैथरीन एस्थन और एस्तोनिया के विदेश मन्त्री उर्मस पैट के बीच टेप की गयी बातचीत के सामने आने पर यह खुलासा हुआ कि तमाम हिंसक घटनाओं को नये गठबन्धन व नव-नाज़ी समूहों के भाड़े के टट्टुओं ने अंजाम दिया था।

26 फरवरी 2014 को हथियारबन्द रूस समर्थकों ने यूक्रेन के क्रीमिया प्रायद्वीप में संसद और सरकारी इमारतों पर को कब्जा कर लिया। रूसी सैनिकों ने क्रीमिया के हवाई अड्डों, एक बन्दरगाह और सैन्य अड्डे पर भी कब्जा कर लिया जिससे रूस और यूक्रेन के बीच आमने-सामने की जंग जैसे हालात बन गये। 2 मार्च को रूस की संसद ने भी राष्ट्रपति पुतिन के यूक्रेन में रूसी सेना भेजने के निर्णय का अनुमोदन कर दिया। इसके पीछे तर्क दिया गया कि वहाँ रूसी मूल के लोग बहुतायत में हैं जिनके हितों की रक्षा करना रूस की ज़िम्मेदारी है।दुनिया भर में इस संकट से चिन्ता छा गयी और कई देशों के राजनयिक अमले हरकत में आ गये। यही नहीं, 3 मार्च को दुनिया भर के शेयर बाज़ार गिर गये। अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा और उनके यूरोपीय सहयोगियों ने रूस के क़दम को अन्तरराष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा के लिए ख़तरा बताया। अन्य देशों द्वारा की गयी अपील पर रूस ने यूक्रेन सीमा पर युद्धाभ्यासरत सेना को आंशिक रूप से वापस बुलाने का निर्णय लिया, इससे युद्ध का ख़तरा तो टल गया किन्तु क्रीमिया पर रूसी सैनिकों का क़ब्ज़ा जारी रहा। रूस का रवैया हालिया वर्षों में उसकी बढ़ती आर्थिक शक्तिमत्ता (जिसका आधार रूस के पास मौजूद विशाल प्राकृतिक गैस रिज़र्व हैं) और उसकी सामरिक शक्ति के फिर से उभार को दिखला रहा है। यही कारण है कि पहले सीरिया में असद के शासन के समर्थन में रूस खुलकर उतरा और पश्चिमी साम्राज्यवादियों को अपने आक्रामक रवैये को वापस लेने को बाध्य किया। उसके बाद, यूक्रेन के मसले पर भी रूस का रवैया वैसा ही आक्रामक है। रूस और चीन ने हाल ही में डॉलर की बजाय युआन व रूबल में विनिमय करने का भी निर्णय लिया है। ये सारे क़दम अमेरिकी वर्चस्व के ह्रासमान होने और रूस-चीन के नेतृत्व में एक नयी चुनौती पैदा करने वाली धुरी के निर्माण की ओर इशारा कर रहे हैं।

बहरहाल, यूक्रेन में जारी इस उठापटक का फायदा वर्चस्व और क्षेत्रधिकार प्राप्त करने के लिए साम्राज्यवादी ताक़तें उठाने की कोशिश में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रही हैं। अपने आन्तरिक अन्तरविरोधों में अत्यधिक उलझे होने के कारण साम्राज्यवादी गिद्धों को यूक्रेन भी एक मुनाफ़े का भरा-पूरा चरागाह नज़र आ रहा है। निर्विवाद रूप में अमेरिका, रूस तथा यूरोपीय संघ द्वारा एक-दूजे पर तमाम आक्षेप, टिप्पणियाँ, शब्दबाण व धमकियाँ दुनिया को आर्थिक व क्षेत्रीय रूप से विभाजित कर देने के साम्राज्यवादी संघर्ष और उनके अन्तरविरोधों की ही अभिव्यक्तियाँ है।

इस पूरे प्रकरण में अगर देखा जाये तों रूस का ‘अपर हैण्ड’ यूक्रेन को तात्कालिक राहत देने के प्रस्तावों के रूप में ज़रूर रहा है किन्तु इसका अर्थ कत्तई समाजसेवा नहीं बल्कि रूस का हित है जो कि सारी दुनिया में छाई आर्थिक मन्दी के बावजूद इस समय एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था है और पूँजी को विस्तारित करने के लिए बहुत ही तत्परता से नए अड्डों की तलाश में संलग्न है तथा अपने समकक्ष महाप्रभुओं को कड़ी टक्कर दे रहा है। जैसा कि लेनिन ने कहा है “यह सन्देह से परे है कि पूँजीवाद का एकाधिकारी पूँजीवाद या वित्त पूँजी में संक्रमण दुनिया के विभाजन के लिए संघर्ष के तीखे होने के साथ जुड़ा होता है।” अतिउत्पादन द्वारा उत्पन्न आर्थिक संकट से निपटने के लिए सारी दुनिया पर युद्ध थोपकर, विनाश और विध्वंस और फिर पुनर्निर्माण की कवायद, स्थिर पूँजी को चलायमान बनाने की साम्राज्यवाद की तार्किक नियति है। मन्दी के परिणामस्वरूप बढ़ती बेरोज़़गारी, भुखमरी, बदहाली और परिणामतः बढ़ते जन-असन्तोष से निपटने के लिए यही वह तर्क है जिसे साम्राज्यवादी और दुनिया के सारे प्रतिक्रियावादी समूह जन-उभारों से निपटने में अपनाते हैं। प्रथम और द्वितीय विश्वयुद्ध इसके सबसे प्रमुख उदाहरण हैं जिनमें मानवता व प्रकृति को भयंकर नुकसान उठाना पड़ा। हालाँकि इन युद्धों में स्वयं साम्राज्यवादी ताक़तों को आपसी टकराहटों के परिणामस्वरूप भारी नुकसान उठाना पड़ा। दो-दो विश्वयुद्धों का समाहार करके वैश्विक बुर्जुआ तन्त्र ने युद्धों को अपने हिसाब से विनियमित और अनुकूलित करने की कोशिश की है। दो-दो विश्वयुद्धों से साम्राज्यवादी ताक़तों ने यह सबक़ निकाला है कि फ़िलहाल आमने-सामने टकराने से बचा जाये। इसके बजाय वे तीसरी दुनिया के देशों की जनता को तोपों का चारा बनाकर सामरिक ज़ोर आजमाइश कर रहे हैं। विश्वयुद्धों का स्थान जारी क्षेत्रीय युद्धों ने ले लिया है लेकिन इनका स्वरूप विश्वव्यापी है। जिसके अनेकों उदाहरण हम अमेरिका द्वारा वियतनाम, इराक़, अफ़गानिस्तान तथा तमाम अफ्रीकी देशों में युद्ध थोपकर साम्राज्यवादी विस्तार के रूप में या ताज़ा मिसाल के तौर पर मध्य एशिया में अमेरिका के लठैत इज़रायल द्वारा फ़िलिस्तीन पर जारी हमले के रूप में देख सकते हैं और यूक्रेन को भी साम्राज्यवादी अपनी प्रयोगशाला के अगले मेढ़क के तौर पर देख रहे हैं।

साम्राज्यवादी ताक़तें युद्धों को अपने हिसाब से चाहे जितना विनियमित व अनुकूलित करने की कोशिश करें, साम्राज्यवादी युद्ध के अपने तर्क होते हैं, ये साम्राज्यवादी हुक़ूमतों की चाहतों से नहीं बल्कि विश्व साम्राज्यवादी तन्त्र के अपने अन्तर्निहित तर्क से पैदा होते हैं। विश्वयुद्ध की सम्भावना पूरी तरह निर्मूल नहीं हो सकती, लेकिन फिर भी अगर मौटे तौर पर बात करें तो पहले की तुलना में कम प्रतीत होती हैं। जब तक साम्राज्यवाद का अस्तित्व है, तब तक मानवता को युद्धों से निजात मिलना मुश्किल है। युद्ध होता ही रहेगा चाहे वह ‘हॉटवॉर’ के रूप में हो या ‘कोल्डवॉर’ के रूप में, गृहयुद्ध के रूप में, क्षेत्रीय युद्ध या फिर विश्वयुद्ध के रूप में क्योंकि साम्राज्यवाद का मतलब ही है युद्ध।

वस्तुतः निरन्तर युद्धजन्य परिस्थितियों की मौजूदगी साम्राज्यवाद के निराशोन्मुख संघर्ष की ही एक अभिव्यक्ति है और अन्ततः बेड़ा गर्क करते हुए समाप्त हो जाना ही साम्राज्यवादी विकास की अपरिहार्य नियति है। इतिहास का यह अपरिवर्तनीय नियम है।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्‍त 2014

 

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