Tag Archives: अरविन्द स्मृति संगोष्ठी

पाँचवीं अरविन्द स्मृति संगोष्ठी की रिपोर्ट

पाँचवीं अरविन्द स्मृति संगोष्ठी पिछले 10-14 मार्च तक इलाहाबाद में सम्पन्न हुई। इस बार संगोष्ठी का विषय था: ‘समाजवादी संक्रमण की समस्याएँ’। संगोष्ठी में इस विषय के अलग-अलग पहलुओं को समेटते हुए कुल दस आलेख प्रस्तुत किये गये और देश के विभिन्न हिस्सों से आये सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों के बीच उन पर पाँचों दिन सुबह से रात तक गम्भीर बहसें और सवाल-जवाब का सिलसिला चलता रहा। संगोष्ठी में भागीदारी के लिए नेपाल से आठ राजनीतिक कार्यकर्ताओं, संस्कृतिकर्मियों व पत्रकारों के दल ने अपने देश के अनुभवों के साथ चर्चा को और जीवन्त बनाया।

खुद पर फिदा मार्क्सवादियों और छद्म अम्बेडकरवादियों के नाम

अब जो लोग मेरे लेखन से वाकिफ़ हैं, उन्हें यह बात कहीं नहीं मिलेगी कि मैंने कभी अम्बेडकरवाद और मार्क्सवाद के समन्वय की हिमायत की है। बल्कि मैंने कभी अम्बेडकरवाद शब्द का इस्तेमाल भी नहीं किया है, जिसे मेरे नाम के साथ जोड़ा जा रहा है। ‘जाति का उन्मूलन’ के प्रति जैसा रवैया रखने का मुझ पर आरोप लगाया जा रहा है, कि यह कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र जितना ही अहम है, इससे यह संकेत मिलता है मानो जाति का उन्मूलन बेकार है। अप्रोच पेपर में दूसरों के नज़रियों का मज़ाक उड़ाने या उन्हें नकारने के साथ-साथ उनके अपने नज़रिए को ही सही समझदारी बताने के हवाले भरे पड़े हैं।

जाति उन्मूलन का रास्ता मज़दूर इंक़लाब और समाजवाद से होकर जाता है, संसदवादी, अस्मितावादी या सुधारवादी राजनीति से नहीं!

सुखविन्दर ने अपने आलेख में प्रदर्शित किया कि अम्बेडकर के चिन्तन में कोई निरन्तरता नहीं है। सामाजिक एजेण्डे के प्रश्न पर पहले वह हिन्दू धर्म में ही सुधार करना चाहते थे; बाद में उन्होंने बुद्धवाद में धर्मान्तरण के रास्ते की वकालत की; और मरने से पहले उन्होंने इसे भी नाकाफ़ी करार दिया। उनका चिन्तन निरीश्वरवादी चिन्तन भी नहीं था और उनका मानना था कि समाज में धर्म रहना चाहिए क्योंकि इसी से समाज में कोई आचार या अच्छे मूल्य रहते हैं। इसलिए वे कम्युनिस्टों और निरीश्वरवादियों की नास्तिकता पर हमला करते थे। आर्थिक पहलू देखें तो अम्बेडकर के पास जो आर्थिक कार्यक्रम था वह पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद का ही कार्यक्रम था; बल्कि नेहरू का पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद का एजेण्डा कुछ मायनों में अम्बेडकर से ज़्यादा रैडिकल था, या कम-से-कम दिखता था। जाति के ख़ात्मे के लिए उन्होंने जो रास्ता सुझाया वह शहरीकरण और उद्योगीकरण का था। लेकिन इतिहास ने दिखलाया है कि शहरीकरण और उद्योगीकरण ने जाति का स्वरूप बदल डाला है, लेकिन उसका ख़ात्मा नहीं किया। अम्बेडकर राजनीतिक तौर पर पूँजीवाद का कोई विकल्प नहीं देते थे। उनकी राजनीति अधिक से अधिक रैडिकल व्यवहारवाद और संविधानवाद तक जाती थी। जनता इतिहास को बदलने वाली शक्ति होती है, इसमें उनका कभी यकीन नहीं था, बल्कि वे नायकों की भूमिका को प्रमुख मानते थे।

तीसरी अरविन्द स्मृति संगोष्ठी – भारत में जनवादी अधिकार आन्दोलन: दिशा, समस्याएँ और चुनौतियाँ

पिछली 22 से 24 जुलाई तक लखनऊ में भारत में जनवादी अधिकार आन्दोलन: दिशा, समस्याएँ और चुनौतियाँ विषय पर तीसरी अरविन्द स्मृति संगोष्ठी का आयोजन किया गया। उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी के हॉल में अरविन्द स्मृति न्यास द्वारा आयोजित संगोष्ठी में तीन दिनों तक हुई गहन चर्चा के दौरान देशभर से आये प्रमुख जनवादी अधिकार संगठनों के प्रतिनिधियों, कार्यकर्ताओं, न्यायविदों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों के बीच इस बात पर आम सहमति बनी कि सत्ता के बढ़ते दमन-उत्पीड़न और जनता के मूलभूत अधिकारों के हनन की बढ़ती घटनाओं के विरुद्ध एक व्यापक तथा एकजुट जनवादी अधिकार आन्दोलन खड़ा करना आज समय की माँग है।

भारत में जनवादी अधिकार आन्दोलन : दिशा, समस्याएँ, और चुनौतियाँ

अपने अनन्य सहयात्री दिवंगत का. अरविन्द की स्मृति में इसं बार तीसरी अरविन्द स्मृति संगोष्ठी का आयोजन हम उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में कर रहे हैं। सामयिकता और प्रासंगिकता की दृष्टि से इस बार तीन दिवसीय अखिल भारतीय संगोष्ठी का विषय रखा गया है : ‘भारत में जनवादी अधिकार आन्दोलन : दिशा, समस्याएँ और चुनौतियाँ।’