‘आज़ादी कूच’ के सन्दर्भ में – एक सम्भावना-सम्पन्न आन्दोलन के अन्तरविरोध और भविष्य का प्रश्न
शिशिर
हाल ही में ऊना काण्ड के बाद चली ऐतिहासिक ‘दलित अस्मिता यात्रा’ के एक वर्ष पूरे होने पर राष्ट्रीय दलित अधिकार मंच के नेतृत्व में अहमदाबाद में एक सम्मेलन के साथ 11 जुलाई को आज़ादी कूच की शुरुआत का एलान किया गया। 12 जुलाई से पुलिस द्वारा आज्ञा रद्द किये जाने के बावजूद मेहसाणा के सोमनाथ चौक पर जनसभा करके यात्रा की शुरुआत की गयी। इस कार्यक्रम में शुरू से ही देश भर के कई वामपन्थी संगठनों व जनसंगठनों से कार्यकर्ता शामिल हुए थे। 11 जुलाई को हुए सम्मेलन में छात्र नेता कन्हैया कुमार, दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षक प्रो. रतनलाल, पत्रकार अनिल चमड़िया, पटेल समुदाय की नेता रेशमा पटेल व कुछ स्थानीय मुसलमान नेता भी शामिल थे। 11 जुलाई के सम्मेलन व 12 जुलाई को शुरू हुई यात्रा में मुख्य मसला था दलित भूमिहीन मज़दूरों को वे ज़मीनें दिलवाना जो कि कागज़ पर आवण्टित हो चुकी हैं। आन्दोलन के प्रमुख नेतृत्व की जिम्मेदारी निभा रहे जिग्नेश मेवानी ने इस बाबत हुए भारी भ्रष्टाचार के विस्तृत आँकड़ें पेश किये और बताया कि 2012 में इस प्रश्न को लेकर एक जनहित याचिका भी दायर की गयी थी। जिग्नेश ने यह भी माँग की कि दलितों को आवण्टित की गयी तमाम ज़मीनों पर तथाकथित दबंगों का कब्ज़ा है और कायदे से उनके ख़िलाफ़ दलित उत्पीड़न क़ानून के तहत मुकदमा दर्ज होना चाहिए। लेकिन कई वर्षों तक यह गोरखधन्धा जारी रहने के बावजूद ऐसा कोई मुकदमा दर्ज नहीं किया गया है। जिग्नेश ने अपनी बात में आगे संविधान के तहत समाजवादी व धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाने की माँग को रखा और सभी भाजपा-विरोधी प्रगतिशील ताकतों को एक मंच पर आने का आह्वान किया। 11 जुलाई के इस सम्मेलन को छात्र नेता कन्हैया कुमार ने भी सम्बोधित किया। हमेशा की तरह उनका भाषण लोकरंजक बातों, चुटीली टिप्पणियों और चुटकुले-नुमा बातों से भरा था लेकिन उसमें कोई ठोस कार्यक्रम या योजना पेश नहीं की गयी थी, जो कि उनके पास है भी नहीं। रेशमा पटेल ने पाटीदारों की ओर से आन्दोलन को समर्थन दिया, जिसके बाद मंच पर ‘जय भीम-जय सरदार’ के नारे गूँजे।
इससे पहले कि हम ‘आज़ादी कूच’ और राष्ट्रीय दलित अधिकार मंच की समूची राजनीति, जिग्नेश मेवानी की राजनीति के विषय में कॉमरेडाना तौर पर कुछ आलोचनात्मक प्रेक्षण रखें, हम इस आन्दोलन के सकारात्मक योगदानों की चर्चा करेंगे।
ऊना का दलित विद्रोह: एक नयी शुरुआत, कुछ नयी सम्भावनाएँ और एक नया योगदान
पिछले वर्ष ऊना में दलितों की बर्बरता से पिटाई का वीडियो फैलते ही देश भर में इस घटना और इसके दोषियों के विरुद्ध असन्तोष की लहर दौड़ गयी। इसके बाद गुजरात में जनसंघर्ष मंच समेत अनेक जनसंगठनों, विशेष तौर पर ऊना दलित अत्याचार लड़त समिति के नेतृत्व में ‘दलित अस्मिता यात्रा’ की शुरुआत की गयी। इसी आन्दोलन से आगे चलकर ‘राष्ट्रीय दलित अधिकार मंच’ एक संगठन के रूप में सामने आया। ऊना काण्ड के बाद किये गये इस शानदार आन्दोलन में न सिर्फ ऊना काण्ड के आरोपियों को सज़ा दिलवाने की माँग की गयी, बल्कि कई अन्य महत्वपूर्ण राजनीतिक व सामाजिक प्रश्नों को भी उठाया गया। मिसाल के तौर पर, दलितों के बीच भूमि सुधार व ज़मीन के बँटवारे का मसला, दलित आबादी द्वारा जातिगत पेशों को खत्म करवाने और साथ ही दलित आबादी के ख़िलाफ़ बढ़ रहे उत्पीड़न के मद्देनज़र उनके तमाम जनवादी और नागरिक अधिकारों को सुनिश्चित करने का मसला।
इस रूप में जिग्नेश मेवानी और उनके नेतृत्व में हुए आन्दोलन का एक महत्वपूर्ण योगदान है। जाति-अन्त आन्दोलन पिछले कई दशकों से प्रतीकवाद और सतही मुद्दों की राजनीति का शिकार रहा है। इसका कारण यह है कि जाति-अन्त आन्दोलन के नेतृत्व में ज़्यादातर जगहों पर या तो अस्मितावादी राजनीति हावी है या फिर अम्बेडकरवादी व्यवहारवादी राजनीति अस्मितावादी राजनीति और अम्बेडकरवादी व्यवहारवाद के हावी होने का ही नतीजा है कि जब गोहाणा, भगाणा, मिर्चपुर, खैरलांजी, जैसे काण्ड होते हैं या बथानी टोला व लक्ष्मणपुर बाथे जैसे काण्ड के हत्यारों को कोर्ट द्वारा छोड़ दिया जाता है तो ज़्यादातर दलितवादी संगठन सड़कों पर नहीं उतरते; वे ज़्यादा से ज़्यादा जुबानी जमाखर्च करके संतोष कर लेते हैं। लेकिन अगर किसी विश्वविद्यालय का नाम बदलकर किसी दलितवादी राजनीति के प्रतीक के नाम पर रखना हो, स्कूली पाठ्यपुस्तकों में अम्बेडकर व नेहरू के कार्टून पर विवाद हो जाये, या अम्बेडकर की मूर्ति की उंगली टूट जाये, तो वे इस कदर भयंकर हल्लागुल्ला मचाते हैं, मानो प्रलय आ गयी हो। इस मामले में एनसीईआरटी की एक पुरानी पाठ्यपुस्तक में (जिसे कि अम्बेडकर के प्रति गहरी हमदर्दी रखने वाले बुद्धिजीवियों सुहास पल्शीकर व योगेन्द्र यादव ने तैयार किया था) छपे कार्टून को लेकर हुआ विवाद प्रातिनिधिक उदाहरण है। यह कार्टून भारत में आज़ादी के बाद संविधान बनने की प्रक्रिया को लेकर उस समय के एक अखबार में छपा था। तमाम दलितवादियों, अस्मितावादियों व अम्बेडकरवादियों ने इसे अपने ढंग से समझा और फिर पूरे देश में काफी विवाद हुआ। इसमें एक घटना यह भी घटी कि एक अम्बेडकरवादी संगठन ने सुहास पल्शीकर के कार्यालय पर हमला कर दिया। ऐसे में, देखा जा सकता है कि किसी भी प्रकार की अस्मितावादी राजनीति बेहद गैर-जनवादी कट्टरपन्थ की ओर जा सकती है। लेकिन ये ही कट्टरता दिखाने वाले अम्बेडकरवादी व्यवहारवादी व अस्मितावादी संगठन उस समय चुप रहते हैं जब मेहनतकश दलितों से जुड़े मसले सामने आते हैं। मिसाल के तौर पर, हाल ही में जब जवखेड़ काण्ड हुआ था तो उसके ख़िलाफ़ बुलाये गये प्रदर्शन में तो ये अम्बेडकरवादी संगठन शामिल नहीं हुए, और बाद में इन्होंने ‘फैक्ट फाइण्डिंग टीम’ भेजने का निर्णय किया, जबकि पहला सही काम यह होना चाहिए था कि इसके ख़िलाफ़ सार्वजनिक प्रदर्शन कर समाज में प्रतिरोध की आवाज को पहुँचाया जाये। इस प्रकार के दर्जनों उदाहरण दिये जा सकते हैं जिसमें ये अम्बेडकरवादी व अस्मितावादी संगठन प्रतीकात्मक मुद्दों पर अस्मिता को केन्द्र बनाकर काफी शोर मचाते हैं लेकिन जब असली मसले उपस्थित होते हैं, जिसमें कि मेहनतकश दलित आबादी का प्रश्न आता है तो ये ग़ायब हो जाते हैं या फिर एक बयान भर जारी करके हाथ झाड़ लेते हैं।
इस मायने में पिछले वर्ष राष्ट्रीय दलित अधिकार मंच व अन्य जनसंगठनों द्वारा जिग्नेश मेवानी के नेतृत्व में शुरू हुए आन्दोलन के बारे में एक बात स्पष्ट रूप से कही जानी चाहिए: एक लम्बे अरसे बाद जाति-अन्त आन्दोलन में एक ऐसी धारा पैदा हुई है जो कि जाति-अन्त आन्दोलन को प्रतीकात्मक मसलों से आगे ठोस भौतिक मसलों पर ले जा रही है। इसका श्रेय काफी हद तक जिग्नेश मेवानी के नेतृत्व को और उनकी युवा टीम की ऊर्जा को जाना चाहिए। यह एक मायने में इस समय देश का एकमात्र ऐसा दलित आन्दोलन है जो कि केवल प्रतीकात्मक मसलों को नहीं उठा रहा, बल्कि प्राथमिकता और पूरे ज़ोर के साथ उन मसलों को उठा रहा है जो कि व्यापक मेहनतकश व मज़दूर दलित आबादी को प्रभावित करते हैं। चलते-चलते बता दिया जाना चाहिए कि आज भी करीब 88 से 90 प्रतिशत दलित या तो शहरी या फिर ग्रामीण मज़दूर हैं। ऐसे में, कोई भी दलित आन्दोलन जो कि अस्मितावादी मुद्दों की चौहद्दी में कैद है, उसका चरित्र प्रतिक्रियावादी ही माना जाना चाहिए। मौजूदा दौर में, ऊना काण्ड के बाद शुरू हुआ यह आन्दोलन एक सुखद अपवाद है। इस आन्दोलन ने दलित उत्पीड़न (जिसके बर्बरतम रूपों के शिकार 99 प्रतिशत मसलों में मेहनतकश दलित होते हैं), दलितों के रोज़गार, शिक्षा, स्वास्थ्य और साथ ही ज़मीन का मसला उठाया है और पुरज़ोर तरीके से उठाया है। इस मायने में जिग्नेश मेवानी की अगुवाई में इस आन्दोलन ने एक बड़ा योगदान किया है और जाति-अन्त के आन्दोलन में एक नयी राह खोली है। इसके लिए इनकी पूरी टीम को क्रान्तिकारी सलाम पेश किया जाना चाहिए।
लेकिन ठीक इसी वजह से कि इस आन्दोलन ने कई अर्थों में एक नयी शुरुआत की है और नयी सम्भावनाओं के द्वार खोले हैं, इसके अन्तरविरोधों, विरोधाभासों और कुछ गम्भीर समस्याओं पर चर्चा की आज ज़रूरत है। इसलिए हम इस आन्दोलन की कुछ समस्याओं की पड़ताल करेंगे। हम शुरुआत कुछ प्रातिनिधिक घटनाओं से करेंगे जो कि ‘आज़ादी कूच’ के दौरान घटित हुईं और जो आन्दोलन में निहित कुछ समस्याओं की ओर इशारा करती हैं।
आज़ादी कूच और ऊना काण्ड के बाद शुरू हुए आन्दोलन की कुछ समस्याएँ
- व्यवहारवाद का असर और उसका खतरा
कुछ घटनाओं का हमने शुरुआत में जिक्र किया है। इनमें से एक घटना यह है कि जब पटेलों की नुमाइन्दगी करने वाली नेता रेशमा पटेल ने अपने भाषण का समापन किया तो ‘जय भीम-जय सरदार’ के नारे लगने लगे। गौरतलब है कि यहाँ ‘जय भीम-लाल सलाम’ के जोड़े में से ‘लाल सलाम’ गायब ही हो गया! वैसे तो ‘जय भीम-लाल सलाम’ का नारा अपने आप में अर्थहीन है, लेकिन हम उस पर बाद में आयेंगे। अभी फिलहाल इस नुक्ते पर कि आज़ादी कूच के नेतृत्व और जिग्नेश मेवानी को सरदार वल्लभभाई पटेल के समर्थन में जय-जयकार के नारे उठाने में भी कोई समस्या नहीं हुई। किसी भी सचेत राजनीतिक कार्यकर्ता को यह पता है कि सरदार पटेल कांग्रेस में दक्षिणपन्थी धड़े का नेतृत्व करते थे। हिन्दू दक्षिणपन्थ की ओर उनका झुकाव व कई दमित राष्ट्रीयताओं को बल प्रयोग या ज़ोर-ज़बर्दस्ती से भारतीय संघ में मिलाने में उनकी भूमिका भी किसी से छिपी नहीं है। जातिवाद और ब्राह्मणवाद का कांग्रेस के भीतर की हिन्दू दक्षिणपन्थी लॉबी (राजेन्द्र प्रसाद, राजगोपालाचारी आदि) से उनका सम्बन्ध भी जगज़ाहिर रहा है। ऐसे में, एक प्रतिबद्ध जाति-विरोधी आन्दोलन का नेतृत्व यदि तात्कालिक हितों के लिए राजनीतिक सिद्धान्तों को तिलांजलि देता है, तो यह अन्त में उसके ही नुकसान का कारण बनेगा। साथ ही, ऐसा कदम दिखलाता है कि उसके भीतर व्यवहारवाद की गहरी प्रवृत्ति है। साथ ही, सबसे मज़ेदार बात यह थी कि भाकपा (माले) लिबरेशन जैसे धुर अवसरवादी संशोधनवादी संगठन के लोग भी ज़ोर-शोर से ‘जय भीम-जय सरदार’ के कोरस में मगन थे! खैर, इसमें कोई अचरज की बात भी नहीं है। माले लिबरेशन का रिकार्ड इस प्रकार के अवसरवाद में शुरू से ही माहिर रहा है। ज़ाहिर है, माले लिबरेशन की संशोधनवादी राजनीति एक बेहद सम्भावनासम्पन्न आन्दोलन पर अपने अवसरवाद से भयंकर विषाक्त प्रभाव डाल रही है, विशेषकर तब जबकि इस आन्दोलन का नेतृत्व अदमनीय ऊर्जा से लैस होने के बावजूद विचारधारात्मक तौर पर सीखने की प्रक्रिया में है और अनुभवहीन है। ग़ौरतलब है कि माले लिबरेशन की नेत्री कविता कृष्णन अण्णा हज़ारे के नेतृत्व वाले ‘इण्डिया अगेंस्ट करप्शन’ के मंच पर विराजमान होने पहुँची थीं, हालाँकि उस मंच पर ऐसी तमाम चीज़ें हो रही थीं जिनका मीडिया पैनलों पर वह काफी गर्मागर्म शब्दों में विरोध करती हैं जैसे कि भारत माता का चित्र, भारत माता की जय के नारे आदि। लेकिन धुर दक्षिणपन्थी लोकरंजकतावादी अण्णा हज़ारे ने जब उन्हें वहाँ से भगा दिया तो माले लिबरेशन वाले भी ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ को दक्षिणपन्थी बताने लगे और अपना भ्रष्टाचार-विरोधी मोर्चा खोल लिया (वैसे यह भी सोचने की बात है कि कोई कम्युनिस्ट पार्टी महज़ भ्रष्टाचार का विरोध करके साफ-सुथरे पूँजीवाद के विभ्रम को बढ़ावा क्यों देगी?)! यानी ‘अंगूर खट्टे थे’! बहरहाल, इस संशोधनवादी पार्टी का ऐसा ही चाल-चलन शुरू से रहा है। यह ‘सर्फ़ बोर्ड’ लेकर हर लहर की सवारी करने को बेताब रहती है!
हम अपनी तरफ से इस ऊना आन्दोलन के नेतृत्व को यही राय देंगे कि किसी भी राजनीतिक और विचारधारात्मक धुरी से रिक्त ऐसे अवसरवादियों से बचें क्योंकि ये आज ऊना आन्दोलन के नेतृत्व की जय-जयकार का नारा लगा रहे हैं मगर अपने संकीर्ण सांगठनिक हितों के लिए कल ये किसी का भी जयकारा लगा देंगे। यह भी ग़ौरतलब है कि आज ऐसे अन्य कई वामपन्थी अवसरवादियों में जिग्नेश मेवानी को एक व्यक्ति के तौर पर और समूचे ऊना आन्दोलन को भी तुष्टिकरण के ज़रिये लपक लेने की एक शर्मनाक प्रतिस्पर्द्धा मची हुई है। आन्दोलन और उसके नेतृत्व को कॉमरेडाना आलोचनाओं के ज़रिये एक सही विचारधारात्मक दिशा और दृष्टि देने के बजाय ये तमाम अवसरवादी संगठन किसी भी तरह के विचारधारात्मक समझौतों के ज़रिये इस आन्दोलन को लपक लेना चाहते हैं। ज़ाहिर है, इससे अन्त में किसी का लाभ नहीं होने वाला है और विशेष तौर पर आन्दोलन की तो कतई हानि होगी।
- भूमि प्रश्न पर जिग्नेश मेवानी के आन्दोलन की अवस्थिति और उसके असमाधेय विरोधाभास
दूसरा अहम प्रश्न यह है कि जिस भौतिक मुद्दे पर जिग्नेश मेवानी की अगुवाई में यह आन्दोलन ज़ोर दे रहा है, क्या वह आज देश की व्यापक मेहनतकश दलित आबादी के लिए एक जीवन्त और आवश्यक मुद्दा है? देश में समूची भूमिहीन आबादी का 47 प्रतिशत दलित आबादी है। इसमें पिछले तीस वर्षों में अपनी जमीनें बेचने को मजबूर हुई दलित आबादी भी है। उसे दोबारा एक छोटी-सी ज़मीन का मालिक बना देने से उसकी कौन-सी समस्या का समाधान होगा? उल्टे वह एक समस्या में फँस जायेगा जिसे लेनिन ने ‘अपनी ही जोत द्वारा आत्म-शोषण’ कहा था। सभी जानते हैं कि छोटी जोत की खेती केवल पैसा पीती है और देती कुछ नहीं है। ज़मीन के मालिकाने से मोह रखने वाले ग़रीब किसान परिवारों के बेटे (कभी-कभी बेटियाँ भी) शहरों में जाकर या दूसरे बड़े किसानों की खेतों पर काम करके पैसे कमाकर छोटी जोत की खेती में झोंकते रहते हैं और उससे कुछ भी नहीं मिलता। वहीं यह भी समझने की बात है कि पूँजीवादी खेती के विकास के साथ खेती का मसला केवल जोत के आकार का प्रश्न नहीं है बल्कि पूँजी की उपलब्धता, ऋण की उपलब्धता आदि पर ज़्यादा निर्भर हो गया है। इसके अलावा यह भी देखने की ज़रूरत है कि आज जिन किसानों के पास डेढ़ से दो हेक्टेयर ज़मीन है, उन किसानों की क्या स्थिति है। ऐसे किसानों का बड़ा हिस्सा पहला मौका मिलते ही किसानी छोड़ना चाहता है, जैसा कि कई सर्वेक्षणों में सामने आ चुका है। कई किसान तो चपरासी और खलासी की नौकरी के लिए घूस देने के लिए अपने खेत बेच रहे हैं।
तीसरी बात यह है कि कोई आन्दोलन यदि सिर्फ दलित भूमिहीन के लिए ज़मीन माँगता है, तो गैर-दलित भूमिहीन के प्रति उसका क्या रुख होगा? यदि वह पूछता है कि उसके लिए यह आन्दोलन ज़मीन क्यों नहीं माँग रहा है, तो इसका क्या जवाब होगा? ऐसी अवस्थिति इस आन्दोलन को आगे दुविधा में डाल देगी और यदि यह इस माँग पर अड़ा रहता है तो यह भूमिहीन मज़दूरों के समूचे वर्ग के बीच एकता बनाने में भारी बाधा पैदा करेगा।
चौथी बात, गुजरात और समूचे भारत में आज खेती योग्य इतनी ज़मीन बची ही नहीं है कि सभी भूमिहीन किसानों को तो दूर सभी दलित भूमिहीनों को भी जीविकोपार्जन योग्य आकार की ज़मीन दी जा सके। एक आकलन के अनुसार अगर आज समस्त भूमिहीनों में भूमि पुनर्वितरण किया जाये तो सबके हिस्से 1.25 हेक्टेयर ज़मीन आयेगी। ज़रा आज के उन किसानों पर निगाह डाल ली जाये जिनके पास इतनी जमीनें हैं। इनमें से ज़्यादातार अर्द्धभुखमरी का जीवन व्यतीत कर रहे हैं, कर्जों के नीचे दबकर आत्महत्याएँ कर रहे हैं या फिर जमीनें बेचकर मज़दूरों की जमात में शामिल हो रहे हैं। आज के दौर में खेती का प्रश्न सामूहिकीकरण से ही हल हो सकता है। आज जबकि किसानों की व्यापक आबादी (70 फीसदी से भी ज़्यादा) को एक प्रगतिशील नारे के लिए तैयार किया जा सकता है, तो फिर उन्हें एक अतीतगामी नारे में क्यों फँसाया जा रहा है, जिससे उन्हें कुछ भी हासिल नहीं होगा? आज इस किसान आबादी और भूमिहीन खेतिहर मज़दूरों के लिए सबसे बड़ा प्रश्न है रोज़गार और शिक्षा तथा राजकीय स्वास्थ्य सेवाओं का प्रश्न। ये वे माँगें हैं जिनपर उन्हें गोलबन्द और संगठित किया जा सकता है और किया जाना चाहिए। उन्हें किसी शेखचिल्ली के सपने में नहीं फँसाया जाना चाहिए।
- लागत मूल्य और लाभकारी मूल्य के लिए संघर्ष: प्रगतिशील या प्रतिगामी?
इस बात को एक हद तक जिग्नेश मेवानी भी स्वीकारते हैं और कहते हैं कि इसके लिए वे लागत मूल्य घटाने और लाभकारी मूल्य बढ़ाने का मुद्दा भी उठायेंगे। यह तो और भी भयंकर बात होगी और समूचे आन्दोलन को मेहनतकशों से दूर करेगी। कारण यह है कि लाभकारी मूल्य की माँग पूर्ण रूप से धनी किसानों की माँग है और यह ग़रीब और मँझोले किसानों के ख़िलाफ़ जाती है। कारण यह है कि लाभकारी मूल्य के बढ़ने से अनाज की कीमतों में वृद्धि होती है और जो भी किसान अनाज का मुख्य रूप से खरीदार है, न कि उत्पादक, उसके लिए भोजन और महँगा हो जाता है। आज देश की कुल आबादी में भूमि के मालिक किसान 27 प्रतिशत से कम हैं और उसमें भी 80 प्रतिशत किसान परिधिगत किसान हैं जो मूलत: और मुख्यत: अनाज के उत्पादक नहीं बल्कि खरीदार हैं। ऐसे में, लाभकारी मूल्य बढ़ने का फायदा केवल धनी किसानों को होगा (जो कि अक्सर स्वयं आढ़ती और सूदखोर भी होते हैं), अनाज व्यापारियों को होगा। इसमें खेतिहर मज़दूर और ग़रीब व मँझोले किसानों का तो भारी नुकसान होगा। सम्भवत: आज़ादी कूच के नेतृत्व को लाभकारी मूल्य की माँग उठाने की सलाह सीपीआई (एमएल) न्यू डेमोक्रेसी के लोगों ने (जो कि पंजाब में धनी किसानों की इस माँग को लेकर लड़ती रहती है) और सीपीआई (एमएल) लिबरेशन के लोगों ने दी है। हमारा सुझाव है कि इस माँग पर गहराई से सोचें क्योंकि यह पूरी माँग ही जनविरोधी माँग है और समूचे मज़दूर वर्ग और ग़रीब किसान वर्ग के ख़िलाफ़ जाती है। जहाँ तक दूसरी माँग का सवाल है तो यह भी मूलत: एक प्रतिक्रियावादी माँग ही है। कारण यह कि लागत मूल्य कम करने का अर्थ है कि कृषि की आगत लागतों (इनपुट कॉस्ट) को कम करना। ये आगत लागतें मूलत: उर्वरक, बिजली, सिंचाई सुविधाओं का मूल्य कम करने की माँग है। ये मूल्य आम तौर पर तभी कम किये जा सकते हैं जबकि इनके उत्पादन या आपूर्ति की व्यवस्था करने वाले उद्यमों में शोषण की दर बढ़ाई जाये, यानी मज़दूरों की वास्तविक मज़दूरी को घटाया जाये, श्रम सघनता को बढ़ाया जाये और बेशी मूल्य की दर को उत्पादकता वृद्धि के जरिये बढ़ाया जाये। ऐसे में, यह माँग भी आम तौर पर व्यापक मेहनतकश आबादी के ख़िलाफ़ जाती है। और अगर लागत मूल्य कुछ कम हो भी गया तो छोटे पैमाने की किसानी का बाज़ार अर्थव्यवस्था में टिक पाना असम्भव है। कारण यह है कि लागत कम होने का भी सबसे ज़्यादा लाभ बड़े धनी किसानों को ही ज़्यादा होगा जिनकी इन सभी इनपुट्स तक पहुँच कहीं ज़्यादा है। ऐसे में, आन्दोलन के नेतृत्व का भूमि की माँग उठाने की असंगतता को संतुलित करने के लिए लागत मूल्य और लाभकारी मूल्य के प्रश्न को उठाने का कदम इस असंगतता और असंतुलन को घटाने की बजाय और बढ़ायेगा। आखिरी बात यह कि आज गुजरात में इतनी ज़मीन ही नहीं है जिससे कि सभी भूमिहीन दलितों को 3 से 5 एकड़ ज़मीन दी जा सके। ऐसा केवल तभी किया जा सकता है जब कि धनी और उच्च मध्य पाटीदार किसानों से ज़मीनें छीनीं जाएँ। क्या आन्दोलन यह माँग उठायेगा? ऐसी सूरत में पाटीदारों की ओर से रेशमा पटेल ने जो समर्थन दिया, वह तब भी देने आयेंगी? ऐसा लगता नहीं है। वास्तव में, ज़मीन पुनर्वितरण की राजनीति का युग आज़ादी के एक दशक के बाद ही बीत चुका था। भारतीय खेती में पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्ध प्रधान बन चुके थे और प्रशियाई पथ से हुए भूमि सुधारों में भूतपूर्व सामन्तों को ही पूँजीवादी भूस्वामी बनाया जा चुका था। जो थोड़े-बहुत भूमि सुधार देश के कुछ हिस्सों में हुए थे, वहाँ भी पिछले चार-पाँच दशक के पूँजीवादी विकास ने खेती में संकेंद्रीकरण की प्रक्रिया को उस मुकाम पर पहुँचा दिया है जिसमें छोटे किसानों की भारी आबादी या तो तबाह हो चुकी है या तबाह होने की कगार पर है। ऐसे में, उन्हें फिर कुछ दशक पीछे ले जाने का और डेढ़-दो हेक्टेयर ज़मीन देकर फिर से उसी पूरी दर्दनाक प्रक्रिया से गुज़ारने का क्या अर्थ है? ऐसे में, हम आन्दोलन के नेतृत्व से अपील करेंगे कि भूमि व किसान प्रश्न पर अपनी पूरी अवस्थिति पर पुनर्विचार करे क्योंकि तात्कालिक लोकरंजकता व लोकप्रियता देने के बावजूद यह आपके आन्दोलन को अन्त में एक बन्द गली में ले जायेगा और दूरगामी तौर पर बेहद नुकसानदेह होगा।
अब हम राष्ट्रीय दलित अधिकार मोर्चा की बेहद सम्भावना सम्पन्न और बेहद युवा टीम के प्रमुख और सक्षम नेता साथी जिग्नेश मेवानी की विचारधारात्मक व राजनीतिक अवस्थिति के विषय में बेहद विनम्रता के साथ कुछ बातें कहना चाहेंगे और चाहेंगे कि इन बातों को आलोचनात्मक सुझाव व विनम्रता से पेश कुछ प्रेक्षणों के तौर पर लिया जाये क्योंकि हमें इस बात का अहसास है कि आन्दोलन का नेतृत्व अभी किसी ठोस विचारधारात्मक व राजनीतिक अवस्थिति पर नहीं पहुँच सका है और पहुँचने की प्रक्रिया में है।
क्या वास्तविक जिग्नेश मेवानी सामने आयेंगे?
इसमें कोई दो राय नहीं है कि जिग्नेश मेवानी के रूप में जाति आन्दोलन को काफी समय बाद एक सक्षम नेतृत्व प्राप्त हुआ है। उनकी युवा टीम के योगदान को भी किसी भी रूप में कम करके नहीं आँका जा सकता है, जिसने पिछले एक वर्ष की यात्रा में प्रशंसनीय कार्य किया है। लेकिन कुछ विचारधारात्मक व राजनीतिक प्रश्नों पर उनकी अवस्थिति को लेकर हम सुनिश्चित नहीं हो पाते हैं कि वह क्या है? यह अनिश्चितता की स्थिति हमें महज विचारधारात्मक व राजनीतिक विभ्रम या सही अवस्थिति की तलाश के कारण पैदा हुई नहीं लगती है। ऐसी सूरत में उसमें कुछ भी गड़बड़ नहीं होता। लेकिन, यह एक प्रकार के व्यवहारवाद और भ्रूण रूप में अवसरवाद के कारण पैदा हुई समस्या लगती है। यह कतई इरादों पर सन्देह करना नहीं है। निश्चित तौर पर हम मानते हैं कि जिग्नेश मेवानी और नेतृत्व के अन्य साथियों के इरादे नेक हैं, लेकिन उनकी विचारधारात्मक अवस्थिति पर स्पष्टत: सचेतन या अवचेतन स्तर पर व्यवहारवाद का असर है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि इसका कारण अम्बेडकर व अम्बेडकरवाद का असर हो। लेकिन हम अटकलबाजि़यों में नहीं जायेंगे और ठोस तौर पर अपने इस प्रेक्षण को पुष्ट करेंगे।
‘लाल’ और ‘नीला’ मिलाने से क्या बनेगा?
जिग्नेश मेवानी ने गाँवों-कस्बों में यात्रा गुज़रने के दौरान जो भाषण दिये उसमें उन्होंने माना कि क्रान्ति के बिना जाति उन्मूलन सम्भव नहीं है। लेकिन आगे उन्होंने कहा कि इसीलिए ‘जय भीम’ और ‘लाल सलाम’ को मिलाने की आवश्यकता है। हमारा मानना है कि यह भ्रामक बात है। जब आप ‘जय भीम’ बोलते हैं तो आपका क्या अर्थ होता है? निश्चित तौर पर, आपका अर्थ केवल डॉ. अम्बेडकर के नाम का जयकारा लगाना नहीं होता होगा। आपका अर्थ निश्चित तौर पर अम्बेडकर की विचारधारा की हिमायत करना होता है। अम्बेडकर की विचारधारा क्या है? अम्बेडकर की विचारधारा अमेरिकी उदार पूँजीवादी विचारधारा की एक शाखा ड्यूईवादी व्यवहारवाद है। यह विचारधारा क्या कहती है? यह विचारधारा निम्न बातों को मानती है और डॉ. अम्बेडकर का इनमें अटूट विश्वास था:
- समाज और प्रकृति में हर परिवर्तन क्रमिक होता है और क्रान्तिकारी परिवर्तन या छलांग की इसमें कोई जगह नहीं होती।
- समाज वर्गों व वर्गों के अन्तरविरोधों से नहीं बनता और संचालित होता है, बल्कि यह असंगत समूहों का एक समुच्चय होता है, जिनमें मालिकों के संघ, मज़दूरों की यूनियन, किसी चुनावी दल से लेकर एक बास्केटबॉल क्लब आदि तक शामिल है! यानी बस वर्ग को छोड़कर कोई भी असंगत, अतुलनीय समूहों का समुच्चय स्वीकार्य है।
- समाज में केवल क्रमिक परिवर्तन होते हैं और जो क्रमिक परिवर्तन होते हैं, उसके मुख्य कारक या अभिकर्ता जनसमुदाय नहीं होते, बल्कि सरकार होती है। जनसमुदायों द्वारा स्वयं बलपूर्वक अपने अधिकार प्राप्त करने के प्रयास से केवल हिंसा होती है और हिंसा केवल विनाश पैदा करती है।
- सरकार के चिन्तन और कार्य को प्रभावित करने की जिम्मेदारी बौद्धिक समुदाय की होती है और इसीलिए दलित समुदाय के नौजवानों को सरकार में व्हाइट कॉलर नौकरियों में जाना चाहिए और सरकारी कर्मचारी बनकर सरकार की कार्रवाइयों व नीतियों को निर्धारित करना चाहिए।
इन चार विशेषताओं के अलावा व्यवहारवाद की अन्य कई विशेषताएँ हैं जिन पर चर्चा करना यहाँ प्रासंगिक नहीं होगा।
लेकिन साथ ही डॉ. अम्बेडकर के मार्क्सवाद और आमूलगामी क्रान्ति के बारे में विचारों से परिचित होना उपयोगी होगा। उनका कहना था कि मार्क्सवाद ‘सुअरों का दर्शन’ है। इसके अलावा उनका मानना था कि मज़दूरों की हड़तालें और कम्युनिज़्म जुड़वां भाई हैं और वे इनके विरोध में हैं क्योंकि इससे कम्युनिस्टों को राजनीतिक फायदा मिलता है और मज़दूरों का आर्थिक नुकसान होता है। साथ ही, उन्होंने यह भी कहा था कि आजादी मिलने के बाद हमारे जनवादी गणराज्य में बलपूर्वक या हिंसात्मक रूप में अपने हक़ों के लिए लड़ने का कोई स्थान नहीं है। यहाँ इशारा किसान विद्रोहों की ओर था। यह अम्बेडकर के स्पष्ट विचार थे। ऐसे में, यदि जय भीम के नारे का अर्थ अम्बेडकर की विचारधारा की हिमायत है, तो फिर जिग्नेश मेवानी उसे लाल सलाम से किस तरह मिलाना चाहते हैं?
दूसरी बात यह कि यह नारा अपनेआप में एक व्यक्ति-केन्द्रित अतार्किक नारा है। कोई क्रान्तिकारी कभी ‘जय भगतसिंह’ या ‘जय मार्क्स’ का नारा नहीं लगायेगा। तीसरी बात, यह नारा डॉ. अम्बेडकर के जीवन काल में जन्म ले चुका था। कायदन, इसका विरोध कर ऐसे नारे की अतर्कपरकता पर उसी समय डॉ. अम्बेडकर को स्वयं प्रश्न उठाना चाहिए था। बहरहाल, किन्हीं वजहों से ऐसा नहीं हो पाया होगा और आज इसके लिए डॉ. अम्बेडकर की आलोचना करने का कोई ‘ऑपरेटिव पार्ट’ नहीं है। लेकिन आज जाति-अन्त आन्दोलन में कम से कम तार्किक और वैज्ञानिक दृष्टि रखने वाला कोई व्यक्ति इस नारे की किस प्रकार हिमायत कर सकता है? लेकिन यह प्रश्न अभी छोड़ भी दिया जाय तो मूल बात यह है कि अम्बेडकरवाद और मार्क्सवाद के बीच विचारधारात्मक तौर पर कोई तालमेल नहीं हो सकता है क्योंकि ये दोनों दो विपरीत विश्व दृष्टिकोण, अप्रोच और मेथड हैं। मुद्दों के आधार पर जेनुइन व ईमानदार अम्बेडकरवादी संगठनों व क्रान्तिकारी जनसंगठनों के बीच मोर्चा बन सकता है। लेकिन विचारधारात्मक तौर पर किसी समन्वय की बात करना अज्ञान होगा। यही कारण है कि चन्द एक पढ़े-लिखे अम्बेडकरवादी (क्योंकि अधिकांश अम्बेडकरवादियों ने स्वयं अम्बेडकर को नहीं पढ़ा है!) और क्रान्तिकारी मार्क्सवादी ऐसे किसी समन्वय का विरोध करते हैं। ऐसे में, सीपीआई (एमएल) न्यू डेमोक्रेसी के लोग ‘जय भीम – लाल सलाम’ की ताल पर ता-ता थैया क्यों कर रहे थे, यह गहरे शोध का विषय है! शायद उन्हें लगता है कि ऐसे तुष्टिकरणों से दलित जनता को साथ लिया जा सकता है। यह नादानी है। दलित जनता के बीच सक्रिय संगठन व साथ ही स्वयं दलित जनता भी समझती है कि आज तमाम वामपन्थी अम्बेडकरवादियों से भी ज़्यादा अम्बेडकरवादी क्यों बन रहे हैं और रुदालियों की तरह छाती पीट-पीटकर अम्बेडकर के प्रश्न पर ‘गलती हो गयी-माफ कर दो’ की कव्वाली क्यों गा रहे हैं। ऐसी तुष्टिकरण की राजनीति न तो कहीं ले जायेगी और न ही सफल हो सकती है। सबसे मज़ेदार स्थिति उन लोगों की बन जाती है जो अम्बेडकरवाद और मार्क्सवाद का तालमेल करने का प्रयास करते हैं और दो स्टूलों पर साथ बैठने का प्रयास करने के चक्कर में दोनों स्टूलों के बीच गिर जाते हैं। आनन्द तेलतुम्बड़े जैसे बुद्धिजीवियों और आजकल तमाम मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों व संगठनों की आजकल कुछ ऐसी ही हास्यास्पद स्थिति बनी हुई है। अन्दर ही अन्दर वे जानते हैं अम्बेडकरवाद किसी भी सामाजिक परिवर्तन के लिए सरकार को सुधारवादी आवेदन, प्रार्थनाएँ और अर्जियाँ देने से आगे नहीं जाता है जबकि मार्क्सवादी समाज में परिवर्तन के क्रान्तिकारी सिद्धान्त की हिमायत करता है और मानता है कि कोई भी परिवर्तन वर्ग संघर्ष, क्रान्ति और बल प्रयोग के बगैर नहीं होता। हमारा मानना है कि दो नावों की सवारी से पैदा होने वाली इस हास्यास्पद मगर त्रासद नियति से ऊना आन्दोलन के नेतृत्व को बचना चाहिए और विचारधारात्मक व राजनीतिक तौर पर एक साफ स्थिति अपनानी चाहिए।
साथी जिग्नेश का भूमि के प्रश्न को उठाने को लेकर जो मानना है, उसके बारे में हम पिछले उपशीर्षक में ही अपनी राय ज़ाहिर कर चुके हैं। आज के दौर में ज़मीन पुनर्वितरण का नारा एक प्रतिगामी नारा है क्योंकि इतिहास उस मंजि़ल से आगे निकल चुका है।
भूमि और श्रमिकों के प्रश्न पर डॉ. अम्बेडकर की अवस्थिति क्या थी?
जिग्नेश मेवानी अम्बेडकर की विरासत को वामपन्थी परम्परा के नजदीक लाने के प्रयास में कहते हैं कि अम्बेडकर को जीवन के अन्तिम दिनों में यह लगने लगा था कि उन्होंने गाँव के ग़रीब व भूमिहीन दलितों के लिए ज़्यादा कुछ नहीं किया था और इसीलिए उन्होंने अपने करीबी सहयोगी व शिष्य दादा साहेब गायकवाड़ को गाँव के ग़रीब दलितों के भूमि के प्रश्न को उठाने के लिए कहा था। इसी दौरान जिग्नेश ने एक साक्षात्कार के दौरान कहा कि अम्बेडकर ने भूमि और श्रमिकों के मसले पर क्या कहा था इसके बारे में कोई कुछ नहीं बोलता है। हम यही कहेंगे कि जिग्नेश सिर्फ इतनी बातें कहकर रुक न जाएँ और खुद बताएँ कि अम्बेडकर ने भूमि सुधार व श्रमिकों के मसले पर क्या कहा था।
हम संक्षेप में बताना चाहेंगे कि इस बारे में अम्बेडकर के क्या विचार थे। अम्बेडकर ने महाड़ सम्मेलन (मार्च, 1927) में भूमि के प्रश्न पर कहा था कि दलितों को खेती के क्षेत्र में जाना चाहिए और उन्हें ‘वन विभाग से प्रार्थना करनी चाहिए वह बेकार पड़ी ज़मीन उसे दे दे।’ गौर करें कि अम्बेडकर सामन्ती रियासतों व जागीरों को भंग कर ज़मीन जब्ती और भूमिहीनों के बीच उसके पुनर्वितरण की माँग नहीं कर रहे थे बल्कि वन विभाग की बेकार ज़मीन के लिए प्रार्थना कर रहे थे। आज़ादी के बाद भी अम्बेडकर का स्पष्ट तौर पर मानना था कि जमींदारों से बिना मुआवज़े के ज़मीन नहीं छीननी चाहिए क्योंकि उनका निजी सम्पत्ति के सिद्धान्त में अटूट भरोसा था।
अम्बेडकर ने कभी भी भूस्वामियों से ज़मीन छीनकर किसानों को देने की माँग नहीं उठायी जो कि वास्तव में भूमि सुधार का सही अर्थ होता है। वे मानकर चलते थे कि ये जागीरें सामन्तों व जमींदारों की निजी सम्पत्ति हैं। उनका इस बात पर कभी ध्यान नहीं गया कि ये जागीरें जनता से जमीनें छीन-छीनकर और ग़रीबों को बेदखल करके खड़ी की गयी थीं और इन्हीं जागीरों पर इन भूमिहीनों ने अपनी कई पीढ़ियाँ खर्च कर इन ऐयाश ज़मींदारों के लिए सुख-समृद्धि पैदा की थी। दादा साहेब गायकवाड़ ने जब भूमि सुधार आन्दोलन के तीन दौर 1953, 1959 और 1965 में चलाये तो इसमें एक ही इजाफा किया। उन्होंने इसके लिए व्यापक जनान्दोलन किया, जो कि अम्बेडकर ने इस पैमाने पर कभी नहीं किया था। लेकिन दादा साहब गायकवाड़ भी जमींदारों की जमीनें छीनकर दलित भूमिहीनों में बाँटने की माँग नहीं कर रहे थे। आइये देखते हैं कि उनके चार्टर में क्या लिखा था। उनका चार्टर इस प्रकार था:
- लोकसभा के प्रांगण में डॉ. अम्बेडकर की प्रतिमा लगायी जाये।
- वास्तव में स्वयं खेती करने वाले के लिए क़ानून में सुधार किया जाये।
- सरकार को बेकार जमीनों को भूमिहीनों को दे देना चाहिए।
इसके अतिरिक्त सात और माँगें थीं जिनमें न्यूनतम मज़दूरी क़ानून को लागू करना, खाद्य सामग्री की कम दामों पर उपलब्धता को सुनिश्चित करना आदि शामिल था। 1964 में, यानी कि आन्दोलन के तीसरे चरण में लाखों लोगों ने गिरफ्तारी दी। इसके बाद दादा साहेब गायकवाड़ ने सरकार को भूमि देने के विषय में कुछ सलाहें दीं। वे इस प्रकार थीं: बंजर भूमि को उपजाऊ बनाया जाय और उन्हें भूमिहीनों को दिया जाय। यानी कि यह आन्दोलन कहीं भी रैडिकल भूमि सुधार की माँग नहीं कर रहा था। वास्तव में यह वही माँग कर रहा था जिसकी बात अम्बेडकर ने की थी: सरकार द्वारा खाली पड़ी बेकार जमीनों को भूमिहीनों में बाँटना। यानी, बड़े भूस्वामियों की ज़मीन पर कोई ‘बुरी नज़र’ डाले बिना दलित भूमिहीनों के लिए भूदान! यह भूमि मालिकाने में असमानता और बड़े भूस्वामियों से जमीनें लेने की वास्तविक क्रान्तिकारी माँग को नहीं उठा रहा था बल्कि सरकार/राज्यसत्ता से दान माँग रहा था। यह जरूर है कि यह दान माँगने के लिए दादा साहेब गायकवाड़ ने एक जनान्दोलन किया। लेकिन उसके निशाने पर जमींदारों का समूचा वर्ग नहीं था। जैसा कि अम्बेडकर का मानना था, हर परिवर्तन सरकार के द्वारा आता है, न कि वर्गों के संघर्ष के द्वारा। इसलिए यहाँ भी भूस्वामियों के समूचे वर्ग को निशाने पर रखने, रैडिकल भूमि सुधारों की माँग करने की बजाय सरकार से दान माँगा जा रहा था। क्या इसे रैडिकल भूमि सुधार का आन्दोलन कहा जाय? क्या यह माना जाय कि अम्बेडकर अपने जीवन के अन्त में सरकार व राज्यसत्ता से आमना-सामना करने की किसी रैडिकल नीति पर आ गये थे? क्या यह माना जाय कि दादा साहेब गायकवाड़ ने कोई क्रान्तिकारी भूमि सुधार आन्दोलन किया था? कतई नहीं। यह तो बुर्जुआ दायरे के भीतर भी रैडिकल भूमि सुधार नहीं माना जा सकता है। इसलिए हमें लगता है कि इस विषय में पूरी जाँच-पड़ताल करके आन्दोलन के नेतृत्व को समझना होगा कि भूमि के प्रश्न पर अम्बेडकर और बाद में उनके अनुसरणकर्ताओं की क्या समझदारी थी।
जहाँ तक श्रमिकों व पूँजीपतियों के रिश्ते के विषय में अम्बेडकर की समझदारी का प्रश्न है तो वे स्पष्ट तौर पर मानते थे कि श्रम और पूँजी के हित वास्तव में समान हैं और उनके अन्तरविरोध केवल सतह के स्तर पर होते हैं, यानी प्रतीतिगत होते हैं। उनके बीच कोई वास्तविक अन्तरविरोध नहीं होते। किसी भी उदार बुर्जुआ चिन्तक के समान वे मानते थे कि मज़दूरों को सामूहिक मोलभाव का हक़ है। इसीलिए वायसराय की परिषद के श्रम मन्त्रालय के सदस्य के तौर पर उन्होंने इण्डियन ट्रेड यूनियन अमेण्डमेंट बिल पारित करवाने में केन्द्रीय भूमिका निभाई। लेकिन हर उदार बुर्जुआ चिन्तक समझता है कि सुनवाई का कोई क़ानूनी चैनल न होना, सामूहिक मोलभाव का कोई मैकेनिज़्म नहीं होना पूँजी के हितों के लिए और भी ज़्यादा खतरनाक होता है। यह विस्फोटों की ओर ले जाता है। इसलिए उदार बुर्जुआ चिन्तक विचारधारात्मक तौर पर ईमानदारी से मज़दूरों के सामूहिक हितों के प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था के तौर पर एक ट्रेड यूनियन को मान्यता देते हैं। लेकिन क्या अम्बेडकर जुझारू व रैडिकल हड़तालों पर भरोसा करते थे? नहीं। एक उदाहरण पर नज़र डालें।
बम्बई की 1929 की प्रसिद्ध टेक्सटाइल मिल की हड़ताल में दलितों को हड़ताल में भागीदारी न करने की सलाह देने भी वह स्वयं नहीं गये थे बल्कि ससून मिल के मालिक फ्रेडरिक स्टोंज के बुलावे पर गये थे। कहने के लिए मसला यह था कि कारखाने में मौजूद जातिगत श्रम विभाजन पर अम्बेडकर की आपत्ति थी। और हड़ताल में कम्युनिस्टों के नेतृत्व वाली यूनियन ये मसला नहीं उठा रही थी। लेकिन फिर सवाल यह उठता है कि अम्बेडकर हड़ताल से पहले या उस वक्त अपनी पहल पर क्यों नहीं गये, ससून मिल के मालिक स्टोंज़ के बुलावे पर हड़ताल से दलित मज़दूरों को अलग होने के लिए कहने क्यों गये? अप्रैल 1929 में भी उन्होंने फिर से चालू हुई हड़ताल को खत्म करवाने के लिए सक्रिय अभियान चलाया। इसका कारण यह नहीं था कि अम्बेडकर बेईमान, दलाल या मज़दूरों के विरुद्ध थे। इसका कारण यह था कि एक जेनुइन व्यवहारवादी के तौर पर उनका स्पष्ट तौर पर मानना था कि समाज वर्गों व वर्गों के अन्तरविरोध से बनता और संचालित नहीं होता। यह असंगत सामाजिक समूहों का समुच्चय होता है जिनमें कोई वास्तविक अन्तरविरोध नहीं होता है, केवल प्रतीतिगत अन्तरविरोध होता है और वह सरकार, यानी कि महान मध्यस्थकर्ता या सर्वाधिक तार्किक अभिकर्ता यानी कि सरकार के हस्तक्षेप से सुलझाया जा सकता है। इसीलिए उन्होंने कहा था कि हड़तालें और कम्युनिज़्म जुड़वां भाई हैं और वे इनका समर्थन कभी नहीं करते।
बेहद संक्षेप में, ये हैं भूमि प्रश्न पर तथा श्रम व पूँजी के रिश्तों पर अम्बेडकर के विचार। क्या जिग्नेश मेवानी इन विचारों से सहमत हैं? यदि हाँ तो उन्हें सार्वजनिक तौर पर इन्हें स्वीकार करना चाहिए। अगर नहीं तो भी उन्हें सार्वजनिक तौर पर इस बात को कहना चाहिए। अगर वे इन विचारों को स्वीकार नहीं करते, तो अम्बेडकरवादी विचारधारा का और क्या बचा रहता है, सिवाय एक ‘एंप्टी स्लोगन’ के? तब तो बात सिर्फ इतनी है कि जाति-अन्त के प्रति जेनुइन सरोकार होने के कारण डॉ. अम्बेडकर का सम्मान किया जाय। लेकिन किसी का सम्मान करना और उसकी विचारधारा को स्वीकार करना, उसके नाम के विचारधारात्मक नारे लगाना दो अलग चीजें हैं। जिग्नेश और ऊना के बाद खड़े हुए आन्दोलन के नेतृत्व को इन प्रश्नों पर अपनी अवस्थिति को साफ करना चाहिए और भ्रामक बयान नहीं देने चाहिए जैसे कि ‘बाबासाहेब ने भूमि और श्रम के प्रश्न पर क्या कहा था यह कोई नहीं बताता।’ तो आप ही बताएँ कि उन्होंने क्या कहा था और आप किन चीजों से सहमत हैं।
इन प्रश्नों पर गोलमोल अवस्थिति होने के कारण ही सम्भवत: मंच की प्रकृति बदलते ही आन्दोलन के नेतृत्व की विचारधारात्मक बातें भी बदल जाती हैं। यह एक प्रकार का व्यवहारवाद और अवसरवाद ही है, जो मानता है कि कोई भी विचारधारात्मक अवस्थिति होनी ही नहीं चाहिए (हालाँकि यह स्वयं एक विचारधारात्मक अवस्थिति है!), सिर्फ रणकौशल व पद्धति होनी चाहिए। किसी भी बड़े मंच से अम्बेडकरवाद और अस्मितावाद की आलोचना से बचकर निकल जाने के प्रयास को साथी जिग्नेश के वक्तव्यों में स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है। ज़्यादा से ज़्यादा, वे उन राजनीतिक धाराओं की आलोचना करते हैं, जो कि अम्बेडकरवादी व्यवहारवाद के विकृत और पतित रूप हैं, जैसे कि बसपा, बामसेफ आदि की राजनीति। लेकिन वहीं गाँवों-कस्बों में सामान्य सभाओं में वे अस्मितावाद और बहुजनवाद पर सही चोट भी करते हैं और जाति-अन्त आन्दोलन को प्रतीकात्मक मुद्दों से आगे ले जाने की बात करते हैं। कभी वे शेहला रशीद, तो कभी पूनावाला, तो कभी कन्हैया कुमार के साथ मंच साझा करते हैं; कभी वे ‘जय भीम’ पर ज़ोर देते नज़र आते हैं, तो कभी लाल सलाम पर। ज़रूरत पड़ने पर वे ‘जय सरदार’ का नारा उठा देने से भी नहीं सकुचाते। ऐसे में, कभी-कभी यह प्रश्न दिमाग में आता है कि इनमें से असली, ऑथेंटिक, जेनुइन जिग्नेश मेवानी कौन है? इसीलिए इस उपशीर्षक में हमने यह पूछा, ‘क्या असली जिग्नेश मेवानी सामने आयेंगे?’
निष्कर्ष
कई अन्य कई मुद्दे हैं जिन पर बात रखी जा सकती है, लेकिन स्थान की सीमा होने के कारण उन मुद्दों पर हम भविष्य में कभी बात रखेंगे। मिसाल के तौर पर, आज के आक्रामक साम्प्रदायिक व ब्राह्मणवादी फासीवाद के दौर में वे आन्दोलन और संगठन ही टिक पायेंगे जिनकी जड़ें जनता के बीच गहरी जमी होंगी, जिनका कुछ इलाकों में जनता के बीच गहरा सामाजिक आधार होगा। ऐसे में, केवल हाई प्रोफाइल मंचों पर ”वामपन्थी” और ”प्रगतिशील” सुपरस्टारों के साथ मिलकर मोदी सरकार पर हमले से वास्तव में कोई फायदा नहीं होगा। लेकिन जनदिशा को लागू करने की कमी और नेतृत्व की मंशा न होने के बावजूद एक व्यक्ति या चन्द व्यक्तियों के इर्द-गिर्द घूमने से आन्दोलन अन्दर से कमज़ोर बना रहेगा और किसी भी गाढ़े और कठिन वक्त में इसके सामने अस्तित्व का संकट पैदा हो जायेगा।
साथ ही, हमारा स्पष्ट तौर पर मानना है कि आज जाति-अन्त के आन्दोलनों और संगठनों को अस्मिता के नाम पर संगठित नहीं किया जाना चाहिए। कारण यह कि अस्मिता का तर्क ही यही होता है कि वह अपनी विपरीत अस्मिता को बढ़ावा देकर ही मज़बूत की जा सकती है। अगर दलित अस्मिता को मज़बूत करके जाति-अन्त की लड़ाई लड़ी जायेगी तो वह जाने या अनजाने अन्य जातिगत अस्मिताओं और विशेष तौर पर अपने ठीक विपरीत जातिगत अस्मिता को भी मजबूत बनायेगी। और इन अस्मिताओं के संघर्ष में नुकसान हमेशा परिधिगत और अल्पसंख्यक अस्मिताओं को होगा। आप मानकर चलें कि यदि ‘दलित शक्ति सम्मेलन’, ‘दलित अस्मिता यात्रा’ आयोजित होंगे तो फिर ‘मराठा शक्ति सम्मेलन’, ‘पटेल शक्ति सम्मेलन’ और ‘जाट स्मृति यात्राएँ’ भी आयोजित होंगी। अस्मिताओं की इस प्रतिस्पर्द्धा में अन्तत: कौन जीतेगा? ज़रा सोचिये। अस्मिताओं की जकड़बन्दी को और तथाकथित दबंग जातियों के वर्गीय शोषण और उनके द्वारा किये जाने वाले सामाजिक उत्पीड़न का जवाब वर्गीय गोलबन्दी के ज़रिये ही दिया जा सकता है क्योंकि यह उनकी जातिगत गोलबन्दी को तोड़ सकती है, कमज़ोर कर सकती है और इस रूप में जाति-अन्त के आन्दोलन को आगे बढ़ा सकती है, कारण यह कि इन जातियों का बहुसंख्यक भी आज मज़दूरों, अर्द्धमज़दूरों व निम्न मध्यवर्गों में शामिल हो रहा है और अपनी ही जाति के कुलीन वर्ग के शोषण का शिकार हो रहा है। इसलिए संगठन या आन्दोलन के नाम में ”दलित” शब्द की बजाय ”जाति उन्मूलन” या ”जाति-अन्त” जोड़ना बेहद ज़रूरी है और इसके लिए एक पल भी इंतज़ार करना नुकसानदेह साबित होगा। इन बिन्दुओं पर हम अभी स्थान की कमी के कारण विस्तार से बात नहीं रख पा रहे हैं। लेकिन अन्य कई प्रश्न हैं जिनका समाधान इस शानदार और सम्भावना-सम्पन्न आन्दोलन को करना होगा।
अन्त में हम एक बार यह भी स्पष्ट करना चाहेंगे कि हमारी इस कॉमरेडाना आलोचना का मकसद है इस आन्दोलन के सक्षम और युवा नेतृत्व के समक्ष कुछ ज़रूरी सवालों को उठाना जिनका जवाब भविष्य में इसे देना होगा। आज समूचा जाति-उन्मूलन आन्दोलन और साथ ही हम जैसे क्रान्तिकारी संगठन व व्यक्ति जिग्नेश मेवानी की अगुवाई में चल रहे इस आन्दोलन को उम्मीद, अधीरता और अकुलाहट के साथ देख रहे हैं। किसी भी किस्म का विचारधारात्मक समझौता, वैचारिक स्पष्टवादिता की कमी और विचारधारा और विज्ञान की कीमत पर रणकौशल और कूटनीति करने की हमेशा भारी कीमत चुकानी पड़ती है, चाहे इसका नतीजा तत्काल सामने न आये, तो भी।
हम इन कॉमरेडाना आलोचना में बेहद विनम्रता के साथ अपनी कुछ बातें जिग्नेश और आन्दोलन के अन्य साथियों से इसलिए साझा करना चाहते थे क्योंकि आज पूरे देश में क्रान्तिकारी जाति-अन्त आन्दोलन और क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन दोनों ही बड़ी आशा, उत्सुकता और अधीरता के साथ ऊना के बाद पैदा हुए आन्दोलन की ओर देख रहे हैं। विचारधारात्मक तौर पर कोई भी समझौता, वैचारिक अवसरवाद व व्यवहारवाद और विचारधारा व विज्ञान की कीमत पर की जाने वाली कूटनीति, ‘डिप्लोमैसी’ व रणकौशल हमेशा भयंकर नुकसान पहुँचाते हैं। सबसे खतरनाक बात यह है कि ऐसे नुकसान के बारे में तत्काल कुछ भी पता नहीं चलता और जब तक पता चलता है तब तक विच्युति पहले विचलन और फिर प्रस्थान में तब्दील हो चुकी होती है। इसलिए आज ही एक स्पष्ट और सही विचारधारात्मक दिशा के लिए अध्ययन और व्यवहार दोनों ही करना होगा और अवसरवाद, अस्मितावाद और व्यवहारवाद के खतरनाक प्रभाव से बचना होगा। हमें उम्मीद है कि हमारे विनम्र प्रेक्षणों और आलोचनात्मक विवेचन को साथीगण समझेंगे और भविष्य में मिलकर हम जातिविहीन और वर्गविहीन समाज के निर्माण के क्रान्तिकारी आन्दोलन के इन प्रश्नों को हल कर सकेंगे।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जनवरी-फरवरी 2018
'आह्वान' की सदस्यता लें!
आर्थिक सहयोग भी करें!