अक्टूबर क्रान्ति शतवार्षिकी समिति द्वारा सोवियत समाजवाद और स्त्रियाँ – एक समकालीन पुनरावलोकन विषय पर पटना में व्याख्यान का आयोजन

अक्टूबर क्रान्ति शतवार्षिकी समिति द्वारा 6 मई को पटना के आयी.एम.ए हॉल में सोवियत समाजवाद और स्त्रियाँ:एक समकालीन पुनरावलोकन पर व्याख्यान का आयोजन कराया गया। इस कार्यक्रम में प्रसिद्ध लेखिका, कवयित्री एवं राजनीतिक कार्यकर्ता कात्यायनी मुख्य वक्ता के तौर पर मौजूद थीं। अपनी बात की शुरुआत करते हुए उन्होंने कहा कि अक्टूबर क्रान्ति पूरी दुनिया के ज्ञात इतिहास में युग प्रवर्तक घटनाओं में से एक थी. अक्टूबर क्रान्ति को सम्पन्न और उसके बाद सोवियत सत्ता द्वारा किये जा रहे प्रयोगों को सफल करने के प्रयासों में  वहाँ की स्त्रियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी । इतिहास में सोवियत सत्ता ने पहली बार, स्त्रियों को बराबरी का अधिकार दिया, इसे न केवल क़ानूनी धरातल पर बल्कि आर्थिक राजनीतिक व सामाजिक धरातल पर सम्भव बनाया। ज्ञात इतिहास में पहली बार स्त्रियों को चूल्हे चौखट की गुलामी से मुक्त किया गया। विवाह, तलाक व सहजीवन जैसे मामलों में राज्य, समाज और धर्म के हस्तक्षेप को ख़त्म किया गया। भारी पैमाने पर स्त्रियों की उत्पादन और समस्त आर्थिक-राजनीतिक कार्यवाहियों ने बराबरी की भागीदारी को सम्भव बनाया। तमाम बुर्जुआ नारीवादी, उत्तर आधुनिकतावादी, अस्मितावादी चिन्तक, वर्ग-अपचयनवादी सूत्रीकरण पर भी विस्तार में बात की गयी।

आगे नारीवादी आन्दोलन की ऐतिहासिक रूप से व्याख्या करते हुए उन्होंने बताया कि ऐसे कई आन्दोलनों मे मताधिकार, शिक्षा और रोजगार का अधिकार आदि माँगें ही प्रमुख रही। इसपर चर्चा करते हुए कात्यायनी ने आगे बताया कि ये बुर्जुआ नारीवादी आन्दोलन सिर्फ पढ़ी लिखी अभिजात व कुलीन वर्ग से आने वाली महिलाओं तक ही सीमित थे। ये आन्दोलन स्त्रियों की पराधीनता का कारण, वर्ग समाज पर आधारित सामाजिक व्यस्था में न देखकर स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में देखती थी। जिसके कारण ये आन्दोलन आगे चलकर अराजकतावादी  उच्छृंखल आन्दोलन बन कर रह गये ।

आगे उन्होंने बताया कि मार्क्स व एंगेल्स ने ही पहली बार उत्पादन और उत्पादन सम्बन्धों की तर्कसंगत व्याख्या की और बताया कि परिवार कोई जैविक सम्बन्धों का अपरिवर्तनशील शाश्वत सम्मुचय नहीं है बल्कि यह निरंतर ऐतिहासिक रूप से परिवर्तनशील सामजिक संबंध है और स्त्री की गुलामी का केन्द्र है। यह परिवार ही है जो सत्ता की आज्ञाकारिता का प्रशिक्षण केन्द्र होता है। परम्पराओं और रूढ़ियों की घुट्टी पिलाकर यह स्त्रियों को वैचारिक तौर पर अक्षम बना देता है। पूँजीवाद अपने आगमन के बाद स्त्रियों को एक हद तक शिक्षा और रोजगार के अवसर देता है, परन्तु पूँजीवाद को हमेशा बेरोजगारों की फ़ौज की आवश्यकता होती है। इसलिये सचेतन तौर पर पूँजीवाद परिवार संस्था और स्त्रियों की दोहरी गुलामी को बनाए रखता है।

इसके बाद उन्होंने रूस में हुए आन्दोलनों व उनमे महिलाओं की भागीदारी के सम्बन्ध में बताया। कई रूसी स्त्रियाँ बोल्शेविक पार्टी से जुड़ी और नेतृत्वकारी भूमिकाएँ भी निभायी इनमें क्रूप्स्काया, कोलन्ताई व स्माइल्नोवा प्रमुख थी। 1917 में घटित रूसी क्रान्ति में महिलाएँ जिस पैमाने पर भाग लेती है वह अविश्वसनीय प्रतीत होता है। क्रान्ति के दौरान महिलाएँ अग्रिम कतारों में शामिल होकर इसे अंजाम देती हैं। क्रान्ति के ठीक एक महीने बाद विवाह, सहजीवन व अलगाव पर से राज्य व धर्म का हस्तक्षेप ख़त्म कर दिया जाता है। वेश्यावृति को अपराध की श्रेणी से हटा दिया जाता है। क्योंकि बोल्शेविक यह मानते थे कि ऐसे अपराधों को महज़ कानून बनाकर ख़त्म नहीं किया जा सकता है। इसके लिये वह भौतिक–आर्थिक आधार तैयार करना होगा होगा, उसके बाद ही इन अपराधों को खत्म किया जा सकता है। उनकी इन नीतियों का ही परिणाम था कि 1930 तक रूस से वेश्यावृति का खात्मा हो गया। मजदूर स्त्रियों के जीवन में भी काफी बदलाव आये, उस वक़्त फैक्ट्रियों में काम करने वाली  ऐसी औरतें जिनके शिशु हुआ करते थे,उन्हें अपने शिशुओं को स्तनपान कराने के लिये हर 3 घण्टे के बाद ½ घण्टे के लिये सवैतनिक छुट्टी दी जाती थी। मासिक धर्म के समय उन्हें भारी कामों को करने से छुट्टी दी जाती थी। तमाम कठिनाईयों जैसे गृहयुद्ध व साम्राज्यवादी युद्ध आदि के बावजूद स्त्री-मुक्ति की दिशा में ये सारे सुधार कार्य किये जाते रहे। स्त्रियों को चूल्हे चौखट की गुलामी से आज़ादी दिलाने के लिये घरेलू कामों का समाजीकरण कर दिया गया। बड़े–बड़े शिशु घर, भोजनालय, लौंड्री खोली गयी ताकि घरेलू कामों से स्त्रियाँ मुक्त हो सके ।

बेहद कठिन परिस्थिति में सम्पन्न अक्टूबर क्रान्ति के पहले प्रयोग ने मात्र चार दशकों में स्त्री मुक्ति की यात्रा में जो ऊँचाइयाँ तय की वह आगे भी एक आलोकित शिखर के समान चमकता रहेगा और आने वाली क्रान्तियों को भी दिशा दिखाता रहेगा. अक्टूबर क्रान्ति की शिक्षा हमें बताती है कि पूँजीवादी आर्थिक संरचना को नष्ट किये बिना और समाजवादी समाज की स्थापना के बिना स्त्रियों की वास्तविक मुक्ति हासिल नहीं की जा सकती. इसके लिये स्त्री मुक्ति आन्दोलन को सामाजिक मुक्ति से जोड़ना होगा और सामाजिक आन्दोलन के एजेंडे पर स्त्री प्रश्न को प्रमुखता से स्थान देना होगा. व्याख्यान के बाद प्रश्नोत्तर सत्र भी हुआ , जिसमेंं सभागार में उपस्थित श्रोताओं ने स्त्री मुक्ति के मुद्दे से संबंधित प्रश्न पूछे।

इस व्याख्यान में पटना के कईं लेखक, कवि, बुद्धिजीवी व छात्र उपस्थित रहे । जिनमें प्रो.अरुण कमल, प्रो. तरुण कुमार, पार्थ सरकार, सतीश, अरविन्द सिन्हा, अजय कुमार सिन्हा, निवेदिता शकील, मीरा दत्त, प्रीती सिन्हा, जीतेन्द्र राठौर, शेखर, पुष्पेन्द्र, नंदकिशोर आदि प्रमुख रहे।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जुलाई-अगस्‍त 2017

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