फासीवादी दमन: तय करो तुम किस ओर हो!

सम्‍पादक मण्‍डल

देश में फासीवाद की लहर उठान पर है। “गौ रक्षा”, “राष्ट्रीय सुरक्षा”, “हिन्दू संस्कृति” का गौरव वे सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे बन गये हैं जिनके आगे आजकल देश की हर समस्या छोटी प्रतीत होती है। भ्रष्टाचार, जीडीपी, रूपये की कीमत जैसे मुद्दे जिसे संघ परिवार और बुर्जुआ पार्टियाँ अक्सर इस्तेमाल करती हैं आज फैशन में नहीं दिखते हैं। कथित बूम वाले आयी टी सेक्टर में भी भयंकर छँटनी वैश्विक अर्थव्यवस्था के नये संकट की घण्टी जोर-जोर से बजा रही है। महँगाई, बेरोज़गारी, भुखमरी, कुपोषण, किसानों की आत्महत्याओं जैसे मुद्दे नैरेटिव से बाहर हैं। सहारनपुर में दलित परिवारों के घर जला दिये जाते हैं और महिलाओं के अंग काट लिये जाते हैं। अलवर में एक मुस्लिम पशुपालक की गाय ले जाने पर पीट-पीट कर हत्या कर दी जाती है। बल्लभगढ़ के मुस्लिम नौजवानों को भीड़ देशद्रोही और पाकिस्तान प्रेमी होने का आरोप लगाकर पीटती है और चाकू भोंककर एक नौजवान की हत्या कर दी जाती है। अलवर, गुजरात, झारखण्ड, जम्मू-कश्मीर में गोरक्षकों के हाथों मौतें हुईं पर वे महत्वपूर्ण ख़बरें नहीं बन सकीं। सहारनपुर में हो रहा दलित अत्याचार, मारुति के मजदूरों को बिना सबूतों के जेल और गौ रक्षकों की पलटनों का आतंक फासीवादी दौर के खतरनाक स्तर तक पहुँचने की सूचक घटनाएँ हैं। देश में फासीवादी ताकतों के मकड़-पैर लगातार नया जाल बना रहे हैं जिसमेंं यह देश फँसता जा रहा है। पूँजीवाद की नाकामियों और अमीरों की ऐय्याशी के कारण पैदा हुई गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी के लिये छद्म शत्रु की रचना कर निशाना बनाया जाता है। संघ ने छद्म शत्रु मुसलमानों, कश्मीरियों और मोदी विरोधियों को बनाया है। संविधान के जरिये फासीवाद को हराने का सपना देखने वालों को सुप्रीम कोर्ट में आधार कार्ड पर चली बहस ज़रूर सुननी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट में आधार कार्ड को पैन कार्ड से जोड़ने के मुक़दमे की बहस के दौरान सरकार का प्रतिनिधित्व करते हुए अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने सरकार के द्वारा आम जन के शरीर पर सरकार का दावा पेश किया जिसे हम फासीवाद की कानूनी परिभाषा के रूप में समझ सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की दलील स्वीकार भी कर ली है। नागरिकों के लिये सरकार को अपना शरीर कुर्बान करने के लिये तैयार रहना चाहिए। लोगों के सामने सरकार की हाँ में हाँ मिलाना बाध्यताकारी है अन्यथा फासीवादी सरकार आपके जीवन के अधिकार को भी छीन सकती है। फासीवाद ने यह ताकत महज कानूनी बदलावों के जरिये नहीं बल्कि सड़क पर मौजूद अपने संगठनों के जरिये तथा लम्बे समय में सत्ता में अपने लोगों की सुनियोजित घुसपैठ कराकर हासिल की है। 1925 से  अभी तक के लम्बे दौर में संघ ने राज्यसत्ता के तमाम संस्तरों में जड़े (टेंटेकल्स) जमाकर और जनता के अलग-अलग स्तरों में अपनी खन्दकें खोदकर सत्ता हासिल की है। संविधान के जरिये फासीवाद से निपटने का मुगालता पालना मूर्खता है। फासीवाद जनवादी गणतंत्र के भीतर पूँजीवादी संकट के असमाधेयता के कारण ही पैदा होता है। बुर्जुआ राज्यतंत्र की संस्थाएँ इसके विरुद्ध नहीं होती हैं। यह बात हाल में सम्पन्न हुए चुनावों से भी स्पष्ट हुई है। चुनाव के रास्ते न तो फासीवाद परास्त होने वाला है और न ही समाजवाद आयेगा। दिल्ली में नगर निगम चुनाव में भाजपा की जीत ने यह दिखाया है कि फिलहाल मोदी लहर उठान पर है जिसने आम आदमी पार्टी के मध्य वर्गीय आधार को एक हद तक वापस जीता है। ईमानदारी के जुमले की जगह देशभक्ति का जुमला ज़्यादा वोट पक्के कर रहा है। वैसे आम आदमी पार्टी के भीतर चल रही आपसी कलह में भ्रष्टाचार और बेईमानी की गलाजत खुलकर सामने आयी है। आम आदमी पार्टी के बीच चली उठा पटक इस पार्टी के मज़दूर वर्ग, मालिक और निम्न मध्य वर्ग की बेमेल माँगों को एक साथ बैठाने के प्रयास के बिखरने का मुख्य नतीजा है। केजरीवाल ने हर वर्ग की अन्तर्विरोधी माँग को पूरा करने वाला जो बेमेल ढाँचा बनाया था उसे गिरना ही था और वह गिर रहा है। निश्चित ही अभी भी एक बड़ी आबादी ईमानदारी की इस राजनीति के पीछे रहेगी परन्तु इसका आधार सिकुड़ा है जिसका सीधा फायदा भाजपा को हुआ है। यह आम आदमी पार्टी के मुख्य आधार निम्न मध्य वर्ग की चारित्रिक विशेषता है। फासीवादी उभार निम्न मध्य वर्गीय आबादी के आन्दोलन से खड़ा होता है और देश भर में बह रही इस आन्दोलन की बयार ने दिल्ली की मध्यवर्गीय आबादी को भी भाजपा के खेमे में धकेला है। आने वाले चुनावों में भी चुनाव के जरिये फासीवाद को हराने वालों को भर मुँह माटी खाने की सम्भावना लगती है। इसका कारण हमें आर्थिक सम्बन्धों के तानेबाने में मौजूद आर्थिक  मन्दी  में ही मिलेगा जिसके कारण सत्ताधारी पूँजीपति वर्ग ने फासीवादी ताकतों को शासन की बागड़ोर दी है। भाजपा सरकार ने जीएसटी बिल लागूकर, वित्तीय विधेयक 139 पास कर व श्रम कानून पर हमले कर बड़ी पूँजी का भरोसा जीता भी है परन्तु मन्दी के दौर में भाजपा सरकार की नग्न नीतियाँ भी अम्बानी, थापर बिड़ला की हवस को पूरा नहीं कर पा रही हैं और यही कारण है कि फासीवादी दमन चक्र और बढ़ेगा। न सिर्फ भारत में बल्कि दुनिया भर में इन दक्षिणपन्थी  फासीवादी ताकतों का उभार इस आर्थिक मन्दी के कारण ही है। क्रान्तिकारी विकल्प की अनुपस्थिति नें इस परिघटना को और विस्तारित किया है।

अन्तरराष्ट्रीय परिस्थिति

दुनिया के कोने-कोने में प्रतिक्रियावाद का उभार हो रहा है। यह अर्थव्यवस्था के संरचनागत संकट का ही नतीजा है जिसमेंं वैश्विक पूँजीवादी अर्थव्यवस्था सन 1970 से ही फँसी हुई है। इस संरचनागत संकट ने ही फासीवाद के आधार के लिये उपजाऊ ज़मीन तैयार की है। भारत में इसे संघ ने लम्बे ज़मीनी प्रयोगों के बाद पहली बार बाबरी ध्वंस के जरिये प्रस्फुटित किया और चुनावों में जीत हासिल की। कई लहरों में आगे बढ़ते हुए दंगों को रचकर, नर मुण्डों की माला पहने फासीवादी नेता नरेंद्र मोदी ने आखिरकार “भगवा क्रान्ति” को सफल कर सत्ता काबिज की है। वहीं यूरोप की जनवादी ज़मीन में इस्लाम का भूत पैदा कर राजनीतिक बँटवारा कर पाने में दक्षिणपन्थी सफल रहे हैं। पूर्वी यूरोप में तो लम्बे समय से आर्थिक मन्दी की भयंकर चपेट ने कई दक्षिणपन्थी सरकारों को जन्म दिया है और अब यह लहर इंग्लैंड, जर्मनी और फ़्रांस तक पहुँच चुकी है।

अमरीका में डोनाल्ड ट्रम्प ने अफगानिस्तान और सीरिया में बम गिराकर अपने उग्र साम्राज्यवादी एजेण्डेे को लागू किया है। देश के भीतर अश्वेत और प्रवासी विरोध नये स्तरों को छू रहा है। क्लू क्लक्स क्लेन की मशाल रैली निकलना धुरदक्षिणपन्थी ट्रम्प सरकार में फल फूल रहे फासीवादी अभियान का परिचायक है। अमरीकी राज्य व्यवस्था के निकाय रूस के साथ चुनाव में गड़बड़ी का अन्देशा जताकर ट्रम्प के अनिश्चित व्यवहार को काबू करने का दबाव बना रहे हैंै। ट्रम्प राज्यसत्ता के विकराल तंत्र की गति के अनुसार फैसले लेने को मजबूर है जिसे ट्रम्प बिगडैल और ऐंठ में रूठे बच्चे की तरह लागू कर रहा है। पर साथ में कुछ-कुछ नाराज़गी दिखा रहा है जैसे ऍफ़. बी. आयी. के अध्यक्ष को बर्खास्त करना। फ़्रांस में भले ही नेशनल फ्रण्ट की मरीन ले पेन चुनाव में हार गयीं हो परन्तु यह भी सच है कि इस चुनाव में पूरा नैरेटिव ही दक्षिणपन्थी था और चुनाव में एजेण्डा राष्ट्रीय सुरक्षा और प्रवासियों पर केन्द्रित रहा है। मरीन ले पेन ने अपने नग्न नात्सी समर्थक बाप को 2015 में अपनी पार्टी से निकालकर ऊपरी तौर पर खुद को एक संवैधानिक पार्टी के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया है और अपने को नग्न फासीवादी प्रचार से दूर रखने का प्रयास किया है। ज्ञात हो कि नेशनल फ्रण्ट की स्थापना फ्रांस के नाज़ी समर्थकों, अल्जीरिया में दमन करने वाले सेना के अफसरों सरीखे लोगों ने मिलकर की थी जो समय-समय पर यहूदियों के ख़िलाफ़ ज़हर उगलते रहे हैं परन्तु राजनीतिक धारा में कभी जोर नहीं मार पाए थे। आर्थिक मन्दी ने इनके प्रचार को भी प्रभावी बनाया और मरीन ले पेन के नेतृत्व में इस पार्टी ने अपने को एक आधुनिक पार्टी के रूप में संगठित किया जो खुद को फासीवाद से अलग करके पेश करती है। यह वही रिडेम्पटिव एक्टिविटी है जिसे दुनिया भर के फासीवादियों ने लागू किया है। फ़्रांस में मैकरोन की जीत पर उदारतावादी बुर्जुआ वर्ग से लेकर भारत के संसदीय वामपन्थी और बुद्धिजीवियों की एक जमात खुश है परन्तु यह ख़ुशी क्षणभंगुर साबित होगी क्योंकि आने वाले दौर में क्रान्तिकारी ताकतों के अभाव में आर्थिक संकट गहराने पर दक्षिणपन्थी ताकतें और मजबूत होंगी। यही आज पूरी दुनिया में हो रहा है। पूँजी और श्रम के अन्तर्विरोध में पूँजी की ताकतें बर्बर शासकों को चुन रही हैं जो श्रम के शिविर के हर प्रतिरोध को कुचलकर पूँजी का संकट मिटाए। ये ताकतें दुनिया को बर्बरता की तरफ धकेलती जा रही हैं। बांग्लादेश,मॉरिसस और पाकिस्तान में नास्तिकों को सरेआम मारना या राज्य द्वारा उन्हें सजा देना उस कट्टरता की ओर इशारा कर रहा है जिसे शासक वर्ग जनता में बोने में कामयाब रहा है। दुनिया भर में फासीवादी ताकतों का उभार जहाँ भारत के फासीवादी उभार से समानता रखता है तो कई मायने में यह अलग भी है। भारत के अन्दर इस संकट ने सामन्ती और  प्राक-पूँजीवादी मूल्यों के अवशेषों के चलते भयंकर स्तिथि पैदा की है।

भारत में फासीवाद पर फिर लौटते हुए

भारत में फासीवाद आज अन्य देशों के मुकाबले ज्यादा मजबूत है। उसके आगे देश में बुर्जुआ संसद में विपक्ष बेहद कमजोर नज़र आ रहा है। जिसके चलते आये दिन देश के सामाजिक जनवादी तमाम चुनावी गठबन्धनों और जातिगत गोलबन्दी के नये समीकरणों को सुझाते हैं परन्तु कहीं न कहीं इनकी इस पेशकश में बुनियादी विश्लेषण गायब रहता है। दरअसल फासीवाद ने आज चुनावी मोर्चे पर जीत ज़मीनी कार्यवाइयों के जरिये हासिल की है। आज फासीवाद को महज कोर्ट कचहरी और संसदीय जनवाद के जरिये परास्त नहीं किया जा सकता है। भारत में इस फासीवादी आन्दोलन ने इन बुर्जुआ उपक्रमों के अनुरूप अपने को ढाला है और आज का फासीवाद संसदीय और कानूनी ठप्पा लेकर काम कर रहा है। गुजरात के बाद उत्तर प्रदेश दंगों की नयी प्रयोग भूमि बन गया है जहाँ राजकीय ढाँचे को उलट-पलट कर बन्द और ब्रेक की नीति पर इसे फासीवादी एजेण्डे के अनुरूप ढलने को बोला जा रहा है। सड़कों पर भगवा गुण्डों का आतंक, गौ रक्षा, राजपूत सेना या एण्टी रोमियो दल के रूप में खुले आम क़त्ल, मारपीट और आगजनी कर सकती है। मीडिया आज योगी के सफलता के गुर, मोदी का हनुमान और 16 घण्टे काम करने वाले नेता के रूप में पेश करने में जुटी हुई है। वहीं योगी अब सामान्यतया कोई भी साम्प्रदायिक बयान देने से बच  रहा है और मोदी की रणनीति को लागू करते हुए “तिलक” और “टोपी” दोनों के विकास की बात कर रहा है। इस विकास का फल पिछले तीन साल के मोदी सरकार के कार्यकाल में हम देख चुके हैं।

कश्मीर से लेकर केरल  तक अपने विस्तार की योजना तथा किसी भी अन्य राजनीतिक हस्तक्षेप को ध्वस्त करने की रणनीति पर चल रहे इन फासीवादियों के मनसूबे साफ़ हैं। कश्मीर की जनता के संघर्ष को डण्डे और बन्दूकों से खून में डुबो दिया गया है। कश्मीर की जनता ने जिस बहादुरी से इनका सामना किया है इससे फासीवादी थोड़ा चकित हैं। कश्मीरी अवाम द्वारा चुनावों का बहिष्कार और स्कूली बच्चों, लड़कियों महिलाओं का सड़क पर उतर आना इस संघर्ष को एक नये मुकाम पर पहुँचा रहा है। खुद सेना के कई अफ़सरों का भी कहना है कि पहले मुखबिरी के जरिये उन्हें जो ख़बरें इलाके से मिल जाती थीं वे अब बिल्कुल शून्य हो गयी हैं। भाजपा ने सेना के द्वारा घर-घर घुसकर जाँच को लागू कर 1990 की ज़ालिम प्रथा को चालू किया है। जितना दमन बढ़ेगा उतना ही कश्मीरियों का शौर्य और लड़ने का जज्बा मानवीय साहस की नई परिभाषा रचता जाएगा। परन्तु यह भी सच है कि जब तक कश्मीरी जनता का प्रतिनिधित्व कोई क्रान्तिकारी ताकत नहीं करती है तब तक यह संघर्ष जीता नहीं जा सकता है। पर यह आतंक और गहराएगा। बस्तर और कुपवाड़ा से लेकर शोपियाँ में खूनी बन्दूकेें और दादरी, अलवर, झारखण्ड में हुआ गौ रक्षकों का आतंक अपने आप नहीं समाप्त होने वाला है। चुनावी गठबन्धन से उम्मीद करना हास्यास्पद लगता है और अगर चुनावों में भाजपा हार भी जाए तो यह फासीवाद की हार नहीं होगी। फासीवादी आज राज्य मशीनरी के तंत्र से लेकर हमारे गली मोहल्लों में अपनी खन्दकें खोद कर बैठें हैं जिनका प्रचार आर्थिक संकट के दौर में प्रभावी बन जाता है। हमें पहले इनसे इन गली मोहल्लों को जीतना होगा और प्रतिरोध की ज़मीनी कार्यवाहियों को अंजाम देना होगा। आने वाले दौर में फासीवादियों की नीतियों के ख़िलाफ़ जनता का रोष फूटेगा। हमें जनता को इस दौर में गोलबन्द करना चाहिए और मजदूरों और छात्रों युवाओं के आन्दोलन को एक दिशा में बाँधते हुए फासीवादी दमन की चुनौती को स्वीकारना होगा। निश्चित ही दमन के इस दौर में क्रान्तिकारी प्रचार की अपनी चुनौतियाँ है परन्तु दूसरी ओर इस दमन ने जनता को सड़कों पर धकेल दिया है और अगर हम उनके बीच होंगें तो निश्चित ही एक व्यापक फासीवादी विरोधी आन्दोलन इस फासीवादी अँधेरे को चीर देगा। आर्थिक संकट का दौर जहाँ फासीवादियों को मौका देता है वहीं यह क्रान्तिकारी परिस्तिथि भी तैयार करता है।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जुलाई-अगस्‍त 2017

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