जुमले बनाम रोज़गार और विकास की स्थिति

मुकेश त्यागी

2014 में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार सत्ता में आयी थी तो जनता को और खासकर नौजवानों को बड़े-बड़े सपने दिखाये गये थे तथा लम्बे-चौड़े वायदे किये गये थे – देश का चहुँमुखी विकास होगा, आर्थिक तरक्की की रफ्तार तेज़ होगी, दो करोड़ नौजवानों को रोज़गार मिलेगा। अभी 31 मई को भी सरकार ने यही बताने की कोशिश की; जब सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर के बढ़ने की घोषणा द्वारा बताया गया कि मार्च 2016 में खत्म हुई तिमाही में जीडीपी 7.9% की दर से बढ़ी और पूरे 2015-16 के वित्तीय वर्ष में 7.6% की दर से। टीवी और अख़बारों द्वारा जबर्दस्त प्रचार छेड़ दिया गया कि इस सरकार के निर्णायक और साहसी आर्थिक सुधारों की वजह से अर्थव्यवस्था संकट से बाहर आ गयी है; भारत दुनिया की सबसे तेज़ी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था बन गया है और अब तेज़ी से विकास हो रहा है जिससे जनसाधारण के जीवन में भारी समृद्धि आने वाली है। आइये हम इन दावों और तथ्यों को थोड़ा गहराई से जाँचते हैं ताकि इसकी असलियत सामने आ सके।

अगर जीडीपी की वृद्धि की तस्वीर को ध्यान से देखें तो सरकार के जीडीपी में 7.9% वृद्धि के दावे पर ही सवाल उठ जाता है – कुल 2,21,744 करोड़ रुपये की वृद्धि में सबसे बड़ा आइटम है ‘गड़बड़ी’ या ‘विसंगतियाँ’ (‘डिस्क्रीपेंसिज’) – सारी वृद्धि का 51% यही है; इसे निकाल दीजिये तो यह वृद्धि सिर्फ़ 3.9% ही रह जाती है। इन ‘गड़बड़ियों’ की कोई व्याख्या नहीं दी गयी है। फ़िर इसको क्या समझा जाये? जीडीपी में वृद्धि के इस दावे पर कैसे भरोसा किया जाये? खुद ‘इकॉनोमिक टाइम्स’ को भी 3 जून के अपने एक लेख ‘7.6%, भारत सबसे तेज़ वृद्धि वाली अर्थव्यवस्था या सर्वश्रेष्ठ आँकड़ों की हेराफेरी’ में कहना पड़ा कि ‘’7.6% वृद्धि- वस्त्र विहीन सम्राट की खुशी के लिये आँकड़ों की बावली हेराफेरी है’।

एक और पक्ष को देखें तो इस वृद्धि का दूसरा बड़ा हिस्सा है निजी उपभोग में 1,27,000 करोड़ का इजाफ़ा! लेकिन अगर निजी उपभोग इतनी तेज़ी से बढ़ा है तो यह उपभोग लायक वस्तुएँ आयी कहाँ से क्योंकि सरकार द्वारा ही प्रस्तुत दूसरे आँकड़े बताते हैं कि इस दौर में औद्योगिक उत्पादन सिर्फ़ 0.1% बढ़ा है! दुनिया के किसी देश में आजतक ऐसा किसी अर्थशास्त्री ने नहीं पाया कि बगैर औद्योगिक उत्पादन बढ़े ही जीडीपी इतनी तेज़ी से बढ़ जाये। इसी बात को एक दूसरे तरह से समझते हैं– जीडीपी के आँकड़े यह भी बताते हैं कि स्थाई पूँजीगत निर्माण अर्थात अर्थव्यवस्था में पूँजी निवेश 17 हजार करोड़ घट गया है। सवाल उठना लाजिमी है कि अगर अर्थव्यवस्था में इतना सुधार और तेज़ी है तो सरकार व निजी पूँजीपति दोनों नया पूँजी निवेश क्यों नहीं कर रहे हैं? क्या इसलिये कि उन्हें खुद इस प्रचार की सच्चाई पर भरोसा नहीं? ‘इकॉनोमिक टाइम्स’ इसका मजाक उड़ाते हुए कहता है कि ‘निजी उपभोग में आकाश छूने वाली 1,27,000 करोड़ की वृद्धि हुई दिखायी गयी है। हम ऐसे किसी व्यक्ति को नहीं जानते जिसका उपभोग हाल के दिनों में इतना बढ़ा हो। हो सकता है टीसीए अनन्त (भारत के सांख्यिकी प्रधान) या उसके बॉस जेटली या उसके बॉस के बॉस नरेन्द्र मोदी के ऐसे कुछ दोस्त हों जिनका उपभोग इतना बढ़ा हो।’ ऐसे भी देखा जाये तो जब देश में एक तरफ भारी सूखे की स्थिति है, देश के निर्यात लगातार 15 महीनों से गिर रहे हैं, नौजवानों को नये रोज़गार नहीं मिल रहे हैं, जिनके पास रोज़गार है उनका वेतन महँगाई के मुकाबले नहीं बढ़ रहा है, सभी को मालूम है कि किसानों की आर्थिक दशा बेहद संकट में है, सरकार खुद संसद में बता रही है कि खेतिहर श्रमिकों की मज़दूरी पिछले दो वर्षों से गिर रही है (द मिण्ट , 11 मई), तब ऐसी स्थिति में देश का ऐसा कौन सा तबका है जिसका उपभोग इतनी तेज़ी से बढ़ा है कि उसकी वजह से जीडीपी में इतना भारी उछाल आया है! इन सवालों के उठने पर खुद प्रधान आँकड़ेबाज टीसीए अनन्त को स्वीकार करना पड़ा है कि इन आँकड़ों की ‘गुणवत्ता’ में बहुत कमियाँ हैं।

फ़िर सरकार एक और हैरतअंगेज तर्क लेकर आयी कि कृषि में वृद्धि 2.3% है – क्या देश के बड़े हिस्से में दो साल से चल रहे भयंकर सूखे की स्थिति में कोई इस बात का भरोसा करेगा क्योंकि कृषि में ऐसी वृद्धि सिर्फ़ अच्छे मानसून के सालों में ही देखी गयी है। लेकिन कुछ दूसरे तथ्यों के आधार पर इस बात को जाँचते हैं। सरकार कहती है कि गेहूँ का उत्पादन बढ़कर 86 लाख टन हुआ है लेकिन मण्डियों में अब तक पिछले वर्ष के 29 लाख टन के मुकाबले 25 लाख टन गेहूँ ही आया है तो फ़िर बढ़ा हुआ उत्पादन कहाँ गया! कोई कहे कि भारत के किसान 1 साल में इतने अमीर हो गये कि अच्छी कीमत के इन्तज़ार में फसल को दबाये बैठे हैं तो उन्हें शायद दिमागी डॉक्टर की ज़रूरत है। कृषि में इस 2.3% वृद्धि को आज की स्थिति में सभी कृषि विशेषज्ञ अविश्वसनीय मान रहे हैं।

एक और तरह से भी स्थिति को समझ सकते हैं – बैंक क्रेडिट (कर्ज) में वृद्धि पिछले वर्ष 8 – 9% रही है जिसका भी बड़ा हिस्सा ‘पर्सनल/हाउसिंग/क्रेडिट कार्ड’ कर्ज का है, औद्योगिक नहीं- अप्रैल में तो औद्योगिक कर्ज में वृद्धि शून्य है! मतलब खुद भारतीय कारोबारी नया निवेश नहीं कर रहे- उन्हें सरकारी योजनाओं के ऐलान से मतलब नहीं क्योंकि अर्थव्यवस्था की ज़मीनी हालत पर उन्हें भरोसा नहीं है!

इसीलिये जीडीपी में स्थाई पूँजी निर्माण 17 हजार करोड़ घट गया है अर्थात नये पूँजी निवेश से पूँजीह्रास (‘डिप्रीसीएशन’) ज़्यादा है। असल में कोई भी पूँजीपति सरकार के नारों के असर में या किसी झोंक में आकर उद्योग नहीं लगाता। उद्योग लगाने का मकसद होता है अधिक से अधिक मुनाफा। अगर मुनाफे का भरोसा न हो तो किसी योजना/नारे की घोषणा से कुछ नहीं होता। इसीलिये प्रधानमंत्री मोदी की मेक इन इण्डिया, स्टार्टअप, स्टैण्ड अप, आदि सब योजनाएँ तो गयीं पानी में!

फ़िर अगर अर्थव्यवस्था की तस्वीर इतनी ही चमकदार है तो उद्योगों द्वारा बैंकों से लिये गये कर्ज इतनी तेज़ी और भयंकर मात्रा में क्यों डूब रहे हैं? ऐसे संकटग्रस्त कर्ज की रकम 8 लाख करोड़ पर पहुँच चुकी है और ‘मॉर्गन-स्टैनले’ आदि विश्लेषक संस्थाओं के अनुसार 10 लाख करोड़ तक जाने की आशंका है। अगर देश तरक्की कर रहा है, सबसे तेज़ अर्थव्यवस्था है, जनता के उपभोग में भारी वृद्धि हो रही है, बाजार में माँग बढ़ रही है, व्यवसाय तरक्की कर रहा है तो कॉर्पोरेट जगत लिये गये कर्ज को दबाकर क्यों बैठा है? यह बात सच है कि इसका एक हिस्सा तो पिछले व वर्तमान शासकों के संरक्षण में विजय मल्या या ‘विनसम डायमण्ड’ के जतिन मेहता जैसों के द्वारा की गयी सीधी धोखाधड़ी है जिनको स्वयं सरकारी एजेंसियों के संरक्षण में देश से भाग जाने का मौका दिया गया लेकिन यही पूरी सच्चाई नहीं। खुद रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन का कहना है कि इन डूबते कर्जों का मुख्य कारण धोखाधड़ी नहीं बल्कि ‘अर्थव्यवस्था में गम्भीर सुस्ती’ है! अब कौन सी बात पर विश्वास किया जाये – सबसे तेज़ बढ़ती अर्थव्यवस्था या गम्भीर सुस्ती की शिकार अर्थव्यवस्था?

खुद वित्तमंत्री अरूण जेटली 27 मई को ‘इकॉनोमिक टाइम्स’ में छपे अपने इंटरव्यू में कहते हैं कि ‘हम माँग की अनुपस्थिति में मन्दी के वातावरण में संघर्ष कर रहे हैं और इसलिये क्षमता का विस्तार नहीं हो रहा है। जब अधिक माँग होती है तब ऐसा (क्षमता विस्तार) होता है और भारी मात्रा में रोज़गार सृजित होते हैं’। आह, कितना भी छिपाओ, सच बाहर आ ही जाता है!

अब हम इस को गौर से देखें कि जीडीपी में जो वृद्धि दिखाई दे भी रही है उसका स्रोत क्या है? वह क्या वास्तव में अर्थव्यवस्था के ढाँचे में किसी सुधार की तरफ इशारा करती है या कुछ और? ध्यान से देखें तो इस वृद्धि में मुख्य कारक हैं -एक तो तेज़ी से बढ़ते अप्रत्यक्ष कर (‘सर्विस टैक्स’, ‘एक्साइज’, ‘वैट’, आदि)– इस सरकार ने सिर्फ पेट्रोलियम पर ही 6 बार टैक्स बढ़ाया है। सर्विस टैक्स भी 2014 के 12.36% से बढ़कर अब क़रीब 15% हो गया है। इन करों के संग्रहण से ‘सबसीडी’ घटाकर होने वाली सरकारी आमदनी भी जीडीपी की वृद्धि के रूप में दर्ज की जाती है। लेकिन इसका अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक असर ही पड़ता है क्योंकि ये टैक्स जनता की वास्तविक आमदनी अर्थात उसकी क्रय शक्ति को कम करते हैं और पहले से ही सिकुड़ती माँग से जूझ रही अर्थव्यवस्था में माँग को और कमज़ोर ही करेंगे।

जीडीपी मे दिखने वाली वृद्धि (निजी उपभोग) का दूसरा कारक है अर्थव्यवस्था में फुलाया जा रहा नया बुलबुला; जिसके ‘अच्छे दिनों’ की उम्मीद के प्रचार की चकाचौंध में मध्यम वर्ग का मोदी-भक्त हिस्सा फँस रहा है क्योंकि वह इसे हकीकत मान बैठा है! और बुलबुला फूटने पर यह तबका बिलबिलायेगा!

असलियत से अच्छी तरह वाकिफ़ पूँजीपति वर्ग तो न कर्ज ले रहा है न ही नया निवेश कर रहा है लेकिन अच्छे दिनों में आमदनी बढ़ने की उम्मीद लिये मध्यम वर्ग ने अभी से कर्ज लेकर खर्च करना शुरू कर दिया है। 2008 के वित्तीय संकट के बाद ‘क्रेडिट कार्ड’ पर लिया जाने वाला कर्ज बहुत घट गया था लेकिन अब फ़िर से ‘क्रेडिट कार्ड’ पर कर्ज 31% की सालाना दर से बढ़ रहा है जबकि ‘इण्डस्ट्री’ के कर्ज में इजाफा जीरो है। मोदी जी के ‘अच्छे दिनों’ की आस में क्रेडिट  कार्ड या पर्सनल लोन लेकर खर्च करने वाला यह मध्यम वर्ग समझ नहीं पा रहा है कि यह कर्जा एक दिन वापस करना होगा – लेकिन रोज़गार विहीन वृद्धि के दौर में यह कर्ज वापस करने का पैसा आयेगा कहाँ से? 2008-09 के वित्तीय संकट के पिछले कड़वे तजुर्बे को अपने लालच में भूल रहे हैं ये!

आइये अब नौजवानों की रोज़गार की उम्मीदों की वास्तविक स्थिति पर नज़र डालते हैं। कुछ दिन पहले ही हमने खबर देखी थी कि कैसे हर वर्ष नये रोज़गार सृजन की दर कम हो रही है और पिछले 8 वर्षों में वर्ष 2015 में अर्थव्यवस्था के आठ सबसे ज़्यादा रोज़गार देने वाले उद्योगों में सबसे कम केवल 1.35 लाख नये रोज़गार ही सृजित हुए। बल्कि अगर सरकारी लेबर ब्यूरो के आँकड़ों को गौर से देखें तो साल की दो तिमाहियों यानी अप्रैल-जून और अक्टूबर-दिसम्बर 2015 में क्रमशः 0.43 व 0.20 लाख रोज़गार कम हो गये!

कुछ लोग इसे सिर्फ़ मोदी नीत बीजेपी सरकार की नीतियों की असफलता बता कर रुक जा रहे हैं लेकिन हम और गौर से देखें तो यह इस या उस नेता, इस या उस पार्टी का सवाल नहीं है, असल में तो इस पूँजीवादी व्यवस्था के नेता-निरपेक्ष, पार्टी-निरपेक्ष मूल आर्थिक नियमों का नतीजा हैं। रिजर्व बैंक के एक अध्ययन पर आधारित यह विश्लेषण काबिल-ए-गौर है कि 1999-2000 में अगर जीडीपी 1% बढ़ती थी तो रोज़गार में भी 0.39% का इजाफा होता था। 2014-15 तक आते-आते स्थिति यह हो गई कि 1% जीडीपी बढ़ने से सिर्फ 0.15% रोज़गार बढ़ता है। मतलब जीडीपी बढ़ने, पूँजीपतियों का मुनाफा बढ़ने से अब लोगों को रोज़गार नहीं मिलता। इसलिए जब कॉर्पोरेट मीडिया अर्थव्यवस्था में तेज़ी-खुशहाली बताये तो भी उससे आम लोगों को खुश होने की कोई वजह नहीं बनती।

रोज़गार की हालत तो यह हो चुकी है कि साधारण विश्वविद्यालय-कॉलेजों से पढ़ने वालों को तो रोज़गार की मन्दी  में अपनी औकात पहले से ही पता थी, लेकिन अब तो आज तक ‘सौभाग्य’ के सातवें आसमान पर बैठे आईआईटी-आईआईएम वालों को भी बेरोज़गारी की आशंका सताने लगी है और इन्हें भी अब धरने-नारे की ज़रूरत महसूस होने लगी है क्योंकि मोदी जी के प्रिय ‘स्टार्टअप’ वाले उन्हें धोखा देने लगे हैं! ‘फ्लिपकार्ट’, ‘एल एण्ड टी इन्फोटेक’ जैसी कम्पनियों ने हज़ारों छात्रों को जो नौकरी के ऑफर दिये थे वे कागज के टुकड़े मात्र रह गये हैं क्योंकि अब उन्हें ‘ज्वाइन’ नहीं कराया जा रहा है!

असल में देखें तो निजी सम्पत्ति और मुनाफे पर आधारित पूरी पूँजीवादी व्यवस्था ही असाध्य बीमारी की शिकार हो चुकी है; निजी मुनाफे-सम्पत्ति के लिये सामाजिक उत्पादन का अधिग्रहण करने वाली यह व्यवस्था आज की स्थिति में उत्पादन का और विस्तार नहीं कर सकती। कुल मिलाकर हम पूँजीवादी व्यवस्था के क्लासिक ‘अति-उत्पादन’ के संकट को देख रहे हैं। इस अति-उत्पादन का अर्थ समाज की आवश्यकता से अधिक उत्पादन नहीं है बल्कि एक तरफ 90% जनता जरूरतें पूरी न होने से तबाह है दूसरी और आवश्यकता होते हुए भी क्रय-शक्ति के अभाव में ज़रूरत का सामान खरीदने में असमर्थ है। इसलिए बाज़ार में माँग नहीं है, उद्योग स्थापित क्षमता से काफ़ी कम (लगभग 70%) पर ही उत्पादन कर रहे हैं। अतः न पूँजीपति निवेश कर रहे हैं और न ही रोज़गार निर्माण हो रहा है। बल्कि पूँजीपति मालिक अपना मुनाफा बढ़ाने के लिये और भी कम मज़दूरों से और भी कम मज़दूरी में ज़्यादा से ज़्यादा काम और उत्पादन कराना चाहते हैं। इसलिये पिछले कुछ समय में देखिये तो आम श्रमिकों के ही नहीं अपने को ‘व्हाइट कॉलर’ मानने वाले अभिजात श्रमिकों के भी काम के घण्टों मे लगातार वृद्धि हो रही है।

इस संकट से निकलने का कोई तरीका न पिछली मनमोहन सरकार के पास था न अबकी मोदी-जेटली की जोड़ी के पास और न ही बहुत से लोगों की उम्मीद ‘आईएमएफ’ वाले रघुराम राजन के पास क्योंकि आखिर इन सबकी नीतियाँ एक ही हैं – पूँजीपति वर्ग की सेवा! और सिर्फ़ ब्याज की दरें घटाने-बढ़ाने से बाजार माँग को नहीं बढ़ाया जा सकता, क्योंकि जिसकी जेब में पैसा है वही ब्याज के बारे में सोच सकता है ना भाई! यहाँ जनता की स्थिति यह है कि ग़रीब मज़दूर-किसानों की कंगाली की हालत तो हम पहले से ही जानते हैं लेकिन थोड़ी बेहतर हालत वाले मध्यम वर्गीय लोग जो अपने जीवन को सुधारने के लक्ष्य से कुछ बचत कर लेते थे; इनकी स्थिति भी अब ऐसी हो गयी है कि बैंकों में जमा होने वाले धन की वृद्धि दर घटकर पिछले 60 सालों में सबसे कम मात्र 9% रह गयी है! अर्थव्यवस्था की इस स्थिति में न नये उद्योग-धन्धे लगने वाले हैं न नये रोज़गार मिलने वाले हैं। यही है ‘अच्छे दिनों’ की हकीकत; बाकी भाषण तो बस भाषण हैं उनका क्या! जुमलों से न तो जनता की ज़िन्दगी कभी बदली है और न ही कभी बदलेगी। l

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मई-जून 2016

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