गुजरात-2002
कात्यायनी
‘मुझे बताओ-
क्या तुम चुप बैठे रह गये थे
मुझे बताओ!
जब उपद्रवी पगलाये हुए थे,
क्यों नहीं तुमने उठाये हथियार
वज्रधातु के बने अपने वे घन
और उन्हें तब पीट-पाटकर
पटरा क्यों नहीं कर डाला था उस फासिस्टी मलबे को?’
कवि येव्तुशेंको ने पूछा था जो सवाल
फासिस्टी उत्पात के समय फ़िनलैण्ड के लुहारों से
वही प्रश्न उभरता है ज़ेहन में
पर उसको ढाँपता हुआ उठता है यह विकट प्रश्न कि हम,
हम मानवात्मा के शिल्पी, हम जन-संस्कृति के सर्जक-सेनानी,
क्या कर रहे हैं इस समय
क्या हम कर रहे हैं आने वाले युद्ध समय की दृढ़निश्चयी तैयारी
क्या हम निर्णायक बन रहे हैं? क्या हम जा रहे हैं अपने लोगों के बीच
या हम वधस्थल के छज्जों पर बसन्तमालती की बेलें चढ़ा रहे हैं
या अपने अध्ययन कक्ष में बैठे हुए अकेले, भविष्य में आस्था का
उद्घोष कर रहे हैं और सुन्दर स्वप्न या कोई जादू रच रहे हैं
क्या हम भविष्य का सन्देश अपने रक्त से लिखने को तैयार हैं
यदि हाँ, तो चलो चलें
पूँजी के जुए तले पिसते करोड़ों मेहनतकशों के पास
ललकारें उन्हें, याद दिलायें उन्हें उनके ऐतिहासिक मिशन की
और उनके पूर्वजों की शौर्यपूर्ण विजय की एक बार फिर,
और पूछें उनसे कि वे उठ क्यों नहीं खड़े होते
साम्राजियों के दरबारी, पूँजी के टुकड़खोर,
धर्म के इन नये ठेकेदारों के तमाम षड्यंत्रों-कुचक्रों के विरुद्ध,
मुक्ति के स्वप्नों को रौंदती तमाम विनाशलीलाओं के विरुद्ध
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मार्च-अप्रैल 2016
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